मंगलवार, 7 अगस्त 2018

पत्रकारिता के इन चेहरों पर क्या कहूं!

विवेक सक्सेना
जब मैं भारतीय प्रेस परिषद का सदस्य था तब एक मामले के सुनवाई के दौरान परिषद के अध्यक्ष व सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ने मुझसे कहा कि इस मामले में मैं सवाल पूछूं क्योंकि वे दक्षिण भारतीय थे व उनकी हिंदी बहुत अच्छी नहीं थी। मामला एक संपादक ने दायर किया था जिसमें उसने अपने इलाके गाजियाबाद के मजिस्ट्रेट व पुलिस अधीक्षक को प्रतिवादी बनाया था।

संपादक की शक्ल व पहनावा देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि वह अखबार निकालता होगा। मैंने उससे पूछा कि क्या उसे अखबार से इतनी आमदनी हो जाती है कि वह उसके जरिए अपना जीवन व्यापन कर सके तो उसने ना में सिर हिलाते हुए कहा कि नहीं। अपना खर्च चलाने के लिए वह सायकिल रिक्शा चलाता है।

मैं हैरान हुआ। मैंने उससे कहा कि तुम संपादक होते हुए रिक्शा चलाते हो तो उसने मुझे घूरते हुए कहा कि संविधान में कहां लिखा है कि रिक्शा चालक अखबार नहीं निकाल सकता है। इसके साथ ही उसने कहा कि मैं पांचवी फेल हूं।

पता नहीं उसे यह जानकारी थी या नहीं कि मैं इंडियन एक्सप्रेस समूह में हूं। पर उसने कहा कि रामनाथ गोयनका तो 18 अखबार निकालते थे। इनमें तमिल, तेलगू सरीखी भाषाएं भी शामिल थीं। क्या उनको ये भाषाएं आती है? अखबार निकालने के लिए उस भाषा की जानकारी व विद्वान होना कहां जरुरी है?

उसकी बात सुनकर मैं चुप हो गया। उससे पीछा छुड़ाने के लिए मैंने मजिस्ट्रेट व पुलिस अधीक्षक से पूछा कि उनकी क्या शिकायत है एवं वे इससे क्यों दुखी है। इस पर उन्होंने एक स्वर में अपनी सीट से खड़े होकर मुझसे समवेत स्वरों में कहा ‘न्यायमूर्ति’ यह शब्द सुनकर मेरी हंसी छुटते छुटते बची मैंने अपनी पेंसिल नीचे गिरा दी व उसे उठाने के बहाने मेज के नीचे झुककर धीमी आवाज में हंसी पूरी कर दी। क्योंकि मैं वह व्यक्ति था जिसे हाई कर्ट के न्यायाधीश का दर्जा दिए जाने व सरकारी गजट जारी होने के बावजूद अपने अखबार के तत्कालीन संपादक के बेवजह क्रोध व मनमानी का शिकार बनना होता था।

परिषद की मीटिंग को सरकारी कार्य घोषित किए जाने के बावजूद मैं छुट्टी लेकर उसमें हिस्सा लेता था और उस दिन मुझे पता चला कि इस देश में पत्रकारिता व राजनीति में कितनी समानताएं हैं। दोनों में आगे बढ़ने के लिए शिक्षा, योग्यता आदि का होना जरुरी नहीं है। आप अंगूठा छाप होते हुए भी शिक्षा मंत्री बन सकते हैं।

भले ही आपने कभी जीवन में दीपावली में पटाखे वाला तंमचा और सायकिल भी नहीं चलाया हो मगर आप रक्षा मंत्री बनकर हैलीकाप्टर, टैंक से लेकर विमान सरीखी सामरिक वस्तुओं को खरीदने का फैसला कर सकते हैं। आप चाय व पकौड़ै बेचकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनने की कल्पना कर सकते है। सपने देख सकते है व आपकी किस्मत ने साथ दिया तो ये हासिल भी कर सकते हैं।

मैंने अपने जीवन में इसके बहुत करीबी अनुभव किए है। दिल्ली तो बहुत दूर मानता हूं देश की संसद तक में बड़ी तादाद में ऐसे पत्रकार है जिनके बारे में यह तक नहीं पता कि उनका अखबार कौन सा है? अगर आप उनसे पूछे कि किस अखबार में हो तो जवाब मिलेगा वहीं पुराना। उसका नाम क्या है ? अभी तक वहीं चल रहा है। कहां से छपता है ? वहीं से ? आदि मगर जब किसी खबरिया चैनल की कवरेज आती है तो वे संसद के बाहर किसी नेता के साथ भीड़ में खड़े उनकी बाते नोट करते दिख जाएंगे।

इससे नेता को लगता है कि वे बहुत बड़े पत्रकार है। वैसे मेरा शुरु से मानना रहा है कि कोई भी सक्रिय व सत्ता भोग रहा नेता अखबार नहीं पढ़ता है। वह इसको पढ़ने में समय बर्बाद करने की जगह वह समय अपना धंधा करने में लगाता है। इस तरह के पत्रकारों को हमारी भाषा में एनटीआर (नथिंग टू रिपोर्ट) कहा जाता है। इसके बाजवूद वे हर नेता के भोज में सबसे पहले पहुंचते है। अपने फोन से उसके साथ खाना खाते हुए तस्वीरे खींचते हैं। जितना व जैसा जनाधार इन नेताओं का होता है वैसा ही इन पत्रकारों का भी होता है मगर प्रेस कान्फ्रेंस में सबसे ज्यादा सवाल पूछकर नेता पर छा जाते हैं व उसे यह लगता है कि वे तो बहुत बड़े पत्रकार है।

ये पत्रकार लोग अपना दिन प्रेस क्लब में बिना कुछ खाए पिए बिताते हैं। पानी उन्हें मुफ्त में मिलता है व अगर किसी एक को किसी प्रेस कान्फ्रेंस या खाने का पता चलता है तो सब मिलकर वहां पहुंच जाते हैं और बाद में नेता को घेरकर होली-दीवाली पर छपने वाले अपने अखबार या पत्रिका के लिए विज्ञापन ले आते है। मगर पत्रकारों का हमेशा महत्व रहा है। भले ही उनके अखबार या पत्रिका को कोई भी नहीं पूछता हो।

महात्मा गांधी पत्रकार थे। सभी दलों ने पत्रकारों को राजनति में जगह दी। इन्हें संसद में भेजा। इनमें शिवसेना से लेकर कांग्रेस व भाजपा तक शामिल है। एम जे अकबर तो राजनीति में आने के पहले तक अपना अखबार निकालते थे। हाल के वर्षों में तो पत्रकारों ने भी दल बदल करना शुरु कर दिया।

यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि जब अखबारों में एनजीओ चलाने व अखबार छापने वाले ब्रजेश ठाकुर व इसके गुट द्वारा बड़ी दादाद में लड़कियों से देह व्यापार करवाने की खबर छपी तो ये तमाम घटनाएं याद आ गई। वह राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार था। प्रभात कमल (हिंदी), ‘हालत ए बिहार (उर्दू)’ व न्यूज नैक्सट (अंग्रेजी) सरीखे तीन अखबारों का चलाता था व करोड़ों रुपए के सरकारी विज्ञापन लेता था। वह अनेक बार एक राजनीतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़ा।

उसने सरकार से लेकर महिला आयोग तक के लोगों को अपनी जेब में डाल रखा था। वह राज्य के विभिन्न दलों के नेताओं का बहुत करीबी था। वह सरकार से मदद लेकर लड़कियों के रहने वाले एनजीओ चलाता और फिर उन लड़कियों को नेताओं व दूसरे लोगों की सेवा में भेज कर उसके लिए पैसा हासिल करता। वैसे अपना मानना है कि जब समाज व लोकतंत्र में गिरावट आती है तो उसका कोई भी स्तंभ इसका शिकार बनने से बच नहीं सकता है।

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