मंगलवार, 9 जून 2020

राहुल अब असली राजनीति करें

क्या कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को असली राजनीति करनी चाहिए। कोरोना वायरस का संकट शुरू होने के बाद पिछले तीन महीने से वे जो कर रहे हैं वह राजनीति नहीं है। वह टाइमपास है, जिसका असली राजनीति में कोई मतलब नहीं है। वे देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों से बात कर रहे हैं। उन्होंने रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और जाने माने अर्थशास्त्री रघुराम राजन से बात की। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी से संवाद किया। कोरोना वायरस को लेकर दुनिया के दो स्वास्थ्य विशेषज्ञों- आशीष झा और प्रोफेसर जोहान जिस्के से बात की और अंत में मशहूर कारोबारी राजीव बजाज के साथ बात की।

अव्वल तो राहुल गांधी कोई पत्रकार या ऐसे बुद्धिजीवी नहीं हैं, जिन्हें कोरोना वायरस और उसके संक्रमण से पैदा हुए संकट के बारे में सारी जानकारी है और वे विशेषज्ञों से बात करके वह जानकारी लोगों के सामने ला रहे हैं। दूसरे, इन पांचों विशेषज्ञों ने उनसे हुई बातचीत में कोई ऐसी बात नहीं कही, जो वे पहले नहीं कह चुके हैं। रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी लगातार लेख लिख कर या अखबारों-चैनलों में इंटरव्यू देकर जो बातें कह रहे थे, वहीं उन्होंने राहुल से बातचीत में भी कही। राजीव बजाज ने भी जो बात राहुल से कही वहीं बात वे पहले देश भ्रमण कर रही एक महिला पत्रकार से बातचीत में कह चुके थे। सो, राहुल के इस संवाद कार्यक्रम से देश के लोगों को कोई नई या अनोखी बात जानने को नहीं मिली। इसमें एकमात्र अनोखापन यह था कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का सबसे बड़ा नेता पत्रकारों की तरह जाने-माने लोगों का इंटरव्यू कर रहा है!

जाहिर है इस कवायद से वास्तविक राजनीति में राहुल को कुछ भी हासिल नहीं हुआ होगा। हां, यह कहा जा रहा है कि उनकी एक अलग किस्म की ब्रांडिंग हो रही है। क्या ब्रांडिंग हो रही है? एक पत्रकार की? वे इससे विषय के विशेषज्ञ नहीं प्रमाणित हो रहे हैं क्योंकि वे वहीं सवाल पूछ रहे हैं, जो पत्रकार दिन भर छोटे या बड़े विशेषज्ञों से पूछते रहते हैं। तभी इस कवायद से हो रही ब्रांडिंग कोई राजनीतिक चमत्कार करने वाली नहीं है। ज्यादा से ज्यादा कांग्रेस के नेता इसके सहारे उनकी एक गंभीर नेता की छवि बनाने का प्रयास कर सकते हैं या भाजपा द्वारा बनाई गई उनकी ‘पप्पू’ वाली छवि को मिटाने की कोशिश कर सकते हैं। अगर इसमें भी सफलता मिल जाए तो वह बड़ी बात होगी।

इसकी बजाय अगर राहुल गांधी ने कोरोना के संकट में असली राजनीति की होती तो उन्हें ज्यादा फायदा हुआ होता और उनकी छवि नेता वाली बनती। उन्होंने या उनके किसी सलाहकार ने सोचा ही नहीं कि जब प्रधानमंत्री संकट को अवसर बता रहे हैं तो वह अवसर वास्तविक राजनीति करने का भी हो सकता है। क्या राहुल के लोगों को यह नहीं दिखा कि कैसे हिंदी फिल्मों के एक कम जाने माने अभिनेता ने दो-चार करोड़ रुपए के खर्च से अखिल भारतीय मसीहा की छवि बना ली? आज सोनू सूद को सारा देश जानता है। कांग्रेस सोचे कि उसे ज्यादा फुटेज राहुल के विशेषज्ञों से बात करने से मिली या राहुल के सड़क पर निकल कर मजदूरों के साथ दस मिनट बिताने से मिली? राहुल सड़क पर दस मिनट के लिए निकले और प्रियंका गांधी वाड्रा ने उत्तर प्रदेश सरकार को एक हजार बसें देने का ऐलान किया, इन दोनों घटनाओं से कांग्रेस और राहुल-प्रियंका को सबसे ज्यादा फुटेज मिली और इन घटनाओं ने भाजपा के अंदर वास्तविक चिंता पैदा की। विशेषज्ञों से बात करने, ट्विट करने या चिट्ठी लिखने की बजाय यह वास्तविक राजनीति हुई।

राहुल गांधी ने दुनिया के पांच बुद्धिजीवियों से बात की, कोई उनसे पूछे कि उन्होंने अपनी पार्टी के मुख्यमंत्रियों से कितनी बार बात की? अभी इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राहुल ने कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों से या कांग्रेस के शासन वाले राज्यों में कोरोना वायरस की आपदा संभाल रहे दूसरे मंत्रियों से बात की हो। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से जरूर बात की लेकिन वह भी अपनी वीडियो कांफ्रेंस में खुद द्वारा किए गए राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए की थी। राहुल वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए नियमित प्रेस कांफ्रेंस कर रहे हैं, यह अच्छी बात है पर उसमें भी पिछली प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने महाराष्ट्र को लेकर सेल्फ गोल कर लिया था।

बहरहाल, राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के शासन वाले राज्यों के नेताओं से बात नहीं की, न दूसरे विपक्षी नेताओं से संवाद किया और न उन राज्यों में अपनी पार्टी के नेताओं से बात की, जो इस साल या अगले साल चुनाव में जाने वाले हैं। भाजपा का पूरा तंत्र बिहार से लेकर पश्चिम बंगाल तक राजनीति करने में लगा है लेकिन इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राहुल ने बिहार या बंगाल कांग्रेस के नेताओं से बात की हो। कोरोना वायरस से लड़ाई में अपना ‘बौद्धिक’ योगदान देने के साथ ही वे असली राजनीति भी कर सकते थे। लेकिन वे राजनीतिक मसलों पर चुप हैं। भाजपा ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा दी और गुजरात में कांग्रेस के आठ विधायकों का इस्तीफा करा दिया क्या कहीं इसे लेकर राहुल गांधी की सक्रियता दिखी? उन्होंने न तो कोई खास बयान दिया और न अपनी पार्टी के नेताओं से बात करके इस संकट से निपटने के उपायों पर चर्चा की। केंद्र सरकार सारे सार्वजनिक उपक्रम बेचने जा रही है, जिसके विरोध में देश भर के मजदूर संगठन आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं। यह असली राजनीतिक मुद्दा है, जिस पर राहुल आंदोलन को लीड कर सकते थे पर इसमें उनकी रूचि नहीं दिख रही है।

राहुल गांधी कोरोना वायरस, अर्थव्यवस्था और चीन के मसले पर तो बयान दे रहे हैं और ट्विट भी कर रहे हैं लेकिन राजनीति से जुड़े असली मसलों पर चुप हैं। बिहार में अमित शाह ने वर्चुअल रैली की, वहां इसी साल चुनाव होने वाले हैं पर राहुल गांधी अपने सहयोगी तेजस्वी यादव से बात नहीं कर रहे हैं। बिहार में कांग्रेस-राजद के महागठबंधन से जुड़ी तीन दूसरी पार्टियों के नेता अलग बैठकें कर रहे हैं पर राहुल की उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है। वे न अपने मुख्यमंत्रियों से बात कर रहे हैं, न अपने प्रदेश अध्यक्षों से बात कर रहे हैं, न राज्यसभा चुनाव में दिलचस्पी ले रहे हैं, न चुनावी राज्यों की राजनीति में उनकी रूचि दिख रही है और न वे भाजपा के किसी हार्डकोर राजनीतिक दांव का जवाब देते दिख रहे हैं। भाजपा सत्ता में रह कर हार्डकोर पोलिटिक्स कर रही है और राहुल गांधी विपक्ष में रह कर संवाद की सॉफ्ट राजनीति कर रहे हैं! वे चाहे जिस कारण से राजनीतिक मसलों पर चुप हों, लेकिन यह नोट करके रखें कि वे अभी जो राजनीति कर रहे हैं वह उन्हें कहीं नहीं ले जाने वाली! 

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