गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

कोरोना से लड़ाई में कंफ्यूजन ही कंफ्यूजन!

कोरोना वायरस का संक्रमण तेजी से फैल रहा है। सरकारी बाबुओं की प्रेस कांफ्रेंस में रोज किए जाने वाले दावों से अलग इस बीमारी की हकीकत कुछ और है। पिछले एक हफ्ते से ज्यादा समय से हर दिन डेढ़ हजार मामले औसतन आ रहे हैं। देश के अलग अलग हिस्सों में नए हॉटस्पॉट बन रहे हैं। नए इपीसेंटर उभर रहे हैं। मुंबई, अहमदाबाद, इंदौर, दिल्ली आदि शहरों की हालत खराब है। दक्षिण भारत में केरल को छोड़ दें तो बाकी चारों राज्यों- कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना में लगातार मामले बढ़ रहे हैं। इसके बावजूद कोरोना की लड़ाई को लेकर बहुत भारी कंफ्यूजन बना हुआ है। किसी मामले में स्पष्ट रूप से कोई बात किसी को नहीं पता है और इसकी नतीजा यह हुआ है कि चारों तरफ अटकलें लगाई जा रही हैं।

सबसे पहले इलाज की बात करते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बहुत उत्साह से बताया कि प्लाज्मा थेरेपी से इलाज सफल हुआ है और सरकार प्लाज्मा बैंक बनाने जा रही है ताकि कोरोना वायरस के गंभीर रोगियों का इलाज किया जा सके। इस बीच तबलीगी जमात के लोगों ने प्लाज्मा डोनेट करने की अपील कर डाली और सोशल मीडिया में यह चर्चा शुरू हो गई कि जमात के जिन लोगों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगा वे कोरोना वॉरियर्स बन रहे हैं। पर ध्यान रहे प्लाज्मा तकनीक से इलाज केरल में भी सफल रहा है और इंदौर में भी इसका परीक्षण चल रहा है। पर इसी बीच केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कह दिया कि इससे इलाज खतरनाक हो सकता है और इसलिए अभी इससे इलाज नहीं करना है। मंत्रालय ने यह भी कहा कि इससे इलाज करना गैरकानूनी है।

सवाल है कि जिस तकनीक से पहले कई तरह के वायरस का इलाज हो चुका है, जिसका इंसान पर प्रयोग सफल हो चुका है, दुनिया के कई और देशों में भी यह प्रयोग सफल हुआ है वह कैसे खतरनाक और गैरकानून है? ध्यान रहे इस तकनीक से दूसरे कई वायरसों से होने वाली बीमारी का इलाज हुआ है। दूसरे अगर यह खतरनाक है तो इंसानों पर इसके परीक्षण की इजाजत कैसे दी गई है?

यह सब स्पष्ट करने की जरूरत किसी ने नहीं समझी और अचानक इसे खतरनाक और गैरकानून बता कर यह संकेत दे दिया गया कि इससे अभी इलाज नहीं होगा और इसलिए तबलीगी जमात या किसी और समूह से लेकर प्लाज्मा बैंक बनाने की जरूरत नहीं है। सो, अब यह कंफ्यूजन बना हुआ है कि इस तकनीक से इलाज होगा या नहीं और होगा तो कब से होगा। 

इसी तरह का कंफ्यूजन टेस्ट किट्स को लेकर है। सरकार ने रैपिड टेस्टिंग किट से कोरोना वायरस की जांच रूकवा दी है और चीन से मंगाई गई किट्स को वापस करने का ऐलान किया है। पर अब भी कई कंपनियों के पास चीन की उन्हीं कंपनियों से किट्स आयात करने का लाइसेंस है, जिनकी किट वापस की जा रही है। यह भी कंफ्यूजन है कि क्या अब आगे किसी विदेशी किट से रैपिड एंटीबॉडी टेस्ट नहीं होगा? स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि मई से भारत में किट बनने लगेगी और उसके बाद भारत अपने ही किट से आरटी-पीसीआर और  रैपिड टेस्ट दोनों करेगी। यह भी कहा गया है कि 31 मई से देश में एक लाख टेस्ट रोज होंगे। तब भी यह सवाल अपनी जगह है कि उससे पहले या उसके बाद में भी किसी विदेशी किट का इस्तेमाल भारत में होगा या नहीं? जिन कंपनियों के पास लाइसेंस है वे आयात करेंगी या नहीं? जो कंफ्यूजन रैपिड टेस्टिंग किट पर है वहीं पीपीई किट्स पर भी है। वैक्सीन को लेकर तो खैर है ही।

इसके बाद सबसे बड़ा कंफ्यूजन लॉकडाउन पर है। 27 अप्रैल को राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की हुई वीडियो कांफ्रेंसिंग के बाद यह कंफ्यूजन और बढ़ गया है। उस बैठक में किसी बात पर सहमति नहीं बनी। तभी अलग अलग किस्म की खबरें आईं। अब किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि किस किस्म का लॉकडाउन अभी लागू है और तीन मई के बाद कैसा लॉकडाउन लागू होगा। सरकार ने 20 अप्रैल के बाद छूट देनी शुरू की है। कई तरह की गैर जरूरी वस्तुओं की दुकानें खोलने की अनुमति दे दी गई है। पर आम लोग उन दुकानों तक कैसे जाएंगे? रास्ते में पुलिस डंडे लेकर खड़ी है। यह क्लासिकल दुविधा है कि दुकानें खुलें पर लोग लॉकडाउन में रहें!

तीन मई के बाद क्या होगा, यह भी किसी को समझ में नहीं आ रहा है। पूरे देश को रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन में बांट दिया गया है। इन तीनों जोन में अलग अलग किस्म से लॉकडाउन लागू होगा। रेड जोन में पूरी तरह से बंदी होगी और ऑरेंज व ग्रीन जोन में छूट दी जाएगी। अगर ऐसा करना है तो इसके लिए ज्यादा समग्रता से नीतियां बनानी होगीं क्योंकि जरूरी नहीं है कि जिसका काम ऑरेंज जोन में है वह उसी जोन में रहता भी हो। यानी लोगों की आवाजाही के बारे में कुछ नियम सुनिश्चित करने होंगे। रेड जोन का आदमी बाकी दूसरे जोन में कैसे जा सकता है यह देखना होगा। जिस तरह से दिल्ली-नोएडा या दिल्ली-गुड़गांव सीमा सील की जा रही है उसमें तो नहीं लग रहा है कि आवाजाही की कोई व्यवस्था बन सकती है। इसी तरह सरकार ने गैर जरूरी सामानों की कुछ दुकानों को खोलने की इजाजत दे दी है पर यह स्पष्ट नहीं है कि उनकी सप्लाई चेन का क्या होगा? क्या गैर जरूरी सामानों के उत्पादन और सप्लाई दोनों की भी इजाजत दी गई है? कुल मिला कर अभी लागू लॉकडाउन और तीन मई के बाद की स्थिति को लेकर बहुत ज्यादा कंफ्यूजन है।

कई युगों का थोड़ा-थोड़ा अंत!

कई अभिनेता, अभिनेत्रियां और यहां तक की राजनीति से जुड़े लोग भी ऋषि कपूर के निधन को एक युग का अंत बता रहे हैं। पर यह सही नहीं है। ऋषि कपूर कोई युगपुरुष नहीं थे। अगर किसी से पूछा जाए कि ऋषि कपूर का युग कौन सा था, तो क्या जवाब होगा? असल में उनका कोई युग नहीं था। वे अनेक महान अभिनेताओं के युग में रहे और उनके युग को थोड़ा-थोड़ा अपना बनाया। उसका हिस्सा बने, वैसे ही जैसे वे अपनी फिल्मों का हिस्सा होते थे। 

उनकी ज्यादातर फिल्में पूरी तरह से उनकी अपनी नहीं होती थीं। वे उसका एक हिस्सा होते थे। पूरी फिल्म में उनकी मौजूदगी और जरूरत महसूस होती थी पर जरूरी नहीं था कि वे हर फ्रेम में हों, जैसे कि अनेक सुपरस्टार होते हैं। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो शायद ही कोई फिल्म होगी, जिसकी कहानी पूरी तरह से उनके ईर्द-गिर्द घूमती रही हो। वे फिल्म का केंद्रीय पात्र होते हुए भी उसके केंद्र में नहीं होते थे। कहीं कहानी केंद्र में होती थी, कहीं अभिनेत्री केंद्र में होती थी तो कभी कोई और पात्र या यहां तक की कोई ऑब्जेक्ट भी केंद्र में होता था।

उन्होंने शायद कभी यह जिद नहीं की होगी कि वे इतने बड़े अभिनेता हैं तो कैमरे का फोकस सिर्फ उनके ऊपर हो। असल में यह प्रशिक्षण के उनके पहले पाठ का असर था, जो जीवन भर उनके साथ रहा। बतौर अभिनेता उन्होंने अपने महान पिता राजकपूर की सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ से शुरुआत की थी, जिस फिल्म की कहानी का सूत्र वाक्य था- शो मस्ट गो ऑन! यह ऋषि कपूर के अभिनय प्रशिक्षण का पहला पाठ था। उन्होंने इसकी गांठ बांधी थी। जिस तरह रंगमंच की कठपुतलियां अपना चरित्र निभा कर नेपथ्य में जाती हैं, वैसे वे भी इसी में विश्वास करते थे। वे अपना चरित्र निभाते थे और नेपथ्य में चले जाते थे। उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता था कि वे किसके साथ अभिनय कर रहे हैं। वह कैसा अभिनेता है। वे उसके मुकाबले उन्नीस तो नहीं साबित हो जाएंगे। तभी उन्होंने अपने समय के तमाम दिग्गज कलाकारों के साथ काम किया और कभी किसी से आतंकित नहीं हुए। कभी किसी को आतंकित नहीं किया। कभी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं की। वे सहज रूप से अपनी भूमिका निभाते रहे।

उनकी सहजता ही असल में उनकी पूंजी थी। उन्होंने खुद कई बार कहा है कि जो मेथड एक्टर हैं वे उनका भी सम्मान करते हैं पर कभी मेथड एक्टिंग का प्रयास नहीं किया। वे पात्र या चरित्र की त्वचा में घुसने का प्रयास नहीं करते थे। वे बहुत सहज और नैसर्गिक अंदाज में अभिनय करते थे। इस लिहाज से वे बहुत हद तक संजीव कुमार के करीब थे। उन्हें पहली बार द ग्रेट शोमैन राजकपूर ने निर्देशित किया था तभी अपनी पहली फिल्म से वे निर्देशक के हीरो हो गए। निर्देशक जैसा कहे वैसा करते जाने को उन्होंने अपने अभिनय का मंत्र बनाया। और तभी उनकी जमीन कभी नहीं खिसकी। मशहूर फिल्म समालोचक और लेखक जयप्रकाश चौकसे हमेशा उनके लिए धरतीपकड़ अभिनेता का विशेषण इस्तेमाल करते थे। ऋषि कपूर सचमुच धरतीपकड़ अभिनेता थे। जब वे कुश्ती जीतते नहीं थे तब भी चित्त नहीं होते थे। उनकी पीठ में मिट्टी नहीं लगती थी। वे जब से आए तभी छा गए और जब तक चाहे जमे रहे।

उन्होंने ऐसे समय में फिल्मों में एंट्री ली थी, जब राजेश खन्ना का दौर यानी रोमांटिक फिल्मों का दौर खत्म होने वाला था और एंग्री यंग मैन के रूप में अमिताभ बच्चन का उदय हो रहा था। मार-धाड़ की फिल्में ज्यादा बनने लगी थीं और एक्शन हीरो की पूछ बढ़ गई थी। तब भी ऋषि कपूर ऐसी फिल्में करते रहे, जिनसे वे भारतीय घर-परिवार का हिस्सा बन गए। वे आम आदमी के हीरो बन गए। वे अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना जैसे सुपरस्टार अभिनेताओं की बुलंदी के दौर में फिल्म उद्योग में जमे रहे। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे राजकपूर के बेटे थे, बल्कि इसलिए कि फिल्मों में उनकी जगह थी। उनका अपना मुकाम था। उनके लंबे करियर में कई बार ऐसा हुआ, जब उनकी फिल्मों ने डूबती हुई इंडस्ट्री को बचाया। वे दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लौटा लाए। हिंदी फिल्म उद्योग जब भी संकट में रहा, तब ऋषि कपूर ने कोई न कोई हिट फिल्म दी या उस समय चल रहे दौर को बदला।

कहते हैं कि सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। ऋषि कपूर इस कला में माहिर थे। वे परदे पर जो भी करते थे लोग उस पर यकीन करते थे। उन्होंने खुद कई बार कहा है कि उन्हें न डफली बजानी आती है और न गिटार बजाना आता है। पर उन्होंने ‘सरगम’ फिल्म में इस अंदाज में डफली बजाई कि लोग सचमुच उनको डफलीवाला समझने लगे थे। ‘कर्ज’ और ‘दीवाना’ फिल्मों में ऐसे गिटार बजाया कि वास्तविक जीवन में हर जगह उनसे गिटार बजाने की मांग की जाती थी। उन्होंने अपने समय में कुछ बहुत जरूरी फिल्में भी कीं। ढेरों अभिनेता या सुपरस्टार भी ऐसे हुए हैं, जिनके नाम से हिट फिल्में तो बहुत हैं पर ऐसी कोई फिल्म नहीं, जिसे जरूरी कहा जाए। ऋषि कपूर के नाम सुपरहिट फिल्मों के साथ साथ ऐसी फिल्में भी जुड़ी हैं, जो अपने समय में तो जरूरी थी ही आज भी जरूरी हैं। ‘सरगम’, ‘प्रेमरोग’, ‘तवायफ’, ‘दामिनी’, ‘हिना’, ‘मुल्क’ आदि ऐसी ही फिल्में हैं।

उनकी ज्यादातर फिल्में नायिका प्रधान होती थी। हीरोइन फिल्म के केंद्र में होती थी। ‘बॉबी’ से  लेकर ‘लैला मजनू’, ‘सरगम’, ‘तवायफ’, ‘प्रेमरोग’, ‘सागर’, ‘चांदनी’, ‘दामिनी’, ‘नगीना’, ‘दीवाना’, ‘बोल राधा बोल’ या ‘एक चादर मैली सी’ की कहानी अभिनेत्रियों के ईर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन हमेशा परदे पर और कैमरे के हर फ्रेम में नहीं होने के बावजूद इन सभी फिल्मों में उनकी मौजूदगी हर समय महसूस की जा सकती है। वे रोमांटिक हीरो थे और प्रेमी का हर रूप उन्होंने निभाया। बॉबी के मासूम प्रेम से लेकर तवायफ से जिम्मेदार और साहसी प्रेमी और प्रेमरोग के एक बड़े सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध प्रेमी से लेकर बलात्कार पीड़ित लड़की को इंसाफ दिलाने के लिए अड़ी पत्नी के पति के रूप में हर भूमिका का निर्वाह उन्होंने एक जैसी सहजता, स्वाभाविकता और बिना किसी के कुंठा के किया। वे अपनी भूमिकाओं से संतुष्ट रहे इसलिए उनमें जान डाल पाए।

जब उन्होंने दूसरी पारी शुरू की तब भी उसी सहजता से चरित्र भूमिकाओं में ढल गए। ‘दो दूनी  चार’ के ईमानदार मास्टर से लेकर ‘अग्निपथ’ के कसाई विलेन तक उन्होंने अपनी दूसरी पारी की फिल्मों में अनेक तरह की भूमिकाएं निभाईं और अपने अभिनेय का रेंज उन तमाम लोगों को दिखाया, जो लवर ब्वॉय और प्रतिबद्ध या त्याग करने वाले पति से आगे उनके लिए कोई भूमिका नहीं देख पाते थे। बहरहाल, यह तो नहीं कहा जा सकता है कि उनके साथ एक युग का अंत हो गया पर उनके साथ कई युगों का कुछ कुछ हिस्सा चला गया। उनकी यादें रहेंगी। जॉर्ज एलियट का कथन है- कोई तब तक नहीं मरता, जब तक हम उसे याद करते रहते हैं। सो, ऋषि कपूर साहब दुनिया आपको याद करती रहेगी और इसलिए आप हमेशा जीवित रहेंगे।

पहले की तरह नहीं होगा लॉकडाउन

लॉकडाउन का तीसरा चरण पांच मई से शुरू होगा पर वह पहले दो चरणों की तरह नहीं होगा। तीसरा चरण कैसा होगा इसे लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। पहले दो चरण का लॉकडाउन इस चिंता में था कि लोगों की जान बचानी है और तीसरा चरण इस चिंता में होगा कि जहान बचाना है। चूंकि देश के सारे जाने माने उद्योगपति और आर्थिकी की समझ रखने वाले जानकार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि लॉकडाउन हटा कर औद्योगिक व कारोबारी गतिविधियां शुरू कराई जाएं, इसलिए सरकार का भी फोकस उसकी तरफ हो गया है। सरकार को यह भी अंदाजा हो गया है कि इतनी जल्दी कोरोना वायरस के खत्म नहीं किया जा सकता है। यह लंबी चलने वाली बीमारी है।

 अगर सारा फोकस इसी पर बना रहा और इसकी वजह से आर्थिकी ठप्प रही, अस्पताल बंद रहे, स्कूल-क़ॉलेज न खुलें तो बड़ी आफत होगी। इसलिए सरकार कोरोना पर पूरी तरह से काबू पाने से पहले ही लॉकडाउन हटाएगी। गुरुवार को रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी से बातचीत में सुझाव दिया कि केस जीरो तक इंतजार करना ठीक नहीं है। ध्यान रहे रघुराम राजन संवेदनशील इंसान हैं और आम लोगों के नजरिए से आर्थिकी को समझने वाले हैं।

इसी तरह इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा है कि इस देश में हर साल नौ लाख लोग सामान्य तौर पर मरते हैं। इसकी तुलना अगर दो महीने में कोरोना वायरस से हुई एक हजार मौतों से करें तो पता चलता है कि यह कुछ भी नहीं है। वे चाहते हैं कि इसकी वजह से बने पैनिक को खत्म किया जाए और रोजमर्रा के जीवन ढर्रे पर लाया जाए। सरकार भी इस नजरिए से सोचते हुए लॉकडाउन से बाहर निकलने के उपाय कर रही है। 


15 अप्रैल से शुरू करके 29 अप्रैल तक सरकार ने एक दर्जन से ज्यादा दिशा-निर्देश जारी किए हैं और लॉकडाउन की कई बंदिशें हटा दी हैं। तभी कहा जा रहा है कि तीन मई को लॉकडाउन खत्म होने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद राष्ट्रीय स्तर पर इसे बढ़ाने की घोषणा न करें। यह काम राज्यों पर छोड़ दिया जाए और अगर राष्ट्रीय स्तर पर घोषणा हो भी तो उसे लॉकडाउन का नाम न दिया जाए। यह कहा जाए कि रेड जोन में कामकाज बंद रहेगा। ऑरेंज और ग्रीन जोन में कुछ पाबंदियों के साथ सारे कामकाज होंगे। ये पाबंदियां भी राज्यों को अपने अपने हिसाब से लगाने की छूट दी जा सकती है। 

स्कूल-कॉलेज, होटल, रेस्तरां, मॉल, सिनेमा हॉल आदि पर कुछ दिन और पाबंदी रह सकती है। सो, चार मई के बाद के लॉकडाउन का स्वरूप अलग होगा और यह बुनियादी रूप से रेड जोन में सिमटा होगा। दूसरी ओर केंद्र सरकार मौजूदा रफ्तार से टेस्टिंग करते हुए लंबे समय में कोरोना को काबू करने की रणनीति के हिसाब से काम करती रहेगी।

शराब से हाथ धोने पर साफ हो जाता है कोरोना वायरस, राजस्थान में दुकानें खोलने की मांग

जयपुर। अपनी साफगोई के लिए मशहूर पूर्व मंत्री और सांगोद से कांग्रेस विधायक भरत सिंह  ने अपनी ही सरकार से मांग की है कि सरकार को लॉकडाउन  के दौरान शराब की दुकानों को खोलने की अनुमति दे देनी चााहिए। उन्होंने कहा कि कोविड-19  का वायरस शराब से हाथ धाने से साफ हो जाता है तो शराब पीने से गले से वायरस साफ हो जाएगा। 

शराब की दुकानें खोलने की मांग को लेकर CM गहलोत को लिखा पत्र

विधायक भरत सिंह ने बकायदा एक पत्र सीएम अशोक गहलोत को भेजा है। भरत सिंह का यह पत्र सोशल मीडिया पर भी वायरल हो रहा है। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान सरकार को हो रहे आर्थिक नुकसान का जिक्र करते हुए कहा है कि शराब बदनाम चीज है इसलिए केंद्र सरकार इसकी बिक्री की छूट राज्य को कभी नहीं देगी। प्रदेश की सरकार भी इसकी बिक्री का निर्णय नहीं लेगी। आर्थिक घाटे से राज्य सरकार की कमर टूट रही है। वहीं शराब नहीं मिलने से इसका अवैध धंधा अच्छा खासा पनप रहा है। प्रदेश के सभी जिलो में लॉकडाउन के समय जहां अपराधो में भारी कमी हुई है वहीं अवैध शराब का धंधा पनप रहा है। इसका धंधा करने वालों के लिए यह स्वरोजगार योजना बन गई है। शराब माफियाओं के लिए यह पैसा कमाने का सुनहरा अवसर भी है।

सरकार को राजस्व की हानि हो रही 

अपने पत्र में विधायक भरत सिंह ने यह भी कहा है कि बाजार में शराब की मांग है और पीने वाले लोग इसका स्वागत कर रहे हैं। सरकार को राजस्व की हानि हो रही है और पीने वाले के स्वास्थ्य को भी खतरा हो रहा है।

एक्साइज ड्यूटी बढ़ाने से तो अच्छा शराब की दुकानों को खोलना

पूर्व मंत्री भरत सिंह ने शराब से हो रही मौत की खबरों का भी अपने पत्र में हवाला दिया है। साथ ही बढ़ाई गई एक्साइज ड्यूटी का जिक्र अपने पत्र में करते हुए राजस्थान को शराब से होने वाली साढ़े 12 हजार करोड़ के लक्ष्य के बारे में भी अवगत कराते हुए कहा है कि लॉकडाउन के चलते यह लक्ष्य पूरा होना मुश्किल है। ऐसे में एक्साइज ड्यूटी बढ़ाने से तो अच्छा होता कि सरकार शराब की दुकानों को खोल दे। इससे शराब पीने वालों को शराब भी मिल जाएगी ओर सरकार को राजस्व भी।

मिर्धा अपहरण कांड के दोषी आतंकी को हाईकोर्ट ने कोरोना विशेष पैरोल देने से किया इनकार

जयपुर । राज्य सरकार ने राजेन्द्र मिर्धा अपहरण कांड के अभियुक्त हरनेक सिंह को कोरोना के तहत 28 दिन के विशेष पैरोल पर रिहा करने से इंकार कर दिया है । हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के इस जवाब को रिकॉर्ड पर लेते हुए हरनेक सिंह की याचिका पर सुनवाई 8 मई तक टाल दी है ।

राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि गत 17 अप्रैल को पैरोल कमेटी की बैठक में हरनेक सिंह सहित तीन अन्य कैदियों की स्वीकृत पैरोल रद्द की गई है । 

हरनेक सिंह की ओर से याचिका में कहा गया है कि वह 25 अप्रैल 2020 तक 13 साल 7 महीने और 29 दिन की सजा काट चुका है । उसे पहला पैरोल 3 अगस्त, 2019 से 22 अगस्त 2019 तक मिला था और उसने समय पर जेल में सरेंडर कर दिया था । कोरोना संक्रमण के कारण सुप्रीम कोर्ट ने जेलों से भीड कम करने के लिए बंदियों को विशेष पैरोल पर रिहा करने के निर्देश दिए हैं । सरकार ने पहले उसे पैरोल देने की सूची में रखा था, लेकिन 17 अप्रैल की बैठक में बिना कोई कारण बताए पैरोल देने से इनकार कर दिया ।


गौरतलब है कि आतंकियों ने 17 फरवरी 1995 को कांग्रेस नेता रामनिवास मिर्धा के बेटे राजेन्द्र मिर्धा का सी स्कीम स्थित उनके घर से अपहरण कर लिया था । आतंकियों ने खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट के मुखिया देवेन्द्र पाल सिंह भुल्लर को रिहा करने की मांग की थी । पुलिस ने मॉडल टाउन कॉलोनी के एक मकान में छापा मारकर मारा था । यहां हुई गोलीबारी में आतंकी नवनीत कादिया की मौत हो गई थी जबकि दयासिंह लाहौरिया उसकी पत्नी सुमन सूद और हरनेक सिंह फरार हो गए थे । 

लाहौरिया और सुमन सूद को 3 फरवरी 1997 को अमेरिका से प्रत्यर्पित करके भारत लाया गया था । कोर्ट ने लाहौरिया को आजीवन कारावास और सुमन सूद को पांच साल की कैद की सजा से दंडित किया था जबकि हरनेक सिंह को 2004 में पंजाब पुलिस ने गिरफतार किया था और 26 फरवरी 2007 को राजस्थान पुलिस को सौंपा था । एडीजे कोर्ट ने 7 अक्टूबर 2017 को हरनेक सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी ।


घर वापसी के लिए 10 लाख प्रवासी श्रमिकों ने करवाया पंजीयन

जयपुर। सीएम अशोक गहलोत ने अधिकारियों को प्रवासियों के सुरक्षित आवागमन और क्वॉरेंटाइन के लिए पुख्ता व्यवस्था करने के निर्देश दिए हैं। सीएम केंद्र से विशेष ट्रेनों के लिए समन्वय कर रहे हैं।

प्रदेश में 10 लाख प्रवासी श्रमिकों ने अपने ग्रह स्थान पहुंचने के लिए पंजीयन करवाया है। इनमें करीब 70% संख्या राजस्थान आने वालों की है। मुख्यमंत्री ने कहा कि विशेष ट्रेनों के संचालन को अनुमति मिलने की संभावना के मद्देनजर जिला कलेक्टर रेलवे के अधिकारियों के साथ रूट प्लान तैयार करें। 

सीएम ने कोरोना के लिए दीर्घकालिक और अल्पकालिक योजना बनाने की भी बात कही। उन्होंने कहा कि आर्थिक गतिविधियों को सुचारू करना जरूरी है। अधिकारी पास की व्यवस्था को सुगम बनाएं। 


उन्होंने कहा कि चिकित्सा मंत्री डॉ. रघु शर्मा ने जानकारी दी है कि कोरोना की प्रतिदिन जांच क्षमता 9100 तक पहुंची है। पाली, बाड़मेर, सीकर में जांच की अनुमति मिलते ही क्षमता 10000 हो जाएगी। 

केंद्र से हुई वार्ता में राजस्थान के लिए विशेष ट्रेनों के संचालन पर सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। अतिरिक्त मुख्य सचिव उद्योग सुबोध अग्रवाल ने जानकारी दी। 20 अप्रैल से अब तक प्रदेश में 7000 से अधिक उद्योगों में शुरू उत्पादन हो गया है। करीब 130,000 श्रमिकों को रोजगार मिल रहा है।  

जयपुर से हटेंगी सभी सेनेटाइजेशन टनल

जयपुर।  चंद सेकण्ड्स में व्यक्ति को सेनेटाइज करने वाली सेनेटाइजेशन टनल शहर भर से हटाई जाएंगी।  इस संबंध में जिला कलेक्टर ने आदेश जारी कर दिए हैं।  जिला कलेक्टर ने सीएमएचओ को पत्र लिखकर सेनेटाइजेशन टनल पर आपत्ति जताई है।  साथ ही यह भी पूछा है कि किसकी अनुमति से टनल शहर में विभिन्न स्थानों पर लगाई गई हैं। 

गौरतलब है कि विधानसभा, पुलिस थाने, औद्योगिक इकाइयां और कॉलोनियों में इस फुल बॉडी सेनेटाइजेशन टनल को लगाया गया है।  अब सवाल यह खड़ा हो रहा है कि बिना प्रमाणिकता के ये टनल कैसे लगा दी गई।  जबकि डब्ल्यूएचओ से लेकर केंद्र सरकार तक सेनेटाइजेशन टनल को लेकर एडवाइजरी जारी कर चुके हैं. जिसमें यह भी बताया गया है कि यह शरीर के लिए हानिकारक भी हो सकता है।  इसलिए इसका उपयोग अस्पतालों और अन्य संस्थाओं में नहीं करने के निर्देश दिए गए हैं। 

इसके पीछे तर्क दिया गया है कि इन टनल या चैम्बरों में सोडियम हाइपोक्लोराइट एल्कोहल का छिड़काव किया जाता है।  यह शरीर के अंगों और कपड़ों का विसंक्रमण सुचारू रूप से नहीं करता।  साथ ही यह हाथ, आंखों में जलन, गले में खराश, स्किन एलर्जी, उल्टी के साथ फेफड़ों में नुकसान पहुंचाता है।  एडवाइजरी के अनुसार इस टनल से लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है।   


इस टनल से निकलने के बाद लोग स्वयं को सेनेटाइज समझ बैठते हैं और सोशल डिस्टेंसिंग एवं हाथ धोने के प्रोटोकाल की अनदेखी करने लगते हैं।  ये लोगों को झूठी सुरक्षा का आश्वासन देने जैसा है।  इसलिए इसका उपयोग अस्पताल एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों पर नहीं किया जाए।  लेकिन, प्रतिबंध के बाद भी इसका उपयोग कर खतरे को आमंत्रण दिया जा रहा है। 

गृह मंत्रालय ने दिए संकेत, 3 मई के बाद भी बढ़ सकता है लॉकडाउन

देश में कोरोनावायरस  से बचाव के चलते 40 दिनों (पहला चरण 21 दिन और दूसरा चरण 19 दिन) का लॉकडाउन  लगाया गया। यह 3 मई तक लागू रहेगा। अब गृह मंत्रालय ने एक के बाद एक कई ट्वीट कर कुछ हद तक यह संकेत दिए हैं कि 3 मई के बाद भी लॉकडाउन जारी रहेगा लेकिन कई जिलों, जहां कोरोना के मामले न के बराबर हैं, में इससे बचाव को देखते हुए ढील दी जाएगी। मंत्रालय ने बीती रात एक प्रेस रिलीज भी जारी की, जिसमें कहा गया है कि 3 मई तक लॉकडाउन का सख्ती से पालन करने की जरूरत है ताकि कोरोना को फैलने से रोका जा सके।

एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि MHA ने लॉकडाउन के बारे में एक व्यापक समीक्षा बैठक आयोजित की। मीटिंग में लॉकडाउन की वजह से कोरोना के मामलों में स्थिति में सुधार और फायदों पर चर्चा की गई। इस दौरान गृह मंत्रालय की ओर से एक के बाद एक ट्वीट कर बताया गया कि नए दिशा-निर्देश 4 मई को जारी किए जाएंगे।


कोरोनावायरस अब तक 185 देशों में फैल चुका है। दुनियाभर में कुल 31,93,874 मामलों की पुष्टि हो चुकी है और 2,27,633 की मौत हो चुकी है। 19,93,634 मरीज़ों का उपचार जारी है और 9,72,607 लोगों को इलाज के बाद छुट्टी दे दी गई है।

भारत में, 33,050 मामलों की पुष्टि हो चुकी है, जिनमें 1,074 मौत शामिल हैं।   भारत में सक्रिय मामलों की संख्या 23,651 है और 8,325 लोगों को इलाज के बाद छुट्टी दे दी गई है। 

एक ट्वीट में लिखा है, 'कोरोनावायरस से लड़ाई में नई गाइडलाइन 4 मई से प्रभावी होगी, जिसमें कई जिलों में महत्वपूर्ण ढील दी जाएगी। इससे जुड़ी जानकारी आने वाले दिनों में साझा की जाएगी।' गृह मंत्रालय की समीक्षा बैठक में इस बात पर चर्चा की गई कि कोरोना के हॉटस्पॉट जिलों में कमी आई है। अब 170 से 129 जिलों में ही कोरोना के मामले हैं। ऑरेंज जोन में आने वाले जिले 207 से 297 हो गए हैं।


बता दें कि पीएम नरेंद्र मोदी  ने 24 मार्च को देश में 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा की थी। उसी दिन इस संबंध में पहली गाइडलाइन जारी की गई. डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत प्रमुख गृह सचिव ने इसे जारी किया था. इसमें कुछ लोगों व सेवाओं को लॉकडाउन से छूट दी गई थी।

3 मई को लॉकडाउन खत्म होने से पहले ही तेलंगाना सरकार ने इसे 7 मई तक और पंजाब सरकार ने अगले दो हफ्तों के लिए बढ़ाने का ऐलान कर दिया है। बीते सोमवार को कई राज्य के मुख्यमंत्रियों ने पीएम मोदी के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बैठक की थी। मीटिंग में कुछ मुख्यमंत्रियों ने देश में कोरोना के बढ़ते मामलों के मद्देनजर लॉकडाउन बढ़ाने की मांग की थी।

बताते चलें कि दुनियाभर के देशों के साथ-साथ भारत में भी कोरोनावायरस का कहर तेजी से बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट्स के अनुसार, 180 से ज्यादा देशों में फैल चुका यह वायरस अब तक दो लाख से ज्यादा जानें ले चुका है। दुनियाभर में 31 लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं। भारत में इस वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 33,050 हो गई है। पिछले 24 घंटों में कोरोना के 1,718 नए मामले सामने आए हैं और 67 लोगों की मौत हुई है। देश में अभी तक 1,074 लोगों की मौत हो चुकी है, हालांकि 8,325 मरीज इस बीमारी को मात देने में सफल भी हुए हैं।

देश के सभी राज्यों से इसके मरीज सामने आ रहे हैं। केंद्र सरकार ने इससे बचाव के चलते ही देश में 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा की थी। जिसके बाद 14 अप्रैल को पीएम नरेंद्र मोदी  ने देश की जनता को संबोधित करते हुए 19 दिनों के लिए लॉकडाउन को आगे बढ़ाए जाने की जानकारी दी। देश में लॉकडाउन 3 मई तक लागू रहेगा।

गहलोत सरकार कर्मचारियों को देगी राहत, अप्रैल के वेतन में नहीं होगी कटौती

जयपुर। कोराना वायरस के चलते फैले संक्रमण संकट और लॉकडाउन  के बीच प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार  कर्मचारी वर्ग को बड़ी राहत देने जा रही है। सरकार ने कर्मचारियों के अप्रैल के महीने में वेतन कटौती नहीं करने का निर्णय लिया है। राज्य सरकार आईएएस अफसर से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को अप्रैल महीने का पूरा वेतन देगी। मार्च के महीने में कर्मचारियों के वेतन का कुछ हिस्सा स्थगित कर दिया गया था। सरकार के इस निर्णय से कर्मचारियों को बड़ी राहत मिली है। लॉकडाउन के कारण सबकुछ बंद होने से राज्य सरकार को बहुत कम राजस्व मिल रहा है। इसी के चलते सरकार ने मार्च के महीने के वेतन का कुछ हिस्सा स्थगित कर दिया था।

मुख्य सचिव डीबी गुप्ता ने बताया कि सभी कर्मचारियों को अप्रैल का पूरा वेतन मिलेगा। आईएएस और आरएएस अफसरों के वेतन में भी कटौती नहीं होगी। मुख्य सचिव ने स्पष्ट कर दिया है की वेतन का जो हिस्सा स्थगित किया गया था वह कर्मचारियों को मिलेगा। उन्होंने कहा जो कर्मचारी रिटायर होने वाला है उसे स्थगित किए गए वेतन का हिस्सा तुरंत मिल जाएगा।

लापरवाह ब्यूरोक्रेट्स पर होगी कार्रवाई

मुख्य सचिव ने कहा कि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सभी को एकजुट होकर काम करना होगा। संकट की इस घड़ी में कई जिलों से परस्पर खींचतान और मनमुटाव की रिपोर्ट मिल रही है। ऐसे अफसरों पर कठोर कार्रवाई की जाएगी। मुख्य सचिव ने कहा कि वे प्रदेश के सभी जिला क्लेक्टर्स के कामकाज से पूरी तरह संतुष्ट हैं। संकट की इस घड़ी में ब्यूरोक्रेसी कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही है। उन्हें इस बात पर बेहद गर्व है। 

3 मई के बाद लॉकडाउन में छूट दी जाएगी

मुख्य सचिव ने कहा कि 3 मई के बाद लॉकडाउन में छूट दी जाएगी, ताकि प्रदेश में औद्योगिक विकास पटरी पर आए। मनरेगा मजदूरों की संख्या में बढ़ोतरी की गई है और अब प्रदेश में मनरेगा के कार्य शुरू भी हो गए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयों को छूट दी गई है। अब 3 मई के बाद कुछ और छूट दी जाएगी। केंद्र की नई गाइडलाइन के तहत राज्यों को कुछ शक्तियां मिली हैं। उन शक्तियों के तहत राज्य सरकार लॉकडाउन में छूट देगी। चूंकि अब श्रमिक नहीं मिल पा रहे हैं ऐसी स्थिति में औद्योगिक इकाइयों को शुरू होने में समय लगेगा।

प्रवासियों को लाया जाएगा वापस

मुख्य सचिव ने कहा कि देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे सभी प्रवासी राजस्थानियों को उनके घर लाने के लिए सरकार प्रतिबद्ध। 8 लाख से ज्यादा प्रवासियों ने अब तक वापस आने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया है। इनमें से बहुत से प्रवासी देश के दूरस्थ स्थानों पर हैं। सीएस ने सुझाव दिया कि दूरस्थ स्थानों से प्रवासियों को लाने के लिए स्पेशल ट्रेनें चलानी चाहिए।

राजस्थान में कोरोना पॉजिटिव की कुल संख्या 2556 पहुंची, अब तक 58 की मौत

जयपुर। राजस्थान में आज  118 नए कोरोना पॉजिटिव केस आए हैं। इसके बाद राजस्थान में कुल पॉजिटिव की संख्या 2556 पहुंच गई है. बता दें कि राजस्थान में कोरोना वायरस के बढ़ते मरीजों की संख्या प्रदेश सरकार के सामने बड़ी समस्या बनी हुई है।

दोपहर दो बजे तक अजमेर से 4, अलवर से 1, बारां से 1, चित्तौड़गढ़ से 3, धौलपुर से 1, जयपुर से 21, जोधपुर से सबसे अधिक 83 केस सामने आए. कोटा से 2, टोंक से 2 पॉजिटिव केस सामने आए. राजस्थान में कोरोना पॉजिटिव की मौतों का कुल आंकड़ा 58 हो गया है। 

राजस्थान में बुधवार रात तक जिलेवार कुल कोरोना पॉजिटिव की संख्या- अजमेर का कुल आंकड़ा 146, भरतपुर का 111, जयपुर का 878, जोधपुर का 413, कोटा का 192, नागौर का 118, टोंक का 132, अलवर का 7, बांसवाड़ा का 64, बाड़मेर का 2, भीलवाड़ा का 37, बीकानेर का 37, चित्तौड़गढ़ 16, चूरू का 14, दौसा का 21, धौलपुर 11, डूंगरपुर का 6, हनुमानगढ़ का 11, जैसलमेर का 35, झालावाड़ 40, झुंझुनू 42, करौली का 3, पाली का 12, प्रतापगढ़ का 2, राजसमंद का 1, सवाईमाधोपुर का 8, सीकर का 6 और उदयपुर का 8 हो गया है।


बुधवार को राजधानी जयपुर में 3 महिलाओं की मौत हुई। जयपुर के रामगंज, जौहरी बाजार, सुभाष चौक इलाके में मौत हुई। इनमें से एक मृतक महिला को ब्रेस्ट कैंसर था। जयपुर 30 अलवर में 1, भरतपुर में 2, भीलवाड़ा में 2, बीकानेर में 1, जोधपुर में 7, कोटा में 6, नागौर में 1, सीकर में 2, टोंक में एक मौत, यूपी निवासी दो मरीजों की मौत भी शामिल है।

प्रदेश में अब तक 814 मरीज हुए रिकवर

प्रदेश में अब तक रिकवर हुए 592 मरीजों को अस्पताल से डिस्चार्ज किया गया। प्रदेश में कोरोना एक्टिव मरीजों की संख्या 1 हजार 569, राजस्थान में बुधवार तक लिए गये 97 हजार 790 सैंपल, 5 हजार 244 सैंपल की रिपोर्ट आना बाकी है।

देशभर में कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या 31,787

पिछले 24 घंटे में 1813 नए मामले सामने आए हैं और 71 लोगों की मौत हो गई है, जो अब तक एक दिन में मौतों का सर्वाधिक आंकड़ा है। इसके बाद देशभर में कोरोना पॉजिटिव मामलों की कुल संख्या 31,787 हो गई है, जिसमें 22, 982 सक्रिय हैं, 7797 लोग स्वस्थ हो चुके हैं या और 1008 लोगों की मौत हो चुकी है।

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

नीतीश की अमीर बनाम गरीब राजनीति

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पांच साल पहले लालू प्रसाद के साथ मिल कर अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति की थी। मंडल आंदोलन के दोनों प्रतीक चेहरे एक साथ थे तो पिछड़े समाज के लोगों को कोई अपना विकल्प चुनने में कोई दिक्कत नहीं आई। राजद और जदयू गठबंधन ने भाजपा के ज्यादा बड़े और ज्यादा इंद्रधनुषी गठबंधन को हरा दिया। पर डेढ़ साल के बाद ही नीतीश ने राजद का साथ छोड़ दिया और वापस भाजपा से नाता जोड़ लिया। पांच साल के बाद अब वे अगड़ा-पिछड़ा के पुराने फार्मूले को नहीं दोहरा सकते हैं तो कोरोना काल में अमीर और गरीब का दांव चल रहे हैं। हालांकि इसकी सफलता बहुत संदिग्ध है।

इसके बावजूद नीतीश इसे आजमा रहे हैं। उन्होंने इसी राजनीति के तहत कोटा में पढ़ने गए बिहार के बच्चों को लाने से मना किया है। उत्तर प्रदेश की सरकार तीन सौ विशेष बसों के जरिए अपने छात्रों को ले जा चुकी है और खबर है कि महाराष्ट्र की सरकार एक हजार बसें भेज रही है अपने बच्चों को लाने के लिए। असम, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश आदि राज्य भी अपने छात्रों को ले जा रहे हैं।

पर नीतीश ने न सिर्फ इससे इनकार किया, बल्कि सार्वजनिक रूप से कहा कि वो सब संपन्न परिवार के बच्चे हैं और वहां उनको कोई दिक्कत नहीं हो रही होगी। अपने इस बयान से उन्होंने यह मैसेज दिया कि वे गरीबों के नए मसीहा हैं, जैसे पहले लालू प्रसाद होते थे। हालांकि मुश्किल यह है कि उनका यह दांव इसलिए नहीं चलेगा क्योंकि वे गरीब प्रवासी मजदूरों को भी बिहार नहीं आने दे रहे हैं। अगर वे मजदूरों को आने देते और कोटा के छात्रों को रोकते तब उनकी राजनीति चलती। पर वे दो नावों पर सवारी कर रहे हैं, जिसका उनको अगले चुनाव में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। 

गरीब की रोटी पर सोनिया का सवाल जायज

अचानक टारगेट, गोलपोस्ट कैसे शिफ्ट हो गया? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कैसे निशाने पर आ गईं? क्या इससे लगता नहीं कि सोनिया गांधीएजेंडा बदलवाने में कामयाब हुई है? कोरोना की इस भयानक विपदा में राजनीति और मीडिया ने सारा जोर हिंदू,मुसलमान, पाकिस्तान पर लगा रखा था। लोग बड़े आराम से इनमें उलझे हुए थे।कोरोना टेस्ट व टेस्ट किटों में घोटाले, डाक्टरों और अन्य मेडिकलस्टाफ को पीपीई किट, एन 95 मास्क, अन्य सुरक्षा सुविधाओं की कमी को ले कर बात नहीं उठ रही थी। राशन के हर समान आटा, दाल, चावल, तेल के मनमाने दाम वसूले जाने की खबरे आ रही थीमगर कोई पूछने वाला नहीं था। कोई सवाल नहीं था। सिर्फ और सिर्फनफरत और विभाजित करवाने का नैरेटिव बना हुआ था। 

कैसी अकल्पनीय सी बात है कि देश में लोग कोरोना से लड़ने के बदले आपस में लड़ रहे है! दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं है। लेकिन हमारे यहां इस कदर नफरत फैलाईजा रही है कि इसका असर विदेशों तक होने लगा। खाड़ी के देशों मे जबरदस्तरिएक्शन हुआ। वहां नफऱत फैला रहे लोगों को माफी मांगनी पड़ी। अपने ट्वीटऔर ट्विटर अकाउंट डिलिट करने पड़े। हमारे राजदूत को सफाई देना पड़ी औरखुद प्रधानमंत्री मोदी को भाईचारे की बात करना पड़ी। जो मुस्लिम मुल्कहमारे लिए अमेरिका तक से भिड़ जाते थे वे भारत में फैलाए जा रहेसांप्रदायिक तनाव और अरब मुल्कों की महिलाओं के खिलाफ किए गए भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्य के ट्वीट से इतने नाराज हो गए कि उन्होंने इस नफरती अभियानके लिए सीधे आरएसएस पर हमले करना शुरू कर दिए। मोदी जी के बाद संघ प्रमुखमोहन भागवत को भी तब स्पष्टिकरण देना पड़े। कहा कि किसी समुदाय को दोषीनहीं ठहराया जाना चाहिए।

मुस्लिम देशों ने कश्मीर के मामले में तो हमेशा भारत का साथ दिया ही है। आजादी के बाद 1951 में जब नेहरू ने गोवा को पूतर्गाल से आजाद कराने कीठानी तो अमेरिका के खिलाफ भी उठ खड़े हुए। अमेरिका पूर्तगाल का समर्थन कररहा था। उसने गोवा में नाटो देशों की सेना भेजने की तैयारी शुरू कर दी।मगर मिस्र भारत के समर्थन में आ खड़ा हुआ। और उसने स्वेज नहर बंद कर दी।इसी मार्ग से पुर्तगाल अपनी सेनाओं को नाटो के साथ भारत पहुंचाने कीतैयारी कर रहा था।

इन पुरानी दोस्तियों के अलावा लाखों भारतीय खाड़ी देशों में काम करतेहैं। आर्थिक रूप से भारत के लिए वहां से भेजी जाने वाली विदेशी करेंसीबहुत मायने रखती है। 80 अरब डालर से ज्यादा की विदेशी मुद्रा भारत में आती है।

इन तमाम बातों, बेकग्राउंड, परिस्थितियों में कोरोना और उसकी आर्थिक मार से सर्वाधिकप्रभावित गरीब मजदूर की किसी ने चिंता नहीं की हुई थी। तभी सोनिया गांधी ने इन सारी नकली लड़ाईयों को परे धकेलते हुए पहले उन्हें फ्री राशन देने और फिरहर गरीब के खाते में 7500 रूं जमा करने की मांग करके एजेंडा बदला है। हजारों मजदूर सैंकड़ों किमी पैदल चले जा रहे थे। किसी को उनकीफिक्र नहीं थी। रोज खाने, ,कमाने वाले मजदूर के सामने भूखमरी की स्थितिबनी हुई है। मजदूरों की आत्महत्या, पैदल चलते हुए थक कर गिरने और मरने की भयानक तस्वीरें आने लगीं। लेकिन मीडिया ने इन सब सच्चाइयों से लोगोंका ध्यान हटाने के लिए नफरत और विभाजन की फेकू खबरों को और बढ़ा दिया।

महाराष्ट्र के पालघर हत्याकांड और मंगलवार को बुलंदशहर के मंदिर में दोसाधुओं की निर्मम हत्या जैसे मुद्दों को गोदी मीडिया मानवीय नजरिए से नदेखकर किस राज्य में किसकी सरकार है  उसके एंगल से हल्ला करने बैठने गया। ऐसे मेंसोनिया गांधी ने इनके बदले गरीब मजदूर की समस्या, माइक्रो, स्माल एवं मीडियमउद्योगों (एसएसएमई) को बचाने के लिए उन्हें आर्थिक पैकेज देने की मांगकरके सारा फोकस वास्तविक समस्याओं की तरफ मोड़ा है। ध्यान रहे इन उद्योगों में कोई 11करोड़ कामगार काम करते हैं।

राहुल गांधी कोरोना से लड़ने के लिए ज्यादा टेस्ट पर लगातार जोर दे रहे हैं। औरसोनिया गांधी गरीब को भूखमरी से कैसे बचाएं जैसे मानवीय मुद्दे पर चिंता बनवाने की कोशिश में है। बहस कोबदलने की कोशिश करना बड़ी बात है। लेकिन इसकी कीमत भी कांग्रेस अध्यक्षसोनिया गांधी को हमेशा की तरह चुकाना पड़ रही है। अचानक से सारेमहत्वपूर्ण सवाल भूलकर सोनिया गांधी से पूछने, घेरने की रणनीति पर काम शुरू हो गया है जिनकी पार्टी 6 सालपहले सत्ता से बाहर हो चुकी थी। भक्त मीडिया प्रलाप की स्थिति में आ गया है।

पर ऐसा होना क्या सोनिया गांधी की सफलता नहीं है?  इन्दिराजी भी ऐसे हीएजेन्डा बदलने में महारत रखती थीं। 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद हीलोहियाजी जनसंघ से मिल गए और इंदिरा जी के खिलाफ मुहिम शुरू कर दी। गैर-कांग्रेसवाद का नारा देकर 1967 में कई राज्यों में संविद सरकारें बनाईं। इंदिराजी ने फौरन राजनीतिक डिस्कोर्स बदला। बैंकों का राष्ट्रीयकरण,राजा, रानियों का प्रीविपर्स और प्रिवलेज खत्म करने के अलावा 1971 के चुनाव मेंगरीबी हटाओ का ऐतिहासिक नारा दिया। 1971 इंदिरा जी का हिट साल था। उसीसमय उन्होंने अमेरिका को चुनौती देते हुए बांग्लादेश का निर्माण किया।इन्दिरा गांधी कभी विपक्ष के एजेंडे में नहीं फंसीं। वे गरीब का, किसानका, युवा का अपना एजेंडा चलाती थीं। उन्होने अपने एजेंडे के सामने सांप्रदायिकता, जातिवाद का एजेंडाकभी चलने नहीं दिया।

लेकिन जब से धर्म और जाति की राजनीति शुरू हुई है तब से गरीब का एजेंडा देश से गायब हुआ पड़ा है। सोनिया गांधी जो आज निशाने पर हैं वे इसीलिए हैं कि16 साल पहले भी उन्होंने राजनीतिक डिस्कोर्स बदला था।2004 में प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था। उसके बाद बनी यूपीए सरकार मेंवे महिला बिल से लेकर, किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, खाद्यान सुरक्षा,आरटीआई, शिक्षा का अधिकार जैसे कानून लेकर आईं। ये आसान नहीं था। बाहरवालों के साथ पार्टी के अंदर वालों ने भी इन फैसलों का भारी विरोध किया था। महिलाबिल पर उन्होंने कहा था मुझे मालूम है कि मेरी पार्टी के कुछ लोग ही इसकेविरोध में हैं। मगर मैं पीछे नहीं हटूंगी। सोनिया गांधी के लिए पार्टी की सत्ता के वे दस साल भीआसान नहीं रहे थे। जनता से जुड़े काम कराना खुद की सरकार में भी बहुतमुश्किल था। एक बार वे बोलीं कि ये सोचते हैं कि मैं कहकर भूल जाऊंगी।मंत्री सोनिया गांधी को भूलावा देने की कोशिश करते थे। लेकिन उन्होंनेअपना जन सरोकार रवैया नहीं छोड़ा। अब 6 साल से तो वे सत्ता में भीनहीं हैं। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष भी नहीं रहीं। मगर गरीब समर्थक उनकानजरिया आज भी वैसा ही है। इसी कारण वे आज भी सबसे ज्यादा निशाने पर हैं और पुराने क्लासिकल बेटसमेनों की

तरह वे फील्ड में किसी स्लेजिंग का जवाब देने के बदले इसी में यकीन रखतीहैं कि मेरा बेट (काम) ही जवाब देगा।(

सबसे पहले वैक्सीन किसकी आएगी?

विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्लुएचओ की मुख्य वैज्ञानिक डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन ने कहा है कि किसी भी वायरस का टीका तैयार करने में समय लगता है। उन्होंने याद दिलाया है कि इबोला का टीका दस साल में बना था और जीका वायरस का टीका तैयार करने में भी दो साल लगे थे। इस बीच यह भी खबर आई है कि कोविड-19 का टीका अगले साल यानी 2021 के अंत तक भी तैयार हो जाए तो बड़ी बात होगी। हालांकि दूसरी तरफ बिल्कुल इससे उलट दावे किए जा रहे हैं। तभी तभी यह सवाल है कि सबसे पहले वैक्सीन किस कंपनी की आएगी और कब तक आएगी? 

भारत में सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया इस पर काम कर रही है। इसे 1966 में साइरस पूनावाला से शुरू किया था और इस समय यह दुनिया में सबसे ज्यादा वैक्सीन बनाने वाली कंपनी है। यह कंपनी डेढ़ अरब टीके तैयार करती है और दुनिया के 65 फीसदी बच्चों को सीरम इंस्टीच्यूट से बने टीके लगते हैं। इस कंपनी के सीईओ आदर पूनावाला ने बहुत बड़ा जोखिम लेने का फैसला किया है। वे अंतिम परीक्षण से पहले ही टीके का निर्माण शुरू करने की तैयारी में हैं। सीरम इंस्टीच्यूट इस समय ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और अमेरिका की बायोटेक कंपनी कोडाजेनिक्स के साथ दो प्रयोग कर है और तीसरा अपने बीसीजी टीकों में बदलाव करने कुछ परीक्षण कर रही है। अगर परीक्षण सफल रहा तो कंपनी सितंबर-अक्टूबर तक टीका बाजार में ला देगी, जिसकी कीमत एक हजार रुपए होगी।

उधर लंदन में ऑक्सफोर्ड के जेनर इंस्टीच्यूट में भी क्लीनिकल ट्रायल शुरू हो गया है। उसे भी सितंबर तक वैक्सीन बाजार में लाने की उम्मीद है। अमेरिका के सिएटल में पिछले महीने वैक्सीन का मानव परीक्षण शुरू हो गया। पशुओं पर होने वाले परीक्षण के चरण को छोड़ कर सीधे इंसानों पर परीक्षण हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनी सैनोफी और जीएसके वैक्सीन लाने की तैयारी में लगे हैं। ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने दो तरह के ट्रायल शुरू कर दिए हैं। चीन में वैक्सीन के कम से कम तीन ट्रायल होने की खबर है। इसके बावजूद यह पक्का नहीं है कि किसकी वैक्सीन कब आएगी। हैरानी की बात है कि इसकी टाइमलाइन इस साल सितंबर से लेकर अगले साल दिसंबर तक बताई जा रही है।

कैंसर से बड़ी बीमारी कोरोना!

भारतीय मूल के अमेरिकी डॉक्टर सिद्धार्थ मुखर्जी ने कैंसर पर किताब लिखी। नाम दिया- द एम्पेरर ऑफ ऑल मैलेडिजः अ बायोग्राफी ऑफ कैंसर। 2010 में लिखी इस किताब के लिए उनको 2011 में पुलित्जर पुरस्कार मिला। यह किताब दुनिया भर में बेहद मशहूर हुई। पर किसी को क्या पता था कि उनकी किताब के दस साल बाद कोविड-19 नाम की एक बीमारी आएगी और लोग कैंसर के मरीजों को पूछना बंद कर देंगे! दुनिया का तो पता नहीं है पर भारत में आज यह स्थिति है कि, जिसे बीमारियों का शहंशाह कहा गया उसके मरीजों को कोई पूछनहीं रहा है। अस्पताल उनको अपने यहां भरती नहीं कर रहे हैं और सरकार इसे नॉन-इमरजेंसी बीमारी मान रही है। अकेले कैंसर नहीं, किडनी फेल होने की वजह से किसी की डायलिसिस होनी है तो सरकार उसे भी नॉन- इमरजेंसी बीमारी मान रही है।
ऐसी बीमारियों और इनके मरीजों के साथ हो रहे बरताव की हकीकत समझने और इसके पीछे की मानसिकता को जानने से पहले कुछ हार्ड फैक्ट्स को जानना जरूरी है। पंजाब के पठानकोट में 12 साल का लखन सिंह और सात साल के कृष्णा की मौत हो गई। शहर के छह बड़े अस्पतालों ने उन्हें अपने यहां भरती करने से इनकार कर दिया क्योंकि उनको कोरोना वायरस का संक्रमण नहीं था, वे दूसरी बीमारी से ग्रस्त थे। राजस्थान के कोटा में अस्थमा के एक मरीज को एंबुलेंस नहीं मिली तो परिवार वाले हाथ गाड़ी पर लेकर मरीज को अस्पताल भागे और रास्ते में ही मरीज ने दम तोड़ दिया। उत्तर प्रदेश के आगरा में 60 साल की एक महिला और 55 साल के एक कारोबारी की मौत हो गई क्योंकि उन्हें कोरोना संक्रमण के अलावा दूसरी बीमारी थी। मुंबई में डायलिसिस के एक मरीज को सात घंटे तक इंतजार करना पड़ा। तमिलनाडु में सात साल के एक बच्चे की मौत हो गई। दिल्ली-एनसीआर में दिल का दौरा पड़ने के बाद एक मरीज सात घंटे तक अस्पताल में भर्ती होने के इंतजार में तड़पता रहा और अंततः दम तोड़ दिया।
इस बीच एक खबर आई कि दिल के मरीजों का मामला अस्पताल में पहुंचना 50 फीसदी कम हो गया है। तो क्या दिल के मरीजों ने मरना बंद कर दिया है? भारत में हर महीने औसतन छह लाख लोग मरते हैं, जिनमें से एक लाख 60 हजार लोग दिल के मरीज होते हैं। यानी दिल का दौरा पड़ने या ह्दय असफल होने से हर महीने एक लाख 60 हजार लोग मरते हैं और 64 हजार लोग सांस की गंभीर बीमारी से मरते हैं। इसके अलावा पौने चार लाख के करीब लोग दूसरी गंभीर बीमारियों या उम्र से संबंधित रोगों से मरते हैं। इधर एक महीने में कोरोना वायरस से छह-सात सौ लोगों की मौत हुई है और सारा देश थम गया है। सारी बीमारियों का इलाज स्थगित कर दिया गया है। अस्पतालों और प्राइवेट क्लीनिक में ताले लग गए। अपने मरीजों को हर तरह से बचाने की शपथ लेने वाले डॉक्टर घर बैठ गए। जो अस्पताल खुले हैं उनमें इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि चाहे किसी भी बीमारी का मरीज हो उसे पहले कोरोना वायरस के संक्रमण की जांच करानी होगी।
राष्ट्रीय राजधानी से सटे राज्य अपनी सीमाएं सील कर रहे हैं। इसी बीच नोएडा प्राधिकरण ने बड़ी कृपापूर्वक एक आदेश जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि कैंसर और डायलिसिस जैसी नॉन इमरजेंसी बीमारियों वाले मरीज भी दिल्ली-नोएडा के बीच आवाजाही कर सकते हैं। सोचें, कैंसर और डायलिसिस नॉन-इमरजेंसी वाली बीमारियां हैं! इमरजेंसी वाली बीमारी बस कोविड-19 है। यह भी भारत में बिना किसी तैयारी और बिना दूरदृष्टि के एक गंभीर आपदा से मुकाबले की मिसाल है। सरकारों ने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए लॉकडाउन करते हुए इस बात पर विचार ही नहीं किया कि देश में हर दिन लाखों लोगों को इलाज की जरूरत होती है।छोटी बीमारियों से मरीज तो दवा दुकानों से ओवर द काउंटर बिकने वाली दवाओं से काम चला लेंगे या दूसरी साधारण बीमारियों के मरीजों को उनके डॉक्टर ऑनलाइन या व्हाट्सएप के जरिए कंसल्टेंसी मुहैया करा रहे हैं। पर जानलेवा बीमारियों के मामलों में क्या होगा, यह सोचा ही नहीं गया।
अगर योजना बना कर कोरोना से लड़ने की तैयारी होती तो अस्पतालों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया गया होता। कोविड-19 के लिए डेडिकेटेड अस्पतालों के अलावा बाकी अस्पतालों में सामान्य रूप से ओपीडी चलती और सर्जरी भी होती। पर अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ। कोविड-19 का संक्रमण शुरू होने के बाद संभवतः सबसे पहले देश के सबसे प्रीमियर अस्पताल एम्स ने अपनी ओपीडी बंद करने का ऐलान किया। जिस अस्पताल के परिसर में और आसपास की इमारतों और यहां तक की उनके बरामदे तक में मरीज और उनके परिजन इलाज की आस में पड़े रहते हैं, उस अस्पताल ने ऐसी असंवेदनशीलता दिखाई। इसके बाद तो जैसे सबके लिए रास्ता खुल गया। ज्यादातर अस्पतालों की ओपीडी बंद हो गई और जरूरी सर्जरी भी रोक दी गई।
यह किसी भी सरकार के लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी कि अस्पताल सुचारू रूप से चलें और कोरोना वायरस से संक्रमितों के अलावा बाकी दूसरे मरीजों को भी बराबर इलाज की सुविधा मिले। पर इसकी बजाय सरकार इस बहस में उलझी रही कि कारोबारियों को निर्यात शुरू करने की इजाजत दी जाए या नहीं और ई-कॉमर्स कंपनियों को गैर जरूरी चीजों की डिलीवरी की मंजूरी दी जाए या नहीं। सबसे अंत में सरकार को अस्पतालों के बारे में सूझा तो दो चरणों में लागू लॉकडाउन की 40 दिन की अवधि खत्म होने से ठीक पहले यह निर्देश जारी किया गया कि अस्पताल अपनी ओपीडी खोलें और दूसरी बीमारी के मरीजों पर कोरोना की जांच का दबाव न डालें। इसके बावजूद यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि कोविड-19 के अलावा दूसरी बीमारियों के मरीजों को आसानी से इलाज मिल पाएगा।

अभी अंधेरे में ही कयास

कोरोना वायरस को लेकर दुनिया भर में फैली दहशत की एक बड़ी वजह यही है कि इसका अब तक कोई इलाज नहीं है। दुनिया भर के वैज्ञानिक अभी भी टीका विकसित करने में जुटे हैं। साथ ही हर्ड इम्युनिटी और एंडी बॉडी से सुरक्षा जैसे कयास भी लगाए जा रहे हैं। हर्ड इम्युनिटी का मतलब यह है कि जब बहुत बड़ी संख्या में ये संक्रमण लोगों को हो जाएगा, तब उनके शरीर में इसके प्रति प्रतिरक्षण क्षमता स्वतः विकसित हो जाएगी, जैसाकि अनेक वायरस के मामलों में हुआ है। समझ है कि एक बार पीड़ित व्यक्ति के शरीर में संबंधित वायरस से प्रतिरोधी वायरस उत्पन्न हो जाते हैं। उन्हें एंटी बॉडी कहते हैं। मगर अब विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरी संस्थाओं के विशेषज्ञों ने एंटी बॉडी परीक्षणों पर भरोसा करने के मामले लेकर सावधान रहने की चेतावनी द है। उनके मुताबिक इस वायरस के बारे में जो बातें अभी तक मालूम नहीं हुई हैं, उनमें यह भी शामिल है कि इम्युनिटी आखिर कितने समय तक रह सकती है। यानी यह संभव है कि पॉजिटिव आने वाले व्यक्तियों के मामले में एंटी बॉडी क्षमता भी ज्यादा समय तक कारगर नहीं रहेगी। प्रोफेशनल एसोसिएशन ऑफ जर्मन लेबोरेटरी डॉक्टर्स (बीडीएल) के विशेषज्ञों का कहना है कि एंटी बॉडी टेस्ट में गलत नतीजे एक बड़ी समस्या हैं। यानी किसी को कोविड-19 होने के बावजूद भी उसके टेस्ट का नतीजा निगेटिव आ सकता है।  ं

विशेषज्ञों के अनुसार और ज्यादा सटीक टेस्ट आने में कुछ सप्ताह का समय लगेगा। इसलिए अभी मरीजों को स्पष्ट यह कहने का समय नहीं आया है कि वो निश्चित रूप से इम्युन हैं। वैज्ञानिको के अनुसार ऐसी कई साधारण कोरोनावायरस होते हैं, जिनसे कोई गंभीर बीमारी नहीं होती। लेकिन उनकी वजह से टेस्ट का नतीजा पॉजिटिव आ सकता है। इसीलिए जानकार रैपिड एंटी बॉडी टेस्ट को निरर्थक बताते हैं। जबकि भारत समेत अनेक देशों में आरंभिक तौर पर ऐसी जांच पर भरोसा किया गया। तो अब सबकी नजर अलग-अलग देशों की प्रयोगशालाओं में चल रहे अध्ययनों पर है। जब तक इस बारे में वहां खास निष्कर्ष नहीं निकल जाता, तब तक हर्ड इम्युनिटी या एंटी बॉडी क्षमता पर भरोसा भी महज कयास ही रहेगा। और जाहिर है कि तब तक दुनिया भर में कोरोना वायरस का आतंक कायम रहेगा। आशंका है कि तब तक दुनिया का आम जीवन मौजूदा समय जैसा ही कुप्रभावित बना रहेगा।

राजस्थान में महंगी हो गई बियर और विदेशी शराब, गहलोत सरकार ने जारी किया आदेश

जयपुर। प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार  ने खाली पड़े सरकारी खजाने को भरने की कवायद तेज कर दी है। इसके तहत राज्य सरकार ने अतिरिक्त आबकारी शुल्क  में बढ़ोतरी कर दी है। राज्य के वित्त विभाग ने इसको लेकर बुधवार को 2 अहम आदेश जारी किए हैं। दोनों ही आदेश शराब को महंगी करने वाले हैं। इससे शराब के शौकीन लोगों को अब शराब पीना महंगा पड़ेगा। सरकार ने नियमों में संशोधन कर यह आदेश निकाले हैं।

10 और 15 फीसदी की गई है बढ़ोतरी

वित्त विभाग की ओर से जारी आदेश के अनुसार पहले आदेश में भारत में निर्मित विदेशी शराब पर अतिरिक्त आबकारी शुल्क में बढ़ोतरी की गई है। इसे 20 फीसदी से बढ़ाकर अब 35 फीसदी कर दिया है। इसमें 15 फीसदी की बढ़ोतरी कर दी गई है। वहीं बियर की दरों पर लागू अतिरिक्त आबकारी शुल्क को 35 फीसदी से बढ़ाकर 45 प्रतिशत कर दिया गया है। इसमें 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है। जबकि दूसरे आदेश में बॉटलिंग फीस में बढ़ोतरी की गई है। इसमें देसी शराब पर 20 रुपए बॉटलिंग फीस में बढ़ोतरी की गई है। राजस्थान में निर्मित शराब पर 50 रुपए बॉटलिंग फीस में बढ़ोतरी की गई है।

कोरोना ने प्रदेश की अर्थव्यवस्था को दिया बड़ा झटका

दरअसल कोरोना लॉकडाउन ने राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त झटका दिया है। लॉकडाउन के चलते अप्रैल में सरकार की आय में 70 फ़ीसदी की गिरावट आई है। सबसे बड़ा झटका स्टेट जीएसटी को लगा है। इसमें 27 अप्रैल तक सरकार के पास सिर्फ 130 करोड़ रुपए आए हैं, जबकि पिछले साल इसी अवधि में एसजीएसटी से सरकार को 1000 करोड़ रुपये मिले थे।


पेट्रोल और डीजल पर वैट में दो बार हो चुकी है बढ़ोतरी

आर्थिक संकट से निपटने के लिए गहलोत सरकार मार्च और अप्रैल में पेट्रोल व डीजल पर वैट में दो बार इजाफा कर चुकी है। इसके बाद भी सरकार को इससे अप्रैल में सिर्फ 600 करोड़ रुपए ही मिले हैं। कुल मिलाकर सरकार को अप्रैल में अब तक 1500 करोड़ रुपए मिले हैं। इनमें करीब 503 करोड़ रुपए जीएसटी कंपनसेशन, 130 करोड़ रुपए एसजीएसटी, 700 करोड़ रुपए वैट और इनके अलावा एक्साइज पेट्रोलियम विपणन के बकाया बिलों से आए हैं। सरकार ने बजट में अप्रैल में करीब 8000 करोड़ रुपए के राजस्व को अर्जित करने का लक्ष्य रखा था। 

परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास ने बढ़ाया कोरोना वॉरियर्स का हौसला

जयपुर। परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास ने शहर के विभिन्न अस्पतालों जिला अस्पताल में जाकर कोरोना वॉरियर्स की हौसला अफजाई की। कांवटिया जिला अस्पताल, चांदपोल जनाना अस्पताल, बनीपार्क सैटेलाइट हॉस्पिटल एवं टीबी हॉस्पिटल शास्त्री नगर का दौरा कर अस्पताल का जायजा लिया।

डॉक्टर्स-नर्सिंग स्टाफ एवं सफाई कर्मचारियों से मिलकर उनकी हौसला अफजाई की।अस्पताल में भर्ती मरीजों की कुशल क्षेम पूछी। इस अवसर पर प्रताप सिंह खाचरियावास ने चारों अस्पतालों एवं सांगानेरी गेट स्थित जनाना महिला चिकित्सालय में 200 पीपीई किट अस्पताल प्रशासन को भेंट किए।

खाचरियावास ने इस अवसर पर अस्पतालों का जायजा लेने के दौरान डॉक्टर्स, नर्सिंग स्टाफ और सफाई कर्मचारियों का सम्मान किया। जनाना अस्पताल चांदपोल में कोविड-19 की मशीन का उद्घाटन किया, जिसमें जांच करने वाले चिकित्सा कर्मी को मरीज के संपर्क में आने की जरूरत नहीं है। वह अपने कैबिन में बैठकर मशीन द्वारा कितने ही मरीजों की जांच करें तो जांच करने वाले का संक्रमित होने का खतरा भी नहीं रहेगा। 


इस अवसर पर खाचरियावास ने संवाददाताओं से वार्ता करते हुए कहा कि कोरोना वायरस से डरने की बजाय इसका बचाव करते हुए इसको खत्म करने की जरूरत है। हर कोई व्यक्ति कोरोना की अफवाह फैला कर डर का माहौल पैदा कर रहा है, हमें लॉकडाउन की पालना करनी चाहिए। हर व्यक्ति को सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल करना चाहिए। भीड़ में नहीं जाना चाहिए. झूठा पानी पीना, एक बर्तन में खाना खाना बीमारी को बढ़ाता है लेकिन वह लोग जो मरीजों के अस्पतालों में जाने का विरोध करते हैं, श्मशान में शव जलाने का विरोध करते हैं। रास्ते रोककर कॉलोनियों में लोगों को परेशान करते हैं। झूठी अफवाह फैलाते हैं। 

सेवा के काम में हाथ बंटाए

जाति, धर्म और राजनीति भेदभाव के आधार पर झूठी बयानबाजी करते हैं। वह देश समाज और मानवता के दुश्मन हैं। ऐसे लोगों को कोरोना के संकट को समझ कर जनसेवा करनी चाहिए क्योंकि इस तरह के गलत कृत्य गैरकानूनी है। प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि कोरोना के अंधेरे को खत्म करके, उजाले में एक नई शुरुआत करने के लिए सब लोग जिसको जहां मौका मिले, सेवा के काम में हाथ बंटाएं और मानवता की सेवा कर अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करें। इस दौरान खाचरियावास के साथ जयपुर कांग्रेस प्रवक्ता मनोज मुदगल एवं समाजसेवी राजा मोहन गोयल भी उपस्थित थे।




कोरोना से लड़ रहे या मकड़जाल बना रहे?

मकड़ी जाला बनाती है सुरक्षा के लिए लेकिन इस पूर्वानुमान के बिना कि वह जाले में ही घुट मरेगी। बाद में मकड़ी न जाले को छोड़ पाती है और न उसकी जकड़न से बच पाती है। भारत कितनी ही कोशिश कर ले वह तालाबंदी से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिए कि ताले की चाबी वैक्सीन है। जब दुनिया भारत को वैक्सीन बना कर देगी तभी भारत तालेबंदी से बाहर निकल सांस ले सकेगा। आज तालाबंदी का 36वां दिन है। सोचें, इन 36 दिनों में क्या साबित हुआ? जवाब है भारत राष्ट्र-राज्य ने दुनिया को बता दिया है कि कोविड-19 वायरस से वह वैसे नहीं लड़ सकता है, जैसे विकसित देश लड़ रहे हैं। यों मेरा मानना है कि हमारी लड़ाई शुरू भी नहीं हुई है। वह जून से शुरू होगी और तब भी बिना मेडिकल हथियार के होगी। बिना टेस्ट के होगी। बिना सत्य जाने और बताए होगी।

सत्य अनुभव खराब है। अपने आशीष-श्रुति ने कोविड-19 को कवर करते हुए जितना घूमा-देखा-समझा है और फोटो खींचे हैं उसकी बैकग्राउंड के साथ मैंने पिछले दिनों मुख्यमंत्री से ले कर जिलों को संभाल रहे प्रशासनिक अधिकारियों से जो जाना-बूझा है वह जतला दे रहा है कि लड़ाई मेडिकल औजारों से नहीं, बल्कि अपने आपको फंसाने वाले मकड़जाल माफिक है। तभी हालात सामान्य होने, आर्थिकी को खोलने का कितना ही आत्मविश्वास दर्शाया जाए तालेबंदी-दर-तालेबंदी का मकड़जाल गहरा बनता जाना है।

तीन मई को तालाबंदी का दूसरा चरण खत्म होगा और तीसरा शुरू होगा। उस दिन भी वहीं कहा जाएगा जो 24 मार्च की शाम कहा गया था। तब भी हेडलाइन थी आगे भी हेडलाइन होगी। लेकिन वायरस से लड़ने की वह स्टोरी नहीं होगी, जो दुनिया के दूसरे देश, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री अपनी-अपनी जनता को सुनाते हैं। ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन खुद वायरस का शिकार हो अस्पताल में रह आए। भले-चंगे हो कर लौटे तो उन्होंने बताया कि कितना जरूरी है राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एनएचएस को और मजबूत करना और जब तक प्रतिदिन एक लाख टेस्ट रोजाना का टारगेट पूरा नहीं हो जाता तब तक ताला खोलने या ढील देने का का सवाल नहीं है। साढ़े छह करोड़ की आबादी वाला ब्रिटेन रोजाना एक लाख टेस्ट के हथियार से वायरस को खोज- खोज कर मार रहा है तो 33 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका ने 57 लाख टेस्ट करा कर आगे लाखों टेस्ट प्रतिदिन की रणनीति में विचार बनाया है। ठीक विपरीत 130 करोड़ लोगों का भारत देश सिर्फ सात लाख टेस्ट पर अपने नागिरकों को भरोसा दे रहा है कि सब ठीक है और आर्थिकी की चिंता का वक्त आया है। चीन से विदेशी कंपनियां भाग रही हैं तो भारत के लिए उन्हे बुलवा कर फैक्टरियां लगवाने का मौका है!

मकड़ी ऐसे ही इस दिशा, उस दिशा, चौतरफा तानाबाना फैला मौत का जाला बनाती है। यह सब ब्रिटेन, स्पेन, इटली, चीन, अमेरिका, न्यूयार्क में नहीं हुआ। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने महामूर्खता वाली बातें कीं लेकिन वे सब वायरस से मेडिकल लड़ाई की चिंता में थीं। बेचारे ट्रंप का क्या दोष? वे क्योंकि अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मोदी के भारत को फॉलो करते हैं तो हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को उन्होंने चमत्कारी दवा बता अमेरिका में अपनी मजाक बनवाई तब भी इलाज का एंगल था। जो समझ आया उन्होने सत्यता से बोला। ऐसे ही भारत के बरेली में केमिकल छिड़काव से मजूदरों को डिसइंफेक्ट होता उन्होंने देखा होगा तो सोचा होगा कि भारत का यह गुरूमंत्र आजमाने लायक, क्यों न सीधे फेफड़ों को सेनिटाइज्डो करने का इंजेक्शन ठोक वायरस को मरवा डालें। उस नाते व्यंग्य अच्छा है कि डोनाल्ड ट्रंप ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में मौलिक दवा और तरीके का जो ज्ञान अमेरिकियों को बांटा उसका श्रेय मोदी के भारत को है।

बहरहाल कोर मसला है ट्रंप व दूसरे देशों के तमाम नेताओं का वायरस को भयावह मानते हुए गंभीरता से उसे मेडिकल औजारों से लड़ना। मानना होगा कि अमेरिका ने, अमेरिकी जनता ने, वहां के गवर्नरों ने, मेयरों ने, मेडिकल-वैज्ञानिक जमात ने डोनाल्ड ट्रंप को भी मजबूर किया हुआ है जो वे कोविड-19 से लड़ाई में चौबीसों घंटे खपे हुए हैं। ट्रंप और अमेरिका ने वायरस से लड़ाई में इधर-उधर की बातों में न मेडिकल जमात का ध्यान भटकाया और न जनता को बरगलाया। ट्रंप ने बरगलाना चाहा तो संसद, मीडिया, प्रदेशों ने, शहर प्रशासन ने उन्हें नहीं सुना। कल ही खबर थी कि ट्रंप के घोर भक्त गवर्नर ने जार्जिया राज्य का ताला खोलने का फैसला किया लेकिन उसकी राजधानी अटलांटा के मेयर ने वीटो लगाते हुए फैसला दिया कि मेरे पास महानगर के नागरिकों की सुरक्षा का दायित्व है इसलिए मैं अपने शहर का ताला नहीं खोल रही!

तभी अमेरिका, विकसित देशों की वायरस के खिलाफ लड़ाई, वायरस को काबू में लेने का मेडिकल महायुद्ध है। हम लोगों को यह तथ्य जेहन में बैठाए रहना चाहिए कि आबादी के अनुपात में देशों ने टेस्ट के जरिए वायरस को तलाशा है और अस्पतालों में इलाज करके फैलाव रोका। दुनिया में यह एप्रोच भारत के अलावा कही नहीं सुनाई दी कि बिना टेस्ट के ही फतवा बन गया हो कि समुदाय संक्रमण नहीं है। न्यूयार्क में गर्वनर कुओमो या ब्रितानी सरकार के मंत्री वायरस के खिलाफ लड़ाई की रोजाना जानकारी देते हुए पहले यह बताते हैं कि आज अस्पताल में इतने मरीज आए। इतने मरे और यह फलां मृत्युदर व टेस्टिंग रफ्तार है।

बहरहाल, भारत की हर दास्तां निराली है। अपना मानना है कि भारत में कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई कुल मिलाकर पुलिसकर्मियों, जिला प्रशासन कर्मचारियों और भयभीत नागरिकों की वायरस के साथ आंख मिचौली है। प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों में आत्मविश्वास, जोश खूब फूंका लेकिन लोग भय में ऐसे कंपकंपाए हुए है कि भारत में डॉक्टर, चिकित्साकर्मियों को आम नागरिक शक की निगाह से देख रहा है। लोगों का बस चले तो चिकित्साककर्मी, पुलिसजन, आवश्यक सेवाजनों, मीडियाकर्मियों को क्वरैंटाइन में डाले रखे। सरकार ने तालेबंदी के बीच में भी हॉटस्पॉट की वह स्थिति, वह जाला बना डाला है, जिसमें वायरस चुपचाप मोहल्लों, कॉलोनियों, घरों में पक रहा है क्योंकि स्क्रीनिंग में तलाश टेस्ट के सैंपल लेने वाली नहीं है, बल्कि कागज-पेन लिए इन सवालों की है कि आपके यहां कोई बीमार तो नहीं! सरकार तालाबंदी के भीतर एक और तालाबंदी में सवाल-जवाब की स्क्रीनिंग के भरोसे वायरस को खोज रही है तो मोहल्ले वाले-घरवाले खोज रहे हैं कि फलां सब्जी वाला जो आया है वह वायरस लिए मुसलमान है या हिंदू!

वुहान, इटली, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, न्यूयॉर्क ने तालांबदी के भीतर वायरस से लड़ाई में जो किया वह टेस्ट, ट्रेसिंग, इलाज के जरिए किया। पूरी दुनिया ने चौबीसों घंटे देखा है और मीडियाकर्मियों के कैमरों, एंकरों-पत्रकारों-संपादकों की सीधी रिपोर्टिंग और प्रसारण से देख रही है कि कैसे फलां अस्पताल में फलां ढंग से इलाज हो रहा है। शीशे के पार मरीज फर्श पर, वेंटिलेंटर पर लेटे हुए हैं। अस्पताल के मैदान में डॉक्टर, उनके आईसीयू का आंखों देखा हाल दिखलाते हुए पत्रकार पूरे देश को नागरिकों को लगातार चौबीसों घंटे जागरूक बना रहे हैं कि सारा दारोमदार टेस्ट और अस्पताल है। पर क्या भारत के हम लोगो ने किसी टीवी चैनल, मीडिया बहस या विचार-रिपोर्टिंग में जाना है कि जंग ए मैदान की सच्ची हकीकत क्या है?

कुल मिला कर हॉटस्पॉट के आबादी अनुपात अनुसार टेस्ट और इलाज का मसला है। इसके बिना वायरस को हरा नहीं सकते हैं। अब ऐसा क्योंकि भारत में है नहीं तो कोविड-19 से बचने के जुगाड़ में अपने आप क्रमशः मकड़जाल बनते जाना हैं।

राज्यों के लिए पैकेज का पता नहीं

कोरोना वायरस से लड़ाई में केंद्र सरकार को मेडिकल उपकरण मंगा कर राज्यों तक पहुंचाने के अलावा एक अहम काम राज्यों को आर्थिक मदद देने का था। उस बारे में केंद्र ने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है। सोमवार को प्रधानमंत्री की मुख्यमंत्रियों के साथ हुई बैठक में इस बारे में कई राज्यों ने अपनी बात रखी। इससे पहले वाली बैठक में भी कांग्रेस और दूसरे विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने पैकेज की मांग की थी। पर राज्यों के लिए आर्थिक पैकेज को लेकर सरकार कुछ नहीं कह रही है। यह कम हैरानी की बात नहीं है कि एक लाख 70 हजार करोड़ रुपए का गरीब कल्याण पैकेज घोषित करने के करीब एक महीने बाद तक सरकार ने कोई दूसरा पैकेज घोषित नहीं किया है।

लगातार इस बात की मांग हो रही है कि सरकार राज्यों के लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा करे। लघु व मझोले उद्योगों के लिए राहत की घोषणा करे। उद्योगों व कारोबारियों के लिए पैकेज का ऐलान करे। पर सरकार का एक ही जवाब है कि इस पर विचार हो रहा है। कुल मिला कर सरकार अभी मामले को टाले रखने के मूड में दिख रही है। इसका एक कारण तो यह समझ में आता है कि सरकार आर्थिक गतिविधियों को थोड़ा बहुत पटरी पर लौटने देने का इंतजार कर रही है। सरकार को नीति आयोग, आईसीएमआर और इस तरह की कुछ और संस्थाओं की ओर से दी गई आधी अधूरी सलाहों पर लगता है कि भरोसा है और वह इंतजार कर रही है कि कोरोना का मामला थम जाएगा और कामकाज शुरू हो जाएंगे तो फिर किसी तरह के खास पैकेज की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैसे भी अगर राज्योंने अच्छा काम कर दिया तो उनको श्रेय मिलेगा, जो राजनीतिक रूप से नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए राज्यों के लिए पैकेज का मामला टल रहा है।  

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए वरदान साबित हो सकता है कोरोना

 दुनिया के लिए संकट लेकर आया कोरोना डरावना तो है, लेकिन आशावादी होकर सोचें तो भारत की लंबे समय से बीमार स्वास्थ्य प्रणाली के लिए वरदान साबित हो सकता है।

शीर्ष से निचले स्तर तक प्रणाली का खोखलापन उजागर

दरअसल कोरोना ने भारत में शीर्ष से लेकर निचले स्तर तक खोखली स्वास्थ्य प्रणाली को बेनकाब कर दिया है। जरूरी दवाओं के बल्क ड्रग लिए चीन पर निर्भरता से लेकर डाक्टरों की कमी और निचले स्तर पर स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना का अभाव सबकुछ अपने विकृत रूप में सामने है।

स्वास्थ्य क्षेत्र देश की प्राथमिकता सूची में तीसरे चौथे पायदान पर

लाख घोषणाओं के बावजूद स्वास्थ्य क्षेत्र देश की प्राथमिकता सूची में तीसरे चौथे नंबर पर ही रहा। व्यक्तिगत प्राथमिकता में तो इसकी जगह और नीचे रही है। पिछले दिनों में सारे संसाधन, मेधा और शक्ति इनसे निपटने में झोंक दी गई है। उम्मीद की जा रही है कि कोरोना से निपटने के लिए हुए समुद्र मंथन से देश में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जीवनदायी अमृत निकलेगा।

भारत के पास पीपीई, एन-95 मास्क, मेडिकल उपकरण तक नहीं थे, जब कोरोना की इंट्री हुई

याद कीजिए कि जब कोरोना ने भारत में अपना पैर पसारना शुरू किया तो सबसे बड़ी समस्या क्या सामने आ रही थी। उस वक्त भारत के पास पीपीई, एन-95 मास्क से लेकर मेडिकल उपकरण तक नहीं था। मास्क तक के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता। वह भी तब जबकि हम भारत को मेडिकल टूरिज्म के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे। सबकुछ दूसरे देशों के सहारे चलता रहा। इन क्षेत्रों में निर्भरता की अभी तक कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई। कोरोना संकट के बीच में सरकार ने सिर्फ बल्क ड्रग के निर्माण के नियमों में ढील देने की नई नीति का ऐलान किया, बल्कि इसपर काम भी शुरू हो गया।

अब भारत को जरूरी दवाओं के लिए दूसरों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा

इसी तरह पीपीई, एन95 मास्क से लेकर सभी तरह के मेडिकल उपकरणों के निर्माण के लिए नई कोशिशें शुरू हो गई हैं। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में भारत इन सभी क्षेत्रों में पूरी तरह आत्मनिर्भर होगा। सैनीटाइजर जैसी चीजें भारत के 90 फीसद जैसे लोगों के लिए अब तक अनजान वस्तु थीं। अब भारत इसमें आत्मनिर्भर हो गया है। वैसे तो भारत जेनरिक दवाओं का दुनिया का सबसे बड़ा निर्माता है, लेकिन इसमें लगने वाले एपीआइ या बल्क ड्रग के लिए चीन पर निर्भर है। अब उसकी भी काट तैयार हो गई है। संभव है कि अब भारत को जरूरी दवाओं के लिए दूसरों का मुंह न ताकना पड़े

देश में मृतप्राय प्राथमिकता चिकित्सा केंद्र

बड़े शहरों तक सीमित मंहगे और अच्छे अस्पतालों के कारण देश की बड़ी आबादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित थी। आयुष्मान भारत के माध्यम से 40 फीसदी आबादी को अत्याधुनिक चिकित्सा मुहैया कराने की कोशिश जरूर की गई, लेकिन यह केवल गंभीर बीमारियों के लिए है। रोजमर्रा की बीमारियों के लिए आम लोगों के लिए इलाज का कोई विकल्प नहीं था। देश में मृतप्राय प्राथमिकता चिकित्सा केंद्रों को वेलनेस सेंटर के रूप में विकसित करने की कोशिश भी शुरू हुई और लगभग 30 हजार सेंटर को बदला भी गया, लेकिन आम लोगों तक पहुंचने में यह अभी तक सफल नहीं हो पाया।

लॉकडाउन के कारण स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी के घरों तक पहुंची

कोरोना और उसके कारण लॉकडाउन ने अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं को आम आदमी के घरों तक पहुंचाने की मजबूरी खड़ी कर दी। जाहिर है इसके उपाय के रूप में टेली-मेडिसीन और दवाइयों की होम डिलेवरी का विकल्प सामने आया। आने वाले समय में टेली-मेडिसीन ग्रामीण और स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित इलाकों में लोगों के लिए वरदान साबित हो सकता है। कोरोना के दौरान इन प्रयोगों को सभी पंचायत में टेली-मेडिसिन सेंटर विकसित कर ग्रामीण लोगों के बेहतर डाक्टरी सलाह उपलब्ध कराने में किया जा सकता है।

देश में स्वास्थ्य आधारभूत संरचना का अभाव

देश में स्वास्थ्य आधारभूत संरचना के अभाव का मुख्य कारण सरकार की प्राथमिकता में इसका पीछे रहना भी रहा। आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े के मुताबिक भारत ने 2019 में अपने कुल जीडीपी का महज 1.5 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च किया था। 2020-21 में इसे 1.6 फीसदी करने और 2025 तक 2.5 फीसदी तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। विकसित देशों को रहने भी दें तो यह विकासशील देशों की तुलना में बहुत कम है। जर्मनी अपने जीडीपी का 9.5 फीसदी, जापान 9.2 फीसदी और अमेरिका 14.3 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यहां तक कि चीन अपने जीडीपी का 2.9 फीसदी और ब्राजील 3.9 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। चूंकि कोरोना ने स्वास्थ्य को सरकार की प्राथमिकता में ला दिया है, इसीलिए माना जा रहा है कि आने वाले समय में भारत अपने जीडीपी का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना शुरू करेगा।

देश में डाक्टरों की संख्या में भारी कमी 

स्वास्थ्य सेवाओं के आम लोगों की पहुंच से दूर होने का एक प्रमुख कारण देश में डाक्टरों की संख्या में भारी कमी भी रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंड के मुताबिक देश में प्रति एक हजार की आबादी पर एक डाक्टर होने चाहिए। लेकिन भारत में 1456 लोगों पर एक डाक्टर है। वैसे सरकार ने पिछले कुछ सालों में एमबीबीएस और पीजी की सीटें बढ़ाकर और 70 जिला अस्पतालों को मेडिकल कालेज में तब्दील कर डाक्टरों की कमी को दूर करने का प्रयास किया है, लेकिन इसमें अभी समय लग सकता है। खुद स्वास्थ्य मंत्रालय का मानना है कि तमाम कोशिशों के बावजूद 2025 के पहले देश में डाक्टरों की कमी को दूर नहीं किया सकेगा।




राहुल गांधी ने मोदी सरकार को घेरा, कहा- तो इसलिए संसद में छिपाया गया सच

देश के कई बड़े पूंजीपतियों के 68,000 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज बट्टे खाते में डाले जाने से जुड़ी खबर को लेकर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को सरकार पर निशाना साधा और आरोप लगाया कि कुछ हफ्तों पहले संसद में उनके प्रश्न का उत्तर नहीं देकर, इसी सच को छिपाया गया था. कांग्रेस का दावा है कि ‘24 अप्रैल को आरटीआई के जवाब में रिज़र्व बैंक ने सनसनीखेज खुलासा करते हुए 50 सबसे बड़े बैंक घोटालेबाजों का 68,607 करोड़ रुपया ‘माफ करने' की बात स्वीकार की. इनमें भगोड़े कारोबारी मेहुल चोकसी और नीरव मोदी के नाम भी शामिल हैं'इसी को लेकर गांधी ने ट्वीट किया, ‘‘संसद में मैंने एक सीधा सा प्रश्न पूछा था- मुझे देश के 50 सबसे बड़े बैंक चोरों के नाम बताइए। वित्त मंत्री ने जवाब नहीं दिया।''

इसीलिए संसद में इस सच को छुपाया गया।

उन्होंने दावा किया, ‘‘ अब रिजर्व बैंक ने नीरव मोदी, मेहुल चोकसी सहित भाजपा के ‘मित्रों' के नाम बैंक चोरों की लिस्ट में डाले हैं. इसीलिए संसद में इस सच को छिपाया गया।'' राहुल गांधी के आक्रामक तेवरों के बाद कांग्रेस ने भी डिजिटल प्रेस कांफ्रेस कर मोदी सरकार पर जमकर हमला बोला. कांग्रेस ने RTI का हवाला देते हुए केंद्रीय कर्मचारियों के डीए कटौती का भी मामला उठाया। कांग्रेस ने कहा कि कोरोना से हर किसी का नुकसान हो रहा है। केंद्रीय कर्मचारियों ने 37 हजार करोड़ रुपये का DA घटा दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि एक तरफ सरकार प्राइवेट कंपनियों से हजारों करोड़ रुपये कोरोना से लड़ने के नाम पर ले रही है। दूसरी तरफ बैंक डिफॉल्टर्स के 68,607 करोड़ माफ कर रही है। उन्होंने इसे मोदी सरकार की जन धन गबन योजना करार दिया। 

गौरतलब है कि संसद के बजट सत्र के दौरान राहुल गांधी ने कर्ज अदा नहीं करने वाले 50 सबसे बड़े चूककर्ताओं के नाम पूछे थे। इस पर सरकार ने कहा था कि केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) की वेबसाइट पर सारे नामों को दिया जाता है और ये नाम वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

महज कानूनी प्रावधान से नहीं

पिछले हफ्ते सरकार ने डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को हमलों से बचाने के लिए एक अध्यादेश जारी कर दिया। इसके जरिए महामारी रोग अधिनियम में संशोधन कर दिया गया है। अध्यादेश के अनुसार अब स्वास्थ्यकर्मियों पर हमला एक संज्ञेय अपराध है। इसमें कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। मगर ये सवाल कायम है कि क्या इससे सचमुच स्वास्थ्यकर्मियों को अपेक्षित सुरक्षा और सामाजिक सम्मान हासिल हो जाएगा?

 मोटे तौर पर स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सामाजिक सम्मान का मुद्दा उठाना अजीब-सा लगता है। आखिर आम धारणा यही है कि डॉक्टर समाज के सबसे सम्मानित पेशों में है। मगर ताजा अनुभव यह है कि डॉक्टर भगवान है कि मान्यता सिर्फ तब तक होती है, जब तक वे अस्पताल में होते हैं। वरना, कोरोना जैसी महामारी के समय उनकी अपनी कॉलोनियों और हाउजिंस सोसाइटीज में जैसा व्यवहार हुआ है, उससे ये साफ हो गया है कि डॉक्टरों को भगवान मानने जैसी बातें असल में पाखंड हैं। हमारा समाज बहुत से पूर्वाग्रहों से पीड़ित है और कोरोना जैसे मौकों पर उसके शिकार डॉक्टर भी बन जाते हैं। सवाल है कि इस सोच से डॉक्टरों को कैसे सुरक्षा मिलेगी? इसके लिए जिस सामाजिक शिक्षण की जरूरत है, उसका लगातार लोप हो जाता रहा है।

समाज में वैज्ञानिक सोच पर अंधविश्वास और निराधार मान्यताओं को लगातार प्रतिष्ठित किया जा रहा है। ऐसे में सिर्फ कानून से स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षा देने की बात छलावा साबित हो सकती है। बेशक डॉक्टर भी अपने पेशे को बदनाम करने के लिए दोषी हैं। प्राइवेट स्वास्थ्य व्यवस्था का व्यापारीकरण जिस तेजी से बढ़ा है, उससे इस पेशे की इज्जत घटी है। लेकिन इसका समाधान डॉक्टरों पर हमला नहीं है। बहरहाल, स्वास्थ्यकर्मियों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून लाना पूरे देश में स्वास्थकर्मियों की पुरानी मांग रही है। डॉक्टरों पर हमले भारत में एक बड़ी समस्या है। लगभग एक साल पहले पूरे देश में इस तरह के हमलों के मामले काफी बढ़ गए थे, जिसके बाद देश में डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी थी और आंदोलन भी किया था। डॉक्टरों ने सरकार से उनकी सुरक्षा के लिए विशेष इंतजाम करने की मांग की थी। अब ये मांग पूर हो गई है। मगर बाकी समस्याएं कायम हैं। स्वास्थ्यकर्मी सचमुच सुरक्षित और सम्मानित हों, इसके लिए इस पेशे से जुड़े लोगों को भी आत्ममंथन करना होगा और पूरे समाज को भी।

सबको राहत देने की जरूरत

सरकारें जब भी राहत या आर्थिक पैकेज का ऐलान करती है या किसी कल्याणकारी योजना की घोषणा करती है तो उसका एक टारगेट होता है। एक लक्षित समूह होता है, जिस तक मदद पहुंचानी होती है। मिड डे मील से लेकर मनरेगा और अंत्योदय तक हर योजना का लाभ लेने वाला एक लक्षित समूह है। पर इस सिद्धांत पर नियम और कानून तब बनते हैं, जब देश में सामान्य हालात होते हैं और सरकार के पास कुछ आंकड़े होते हैं, जिनके आधार पर उसे एक लक्षित समूह की मदद करनी होती है। पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा के समय में इस सिद्धांत पर कानून नहीं बनाया जा सकता है। जैसे अभी कोरोना का संकट चल रहा है। ऐसे समय में सरकार को एक लक्षित समूह की बजाय देश के सभी नागरिकों या ज्यादा से ज्यादा नागरिकों तक राहत पहुंचाने की नीति पर काम करना चाहिए।

भारत की आबादी और आर्थिक आधार पर इसे वर्गीकरण को बहुत सरल तरीके से भी देखें तो यह बहुत स्पष्ट है कि देश की 80 फीसदी आबादी को मदद की जरूरत है। मोटे तौर पर अगर आबादी को समूहों में बांटें तो तीन ऐसे समूह बनते हैं, जिनको अभी तत्काल मदद की दरकार है। इनमें सबसे पहला समूह मजदूरों का है, जिनमें खेत मजदूर भी शामिल हैं। दूसरा समूह किसानों का है और तीसरा स्वरोजगार वालों का है। इसके अलावा हाशिए के और वंचित समूहों का एक बड़ा हिस्सा है, जिनमें जंगल में रहने वाले आदिवासी, बेघर लोग, थर्ड जेंडर के लोग, बुजुर्ग आदि आते हैं। इन सबका कुल हिस्सा आबादी में 80 फीसदी या उससे ज्यादा ही बनेगा। कोरोना वायरस के संक्रमण और उसे रोकने के लिए देश भर में लागू लॉकडाउन की वजह से सबसे ज्यादा यहीं वर्ग प्रभावित हुआ है।  

सो, सरकार को अपनी तमाम लक्षित योजनाओं को छोड़ कर 80 फीसदी आबादी की मदद की योजना शुरू करनी चाहिए। सरकार की ओर से कहा जा सकता है कि वह मनरेगा के तहत काम दे रही है या राशन बांट जा रहा है या किसान सम्मान निधि भेजी जा रही है। पर इस समय टुकड़ों में मदद करने की जरूरत नहीं है, बल्कि समग्रता में मदद करने की जरूरत है। देश की 80 फीसदी आबादी को एक समूह मान कर सारी मदद उन तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि सरकार इनकी मदद करने में सक्षम नहीं है। सरकार के पास अनाज भी है और उसके पास पैसा भी है, जिससे वह इन समूहों की मदद कर सकती है।

भारत सरकार के गोदामों में इस समय अनाज भरा हुआ है। सरकार के पास 74 मिलियन टन यानी कोई साढ़े सात करोड़ टन अनाज है। इसमें कोई ढाई करोड़ टन गेहूं और सवा तीन करोड़ टन चावल है। बाकी दूसरे अनाज है। सरकार के अपने नियमों के मुताबिक आपात स्थिति के लिए उसके गोदाम में ढाई करोड़ टन यानी 25 मिलियन टन अनाज का बफर स्टॉक होना चाहिए। इस लिहाज से भी सरकार के पास कोई 50 मिलियन टन यानी पांच करोड़ टन अनाज अतिरिक्त है, जिसे गोदाम में रखे रहने पर ही भारी भरकम खर्च आता है। एक अनुमान के मुताबिक एक किलो अनाज एक साल तक गोदाम में रहे तो सरकार को उस पर पांच रुपए खर्च करने होते हैं। सोचें, सरकार को कितने हजार करोड़ रुपए इस अनाज को गोदाम में रखने पर खर्च करने पड़ रहे हैं। ऊपर से अभी सरकार करीब 40 मिलियन टन रबी की फसल खरीदने वाली है। उसे रखने के लिए जगह भी कम पड़ेगी। तभी सरकार को चाहिए कि वह गोदाम से अनाज निकाले और उसे 80 फीसदी आबादी के घरों तक पहुंचाने का बंदोबस्त करे। अगर सरकार पांच व्यक्ति के परिवार को 50 किलो अनाज भी देती है तब भी बफर स्टॉक बचा रहेगा।

सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि जिन 80 फीसदी लोगों तक राहत पहुंचाने की बात हो रही है उसमें ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिनका कामकाज बंद हुआ। दिहाड़ी मजदूरों का कामकाज बंद है तो स्वरोजगार करने वालों का धंधा भी ठप्प है। किसान कई तरह के संकट झेल रहे हैं क्योंकि उत्पादन से लेकर आपूर्ति तक की सारी चेन टूटी हुई है। इसलिए सरकार को इन समूहों के लिए नकद राशि का भी इंतजाम करना होगा। राशन पहुंचाने के मुकाबले नकद पहुंचाना थोड़ा मुश्किल और तकनीकी काम है पर अगर सरकार मनरेगा के खातों और पेंशन खातों के जरिए पैसा भेजा जा सकता है।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बनाई सलाहकार समूह के प्रमुख मनमोहन सिंह ने सभी जन धन खातों में सात हजार रुपए डालने का सुझाव दिया है। एक अनुमान के मुताबिक सरकार अगर जन धन खातों, मनरेगा खातों और वृद्धावस्था या दिव्यांग पेंशन पाने वालों के खातों को मिला कर कुल 80 फीसदी आबादी के लिए प्रति व्यक्ति सात हजार रुपए भी डाले तो सवा चार लाख करोड़ रुपए से कुछ ज्यादा का खर्च आएगा। इसका मतलब है भारत के अनुमानित जीडीपी का ढाई फीसदी। यह सरकार के लिए कोई बहुत बड़ी रकम नहीं है। अमेरिका अपने यहां अब तक 24 सौ अरब डॉलर यानी करीब 180 लाख करोड़ रुप का राहत पैकेज बांट चुका है, जो उसकी जीडीपी के दस फीसदी से कुछ ज्यादा है। भारत में तो सिर्फ पांच-छह लाख करोड़ रुपए का पैकेज बांटने की बात हो रही है। और यह भी जीडीपी के ढाई-तीन फीसदी से ज्यादा नहीं होगा। सरकार लघु व मझोले उद्योगों के लिए पैकेज दे, बड़े उद्योगों के लिए भी राहत की व्यवस्था करे, वेतनभोगियों के बारे में भी सोचे पर उससे पहले 80 फीसदी हाशिए के लोगों के जीवन और उनकी आजीविका के बारे में सोचे।