कोरोना वायरस का संकट देर-सवेर टल जाएगा। जो, आधुनिक, विकसित और सभ्य देश हैं उनके यहां चार-छह महीने में संकट खत्म होगा और भारत जैसे विकासशील या पिछड़े देशों में इसे खत्म होने में डेढ़-दो साल भी लग सकते हैं। फिर भी अंततः यह खत्म तो होगा ही। पर सवाल है कि इस संकट से हम क्या सबक सीखेंगे? क्या भारत सरकार कोई सबक लेगी? आमतौर पर हमलोग किसी भी घटना, दुर्घटना से कोई सबक नहीं लेते हैं। तभी घटनाओं का दोहराव होता रहता है। अमेरिका या दूसरे विकसित देश सबक लेते हैं तो वे अपने यहां से उस संकट को हमेशा के लिए खत्म करते हैं।
जैसे अमेरिका में 2001 में बड़ा आतंकी हमला हुआ तो उसके बाद उसने ऐसे बंदोबस्त किए कि उसके यहां फिर वैसा हमला न हो सके। तभी यह माना जा रहा है कि कोरोना वायरस का संक्रमण भी खत्म होने के बाद अमेरिका या यूरोप के देश ऐसे बंदोबस्त करेंगे कि उनके यहां ऐसा संकट फिर न आए और अगर आए भी तो उनके पास उससे निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी हो।
इसके उलट भारत में यह सोच है कि किसी तरह से यह संकट निपटे तो इससे ध्यान भी हटे। यहां ध्यान हटाने, भटकाने पर ज्यादा फोकस किया जाता है। हर संकट को तात्कालिकता में देखा जाता है और उसके बीत जाने के बाद उसे भूल जाया जाता है। फिर भी उम्मीद करनी चाहिए कि कोरोना संकट से केंद्र व राज्यों की सरकारें कुछ सबक लेंगी और ऐसी तैयारी करेंगी कि आगे फिर कोई ऐसा संकट आए तो उससे निपटने की पर्याप्त व्यवस्था हो। जैसे 2004 के अंत में आई सुनामी के बाद मई 2005 में उस समय मनमोहन सिंह सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, एनडीएमए का गठन किया था। इसकी तर्ज पर राज्यों में एसडीएमए का गठन हुआ। उसके बाद कई बार की प्राकृतिक आपदा में एनडीएमए और एसडीएमए ने काफी अच्छा काम किया। हालांकि यह भी समझ में नहीं आनेवाली बात है कि अभी तक कोरोना वायरस के संकट में एनडीएमए और एसडीएमए का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है?
बहरहाल, कोरोना वायरस के मौजूदा संकट से तीन तरह की दिक्कतें सामने आई हैं। एक तो स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी दिखी है। दूसरे आर्थिकी के सामने बड़ा संकट खड़ा हुआ है और तीसरा संघवाद के मौजूदा ढांचे को लेकर कुछ सवाल खड़े हुए हैं। इनके अलावा एक और संकट है, जो फिलहाल तो तात्कालिक दिख रहा है पर अगर इसे ठीक तरीके से नहीं संभाला गया तो यह स्थायी समस्या बन जाएगी। यह तात्कालिक समस्या प्रवासी मजदूरों की है। कोरोना वायरस के इस संकट में प्रवासी मजदूर या यूं कहें कि घरेलू प्रवासन एक बड़े मुद्दे के तौर पर दिखा है। अपना राज्य छोड़ कर दूसरी जगह काम करने गए मजदूर हों या पढ़ाई करने गए छात्र हों, उनका सरोकार इस संकट के समय में बहुत स्पष्ट रूप से सामने आया है। सरकारों को इस बार में विचार करके एक स्पष्ट नीति बनानी होगी।
संघवाद का सवाल भी इसी से जुड़ा है। भारत में, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कहते रहे हैं कि सहकारी संघवाद का मजबूत ढांचा है। पर कोरोना वायरस के संकट के इस समय में वह मजबूत ढांचा बड़ा कमजोर सा दिख रहा है। न तो केंद्र और राज्यों के बीच संपूर्ण सहयोग और सद्भाव दिखा है और न राज्यों के बीच आपस में कोई संपर्क-सहयोग दिख रहा है। सारे राज्य अपने अपने दायरे में इस संकट से निपटते रहे और केंद्र सरकार अलग अपने रास्ते पर चलती रही। प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन का ऐलान किया उससे पहले उन्होंने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस बारे में सलाह मशविरा नहीं किया। कई राज्यों ने भी केंद्र से सलाह किए बगैर अपने यहां लॉकडाउन का ऐलान कर दिया। उनके दिमाग में सिर्फ यह बात थी कि किसी तरह से संक्रमण को रोकना है पर उन्होंने यह नहीं सोचा कि संक्रमण रोकने के लिए केंद्र की मदद की जरूरत है। लॉकडाउन से जो आर्थिकी प्रभावित होगी उसे संभालने के लिए भी केंद्र के सहयोग की जरूरत है। अगर सचमुच संघवाद का ढांचा होता और केंद्र व राज्यों के बीच किसी दूसरे सभ्य देश की तरह तालमेल होता तो कोरोना से लड़ाई साझा होती, सबकी आर्थिक समस्याएं भी साझा होतीं और उनका समाधान भी साझा तौर पर निकलता। सो, पहला सबक तो यह होना चाहिए कि संघवादी ढांचे को ज्यादा सांस्थायिक बनाया जाए और बेहतर संवाद स्थापित किया जाए।
इसी से जुड़ा दूसरा सबक है, जो आर्थिकी का है। सबने संक्रमण रोकने के एक सूत्री लक्ष्य में आर्थिकी की अनदेखी कर दी। किसी ने यह नहीं सोचा कि लॉकडाउन होता है तो उसका अर्थव्यवस्था पर कितना बड़ा असर हो सकता है। अगर यह सोचा गया होता तो लॉकडाउन को भी ज्यादा तर्कसंगत बनाया गया होता। इस बात का भी आकलन किया गया होता कि किस राज्य की क्या स्थिति है और उसे कितनी मदद की जरूरत है। सो, कोरोना वायरस का दूसरा सबक यह हो सकता है कि केंद्र और राज्य की सरकारें अपनी आर्थिकी को आपदा प्रूफ बनाने का कोई मैकेनिज्म विकसित करें। इस पर निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए कि क्या व्यवस्था बने, जिससे कैसे भी संकट के समय आर्थिकी को बचा कर रखा जा सके।
तीसरा और सबसे अनिवार्य सबक निश्चित रूप से स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाने को लेकर है। अभी तक केंद्र व राज्यों को भी यह सबक मिल गया है कि अगर उन्होंने अपने यहां बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित की होतीं तो इतना पैनिक होने की जरूरत ही नहीं होती। जिस तरह से केरल ने अपने अस्पतालों, डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों के दम पर वायरस को न सिर्फ रोक दिया, बल्कि इस पर काबू भी पा लिया। वह एकमात्र राज्य है, जहां इस समय एक्टिव मामलों से ज्यादा संख्या ठीक हो गए मरीजों की है। केरल की तर्ज पर हर राज्य में स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित करने का समय आ गया है।

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