गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

लाजवाब विपक्षी भूमिका में कांग्रेस का गालियां खाना!

कांग्रेस को दस गालियां और दे सकते हैं। उसमें हजार कमियां निकालसकते हैं। मगर कोरोना के इस भयानक संकट काल में गांधी- नेहरू की पार्टी नेउसी तरह राष्ट्रीय जिम्मेदारी निभाकर दिखा दी जैसे आजादी से पहले बंगाल के भीषण अकाल के समय दिखाई थी। अंग्रेज सरकार सुने न सुने कांग्रेसी नेता तबअपनी बात कहते थे। तबी इंग्लेंड के प्रधानमंत्री चर्चिल इतने द्वेष भाव से भरगए थे कि उन्होने पूछा“अकाल में गांधी नहीं मर रहा? “

मानना पड़ेगा कि जब भी देश पर संकट में होता है कांग्रेस अपनी राख में उठखड़ी होती है। अमर पक्षी (फीनिक्स) की तरह। आजादी के आंदोलन की विरासतउसे अचानक जिम्मेदारी के अहसास से भर देती है। कांग्रेस नियमित रूप सेअपने मुख्यमंत्रियों, राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों, वरिष्ठ नेताओं औरराहुल गांधी को प्रेस के सामने लाई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी नेरोज स्थिति को मानिटर करने के लिए एक कन्सलटेटिव ग्रुप बनाया। और गुरुवारको अपनी सर्चोच्च इकाई सीडब्ल्यूसी की मीटिंग कर रही है। और सबसे खास बात कहीं भी कन्फरटेशन की बात नहीं की। केवल सकारात्मक सुझाव दिए और संकट के समय सरकार के साथ, सरकार को सहयोग की बातकी।

राहुल गांधी जो फरवरी से सरकार को चेता रहे थे लेकिन उन्होने अग्रिम चेतावनी  देने का श्रेय लेने से इनकार कर दिया। राहुल ने स्पष्ट कहा कि यह समय विवाद और क्रेडिट का नहीं है,सहयोग का है। यहां तक कि राहुल ने 16 अप्रैल की प्रेस कान्फ्रेंस में जोयह कहा था कि टेस्ट ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए और केवल लॉकडाइन से हमकोरोना से नहीं लड़ सकते.  उसी बात को डब्ल्यूएचओ भी लगातार वबार-बार कहता आ रहा है। कांग्रेस की तरफ से यह नहीं कहा गया कि यही हमने ही कहा था, यहा हमने पहले कहा था

लेकर गोदी मीडिया और भक्त राहुल पर टूट पड़े। राहुल की बात को तोड़मरोड़कर पेश करते हुए डिबेट पर डिबेट हुईं झूठा हल्ला हुआ कि कांग्रेस लॉकडाउन के खिलाफ।जबकि राहुल ने वही कहा था जो विश्व स्वास्थ्य संगठन कह रहा है किल़ॉकडाउन एक पाज बटन है। जो आपको समय देता है। समस्या का निदान ज्यादा से ज्यादा टेस्ट है।

राहुल और कांग्रेस केन्द्र सरकार या किसी के साथ टकराव में नहीं उलझरही है। लेकिन उनका यह सकारात्मक रवैया भक्तों और गोदी मीडिया को ज्यादा द्वेष भाव से भर दे रहा है। चर्चिल तो अंग्रेज थे गांधी से घृणा करते थे।उनके मरने की कामना करने में उसे कोई दुविधा नहीं हुई। लेकिन कोरोना की इस विपदा में सोशल मीडिया पर ट्रोल कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार को जिस तरह कोस रहे हैं वह आश्चर्य और दुःख से ज्यादा शर्मनाक है। प्रियंका गांधी के मरने की प्रार्थना से लेकर राहुल पर निकृष्टतम हमले तो हो ही रहे थे। लेकिन अब एक चैनल के मालिक एंकर ने जिस तरह कांग्रेस अध्यक्षसोनिया गांधी पर उन्मादी भाषा में घृणित हमला किया है उससे लगता है कि कांग्रेस जितना ज्यादा सकारात्मक सहयोग का रवैया अपनाएगी गोदी मिडियावाले उतने ही ज्यादा बौखलाएंगे।

यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या नफरत फैलाने के लिए ही कथित मीडिया स्वतंत्र है? कोरोना के समय में सबको लग रहा था कि देश एक होकरइसका मुकाबला करेगा। अपने मतभेदों को भूला देगा। देश के प्रमुख विपक्षीदल के रूप में कांग्रेस ने यह करके भी दिखाया। लेकिन कहते हैं कि अगर आपज्यादा सज्जन हैं और समय एवं माहौल वैसा नहीं है तो शराफत भी आपके लिए समस्या बन सकती है। कुछ ऐसा ही सोनिया और राहुल के साथ हो रहा है। उनकेपीछे प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल तो है ही खुद कांग्रेस के भीतर के लोग भी

कसर नहीं रख छोड़ रहे है। आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस जो गालियां खा रही है तो इसमें  नेताओं का परोक्षा योगदान भी कम नहीं है। यूपीए दो के समयमें कांग्रेस के  नेताओं की आपसी लड़ाई ने ही कांग्रेस के पतन के गड्डेमें धकेला। सोनिया गांधी के नाम से सारे काम होते थे मगर उसका फायदापार्टी को न मिलकर कुछ नेताओं को होता था।

2014 की हार के बाद जब राहुल गांधी अध्यक्ष बने तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओंने उनके साथ असहयोग करना शुरू कर दिया। राहुल ने जितनी मेहनत के साथ कई विधानसभा चुनाव लड़े और जितवाए वैसी ही मेहनत उन्होंने लोकसभा चुनाव में की। मगर नतीजे विपरीत आते ही राहुल के खिलाफ फिर साजिशें शुरू हो गईं।राहुल समझ गए कि अभी कांग्रेसी सुधरने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने इस्तीफा दे दिया। मगर कांग्रेस कुछ नेताओं के डिक्टेशन पर चलने वाली पार्टी नहीं है। जल्दी ही वह समय फिर आने वाला है कि कांग्रेस के नेताओंको राहुल को वापस लाना पड़ेगा। मगर इस बार देखना यह होगा कि क्या राहुलअपने अंदर कुछ परिवर्तन लाने को तैयार हैं?

अच्छे नेता के लिए लचीला होना होता है। अभी हम देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के इतने मजबूत होने के बावजूद उन पर अहंकारी होने के आरोप लग रहे हैं। राहुल अहंकारी नहीं हैं।सरल हैं मगर जरूरत से ज्यादा और शायद उससे भी ज्यादा समस्या यह है कि वे अपने फैसलों पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं होते। इसका एक बड़ा उदाहरण है। एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में संगठन के चुनाव करवाना। राहुल गांधीको यह समझ में नहीं आ रहा है कि जिन गरीबों और कमजोरों की वे बात करते हैं उनके बच्चे क्या छात्र और युवा संगठन में चुनाव लड़कर अपनी जगह बना सकते हैं? कालेज और यूनिवर्सिटी में पहुंचे स्टूडेंट के नेतृत्व गुण तोउसके कैम्पस में खड़े होने, क्लास में सवाल पूछने और दूसरे साथियों को परिचय देने और लेने में ही सामने आ जाते हैं। जिस तरह स्टूडेंट यूनियन के चुनाव में पैसे की बड़ी भूमिका होती है वैसे ही संगठन के चुनाव में भी।

कांग्रेस को इन्हें फौरन बंद कर देना चाहिए। अभी राजस्थान यूथ कांग्रेस में इसे लेकर भारी विवाद की स्थिति बनी। दूसरे राहुल गांधी को अपनी सज्जनता में थोड़ी कमी लानी चाहिए। इसका मतलब चालबाजी करना नहीं लेकिन व्यवहारिकता को ज्यादा अपनाना चाहिए। जेन्टलमेन गेमटेस्ट क्रिकेट है। ट्वंटी ट्वंटी नहीं। समय काल और परिस्थितियों केअनुकूल भी कभी कभी आचरण करना पड़ता है। लेकिन अपने नैतिक मूल्यों को बचाए रखते हुए। यही राजनीति है। अगर अपनी गरीब समर्थक नीतियां लागू करना हैंतो उसके लिए संगठन पर पूरा नियंत्रण और सही साथियों का चुनाव बहुत जरूरी है।

सार्वजनिक जीवन में उच्च मापदंड स्थापित करना चाहिए मगर वह जीता हुआ नायक ही कर सकता है। जीत के लिए भारत में चौबीस घंटे की राजनीति बहुत जरूरी है। चौबीसों घंटे राजनीति और सबसे बड़ी चीज राजनीतिक पहचान। यही एंकर अर्नब गोस्वामी को राहुल गांधी ने 2014 से पहले इंटरव्यू दे कर उसके भाव बढ़वाए थे वही अब राहुल पर चाहे जो हमले करते है और अब सोनिया गांधी पर भी घटियापन के हद दर्जे वाला वार किया है तो और राहुल, सोनिया गांधी व कांग्रेसी नेताओं को कभी अपने आप से भी पूछ लेना चाहिए कि अर्नब और उस जैसे बहुत सारे लोग कैसे इतने प्रिय होते रहे हैं?  

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