बुधवार, 29 अगस्त 2018

प्रोमोशन में भी आरक्षण आखिर कितना न्यायपूर्ण है

भारतीय जनता पार्टी ने एक वोट बैंक के लिए अपने एक दूसरे वोट बैंक को दांव पर लगा दिया है। शायद यह सोचते हुए कि सवर्ण वोटरों के पास उसे वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ उस याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें एससी एसटी की ‘क्रीमी लेयर’ को प्रमोशन में आरक्षण का लाभ न देने की गुजारिश की गई है। लेकिन केंद्र सरकार इस याचिका का विरोध कर रही है। जबकि संविधान पीठ के जजों ने केंद्र से पूछा है कि आखिर ‘क्रीमी लेयर' को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। गौरतलब है कि 2006 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर के तहत पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, लेकिन एससी-एसटी मामले में आरक्षण का लाभ बना हुआ है। कोर्ट ने प्रमोशन देने के साथ जो तीन शर्ते जोड़ी थी। वो हैं- पिछड़ेपन की पहचान, अपरिहार्य वजहें, और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व। अगर इन तीन आधारों पर आरक्षण जायज है, तभी ही इसका लाभ दिया जाना चाहिए। अब सरकार चाहती है कि अदालत अपने इस फैसले पर फिर से विचार करे। उसका कहना है कि पिछड़ेपन का परीक्षण करना जरूरी नहीं है। इस दलील के पीछे दृष्टिकोण ये है कि दलित जातियां हजारों वर्षों के दमन और उत्पीड़न की वजह से पिछड़ी हुई रही हैं। इसलिए ये व्यवस्था बनी रहनी चाहिए।

इस साल पांच जून को अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को एससी-एसटी कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने की मंजूरी दे दी थी। लेकिन इसी बीच ये मामला संविधान पीठ के पास सुनवाई के लिए आ गया। लिहाजा पुराना आदेश अभी प्रभावी नहीं रह गया है। वैसे ये तथ्य है कि आईएस, आईपीएस और आईएफएस जैसी सर्वोच्च सिविल सेवाओं में एससी, एसटी और ओबीसी अधिकारियों की संख्या निर्धारित कोटे से कम है। पदानुक्रम में जैसे-जैसे वो सीढ़ियां चढ़ते हैं, तो एससी-एसटी कर्मचारियों की संख्या घटती जाती है। यानी ये दिखता है कि आरक्षण की व्यवस्था भी पूरा न्याय नहीं कर पा रही है। 2015 में एक आरटीआई के जवाब में पाया गया कि केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण के बावजूद 12 प्रतिशत से भी कम ओबीसी कर्मचारी हैं। नियुक्ति देने वाले कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग में भी हालात खराब है। इसलिए आरक्षण का तर्क बना हुआ है। लेकिन प्रोमोशन में भी आरक्षण आखिर कितना न्यायपूर्ण है? 

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