बुधवार, 24 जून 2020

राजनीतिक द्वन्दः ‘आत्मनिर्भर’ व ‘आत्मसमर्पण’ के बीच…

भारत की सीमा पर चीन ने चाहे अघोषित युद्ध छेड़ रखा हो, किंतु भारत में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रमुख प्रतिपक्षी दल काँग्रेस के बीच चीन को लेकर ही घोषित युद्ध छिड़ गया है, पक्ष-विपक्ष के बीच यह वाक-युद्ध ‘आत्मनिर्भर’ व ‘आत्मसमर्पण’ के हथियारों से लड़ा जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जहां चीन को हराने के लिए ‘आत्मनिर्भरता’ का नारा दिया,

वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी जी के लिए चीन के संदर्भ में ‘सरेण्डर’ (आत्मसमर्पण) शब्द का उपयोग किया, यद्यपि जहां तक मोदी के लिए ‘सरेण्डर’ या ‘आत्मसमर्पण’ के उपयोग का सवाल है, वे सही में ‘आत्मसमर्पित’ है, किंतु अंतर सिर्फ इतना है कि वे देश की सेवा के प्रति आत्मसमर्पित है, चीन के सामने नहीं, और इसी कारण अंग्रेजी का यह ‘सरेण्डर’ शब्द मोदी जी के लिए गाली बन गया और भाजपा ने राहुल के लिए तलवारें तान ली। 

पिछले एक-दो दिनों के इसी राजनीतिक घटनाक्रम व उसके कारणों पर सूक्ष्म नजर डाले तो इसके लिए कांग्रेस नेता राहुल गांधी या उनकी माँ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया जी को व्यक्तिशा इसलिए दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें इन माँ-बेटे का दोष नहीं बल्कि दोष सही राजनीतिक प्रशिक्षण व संस्कारों के अभाव का है। आज की कांग्रेस की दुरावस्था पर यदि गंभीर चिंतन किया जाए तो इसके लिए दोषी इसमें राजनीतिक परिपक्वता व संस्कार का अभाव ही है, कांग्रेस की नई पीढ़ी के प्रमुख सदस्य राहुल गांधी या पूर्व कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों का ही राजनीति में प्रवेश विरासत के कारण मिला, इंदिरा जी की हत्या के समय तो राहुल मात्र चौदह वर्ष के थे, इसलिए उनसे राजनीति का प्रारंभिक प्रशिक्षण प्राप्त करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, और इनके पिताजी स्व. राजीव गांधी को भी आनन-फानन में पॉयलट की नौकरी छोड़कर राजनीतिक अपरिपक्वता की स्थिति में प्रधानमंत्री बनना पड़ा था, किंतु चूंकि उन्होंने पॉयलटी के साथ अपनी माँ का राजनीतिक करतब भी करीब से देखा था, इसलिए उन्होंने पांच साल प्रधानमंत्री के रूप में ठीक से काम किया, किंतु उनकी पत्नी और वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बहू रहते हुए अपनी सास से राजनीति का पाठ पढ़ने में कोई रूचि नहीं दिखाई,

इसलिए वे राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व रही और राजीव की हत्या के बाद उन्हें पति की विरासत के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष बनना पड़ा, यद्यपि उन्होंने अध्यक्ष के रूप में दस साल कांग्रेस की सरकार चलाई, जिसके कई विवाद आज भी उभर कर ऊपर आ जाते है, फिर जब अपनी ममता व महत्वकांक्षा के तहत राहुल को अध्यक्ष बनाया तो वे पार्टी के लिए यथोचित उपयोगी सिद्ध नहीं हो पाए और फलतः सोनिया को अध्यक्ष पद वापस लेना पड़ा। यही स्थिति कांग्रेस के पूर्व नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी रही, उनकी भी राजनीतिक दीक्षा पूरी नही हो पाई और माधवराव जी चले गए, यदि माधवराव जी उन्हें राजनीति का सिर्फ एक पाठ (अपने आस-पास वालों से कैसे निपटना) ठीक से पढ़ा पाते तो आज ज्योतिरादित्य को कांग्रेस छोड़ने को मजबूर नहीं होना पड़ता।

…..तो कुल मिलाकर यही मान लिया जाना चाहिये कि देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में कांग्रेस के धीरे-धीरे लोप होने के पीछे मोदी जी का कोई करिश्मा या चमत्कार नहीं है, बल्कि कांग्रेस स्वयं अपनी नादानी और बचकानी हरकतों से गिर रही है, वर्ना यदि इंदिरा जी द्वारा प्रशिक्षित संजय गांधी होते तो आज कांग्रेस का चाल-चरित्र और चेहरा अलग ही होता और आजादी के बाद से इस देश में दो ही दल मुख्य रहे पूर्व जनसंघ या वर्तमान भाजपा तथा कांग्रेस, और कांग्रेस चूंकि संक्रमण के दौर से गुजर रही है और कोई क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दल बन नही पाया इसीलिए आज भाजपा की ‘‘तूती’’ बोल रही है।

अब यदि फिर वही सवाल उठाया जाता है कि पचास वर्षिय राहुल को सत्तर वर्षिय नरेन्द्र मोदी को ‘सरेण्डर’ की राजनीतिक गाली नही देनी थी तो इसके लिए राहुल का नहीं बल्कि उनमें संस्कारों का अभाव दोषी है, यदि संस्कारों का अभाव नहीं होता तो देश के मौजूदा हालातों में सभी के साथ होने की जगह वे अपनी ढपली अलग क्यों बजाते? अरे….. जब वर्तमान हालातों में ममता बैनर्जी जैसी घोर मोदी विरोधी मोदी की सरकार की सहयोगी बनी हुई है तो संसद के दरबार में खुलेआम मोदी के गले लगने (बकौल मोदी गले पड़ने) वाले राहुल अब अचानक वाचाल कैसे बन गए? और कांग्रेस व उसके आकाओं का मौजूदा रवैया ऐसे ही जारी रहा तो फिर कांग्रेस की नैया को रानीति के मझधार में डूबने से कोई नहीं बचा सकता।

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