मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए वरदान साबित हो सकता है कोरोना

 दुनिया के लिए संकट लेकर आया कोरोना डरावना तो है, लेकिन आशावादी होकर सोचें तो भारत की लंबे समय से बीमार स्वास्थ्य प्रणाली के लिए वरदान साबित हो सकता है।

शीर्ष से निचले स्तर तक प्रणाली का खोखलापन उजागर

दरअसल कोरोना ने भारत में शीर्ष से लेकर निचले स्तर तक खोखली स्वास्थ्य प्रणाली को बेनकाब कर दिया है। जरूरी दवाओं के बल्क ड्रग लिए चीन पर निर्भरता से लेकर डाक्टरों की कमी और निचले स्तर पर स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना का अभाव सबकुछ अपने विकृत रूप में सामने है।

स्वास्थ्य क्षेत्र देश की प्राथमिकता सूची में तीसरे चौथे पायदान पर

लाख घोषणाओं के बावजूद स्वास्थ्य क्षेत्र देश की प्राथमिकता सूची में तीसरे चौथे नंबर पर ही रहा। व्यक्तिगत प्राथमिकता में तो इसकी जगह और नीचे रही है। पिछले दिनों में सारे संसाधन, मेधा और शक्ति इनसे निपटने में झोंक दी गई है। उम्मीद की जा रही है कि कोरोना से निपटने के लिए हुए समुद्र मंथन से देश में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जीवनदायी अमृत निकलेगा।

भारत के पास पीपीई, एन-95 मास्क, मेडिकल उपकरण तक नहीं थे, जब कोरोना की इंट्री हुई

याद कीजिए कि जब कोरोना ने भारत में अपना पैर पसारना शुरू किया तो सबसे बड़ी समस्या क्या सामने आ रही थी। उस वक्त भारत के पास पीपीई, एन-95 मास्क से लेकर मेडिकल उपकरण तक नहीं था। मास्क तक के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता। वह भी तब जबकि हम भारत को मेडिकल टूरिज्म के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे। सबकुछ दूसरे देशों के सहारे चलता रहा। इन क्षेत्रों में निर्भरता की अभी तक कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई। कोरोना संकट के बीच में सरकार ने सिर्फ बल्क ड्रग के निर्माण के नियमों में ढील देने की नई नीति का ऐलान किया, बल्कि इसपर काम भी शुरू हो गया।

अब भारत को जरूरी दवाओं के लिए दूसरों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा

इसी तरह पीपीई, एन95 मास्क से लेकर सभी तरह के मेडिकल उपकरणों के निर्माण के लिए नई कोशिशें शुरू हो गई हैं। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में भारत इन सभी क्षेत्रों में पूरी तरह आत्मनिर्भर होगा। सैनीटाइजर जैसी चीजें भारत के 90 फीसद जैसे लोगों के लिए अब तक अनजान वस्तु थीं। अब भारत इसमें आत्मनिर्भर हो गया है। वैसे तो भारत जेनरिक दवाओं का दुनिया का सबसे बड़ा निर्माता है, लेकिन इसमें लगने वाले एपीआइ या बल्क ड्रग के लिए चीन पर निर्भर है। अब उसकी भी काट तैयार हो गई है। संभव है कि अब भारत को जरूरी दवाओं के लिए दूसरों का मुंह न ताकना पड़े

देश में मृतप्राय प्राथमिकता चिकित्सा केंद्र

बड़े शहरों तक सीमित मंहगे और अच्छे अस्पतालों के कारण देश की बड़ी आबादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित थी। आयुष्मान भारत के माध्यम से 40 फीसदी आबादी को अत्याधुनिक चिकित्सा मुहैया कराने की कोशिश जरूर की गई, लेकिन यह केवल गंभीर बीमारियों के लिए है। रोजमर्रा की बीमारियों के लिए आम लोगों के लिए इलाज का कोई विकल्प नहीं था। देश में मृतप्राय प्राथमिकता चिकित्सा केंद्रों को वेलनेस सेंटर के रूप में विकसित करने की कोशिश भी शुरू हुई और लगभग 30 हजार सेंटर को बदला भी गया, लेकिन आम लोगों तक पहुंचने में यह अभी तक सफल नहीं हो पाया।

लॉकडाउन के कारण स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी के घरों तक पहुंची

कोरोना और उसके कारण लॉकडाउन ने अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं को आम आदमी के घरों तक पहुंचाने की मजबूरी खड़ी कर दी। जाहिर है इसके उपाय के रूप में टेली-मेडिसीन और दवाइयों की होम डिलेवरी का विकल्प सामने आया। आने वाले समय में टेली-मेडिसीन ग्रामीण और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित इलाकों में लोगों के लिए वरदान साबित हो सकता है। कोरोना के दौरान इन प्रयोगों को सभी पंचायत में टेली-मेडिसिन सेंटर विकसित कर ग्रामीण लोगों के बेहतर डाक्टरी सलाह उपलब्ध कराने में किया जा सकता है।

देश में स्वास्थ्य आधारभूत संरचना का अभाव

देश में स्वास्थ्य आधारभूत संरचना के अभाव का मुख्य कारण सरकार की प्राथमिकता में इसका पीछे रहना भी रहा। आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े के मुताबिक भारत ने 2019 में अपने कुल जीडीपी का महज 1.5 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च किया था। 2020-21 में इसे 1.6 फीसदी करने और 2025 तक 2.5 फीसदी तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। विकसित देशों को रहने भी दें तो यह विकासशील देशों की तुलना में बहुत कम है। जर्मनी अपने जीडीपी का 9.5 फीसदी, जापान 9.2 फीसदी और अमेरिका 14.3 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यहां तक कि चीन अपने जीडीपी का 2.9 फीसदी और ब्राजील 3.9 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। चूंकि कोरोना ने स्वास्थ्य को सरकार की प्राथमिकता में ला दिया है, इसीलिए माना जा रहा है कि आने वाले समय में भारत अपने जीडीपी का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना शुरू करेगा।

देश में डाक्टरों की संख्या में भारी कमी 

स्वास्थ्य सेवाओं के आम लोगों की पहुंच से दूर होने का एक प्रमुख कारण देश में डाक्टरों की संख्या में भारी कमी भी रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंड के मुताबिक देश में प्रति एक हजार की आबादी पर एक डाक्टर होने चाहिए। लेकिन भारत में 1456 लोगों पर एक डाक्टर है। वैसे सरकार ने पिछले कुछ सालों में एमबीबीएस और पीजी की सीटें बढ़ाकर और 70 जिला अस्पतालों को मेडिकल कालेज में तब्दील कर डाक्टरों की कमी को दूर करने का प्रयास किया है, लेकिन इसमें अभी समय लग सकता है। खुद स्वास्थ्य मंत्रालय का मानना है कि तमाम कोशिशों के बावजूद 2025 के पहले देश में डाक्टरों की कमी को दूर नहीं किया सकेगा।




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