बुधवार, 29 अप्रैल 2020

गरीब की रोटी पर सोनिया का सवाल जायज

अचानक टारगेट, गोलपोस्ट कैसे शिफ्ट हो गया? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कैसे निशाने पर आ गईं? क्या इससे लगता नहीं कि सोनिया गांधीएजेंडा बदलवाने में कामयाब हुई है? कोरोना की इस भयानक विपदा में राजनीति और मीडिया ने सारा जोर हिंदू,मुसलमान, पाकिस्तान पर लगा रखा था। लोग बड़े आराम से इनमें उलझे हुए थे।कोरोना टेस्ट व टेस्ट किटों में घोटाले, डाक्टरों और अन्य मेडिकलस्टाफ को पीपीई किट, एन 95 मास्क, अन्य सुरक्षा सुविधाओं की कमी को ले कर बात नहीं उठ रही थी। राशन के हर समान आटा, दाल, चावल, तेल के मनमाने दाम वसूले जाने की खबरे आ रही थीमगर कोई पूछने वाला नहीं था। कोई सवाल नहीं था। सिर्फ और सिर्फनफरत और विभाजित करवाने का नैरेटिव बना हुआ था। 

कैसी अकल्पनीय सी बात है कि देश में लोग कोरोना से लड़ने के बदले आपस में लड़ रहे है! दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं है। लेकिन हमारे यहां इस कदर नफरत फैलाईजा रही है कि इसका असर विदेशों तक होने लगा। खाड़ी के देशों मे जबरदस्तरिएक्शन हुआ। वहां नफऱत फैला रहे लोगों को माफी मांगनी पड़ी। अपने ट्वीटऔर ट्विटर अकाउंट डिलिट करने पड़े। हमारे राजदूत को सफाई देना पड़ी औरखुद प्रधानमंत्री मोदी को भाईचारे की बात करना पड़ी। जो मुस्लिम मुल्कहमारे लिए अमेरिका तक से भिड़ जाते थे वे भारत में फैलाए जा रहेसांप्रदायिक तनाव और अरब मुल्कों की महिलाओं के खिलाफ किए गए भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्य के ट्वीट से इतने नाराज हो गए कि उन्होंने इस नफरती अभियानके लिए सीधे आरएसएस पर हमले करना शुरू कर दिए। मोदी जी के बाद संघ प्रमुखमोहन भागवत को भी तब स्पष्टिकरण देना पड़े। कहा कि किसी समुदाय को दोषीनहीं ठहराया जाना चाहिए।

मुस्लिम देशों ने कश्मीर के मामले में तो हमेशा भारत का साथ दिया ही है। आजादी के बाद 1951 में जब नेहरू ने गोवा को पूतर्गाल से आजाद कराने कीठानी तो अमेरिका के खिलाफ भी उठ खड़े हुए। अमेरिका पूर्तगाल का समर्थन कररहा था। उसने गोवा में नाटो देशों की सेना भेजने की तैयारी शुरू कर दी।मगर मिस्र भारत के समर्थन में आ खड़ा हुआ। और उसने स्वेज नहर बंद कर दी।इसी मार्ग से पुर्तगाल अपनी सेनाओं को नाटो के साथ भारत पहुंचाने कीतैयारी कर रहा था।

इन पुरानी दोस्तियों के अलावा लाखों भारतीय खाड़ी देशों में काम करतेहैं। आर्थिक रूप से भारत के लिए वहां से भेजी जाने वाली विदेशी करेंसीबहुत मायने रखती है। 80 अरब डालर से ज्यादा की विदेशी मुद्रा भारत में आती है।

इन तमाम बातों, बेकग्राउंड, परिस्थितियों में कोरोना और उसकी आर्थिक मार से सर्वाधिकप्रभावित गरीब मजदूर की किसी ने चिंता नहीं की हुई थी। तभी सोनिया गांधी ने इन सारी नकली लड़ाईयों को परे धकेलते हुए पहले उन्हें फ्री राशन देने और फिरहर गरीब के खाते में 7500 रूं जमा करने की मांग करके एजेंडा बदला है। हजारों मजदूर सैंकड़ों किमी पैदल चले जा रहे थे। किसी को उनकीफिक्र नहीं थी। रोज खाने, ,कमाने वाले मजदूर के सामने भूखमरी की स्थितिबनी हुई है। मजदूरों की आत्महत्या, पैदल चलते हुए थक कर गिरने और मरने की भयानक तस्वीरें आने लगीं। लेकिन मीडिया ने इन सब सच्चाइयों से लोगोंका ध्यान हटाने के लिए नफरत और विभाजन की फेकू खबरों को और बढ़ा दिया।

महाराष्ट्र के पालघर हत्याकांड और मंगलवार को बुलंदशहर के मंदिर में दोसाधुओं की निर्मम हत्या जैसे मुद्दों को गोदी मीडिया मानवीय नजरिए से नदेखकर किस राज्य में किसकी सरकार है  उसके एंगल से हल्ला करने बैठने गया। ऐसे मेंसोनिया गांधी ने इनके बदले गरीब मजदूर की समस्या, माइक्रो, स्माल एवं मीडियमउद्योगों (एसएसएमई) को बचाने के लिए उन्हें आर्थिक पैकेज देने की मांगकरके सारा फोकस वास्तविक समस्याओं की तरफ मोड़ा है। ध्यान रहे इन उद्योगों में कोई 11करोड़ कामगार काम करते हैं।

राहुल गांधी कोरोना से लड़ने के लिए ज्यादा टेस्ट पर लगातार जोर दे रहे हैं। औरसोनिया गांधी गरीब को भूखमरी से कैसे बचाएं जैसे मानवीय मुद्दे पर चिंता बनवाने की कोशिश में है। बहस कोबदलने की कोशिश करना बड़ी बात है। लेकिन इसकी कीमत भी कांग्रेस अध्यक्षसोनिया गांधी को हमेशा की तरह चुकाना पड़ रही है। अचानक से सारेमहत्वपूर्ण सवाल भूलकर सोनिया गांधी से पूछने, घेरने की रणनीति पर काम शुरू हो गया है जिनकी पार्टी 6 सालपहले सत्ता से बाहर हो चुकी थी। भक्त मीडिया प्रलाप की स्थिति में आ गया है।

पर ऐसा होना क्या सोनिया गांधी की सफलता नहीं है?  इन्दिराजी भी ऐसे हीएजेन्डा बदलने में महारत रखती थीं। 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद हीलोहियाजी जनसंघ से मिल गए और इंदिरा जी के खिलाफ मुहिम शुरू कर दी। गैर-कांग्रेसवाद का नारा देकर 1967 में कई राज्यों में संविद सरकारें बनाईं। इंदिराजी ने फौरन राजनीतिक डिस्कोर्स बदला। बैंकों का राष्ट्रीयकरण,राजा, रानियों का प्रीविपर्स और प्रिवलेज खत्म करने के अलावा 1971 के चुनाव मेंगरीबी हटाओ का ऐतिहासिक नारा दिया। 1971 इंदिरा जी का हिट साल था। उसीसमय उन्होंने अमेरिका को चुनौती देते हुए बांग्लादेश का निर्माण किया।इन्दिरा गांधी कभी विपक्ष के एजेंडे में नहीं फंसीं। वे गरीब का, किसानका, युवा का अपना एजेंडा चलाती थीं। उन्होने अपने एजेंडे के सामने सांप्रदायिकता, जातिवाद का एजेंडाकभी चलने नहीं दिया।

लेकिन जब से धर्म और जाति की राजनीति शुरू हुई है तब से गरीब का एजेंडा देश से गायब हुआ पड़ा है। सोनिया गांधी जो आज निशाने पर हैं वे इसीलिए हैं कि16 साल पहले भी उन्होंने राजनीतिक डिस्कोर्स बदला था।2004 में प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था। उसके बाद बनी यूपीए सरकार मेंवे महिला बिल से लेकर, किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, खाद्यान सुरक्षा,आरटीआई, शिक्षा का अधिकार जैसे कानून लेकर आईं। ये आसान नहीं था। बाहरवालों के साथ पार्टी के अंदर वालों ने भी इन फैसलों का भारी विरोध किया था। महिलाबिल पर उन्होंने कहा था मुझे मालूम है कि मेरी पार्टी के कुछ लोग ही इसकेविरोध में हैं। मगर मैं पीछे नहीं हटूंगी। सोनिया गांधी के लिए पार्टी की सत्ता के वे दस साल भीआसान नहीं रहे थे। जनता से जुड़े काम कराना खुद की सरकार में भी बहुतमुश्किल था। एक बार वे बोलीं कि ये सोचते हैं कि मैं कहकर भूल जाऊंगी।मंत्री सोनिया गांधी को भूलावा देने की कोशिश करते थे। लेकिन उन्होंनेअपना जन सरोकार रवैया नहीं छोड़ा। अब 6 साल से तो वे सत्ता में भीनहीं हैं। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष भी नहीं रहीं। मगर गरीब समर्थक उनकानजरिया आज भी वैसा ही है। इसी कारण वे आज भी सबसे ज्यादा निशाने पर हैं और पुराने क्लासिकल बेटसमेनों की

तरह वे फील्ड में किसी स्लेजिंग का जवाब देने के बदले इसी में यकीन रखतीहैं कि मेरा बेट (काम) ही जवाब देगा।(

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