पिछले हफ्ते सरकार ने डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को हमलों से बचाने के लिए एक अध्यादेश जारी कर दिया। इसके जरिए महामारी रोग अधिनियम में संशोधन कर दिया गया है। अध्यादेश के अनुसार अब स्वास्थ्यकर्मियों पर हमला एक संज्ञेय अपराध है। इसमें कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। मगर ये सवाल कायम है कि क्या इससे सचमुच स्वास्थ्यकर्मियों को अपेक्षित सुरक्षा और सामाजिक सम्मान हासिल हो जाएगा?
मोटे तौर पर स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सामाजिक सम्मान का मुद्दा उठाना अजीब-सा लगता है। आखिर आम धारणा यही है कि डॉक्टर समाज के सबसे सम्मानित पेशों में है। मगर ताजा अनुभव यह है कि डॉक्टर भगवान है कि मान्यता सिर्फ तब तक होती है, जब तक वे अस्पताल में होते हैं। वरना, कोरोना जैसी महामारी के समय उनकी अपनी कॉलोनियों और हाउजिंस सोसाइटीज में जैसा व्यवहार हुआ है, उससे ये साफ हो गया है कि डॉक्टरों को भगवान मानने जैसी बातें असल में पाखंड हैं। हमारा समाज बहुत से पूर्वाग्रहों से पीड़ित है और कोरोना जैसे मौकों पर उसके शिकार डॉक्टर भी बन जाते हैं। सवाल है कि इस सोच से डॉक्टरों को कैसे सुरक्षा मिलेगी? इसके लिए जिस सामाजिक शिक्षण की जरूरत है, उसका लगातार लोप हो जाता रहा है।
समाज में वैज्ञानिक सोच पर अंधविश्वास और निराधार मान्यताओं को लगातार प्रतिष्ठित किया जा रहा है। ऐसे में सिर्फ कानून से स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षा देने की बात छलावा साबित हो सकती है। बेशक डॉक्टर भी अपने पेशे को बदनाम करने के लिए दोषी हैं। प्राइवेट स्वास्थ्य व्यवस्था का व्यापारीकरण जिस तेजी से बढ़ा है, उससे इस पेशे की इज्जत घटी है। लेकिन इसका समाधान डॉक्टरों पर हमला नहीं है। बहरहाल, स्वास्थ्यकर्मियों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून लाना पूरे देश में स्वास्थकर्मियों की पुरानी मांग रही है। डॉक्टरों पर हमले भारत में एक बड़ी समस्या है। लगभग एक साल पहले पूरे देश में इस तरह के हमलों के मामले काफी बढ़ गए थे, जिसके बाद देश में डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी थी और आंदोलन भी किया था। डॉक्टरों ने सरकार से उनकी सुरक्षा के लिए विशेष इंतजाम करने की मांग की थी। अब ये मांग पूर हो गई है। मगर बाकी समस्याएं कायम हैं। स्वास्थ्यकर्मी सचमुच सुरक्षित और सम्मानित हों, इसके लिए इस पेशे से जुड़े लोगों को भी आत्ममंथन करना होगा और पूरे समाज को भी।
मोटे तौर पर स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सामाजिक सम्मान का मुद्दा उठाना अजीब-सा लगता है। आखिर आम धारणा यही है कि डॉक्टर समाज के सबसे सम्मानित पेशों में है। मगर ताजा अनुभव यह है कि डॉक्टर भगवान है कि मान्यता सिर्फ तब तक होती है, जब तक वे अस्पताल में होते हैं। वरना, कोरोना जैसी महामारी के समय उनकी अपनी कॉलोनियों और हाउजिंस सोसाइटीज में जैसा व्यवहार हुआ है, उससे ये साफ हो गया है कि डॉक्टरों को भगवान मानने जैसी बातें असल में पाखंड हैं। हमारा समाज बहुत से पूर्वाग्रहों से पीड़ित है और कोरोना जैसे मौकों पर उसके शिकार डॉक्टर भी बन जाते हैं। सवाल है कि इस सोच से डॉक्टरों को कैसे सुरक्षा मिलेगी? इसके लिए जिस सामाजिक शिक्षण की जरूरत है, उसका लगातार लोप हो जाता रहा है।
समाज में वैज्ञानिक सोच पर अंधविश्वास और निराधार मान्यताओं को लगातार प्रतिष्ठित किया जा रहा है। ऐसे में सिर्फ कानून से स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षा देने की बात छलावा साबित हो सकती है। बेशक डॉक्टर भी अपने पेशे को बदनाम करने के लिए दोषी हैं। प्राइवेट स्वास्थ्य व्यवस्था का व्यापारीकरण जिस तेजी से बढ़ा है, उससे इस पेशे की इज्जत घटी है। लेकिन इसका समाधान डॉक्टरों पर हमला नहीं है। बहरहाल, स्वास्थ्यकर्मियों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून लाना पूरे देश में स्वास्थकर्मियों की पुरानी मांग रही है। डॉक्टरों पर हमले भारत में एक बड़ी समस्या है। लगभग एक साल पहले पूरे देश में इस तरह के हमलों के मामले काफी बढ़ गए थे, जिसके बाद देश में डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी थी और आंदोलन भी किया था। डॉक्टरों ने सरकार से उनकी सुरक्षा के लिए विशेष इंतजाम करने की मांग की थी। अब ये मांग पूर हो गई है। मगर बाकी समस्याएं कायम हैं। स्वास्थ्यकर्मी सचमुच सुरक्षित और सम्मानित हों, इसके लिए इस पेशे से जुड़े लोगों को भी आत्ममंथन करना होगा और पूरे समाज को भी।

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