शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

वाजपेयी को माला पहनाकर भुलाया नहीं जा सकता है

 जगजाहिर विशेष   भाषाओं, विचारधाराओं और संस्कृतियों के भेद से परे एक कद्दावर और यथार्थवादी करिश्माई राजनेता. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रबुद्ध वक्ता और शांति के उपासक होने के साथ साथ हरदिल अजीज और मंझे हुए राजनीतिज्ञ भी थे. वह वास्तव में भारतीय राजनीति के ‘अजातशत्रु’ थे.

वाजपेयी, जिनका गुरुवार को 93 वर्ष की उम्र में निधन हो गया, केंद्र में पांच साल पूरे करने वाली गैर कांग्रेसी सरकार के पहले प्रधानमंत्री थे. 1996 में केंद्र की सत्ता में भाजपा की ताजपोशी वाजपेयी की कमान में ही हुयी थी.

हालांकि यह सत्ता मात्र 13 दिन की थी क्योंकि गठबंधन सरकार अन्य दलों का समर्थन जुटाने में विफल रही थी लेकिन वाजपेयी के करिश्माई व्यक्तित्व के बल पर ही भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन की सरकार 1998 में फिर सत्ता में लौटी और अजब संयोग कहिए कि 13 दिन के बाद इस बार 13 महीने में सरकार अविश्वास प्रस्ताव की अग्नि परीक्षा को पास नहीं कर पाई और गिर गई.

अक्टूबर 1999 भाजपा के लिए काफी शुभ रहा और वाजपेयी का करिश्मा इस बार भी चमत्कार करने में कामयाब रहा और वह फिर से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक सरकार (राजग) के प्रधानमंत्री बने.

इस बार उनकी सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया और स्वतंत्रता सेनानी से शुरू होकर एक पत्रकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता, संसद सदस्य, विदेश मंत्री, विपक्षी नेता तक का उनका राजनीतिक कैरियर एक ऐसे मोड़ पर आकर इतने गरिमामय तरीके से संपन्न हुआ कि वाजपेयी जन-जन के प्रिय बन गए.

अपनी पीढ़ी के अन्य समकालीनों की तरह ही वाजपेयी ने मात्र 18 साल की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन के जरिए 1942 में राजनीति में प्रवेश किया. उस समय देश में भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था.

जिंदगी भर कुंवारे रहे वाजपेयी पहली बार 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से लोकसभा के लिए चुने गए थे. ये देश का दूसरा आम चुनाव था. संसद में अपने पहले ही भाषण से युवा नेता वाजपेयी ने अपने समकक्षों और वरिष्ठों का दिल जीत लिया.

उनका भाषण इतना सारगर्भित था कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक सम्मानित मेहमान के समक्ष उनका परिचय कुछ इस प्रकार दिया था, ‘ये युवा एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा.’
अटल बिहारी वाजपेयी 47 सालों तक संसद सदस्य रहे-दस बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सदस्य के रूप में.

भारतीय राजनीति में वाजपेयी एक प्रमुख हस्ताक्षर बनकर उभरे और राजनीति के उतार-चढ़ावों के बीच उन्होंने ऐसी पद प्रतिष्ठा पाई कि न केवल उनकी अपनी पार्टी और सहयोगी दल बल्कि विपक्षी भी उनसे दिल खोलकर गले मिलते थे.

अंग्रेजी के वह धाराप्रवाह वक्ता थे लेकिन उनकी आत्मा हिंदी में बसती थी. जब वह हिंदी में अपने विशिष्ट अंदाज में लंबे अंतरालों के साथ भाषण देते थे तो लगता था उनकी जिह्वा पर देवी सरस्वती आ बैठी है.

अपनी भाषण कला और उदात्त विचारों ने उन्हें आम जन, राजनेताओं और विश्व नेताओं का एक ऐसा चहेता नेता बना दिया था जिसकी छाया में सभी विचारधाराएं, सभी वाद और सर्वधर्म विश्राम पाता था.

वह 1977 में मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री रहे. वह पहले नेता थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण दिया था.

मार्च 2015 में उन्हें देश के सबसे उच्च और प्रतिष्ठित सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया. केंद्र में उनके छह साल के कार्यकाल को कुछ संकटों का भी सामना करना पड़ा.

1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर उसे अफगानिस्तान के कंधार ले जाने की घटना, साल 2001 में संसद पर हमला, साल 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगे कुछ ऐसी ही घटनाएं थीं.

हालांकि उनकी सरकार ने देश की ढांचागत परियोजनाओं पर भी अपनी छाप छोड़ी और स्वर्ण चतुर्भुज राजमार्ग नेटवर्क सर्वाधिक सराहनीय रही जिसके माध्यम से भारत के चार प्रमुख महानगरों को 5,846 किलोमीटर लंबे सड़क नेटवर्क से जोड़ा गया.

विदेशों में एक महान राजनेता के तौर पर पहचान रखने वाले वाजपेयी का प्रधानमंत्री के रूप में 1998 से 1999 तक का कार्यकाल साहसिक कदम के लिए जाना जाता है.

भारत ने उनके नेतृत्व में मई 1998 में राजस्थान के पोखरण रेंज में सफल परमाणु परीक्षण कर दुनिया में अपनी धाक जमा दी. इस परीक्षण के कारण भारत को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा किंतु वाजपेयी के कुशल नेतृत्व में देश उन अड़चनों से पार पा गया. साथ ही उन्होंने भविष्य में ऐसे किसी परीक्षण पर स्वत: रोक का भी ऐलान किया.



इसके बाद शांति के मसीहा के रूप में वाजपेयी ने पाकिस्तान की ओर शांति का हाथ बढ़ाया और फरवरी 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच पहली बस में सवार होकर लाहौर पहुंचे. पड़ोसी के साथ शांति की ओर कदम बढ़ाने में उन्होंने पार्टी के आलोचकों की परवाह नहीं की. इस ऐतिहासिक यात्रा में देव आनंद जैसे अभिनेता उनके साथ गए थे. वहां प्रधानमंत्री ने तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात की और उनकी इस मुलाकात को दोनों देशों के संबंधों में एक नए युग की शुरुआत बताया गया.

हालांकि पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ वाघा सीमा पर उनकी अगवानी करने नहीं आए और बहुत जल्द ही उनके न आने का कारण स्पष्ट हो गया था. पाकिस्तान ने दोहरा खेल खेलते हुए भारत पर करगिल युद्ध थोप दिया. वाजपेयी के कुशल नेतृत्व में देश की सेनाओं ने उसे करारा जवाब दिया. वाजपेयी के हौसले और कूटनीतिक कदमों के चलते पाकिस्तान को अपने घुसपैठिए वापस बुलाने पड़े.

देश में वाजपेयी की जय जयकार के नारे गूंज उठे. लाहौर शांति पहल विफल होने पर वाजपेयी ने 2001 में जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर सम्मेलन के जरिए एक और कोशिश की, लेकिन वह भी नाकाम रही.

वाजपेयी जी के राजनीतिक जीवन में एक और भी ऐतिहासिक पल था जब उन्होंने वर्ष 2002 में गुजरात में गोधरा कांड के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों पर अपना क्षोभ जाहिर किया था. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के प्रधानमंत्री थे.

दंगों से वह इतने व्यथित हुए कि अपनी भावनाओं को छुपा नहीं सके और उन्होंने वह ऐतिहासिक बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार को ‘राजधर्म’ का पालन करना चाहिए. पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा भी है कि गुजरात दंगे ‘संभवत: वाजपेयी सरकार पर सबसे बड़ा धब्बा थे.’ ये भाजपा को 2004 के आम चुनाव में भारी पड़ सकते थे.

राजग के चुनाव हारने के बाद वाजपेयी ने 2005 में राजनीतिक जीवन से संन्यास ले लिया. उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठा. वह 1957 में पहली बार सांसद बने थे. वर्ष 2004 के आम चुनाव में उनकी पार्टी भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा. बाद में वाजपेयी का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और धीरे-धीरे वह सार्वजनिक जीवन से दूर होते चले गए.

किशोरावस्था में उन्हें ब्रिटिश शासन का विरोध करने के कारण जेल भी जाना पड़ा. पहले वह साम्यवादी थे, लेकिन बाद में हिंदू राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ से जुड़ गए. उन्होंने 1950 के दशक के शुरू में आरएसएस की पत्रिका चलाने के लिए स्कूल छोड़ दिया था. 1942 से 1945 तक वह भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे.

वह भारतीय जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अनुयायी थे. मुखर्जी ने जब कश्मीर से संबंधित मुद्दों को लेकर आमरण अनशन किया तो उस समय वाजपेयी ने उनका साथ दिया. कमजोरी, बीमारी और जेल में रहने के कारण मुखर्जी का निधन युवा वाजपेयी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ.

कलम के भी धनी वाजपेयी राष्ट्रदूत पत्रिका तथा वीर अर्जुन समाचारपत्र के सम्पादक भी थे. अविवाहित रहे वाजपेयी ने जीवन के हर रंग को अपनी कविताओं में बखूबी उकेरा. उनकी कविता का मूल स्वर राष्ट्रप्रेम ही था. वाजपेयी को कम शब्दों में परिभाषित करने के लिए उनकी यह पंक्ति पर्याप्त हैं,



10 बार लोकसभा, दो बार राज्यसभा के लिए चुने गए
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कुल मिलाकर 47 साल तक संसद के सदस्य रहे. वह 10 बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के लिए चुने गए.
वह 1984 में लोकसभा चुनाव हारे थे जब कांग्रेस के माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर में उन्हें करीब दो लाख वोटों से शिकस्त दी थी.

वाजपेयी ने 10वीं, 11वीं, 12वीं, 13वीं और 14वीं लोकसभा में 1991 से 2009 तक लखनऊ का प्रतिनिधित्व किया. दूसरी और चौथी लोकसभा के दौरान उन्होंने बलरामपुर का नेतृत्व किया, पांचवीं लोकसभा के लिए वह ग्वालियर से चुने गए जबकि छठीं और सातवीं लोकसभा में उन्होंने नयी दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया.

वाजपेयी 1962 और 1986 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए. मुंबई में पार्टी की एक सभा में दिसंबर 2005 में वाजपेयी ने चुनावी राजनीति से अपने को अलग करने की घोषणा की. वह करीब 47 सालों तक सांसद रहे.

वाजपेयी 1996 से 2004 के बीच तीन बार प्रधानमंत्री भी रहे. पहली बार 13 दिन के लिये, फिर 1998 और 1999 के बीच 13 महीनों के लिए और फिर 1999 से 2004 तक.


अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय समाज के उस मर्म को बखूबी समझते रहे कि अति की सोच भारत जैसे लोकतांत्रिक-सेक्युलर देश में संभव नहीं है. इसलिए पीएम की कुर्सी पर बैठे भी तो उन विवादास्पद मुद्दों को दरकिनार कर जिस पर देश में सहमति नहीं है.


वाजपेयी की कविताएं, वाजपेयी के साहसिक निर्णय. वाजपेयी की संवेदनशीलता. वाजपेयी की कश्मीर नीति. वाजपेयी की सरकार चलाने की काबिलियत.

अटल बिहारी वाजपेयी को कैसे याद करें या किन-किन खांचों में वाजपेयी को बांटे? ये सवाल भी है और शायद जवाब भी कि वाजपेयी को किसी एक फ्रेम में माला पहनाकर याद करते हुए भुलाया नहीं जा सकता है.

यादों की परतें वाजपेयी के सरोकार से खुलेंगी तो फिर नेहरू से लेकर मोदी तक के दौर को प्रभावित करने वाले शख्स के तौर पर रेखाएं खिंचने लगेंगी. जिक्र नेहरू की कश्मीर नीति पर संसद के भीतर पिछली बेंच पर बैठे युवा अटल बिहारी वाजपेयी के उस आक्रोश से भी छलक जाएगा जो श्यामाप्रसाद मुखर्जी की सोच तले नेहरू को खारिज करने से नहीं चूकते.

पर अगले ही क्षण नेहरू के इस एहसास के साथ भी जुड़ जाते हैं कि राष्ट्र निर्माण में पक्ष-विपक्ष की सोच तले हालातों को बांटा नहीं जा सकता बल्कि सामूहिकता का निचोड़ ही राष्ट्रनिर्माण की दिशा में ले जाता है.

और शायद यही वजह भी रही कि नेहरू के निधन पर संसद में जब वाजपेयी बोलने खड़े हुए तो संसद में मौजूद तमाम धुरंधर भी एकटक 40 बरस के युवा सांसद की उस शब्दावली में खो गए जो उन्होने नेहरू के बारे में कहीं.

देश की सांस्कृतिक विरासत और आजादी के संघर्ष को एक ही धागे में पिरोकर वाजपेयी ने नेहरू के बारे में जो कहा उसके बाद तब के उपराष्ट्रपति जाकिर हुसैन से लेकर गुलजारी लाल नंदा ने भी तारीफ की.

ये वाजपेयी का ही कैनवास था कि राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ के प्रचारक के तौर पर जनसंघ की उम्र पूरी होने के बाद जब 1980 में भाजपा बनी तो वाजपेयी ने अपने पहले ही भाषण में गांधीवादी समाजवाद का मॉडल अपनी पार्टी के लिए रखा.

यानी नेहरू की छाप वाजपेयी पर घुर विरोधी होने के बावजूद कितनी रही ये महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि विचारों का समावेश कर कैसे भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की जड़ों को और मजबूत किया जा सकता है, इस दिशा में बढ़ते वाजपेयी के कदम ने ही उन्हें जीवित रहते वक्त ही एक ऐसे लीजेंड स्टेट्समैन के तौर पर मान्यता दिला दी कि देश के किसी भी प्रांत में, किसी भी पार्टी की सरकार हो या फिर देश में उनके बाद मनमोहन सिंह की सरकार बनी या अब नरेंद्र मोदी अगुवाई कर रहे हैं लेकिन हर मुद्दे को लेकर वाजपेयी डॉक्टरिन का जिक्र हर किसी ने किया.

कल्पना कीजिये कश्मीर के अलगाववादी नेता भी वाजपेयी की कश्मीर नीति के मुरीद हो गए और लाहौर यात्रा के दौरान वाजपेयी ने जब पाकिस्तान की जनता को संबोधित किया तो नवाज शरीफ ये बोलने से नहीं चूके कि ‘वाजपेयी जी, आप तो पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं.’

यूं वाजपेयी के बहुमुखी व्यक्तित्व की ये सिर्फ खासियत भर नहीं रही कि आज शिवसेना को भी वाजपेयी वाली भाजपा चाहिए. और ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक से लेकर डीएमके-एआईडीएमके भी वाजपेयी के मुरीद रहे और हैं.



बल्कि भाजपा की धुर विरोधी कांग्रेस को भी वाजपेयी अपने करीब पाते रहे. इसीलिए तेरह दिन की सरकार गिरी तो अपने भाषण में वाजपेयी ने बेहद सरलता से कहा, ‘विपक्ष कहता है वाजपेयी तो ठीक हैं पर पार्टी ठीक नहीं. यानी मैं सही हूं और भाजपा सही नहीं है. तो मैं क्या करूं. पर मेरी पार्टी, मेरी विचारधारा भाजपा से जुड़ी है.’

यूं सच यही है कि सत्ता चलाने का हुनर भर ही नहीं बल्कि नीतियों का समावेश कर भारतीय जनमानस के अनुकूल करने की सोच कैसे वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जीवन में ढाली और हर किसी को प्रभावित किया, ये इससे भी साबित होता है कि पीवी नरसिम्हा राव की आर्थिक सुधार की नीतियों को ट्रैक-टू के जरिये 1998-2004 के दौर में यह जानते-समझते हुए अपनाया कि संघ परिवार इसका विरोध करेगा.

वो भारतीय मजदूर संघ व स्वदेशी जागरण मंच के निशाने पर होंगे. पर डिसइनवेस्टमेंट से लेकर एफडीआई और खुले बाजार के प्रर्वतक के तौर पर वाजपेयी ने सरकार चलाते हुए तब भी कोई समझौता नहीं किया जब दत्तोपंत ठेंगड़ी, गुरुमूर्त्ति, गोविंदाचार्य और मदगनदास देवी उनकी नीतियों का खुले तौर पर विरोध करते नजर आए.

विरोध हुआ तो वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को पद से हटाया जरूर लेकिन उसके बाद बने वित्तमंत्री जसवंत सिंह ने भी आर्थिक सुधार के ट्रैक-टू की लकीर को नहीं छोड़ा.

फिर खासतौर से मंडल-कमंडल में फंसे देश के बीच वाजपेयी के सामने ये भी मुश्किल थी कि वह किस दिशा में जाये. पर सामूहिकता का बोध लिए राजनीति को साधने वाले वाजपेयी की ही ये खासियत थी कि ना तो वह वीपी सिंह के मंडल कार्ड के साथ खड़े हुए और ना ही सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए निकली आडवाणी की रथयात्रा में कहीं नजर आये.

यानी वाजपेयी भारतीय समाज के उस मर्म को बखूबी समझते रहे कि अति की सोच भारत जैसे लोकतांत्रिक-सेक्युलर देश में संभव नहीं है. इसलिए पीएम की कुर्सी पर बैठे भी तो उन विवादास्पद मुद्दों को दरकिनार कर जिस पर देश में सहमति नहीं है.

पर भाजपा ही नही संघ परिवार के भी वह मुख्य मुद्दे हैं. धारा 370, कॉमन सिविल कोड और अयोध्या में राम मंदिर. यानी सहमति बनाकर सत्ता कैसे चलनी चाहिए और सत्ता चलानी पड़े तो सहमति कैसे बनायी जानी चाहिए, इस सोच को जिस तरह वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जिंदगी में उतारा उसी का असर रहा कि नेहरू ने जीते जी युवा वाजपेयी की पीठ ठोंकी.

इंदिरा गांधी भी अपने समकक्ष वाजपेयी की शख्सियत को नकार नहीं पायी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी वाजपेयी के मुरीद रहे बिना राजनीति साध नहीं पाये. और इन सब के पीछे जो सबसे मजबूत विचार वाजपेयी के साथ रहा वह उनकी मानवीयता के गुण थे.

और इसकी जीती-जागती तस्वीर लेखक यानी मेरे सामने 2003 में तब उभरी जब वाजपेयी आंतकवाद से प्रभावित कश्मीर पहुंचे. और वहां उन्होंने अपने भाषण में संविधान के दायरे का जिक्र ना कर जम्हूरियत, कश्मीरियत और इंसानियत का जिक्र किया.



और शायद यही वह इंसानियत रही जिसकी टीस 2002 में वाजपेयी के जेहन में गुजरात दंगों के वक्त तब उभरी जब उन्होंने अब के पीएम और तब के गुजरात सीएम नरेंद्र मोदी को ‘राजधर्म’ का पाठ पढ़ाया. और शायद राजधर्म को लेकर ही वाजपेयी के जेहन में हमेशा से इंसानियत रही तभी तो अपनी कविता ‘हिंदू तन-मन’ में साफ लिखा…

‘होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम.
गोपाल-राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर में नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जा कर कितनी मस्जिद तोड़ी
भू-भाग नहीं शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय
हिंदू तन-मन हिंदू जीवन रग-रग हिंदू मेरा परिचय.’      


           अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा सुलभ, हमेशा पार्टी के मिलनसार ‘मुखौटा’ थे. वे अपने खिलाफ लिखने वाले, या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा निर्मित उनके विश्व बोध से इत्तेफाक न रखने वाले पत्रकारों के प्रति भी विनम्रता और कोमलता के साथ पेश आते थे. जब वे उनसे पूछे गए किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहते थे, तब वे उसे मजाक में बदल देते थे और किनारे कर देते थे.

एक बार भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने किसी भी लज्जाजनक राजनीतिक घटनाक्रम से, जो आमतौर पर किसी भी अनुभवी नेता की छवि पर बट्टा लगा सकती है, वाजपेयी के बेदाग निकल आने की क्षमता पर कहा था, ‘देखिए वाजपेयी जी श्रीलंकाई गुड़िया की तरह हैं. आप उसे दाएं से मुक्का मारते हैं, वह झूल जाती है, लेकिन जल्दी ही सीधी खड़ी हो जाती है. आप उसे बाएं से मुक्का मारते हैं, वह लड़खड़ाती है, लेकिन फिर सीधी तन जाती है.’

लेकिन, इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं रहना चाहिए कि वाजपेयी उत्कृष्ट श्रेणी के स्वयंसेवक थे, जो संगठन के काम से पीछे नहीं हटते थे. उनमें इतनी होशियारी थी कि 6 दिसंबर, 1992 को जब बाबरी मस्जिद को धराशायी कर दिया गया, वे अयोध्या में नहीं थे.

विध्वंस से एक दिन पहले, उन्होंने लखनऊ में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित स्थल पर कुछ इलाकों को समतल करने की अनुमति दे दी है. कुछ लोगों को यकीन है कि उन्होंने इस शब्द-छल के सहारे कारसेवकों को अगले दिन विध्वंस के लिए उकसाया था.

जैसा कि उन्होंने खुद सितंबर, 2000 में न्यूयॉर्क में भाजपा के समुद्रपारीय मित्रों को संबोधित करते हुए कहा था, एक दिन वे प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे, लेकिन ‘जो एक बार स्वयंसेवक बन गया, वह हमेशा स्वयंसेवक रहता है.’

अपने इस एक वाक्य से उन्होंने संघ परिवार के भीतर उनके तथाकथित उदार रवैये को लेकर होने वाली आलोचनाओं का मुंह बंद कर दिया था और यह स्पष्ट कर दिया कि आरएसएस के प्रति वफादारी के मामले में वे किसी से भी कम नहीं हैं.

इस समर्पण का प्रदर्शन उन्होंने आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार से जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दोहरी सदस्यता के सवाल पर राहें अलग करते भी किया था. वाजपेयी के नेतृत्व में जनसंघ के सदस्यों ने संघ की सदस्यता छोड़ने की जगह सरकार से इस्तीफा देना और सत्ता का त्याग करना मंजूर किया.

इस बात का पर्याप्त दस्तावेजीकरण हुआ है कि 2002 में गुजरात के दंगों के बाद पार्टी के गोवा में आयोजित राष्ट्रीय महाधिवेशन के दौरान वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री के पद से हटाने की योजना बना ली थी, लेकिन एलके आडवाणी और अरुण जेटली ने उनकी इन कोशिशों पर पानी फेर दिया.

एक पहले से लिखी गयी पटकथा के अनुसार मोदी ने अपने इस्तीफे की पेशकश की और आडवाणी की कोशिशों से लगभग पूरी राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने समवेत स्वर में इस पेशकश को ठुकरा दिया और इस बारे में एक प्रस्ताव पारित कर दिया. वाजपेयी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी पार्टी और आरएसएस के भीतर के सबसे नासमझ मुस्लिम विरोधी भावनाओं का आह्वान किया.

उस शाम गोवा में एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने पार्टी को कवर करने के मेरे 20 साल के अनुभव में अपना सबसे ज्यादा सांप्रदायिक भाषण दिया. गुजरात में सबसे भयानक दंगों के बाद बोलते हुए उन्होंने कहा कि मुस्लिम हर जगह परेशानी खड़ी करते हैं और अपने पड़ोसियों के साथ शांति के साथ नहीं रह सकते. उनके इस भाषण के कारण उनके खिलाफ एक विशेषाधिकारहनन प्रस्ताव लाया गया, लेकिन उन्होंने स्थिति को संभालते हुए यह तर्क पेश किया कि वे बस ऐसे ‘जिहादी मानसिकता’ रखने वाले ‘कुछ’ मुस्लिमों के बारे मे बात कर रहे थे.

राजनीतिक विभाजनों के परे अलग-अलग दलों से वास्ता रखने वाले राजनीतिज्ञ वाजपेयी को गलत पार्टी में सही व्यक्ति करार देते हुए नहीं थकते हैं और उन्हें स्वाभाविक तरीके से एक धर्मनिरपेक्ष, मानवतावादी और उदार घोषित करते हैं, जो गलती से दक्षिणपंथी फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में आ गया.




लेकिन, हकीकत में इससे ज्यादा झूठी बात और कुछ नहीं हो सकती. वाजपेयी मुस्लिमों और ईसाइयों को भारत में दूसरे दर्जे के नागरिक के तौर पर हिंदू बहुसंख्यक समुदाय की दया पर रहने की इजाजत देने के हिंदुत्व और गोवलकर के नजरिए के प्रति उसी तरह से पूरी निष्ठा रखते थे, जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत रखते हैं.

उन्होंने एक कविता लिखी, ‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन’, जो कि उनकी पहचान को सिर्फ हिंदू के तौर पर रेखांकित करती है. यह कविता जो कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू में पार्टी की वेबसाइट पर लगाई गई थी, उनके निर्देश पर वहां से हटा दी गई. इसका कारण शायद यह था कि एक गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री के तौर पर वे किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे.

लेकिन, इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि वाजपेयी उनकी आलोचना करने वाले पत्रकारों के लिए सुलभ और विनम्र थे. इस मामले में वे नरेंद्र मोदी के ठीक उलट थे, जो न आलोचना को स्वीकार कर पाते हैं, न उसे भूलते हैं और न उसे माफ करते हैं.

स्तंभकार और टेलीविजन एंकर करन थापर ने अपनी किताब में मोदी के साथ (एक अनर्थकारी इंटरव्यू के बाद, जिसे मोदी बीच में ही छोड़ कर चले गए थे) अपने पेशेवर संबंध को सुधारने की नाकाम कोशिश के बारे में बताया है. और हमारे सामने में एबीपी टेलीविजन चैनल से एक पत्रकार की विदाई का ताजा मामला भी है, जो इस बात की तस्दीक करता है कि मोदी आलोचनाओं को सहज तरीके से नहीं लेते हैं.

निश्चित तौर पर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री के पद को संभालने से पहले दिल्ली में पार्टी के महासचिव के तौर पर वे पत्रकारों से आसानी से मिलते थे, लेकिन गुजरात में उन्होंने जल्दी ही पत्रकारों के साथ संवाद को समाप्त कर दिया.

एक बार एक पत्रकार ने वाजपेयी से भाजपा की विदेश नीति के बारे में पूछा था- यह वाकया उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले का है- तब उन्होंने इस सवाल को एक वाक्य से हवा में उड़ाते हुए कहा था, ‘पाकिस्तान पर बम गिराना, पाकिस्तान को तबाह करना.’

यह मजाक के तौर पर भले कहा गया हो, लेकिन इसका एक गंभीर अर्थ निकलता था. इससे यह संकेत मिलता था कि उनकी पार्टी पाकिस्तान से आगे नहीं देख पाती और उसके पास विदेश नीति के तौर पर सिर्फ एक बिंदु है- ‘पाकिस्तान की तबाही’.

निस्संदेह प्रधानमंत्री बनने के बाद जैसा कि सबको पता है, उन्होंने पाकिस्तान की तरफ ‘दोस्ती का हाथ’ बढ़ाने की इच्छा जताई और लाहौर तक की बस ‘यात्रा’ की और जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा सम्मेलन किया, जिसे आडवाणी की कोशिशों ने पूरी तरह से नाकाम करवा दिया.

जब मीडिया ने 1995 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के खिलाफ शंकरसिंह वाघेला द्वारा बगावत किए जाने के कारण वहां पैदा हुए राजनीतिक संकट के बारे में उनसे बात करने की कोशिश की, तब उन्होंने हमें ‘आडवाणी जी पूछो’ की सलाह दी, जिसमें आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी में मचे घमासान का आनंद लेने का भाव साफ छिपा था.

वाजपेयी को पार्टी के भीतर स्थितियां उनके मनमाफिक न होने पर सही समय का इंतजार करने की कला आती थी. 1999 में वे आरएसएस की आपत्तियों के कारण में जसवंत सिंह को वित्त मंत्री नहीं बना पाए थे. उन्होंने जसवंत सिन्हा को स्वीकार कर लिया, लेकिन कुछ साल बाद वे जसवंत सिंह को ले आए.

आखिर में शायद यह गोविंदाचार्य थे, जिन्होंने सटीक तरीके से वाजपेयी को- हालांकि, उन्होंने लगातार इसका श्रेय लेने से इनकार किया है- ‘मुखौटा’ कहकर पुकारा था, जो कि आरएसएस के सत्ता पाने के अभियान में उपयोगी है. इस ‘मुखौटे’ ने समाजवादी रुझान वाले बीजू जनता दल और जनता दल यूनाइटेड से लेकर अकाली दल और शिव सेना, अन्नाद्रमुक, तेलुगू देशम जैसी पार्टियों को एक गठबंधन में लाकर पार्टी को वैधता प्रदान करने का काम किया.

वाजपेयी ने इस टिप्पणी के लिए गोविंदाचार्य को कभी माफ नहीं किया, लेकिन उन्होंने धैर्यपूर्वक सही समय आने का इंतजार किया. उसके बाद गोविंदाचार्य को इस तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया गया कि वे कभी वापस नहीं आ सके. श्रीलंकाई गुड़िया एक बार फिर तन कर खड़ी हो गई

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