सोमवार, 16 जुलाई 2018

वसुंधरा राजे के मतलब हर विरोधियों को मात दे

वसुंधरा का तल्ख अंदाज के आगे लोग झुकते हैं 



जयपुर। प्रदेश की सियासी राह पर 1 अगस्त से एक बार फिर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का चुनावी रथ दौड़ेगा। इस रथयात्रा का नाम पहले से जुदा है, लेकिन मकसद बस एक ही है और वो है प्रदेश की सिंहासन पर सत्ता बरकार रखना। साथ ही अपने विरोधियों को धूल चटाकर प्रदेश की राजनीति में अपनी बादशाहत कायम रखना। इस बार चुनाव से पहले पार्टी के भीतर जारी खींचतान की राजनीति ने वसुंधरा को परेशान भले ही किया हो, लेकिन हर हाल में आगे बढ़ने की जिद्द को कोई डिगा नहीं पाया। वसुंधरा की बस यही ताकत उन्हें हर बार राजनीतिक पटल पर खास पहचान भी दिलाती है।


राजस्थान की धरा पर 2002 में वसुंधरा राजे ने आकर भाजपा की कमान अपने हाथ में ली। उस दौर में प्रदेश में भाजपा का मतलब केवल पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत ही हुआ करता था ।  राजनीति के पितामह शेखावत की विरासत को जब वसुंधरा ने संभाला तब किसी को अंदाजा भी नहीं था कि रियासती अंदाज वाली वसुंधरा एक दिन प्रदेश की सियासत को ही बदलकर रख देंगी। वो 'महारानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई, उन तक लोगों की पहुंच सत्ता के दौरान इतनी आसान भले ही नहीं रही । लेकिन,  जनता के बीच  घुलने-मिलने के कौशल ने वसुंधरा को प्रदेश की राजनीति में स्थापित कर दिया।



2003 के बाद अब वे 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का नेतृत्व कर रही हैं। 15 साल के इस सफर में वसुंधरा के राह में चुनौतियां बाहर के साथ ही खुद की पार्टी  के भीतर भी मिलती रही, लेकिन उनकी जीतने की जिद्द के आगे सब नतमस्तक ही होते रहे। राज्य में उन्होंने पहली रथयात्रा वर्ष 2003  ' परिवर्तन यात्रा' के नाम से निकाली। राज्य में महिला नेता को जनता के सभी वर्ग के लोगों ने हाथो हाथ लिया और वसुंधरा राजे अपनी रणनीति के बलबूते भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में ले आईं। इस चुनाव में वसुंधरा 'जैसा देश वैस भेष' की नीति पर  चली। वो जहां भी गई वहीं के रंग में रंग गई। लोगों ने चुनरी ओढ़ाया तो हाथो हाथ वसुंधरा ने भी मान रखने की कसम दे डाली।



भाजपा ने इस चुनाव में 100 से अधिक सीटों के आंकड़े को पार कर 120 सीटें जीती। सत्ता में आने के साथ ही वसुंधरा ने प्रदेश भाजपा के साथ ही सत्ता पर अपनी पकड़ को लगातार मजबूत करती चली गई। वसुंधरा के 'जैसा देश वैस भेष'  के अंदाज ने उन्हे बहुत जल्द लोकप्रिय और मजबूत पकड़ वाली नेता के रुप में स्थापित कर दिया। उनकी पकड़ ना केवल संगठन बल्कि विधायकों पर मजबूत रही है। वसुंधरा के नेतृत्व में 2008 के चुनाव में भाजपा की हार हुई, इसके बाद वसुंधरा ने अधिकतर समय राज्य से बाहर ही बिताया। इसके बाद भी उनकी जगह कोई नहीं ले पाया। 2013 में वसुंधरा ने प्रदेश में 'सुराज संकल्प यात्रा' निकाली, इस यात्रा ने पार्टी को चुनाव में बल दिया।


इस यात्रा के जरिए एक बार फिर वसुंधरा ने चुनरी ओढ़-ओढ़कर हर एक मन में जगह बनाती चली गई। इस यात्रा में भी वसुंधरा पुरानी नीति पर ही चली।  वे हनुमानगढ़-गंगानगर जिलों में सरदारनी वसुंधरा राजे बन गईं तो जाट बाहुल्य बैल्ट में चौधरी बन गई वहीं, राजपूत बेल्ट में गई तो रियासती अंदाज और ठाठ दिखाई दिया। जबकि आदिवासी बेल्ट में वहां के भेष को धारण कर लिया। इस चुनाव में भाजपा प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ वापसी की। बीजेपी को 163 सीटों के प्रचंड़ बहुमत से सत्ता में वापसी करवाई और कांग्रेस को मात्र 21 सीट हासिल हुई। इसके बाद अब एक बार फिर वसुंधरा अपने रथ पर सवार होने जा रही हैं। राजनीतिक जानकारों की मानें तो इस बार राजनीति की राह पर कांटे ज्यादा हैं, लेकिन वसुंधरा के अंदाज को देख लोग हैरान हैं। वे सधी हुई नीति पर आगे बढ़ते हुए चुनाव में जीत का परचम लहराने की जुगत में लग गई हैं।


हर विरोधी को किया पस्त
वसुंधरा राजे ने सामने सिर उठा रहे हर विरोधी को पस्त किया है। अब तक के सफर में कई ऐसे मौके आए हैं, जब वसुंधरा का तल्ख अंदाज के आगे लोग झुकते रहे हैं। वसुंधरा के विकल्प के रुप में पार्टी स्तर पर भी कई कोशिशें हुई, लेकिन वे कभी सफल नहीं हो सकी। 2009 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश में भाजपा को केवल 4 सीटें मिली तो तत्तकालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह से उनकी ठन गई। इसके बाद भी वसुंधरा के तेवर के आगे केंद्र झुका। वहीं, 2013 के चुनाव से पहले गुलाबचंद कटारिया की ओर से यात्रा निकालने की बात पर भी वसुंधरा के तेवर के आगे सभी नतमस्तक हो गए। उन्होंने पार्टी छोड़ने की धमकी देते हुए दिल्ली में अपने समर्थक विधायकों की परैड कराकर अपनी शक्ति का अहसास भी कराया। वहीं, इस बार प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी को लेकर भी वसुंधरा के तीखे तेवर ने केंद्र को अपना निर्णय बदलने को मजबूर कर दिया।


उपचुनाव की हार के बाद अलर्ट
प्रदेश में उपचुनाव के दौरान दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुई करारी हार के बाद एक बार फिर वसुंधरा विरोधी धड़ा एक्टिव हुआ। इसके बाद लम्बी मंत्रणा और राजनीति खींचतान के बाद भी वसुंधरा अपनी जगह खड़ी ही रही। जानकारों का कहना है कि इस चुनाव में हार के बाद फिर प्रदेशाध्यक्ष के विवाद में पार्टी भले ही उलझी रही, लेकिन वसुंधरा की सक्रियता में कमी नहीं आई। वो लगातार प्रदेश में दौरे और बैठकें कर रणनीति बनाने में लगी हुई हैं, जिसके जरिए चुनाव में कांग्रेस के साथ ही विरोधियों को मात दे सकें।

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