शनिवार, 20 जून 2020

चीन से लड़ना जरूरी पर मोदी नहीं लड़ सकते

चीन से भारत की सीमित लड़ाई जरूरी है। यदि भारत की सेना ने गलवान घाटी में चीनियों से आमने-सामने लड़ाई नहीं लड़ी और डोकलाम की तरह राष्ट्रपति शी जिनफिंग के आगे प्रधानमंत्री मोदी ने गिड़गिड़ा कर भारत की बरगलाने वाली कूटनीति की तो चीन लद्दाख व अरूणाचल प्रदेश, भूटान को कब्जाने का हौसला पा जाएगा। अभी चीन ने एकसाथ सीमा के चार क्षेत्रों में अपनी सेना को आगे बढ़ा कर जमीन कब्जाई है तो यह बीजिंग की सामरिक-सैनिक रणनीति में हुआ है। उसने मोदी सरकार की कमजोर नस में सोचा है कि वह वायरस संकट और बरबाद आर्थिकी में चीन से लड़ाई नहीं लड़ सकती। इसलिए मोदी सरकार को झुकाओ। नेपाल, बांग्लादेश याकि दक्षिण एशिया में भारत की कथित महाशक्ति और उसकी एटमी ताकत, उसकी मिसाइलों को फूंका कारतूस साबित करो। भारत की सेना की इस गर्वोक्ति की हवा निकालो कि वह 1962 वाली सेना नहीं है। वह चीन से लड़ सकती है और पाकिस्तान व चीन यदि दोनों से भी लड़ना पड़े तो दोनो मोर्चों पर लड़ने की तैयारी किए हुए है।

हिसा से भारत की सेना पूरी तैयारी में है। भारत ने चीन की चुनौती को समझ कर ही एटमी हथियार और मिसाइलें बनाई हुई हैं। हां, इंदिरागांधी- नरसिंहराव ने चीन की चिंता में, चीन के आगे डिटरेंट में इतनी दूर तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र बनाए। भारत की एटमी सामरिक-सैनिक सोच में प्राइमरी फोकस चीन था और पाकिस्तान सेकेंडरी।

लेकिन राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने बहुत शातिरता से अनुभवहीन नरेंद्र मोदी को कूटनीति का झूला झुला कर उन्हें अपने रहमोकरम पर दोस्ती की डींग मारने वाला नेता बनाया। भारत के तमाम पड़ोसियों को चुपचाप पटाया। भारत से धंधा बढ़ाया और फिर एक दिन डोकलाम में प्रयोग, एक्सपेरिमेंट किया। वहां अपनी सेना को आगे बढ़ा कर वह इंफ्रास्ट्रक्चर, वह बढ़त बना ली, जहां से युद्ध की स्थिति में वह शेष भारत व पूर्वोतर भारत को जोड़ने वाले गलियारे पर लाभ की स्थिति से दबिश बना सकता है। चीन के डोकलाम पैंतरे को भारत ने न गंभीरता से लिया और न उसके दीर्घकालीन मतलब बूझे। वह मोदी सरकार की हिम्मत को जांचने का चीन का प्रयोग था, जिसमें दुनिया ने चीन की दादागिरी को देखा। उसी की आगे की परिणिति में चीन ने पिछली पांच मई को सीमा के पांच क्षेत्रों में अपने सैनिकों को आगे बढ़ाया। सामरिक विशेषज्ञ अजय शुक्ला ने लिखा है कि पिछले एक महीने में चीन ने भारतीय गश्त वाले गलवान घाटी के इलाक़े के 60 वर्ग किमी हिस्से पर क़ब्ज़ा किया। चीनी सैनिकों ने टेंट गाड़े,गड्ढे खोदे और कई किलोमीटर अंदर तक भारी उपकरण ले आए। 

मानो यह भी कम हो जो उसके सैनिकों ने निहत्थे भारतीय सैनिकों को बर्बरता से मारा। जाहिर है चीन सरकार, उसके राष्ट्रपति शी जिनफिंग भारत की परीक्षा ले रहे हैं कि भारत में लड़ने की हिम्मत है या नहीं? भारत लल्लोचप्पो, कूटनीति करके अपने सैनिकों को छुड़ाएगा, विवाद निपटाने के लिए मिन्नत करेंगा, दूसरे देशों से कहलाएगा या सीधे लड़ने की हिम्मत करेगा? उसे चिंता नहीं है कि भारत एटमी हथियार और मिसाइल लिए महाशक्ति देश है। उसने जान लिया है कि दिल्ली के भारत नियंता एटमी जखीरा कबाड़ की तरह है क्योंकि चीन पर मिसाइल तान पर धमकाने के लिए इसलिए नहीं सोचेगा क्योंकि सर्वनाश का ख्याल कायर-गुलाम हिंदू डीएनए में विचार की हिम्मत भी नहीं बना सकता है।

हां, चीन ने हिंदू डीएनए के जिंस और हिंदू राज की तासीर का पिलपिलापन जाना हुआ है। पिछले छह सालों में प्रधानमंत्री मोदी ने 18 बार राष्ट्रपति शी जिनफिंग से मुलाकात कर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को जतला दिया है कि नरेंद्र मोदी पहले कारोबारी हैं और फिर राष्ट्रवादी। भारत के हिंदू वियतनामी या जापानी राष्ट्रवादी जैसे नहीं हैं तभी1962 में जमीन गंवा कर भी भारत भूल गया था तो डोकलाम पर मोदी दौड़े चले आए थे इसलिए अब भारत में आगे बढ़ा जाए। लद्दाख और अरूणाचल के मिशन नेपाल-भूटान के प्रभाव क्षेत्र को बदलने का वक्त आ गया है।

इस सामरिक-विस्तारवादी सोच में पाकिस्तान और चीन दोनों का दो टूक साझा है।  चीन के सीमा इलाके में उसकी निगाह में भारत सर्वाधिक पिलपिला देश है तो वजह यह है हमने एटमी हथियार बना कर भी चीन को कभी आंखें नहीं दिखाई। उलटे उसके आर्थिक गुलाम होते गए।

सोचें, भारत के हिंदू, खासकर भक्त व राष्ट्रवादी हिंदू कितने पिलपिले हैं, जो चीन के आर्थिक बहिष्कार का नारा देते हैं लेकिन करोड़ों-करोड़ चीन निर्मित फोनों से। भारत ठेके वे रद्द करता है, जिन पर काम शुरू नहीं हुआ है। आयात बंद नहीं करेंगे और निर्यात हो चुकी चीजों को तोड़ने-फोड़ने की नौटंकी होगी। अंबानियों-अदानियों, ऑटो कंपनियों के पटे सौदों पर पाबंदी व चीनी संपदा को जप्त करने जैसे कड़े फैसले नहीं होंगे लेकिन यह हवाबाजी होगी कि चीन सावधान, हम रूस से लड़ाकू विमान खरीद रहे हैं। अमेरिका ने नजर रखी हुई है। हकीकत है कि इन पंक्तियों के लिखने तक दुनिया का एक देश भारत के लिए खड़ा हुआ नहीं है। तभी प्रधानमंत्री मोदी शायद ही यह सलाह ले पा रहे होंगे कि चीन से कैसे युद्ध लड़ा जाए।

बावजूद इसके मैं मन ही मन सोचता हूं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि दिल्ली के साउथ ब्लॉक में सेना मुख्यालय- प्रधानमंत्री दफ्तर-कैबिनेट सचिव आदि के सामूहिक विचार या कैबिनेट की सुरक्षा समिति की बैठक में नहीं सोचा जाए कि यदि हमने डोकलाम की तरह ही गलवान घाटी का विवाद निपटाने के लिए चीन की लल्लोचप्पो कूटनीति की तो क्या बीजिंग के नीति-निर्धारकों में यह धारणा मजबूत नहीं होगी कि लद्दाख और अरूणाचल को कब्जाने के मंसूबे पर अमल का वक्त आ गया है। भारत बिना दम के है, भारत का एटमी जखीरा जंग खा गया है और नरेंद्र मोदी को तो वह कहने की भी हिम्मत नहीं है जो साठ के दशक में चीनी सैनिकों के आने की खबर मिली नहीं कि नेहरू ने रिएक्ट कर कहा- गेट देम आउट। हां, नेहरू हारे थे लेकिन बिना तैयारी के भी सेना को लड़ने के लिए कहा था जबकि आज सेना की तैयारी और भारत के एटमी जखीरे की महाशक्ति ताकत के बावजूद नरेंद्र मोदी ने जनता से छुपाया कि चीनी सेना ने भारतीयों सैनिकों को मारा, चीन ने भारतीय सैनिकों को बंधक बनाया। सोचें, चार दिन यह छुपाए रखा कि उसके यहां हमारे सैनिक बंधक हैं। सोचें, इन्हें छुड़ाने के लिए भारत ने कैसी लल्लोचप्पो कूटनीति की होगी।

 नोट रखें कि यदि इस बार मोदी सरकार ने चीनी सेना के साथ सीमित युद्ध में दो -दो हाथ नहीं किए, चीन को एटमी आंखें नहीं दिखाई तो चीन भारत की सार्वभौमता को आगे बुरी तरह खाएगा। फिर पाकिस्तान और दक्षिण एशिया में भारत गली का दादा भी नहीं माना जाएगा। इसलिए नरेंद्र मोदी बहादुरी दिखाएं या कायरता, उससे भारत राष्ट्र-राज्य के अगले दस सालों में चीन के ग्रहण की दशा-दिशा तय होनी है।

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