कई अभिनेता, अभिनेत्रियां और यहां तक की राजनीति से जुड़े लोग भी ऋषि कपूर के निधन को एक युग का अंत बता रहे हैं। पर यह सही नहीं है। ऋषि कपूर कोई युगपुरुष नहीं थे। अगर किसी से पूछा जाए कि ऋषि कपूर का युग कौन सा था, तो क्या जवाब होगा? असल में उनका कोई युग नहीं था। वे अनेक महान अभिनेताओं के युग में रहे और उनके युग को थोड़ा-थोड़ा अपना बनाया। उसका हिस्सा बने, वैसे ही जैसे वे अपनी फिल्मों का हिस्सा होते थे।
उनकी ज्यादातर फिल्में पूरी तरह से उनकी अपनी नहीं होती थीं। वे उसका एक हिस्सा होते थे। पूरी फिल्म में उनकी मौजूदगी और जरूरत महसूस होती थी पर जरूरी नहीं था कि वे हर फ्रेम में हों, जैसे कि अनेक सुपरस्टार होते हैं। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो शायद ही कोई फिल्म होगी, जिसकी कहानी पूरी तरह से उनके ईर्द-गिर्द घूमती रही हो। वे फिल्म का केंद्रीय पात्र होते हुए भी उसके केंद्र में नहीं होते थे। कहीं कहानी केंद्र में होती थी, कहीं अभिनेत्री केंद्र में होती थी तो कभी कोई और पात्र या यहां तक की कोई ऑब्जेक्ट भी केंद्र में होता था।
उन्होंने शायद कभी यह जिद नहीं की होगी कि वे इतने बड़े अभिनेता हैं तो कैमरे का फोकस सिर्फ उनके ऊपर हो। असल में यह प्रशिक्षण के उनके पहले पाठ का असर था, जो जीवन भर उनके साथ रहा। बतौर अभिनेता उन्होंने अपने महान पिता राजकपूर की सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ से शुरुआत की थी, जिस फिल्म की कहानी का सूत्र वाक्य था- शो मस्ट गो ऑन! यह ऋषि कपूर के अभिनय प्रशिक्षण का पहला पाठ था। उन्होंने इसकी गांठ बांधी थी। जिस तरह रंगमंच की कठपुतलियां अपना चरित्र निभा कर नेपथ्य में जाती हैं, वैसे वे भी इसी में विश्वास करते थे। वे अपना चरित्र निभाते थे और नेपथ्य में चले जाते थे। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता था कि वे किसके साथ अभिनय कर रहे हैं। वह कैसा अभिनेता है। वे उसके मुकाबले उन्नीस तो नहीं साबित हो जाएंगे। तभी उन्होंने अपने समय के तमाम दिग्गज कलाकारों के साथ काम किया और कभी किसी से आतंकित नहीं हुए। कभी किसी को आतंकित नहीं किया। कभी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं की। वे सहज रूप से अपनी भूमिका निभाते रहे।
उनकी सहजता ही असल में उनकी पूंजी थी। उन्होंने खुद कई बार कहा है कि जो मेथड एक्टर हैं वे उनका भी सम्मान करते हैं पर कभी मेथड एक्टिंग का प्रयास नहीं किया। वे पात्र या चरित्र की त्वचा में घुसने का प्रयास नहीं करते थे। वे बहुत सहज और नैसर्गिक अंदाज में अभिनय करते थे। इस लिहाज से वे बहुत हद तक संजीव कुमार के करीब थे। उन्हें पहली बार द ग्रेट शोमैन राजकपूर ने निर्देशित किया था तभी अपनी पहली फिल्म से वे निर्देशक के हीरो हो गए। निर्देशक जैसा कहे वैसा करते जाने को उन्होंने अपने अभिनय का मंत्र बनाया। और तभी उनकी जमीन कभी नहीं खिसकी। मशहूर फिल्म समालोचक और लेखक जयप्रकाश चौकसे हमेशा उनके लिए धरतीपकड़ अभिनेता का विशेषण इस्तेमाल करते थे। ऋषि कपूर सचमुच धरतीपकड़ अभिनेता थे। जब वे कुश्ती जीतते नहीं थे तब भी चित्त नहीं होते थे। उनकी पीठ में मिट्टी नहीं लगती थी। वे जब से आए तभी छा गए और जब तक चाहे जमे रहे।
उन्होंने ऐसे समय में फिल्मों में एंट्री ली थी, जब राजेश खन्ना का दौर यानी रोमांटिक फिल्मों का दौर खत्म होने वाला था और एंग्री यंग मैन के रूप में अमिताभ बच्चन का उदय हो रहा था। मार-धाड़ की फिल्में ज्यादा बनने लगी थीं और एक्शन हीरो की पूछ बढ़ गई थी। तब भी ऋषि कपूर ऐसी फिल्में करते रहे, जिनसे वे भारतीय घर-परिवार का हिस्सा बन गए। वे आम आदमी के हीरो बन गए। वे अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना जैसे सुपरस्टार अभिनेताओं की बुलंदी के दौर में फिल्म उद्योग में जमे रहे। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे राजकपूर के बेटे थे, बल्कि इसलिए कि फिल्मों में उनकी जगह थी। उनका अपना मुकाम था। उनके लंबे करियर में कई बार ऐसा हुआ, जब उनकी फिल्मों ने डूबती हुई इंडस्ट्री को बचाया। वे दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लौटा लाए। हिंदी फिल्म उद्योग जब भी संकट में रहा, तब ऋषि कपूर ने कोई न कोई हिट फिल्म दी या उस समय चल रहे दौर को बदला।
कहते हैं कि सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। ऋषि कपूर इस कला में माहिर थे। वे परदे पर जो भी करते थे लोग उस पर यकीन करते थे। उन्होंने खुद कई बार कहा है कि उन्हें न डफली बजानी आती है और न गिटार बजाना आता है। पर उन्होंने ‘सरगम’ फिल्म में इस अंदाज में डफली बजाई कि लोग सचमुच उनको डफलीवाला समझने लगे थे। ‘कर्ज’ और ‘दीवाना’ फिल्मों में ऐसे गिटार बजाया कि वास्तविक जीवन में हर जगह उनसे गिटार बजाने की मांग की जाती थी। उन्होंने अपने समय में कुछ बहुत जरूरी फिल्में भी कीं। ढेरों अभिनेता या सुपरस्टार भी ऐसे हुए हैं, जिनके नाम से हिट फिल्में तो बहुत हैं पर ऐसी कोई फिल्म नहीं, जिसे जरूरी कहा जाए। ऋषि कपूर के नाम सुपरहिट फिल्मों के साथ साथ ऐसी फिल्में भी जुड़ी हैं, जो अपने समय में तो जरूरी थी ही आज भी जरूरी हैं। ‘सरगम’, ‘प्रेमरोग’, ‘तवायफ’, ‘दामिनी’, ‘हिना’, ‘मुल्क’ आदि ऐसी ही फिल्में हैं।
उनकी ज्यादातर फिल्में नायिका प्रधान होती थी। हीरोइन फिल्म के केंद्र में होती थी। ‘बॉबी’ से लेकर ‘लैला मजनू’, ‘सरगम’, ‘तवायफ’, ‘प्रेमरोग’, ‘सागर’, ‘चांदनी’, ‘दामिनी’, ‘नगीना’, ‘दीवाना’, ‘बोल राधा बोल’ या ‘एक चादर मैली सी’ की कहानी अभिनेत्रियों के ईर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन हमेशा परदे पर और कैमरे के हर फ्रेम में नहीं होने के बावजूद इन सभी फिल्मों में उनकी मौजूदगी हर समय महसूस की जा सकती है। वे रोमांटिक हीरो थे और प्रेमी का हर रूप उन्होंने निभाया। बॉबी के मासूम प्रेम से लेकर तवायफ से जिम्मेदार और साहसी प्रेमी और प्रेमरोग के एक बड़े सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध प्रेमी से लेकर बलात्कार पीड़ित लड़की को इंसाफ दिलाने के लिए अड़ी पत्नी के पति के रूप में हर भूमिका का निर्वाह उन्होंने एक जैसी सहजता, स्वाभाविकता और बिना किसी के कुंठा के किया। वे अपनी भूमिकाओं से संतुष्ट रहे इसलिए उनमें जान डाल पाए।
जब उन्होंने दूसरी पारी शुरू की तब भी उसी सहजता से चरित्र भूमिकाओं में ढल गए। ‘दो दूनी चार’ के ईमानदार मास्टर से लेकर ‘अग्निपथ’ के कसाई विलेन तक उन्होंने अपनी दूसरी पारी की फिल्मों में अनेक तरह की भूमिकाएं निभाईं और अपने अभिनेय का रेंज उन तमाम लोगों को दिखाया, जो लवर ब्वॉय और प्रतिबद्ध या त्याग करने वाले पति से आगे उनके लिए कोई भूमिका नहीं देख पाते थे। बहरहाल, यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उनके साथ एक युग का अंत हो गया पर उनके साथ कई युगों का कुछ कुछ हिस्सा चला गया। उनकी यादें रहेंगी। जॉर्ज एलियट का कथन है- कोई तब तक नहीं मरता, जब तक हम उसे याद करते रहते हैं। सो, ऋषि कपूर साहब दुनिया आपको याद करती रहेगी और इसलिए आप हमेशा जीवित रहेंगे।

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