बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पांच साल पहले लालू प्रसाद के साथ मिल कर अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति की थी। मंडल आंदोलन के दोनों प्रतीक चेहरे एक साथ थे तो पिछड़े समाज के लोगों को कोई अपना विकल्प चुनने में कोई दिक्कत नहीं आई। राजद और जदयू गठबंधन ने भाजपा के ज्यादा बड़े और ज्यादा इंद्रधनुषी गठबंधन को हरा दिया। पर डेढ़ साल के बाद ही नीतीश ने राजद का साथ छोड़ दिया और वापस भाजपा से नाता जोड़ लिया। पांच साल के बाद अब वे अगड़ा-पिछड़ा के पुराने फार्मूले को नहीं दोहरा सकते हैं तो कोरोना काल में अमीर और गरीब का दांव चल रहे हैं। हालांकि इसकी सफलता बहुत संदिग्ध है।
इसके बावजूद नीतीश इसे आजमा रहे हैं। उन्होंने इसी राजनीति के तहत कोटा में पढ़ने गए बिहार के बच्चों को लाने से मना किया है। उत्तर प्रदेश की सरकार तीन सौ विशेष बसों के जरिए अपने छात्रों को ले जा चुकी है और खबर है कि महाराष्ट्र की सरकार एक हजार बसें भेज रही है अपने बच्चों को लाने के लिए। असम, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश आदि राज्य भी अपने छात्रों को ले जा रहे हैं।
पर नीतीश ने न सिर्फ इससे इनकार किया, बल्कि सार्वजनिक रूप से कहा कि वो सब संपन्न परिवार के बच्चे हैं और वहां उनको कोई दिक्कत नहीं हो रही होगी। अपने इस बयान से उन्होंने यह मैसेज दिया कि वे गरीबों के नए मसीहा हैं, जैसे पहले लालू प्रसाद होते थे। हालांकि मुश्किल यह है कि उनका यह दांव इसलिए नहीं चलेगा क्योंकि वे गरीब प्रवासी मजदूरों को भी बिहार नहीं आने दे रहे हैं। अगर वे मजदूरों को आने देते और कोटा के छात्रों को रोकते तब उनकी राजनीति चलती। पर वे दो नावों पर सवारी कर रहे हैं, जिसका उनको अगले चुनाव में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें