1989 से लेकर 2014 तक के चुनाव का इतिहास गवाह है कि राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक व सामाजिक अराजकता की स्थिति में ही भाजपा बढ़ी है। शांति काल में उसे नुकसान हुआ है। 
भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक रास्ता थोड़े समय के लिए ही सही पर लग रहा है कि बदल गया है। भाजपा इस समय पूरी तरह से अटल बिहारी वाजपेयी के रंग में रंगी है। दिवंगत हो चुके वाजपेयी का नाम चारों तरफ भुनाने का प्रयास किया जा रहा है। कहीं उनकी उदार राजनीति के जरिए सहयोगियों को पटाया जा रहा है तो कहीं ब्राह्मण राजनीति साधी जा रही है तो कहीं उनके समर्थक रहे मध्य वर्ग को मैसेज दिया जा रहा है।
जैसे ही वाजपेयी को भुनाने का अभियान खत्म होगा, वैसे ही राष्ट्रपति महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती का अभियान शुरू हो जाएगा। हो सकता है कि दोनों अभियान थोड़े दिन साथ साथ चलें। इस समय पूरे देश में अटल बिहारी की अस्थियों की यात्रा निकाली जा रही है। भाजपा की अस्थि कलश यात्रा चल रही है और हर राज्य में पवित्र नदियों में उनकी अस्थियों को प्रवाहित करने का काम हो रहा है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी राज्यों के प्रदेश अध्यक्षों को अस्थि कलश सौंपे।
इस साल दो अक्टूबर से महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती का एक साल तक चलने वाला अभियान शुरू हो जाएगा। सरकार ने इसके लिए बड़ी योजना बनाई है। देश भर में गांधी के कार्यक्रम होंगे। विदेशों से वक्ता बुलाए जा रहे हैं। कहीं लेक्चर सीरिज की योजना है तो कहीं प्रदर्शनी लगनी और कहीं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की योजना बनी है, पूरे साल देश भर में गांधी का प्रिय भजन और राम धुन बजने वाली है। सरकार ने 32 गतिविधियों की सूची बनाई है और मुख्य फोकस सांप्रदायिक सौहार्द पर है।
अब सवाल है कि गांधी और वाजपेयी दोनों के रास्ते पर चल कर भाजपा की राजनीति कैसे सधेगी? ध्यान रहे 1989 से लेकर 2014 तक के चुनाव का इतिहास गवाह है कि राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक व सामाजिक अराजकता की स्थिति में ही भाजपा बढ़ी है। शांति काल में उसे नुकसान हुआ है। तभी यह अंदेशा जताया जा रहा था कि राम मंदिर से लेकर गौरक्षा तक के नाम पर राजनीतिक होगी। पर भाजपा अगर गांधी और वाजपेयी के रास्ते पर चलेगी तो यह राजनीति कैसे होगी?
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