बुधवार, 29 अप्रैल 2020

कैंसर से बड़ी बीमारी कोरोना!

भारतीय मूल के अमेरिकी डॉक्टर सिद्धार्थ मुखर्जी ने कैंसर पर किताब लिखी। नाम दिया- द एम्पेरर ऑफ ऑल मैलेडिजः अ बायोग्राफी ऑफ कैंसर। 2010 में लिखी इस किताब के लिए उनको 2011 में पुलित्जर पुरस्कार मिला। यह किताब दुनिया भर में बेहद मशहूर हुई। पर किसी को क्या पता था कि उनकी किताब के दस साल बाद कोविड-19 नाम की एक बीमारी आएगी और लोग कैंसर के मरीजों को पूछना बंद कर देंगे! दुनिया का तो पता नहीं है पर भारत में आज यह स्थिति है कि, जिसे बीमारियों का शहंशाह कहा गया उसके मरीजों को कोई पूछनहीं रहा है। अस्पताल उनको अपने यहां भरती नहीं कर रहे हैं और सरकार इसे नॉन-इमरजेंसी बीमारी मान रही है। अकेले कैंसर नहीं, किडनी फेल होने की वजह से किसी की डायलिसिस होनी है तो सरकार उसे भी नॉन- इमरजेंसी बीमारी मान रही है।
ऐसी बीमारियों और इनके मरीजों के साथ हो रहे बरताव की हकीकत समझने और इसके पीछे की मानसिकता को जानने से पहले कुछ हार्ड फैक्ट्स को जानना जरूरी है। पंजाब के पठानकोट में 12 साल का लखन सिंह और सात साल के कृष्णा की मौत हो गई। शहर के छह बड़े अस्पतालों ने उन्हें अपने यहां भरती करने से इनकार कर दिया क्योंकि उनको कोरोना वायरस का संक्रमण नहीं था, वे दूसरी बीमारी से ग्रस्त थे। राजस्थान के कोटा में अस्थमा के एक मरीज को एंबुलेंस नहीं मिली तो परिवार वाले हाथ गाड़ी पर लेकर मरीज को अस्पताल भागे और रास्ते में ही मरीज ने दम तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश के आगरा में 60 साल की एक महिला और 55 साल के एक कारोबारी की मौत हो गई क्योंकि उन्हें कोरोना संक्रमण के अलावा दूसरी बीमारी थी। मुंबई में डायलिसिस के एक मरीज को सात घंटे तक इंतजार करना पड़ा। तमिलनाडु में सात साल के एक बच्चे की मौत हो गई। दिल्ली-एनसीआर में दिल का दौरा पड़ने के बाद एक मरीज सात घंटे तक अस्पताल में भर्ती होने के इंतजार में तड़पता रहा और अंततः दम तोड़ दिया।
इस बीच एक खबर आई कि दिल के मरीजों का मामला अस्पताल में पहुंचना 50 फीसदी कम हो गया है। तो क्या दिल के मरीजों ने मरना बंद कर दिया है? भारत में हर महीने औसतन छह लाख लोग मरते हैं, जिनमें से एक लाख 60 हजार लोग दिल के मरीज होते हैं। यानी दिल का दौरा पड़ने या ह्दय असफल होने से हर महीने एक लाख 60 हजार लोग मरते हैं और 64 हजार लोग सांस की गंभीर बीमारी से मरते हैं। इसके अलावा पौने चार लाख के करीब लोग दूसरी गंभीर बीमारियों या उम्र से संबंधित रोगों से मरते हैं। इधर एक महीने में कोरोना वायरस से छह-सात सौ लोगों की मौत हुई है और सारा देश थम गया है। सारी बीमारियों का इलाज स्थगित कर दिया गया है। अस्पतालों और प्राइवेट क्लीनिक में ताले लग गए। अपने मरीजों को हर तरह से बचाने की शपथ लेने वाले डॉक्टर घर बैठ गए। जो अस्पताल खुले हैं उनमें इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि चाहे किसी भी बीमारी का मरीज हो उसे पहले कोरोना वायरस के संक्रमण की जांच करानी होगी।
राष्ट्रीय राजधानी से सटे राज्य अपनी सीमाएं सील कर रहे हैं। इसी बीच नोएडा प्राधिकरण ने बड़ी कृपापूर्वक एक आदेश जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि कैंसर और डायलिसिस जैसी नॉन इमरजेंसी बीमारियों वाले मरीज भी दिल्ली-नोएडा के बीच आवाजाही कर सकते हैं। सोचें, कैंसर और डायलिसिस नॉन-इमरजेंसी वाली बीमारियां हैं! इमरजेंसी वाली बीमारी बस कोविड-19 है। यह भी भारत में बिना किसी तैयारी और बिना दूरदृष्टि के एक गंभीर आपदा से मुकाबले की मिसाल है। सरकारों ने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए लॉकडाउन करते हुए इस बात पर विचार ही नहीं किया कि देश में हर दिन लाखों लोगों को इलाज की जरूरत होती है।छोटी बीमारियों से मरीज तो दवा दुकानों से ओवर द काउंटर बिकने वाली दवाओं से काम चला लेंगे या दूसरी साधारण बीमारियों के मरीजों को उनके डॉक्टर ऑनलाइन या व्हाट्सएप के जरिए कंसल्टेंसी मुहैया करा रहे हैं। पर जानलेवा बीमारियों के मामलों में क्या होगा, यह सोचा ही नहीं गया।
अगर योजना बना कर कोरोना से लड़ने की तैयारी होती तो अस्पतालों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया गया होता। कोविड-19 के लिए डेडिकेटेड अस्पतालों के अलावा बाकी अस्पतालों में सामान्य रूप से ओपीडी चलती और सर्जरी भी होती। पर अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ। कोविड-19 का संक्रमण शुरू होने के बाद संभवतः सबसे पहले देश के सबसे प्रीमियर अस्पताल एम्स ने अपनी ओपीडी बंद करने का ऐलान किया। जिस अस्पताल के परिसर में और आसपास की इमारतों और यहां तक की उनके बरामदे तक में मरीज और उनके परिजन इलाज की आस में पड़े रहते हैं, उस अस्पताल ने ऐसी असंवेदनशीलता दिखाई। इसके बाद तो जैसे सबके लिए रास्ता खुल गया। ज्यादातर अस्पतालों की ओपीडी बंद हो गई और जरूरी सर्जरी भी रोक दी गई।
यह किसी भी सरकार के लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी कि अस्पताल सुचारू रूप से चलें और कोरोना वायरस से संक्रमितों के अलावा बाकी दूसरे मरीजों को भी बराबर इलाज की सुविधा मिले। पर इसकी बजाय सरकार इस बहस में उलझी रही कि कारोबारियों को निर्यात शुरू करने की इजाजत दी जाए या नहीं और ई-कॉमर्स कंपनियों को गैर जरूरी चीजों की डिलीवरी की मंजूरी दी जाए या नहीं। सबसे अंत में सरकार को अस्पतालों के बारे में सूझा तो दो चरणों में लागू लॉकडाउन की 40 दिन की अवधि खत्म होने से ठीक पहले यह निर्देश जारी किया गया कि अस्पताल अपनी ओपीडी खोलें और दूसरी बीमारी के मरीजों पर कोरोना की जांच का दबाव न डालें। इसके बावजूद यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि कोविड-19 के अलावा दूसरी बीमारियों के मरीजों को आसानी से इलाज मिल पाएगा।

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