केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तब अलग से एक विनिवेश मंत्रालय बनाया गया था। अरुण शौरी उस मंत्रालय के पहले मंत्री थे। तब सरकार ने तय किया था कि घाटे में चल रही या बंद पड़ी सरकारी फैक्टरियों, कंपनियों का विनिवेश किया जाएगा। बाद में जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी तो उसने यह मंत्रालय बंद कर दिया और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार आई तो उसने फिर से इस मंत्रालय को शुरू नहीं किया। मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकार में भले विनिवेश मंत्रालय नहीं था पर सरकारी कंपनियों का विनिवेश जारी था। उसे नहीं रोका गया था। वह पहले से तय नीतियों के हिसाब से चल ही रहा था। अब भी विनिवेश की प्रक्रिया चल रही है। पर अब इसमें काफी बदलाव आ गया है। अब घाटे में चल रही कंपनियों का विनिवेश करने की बजाय केंद्र सरकार ने निजीकरण को नीति बना दिया है।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने तय किया है कि अब सब कुछ निजी हाथों में सौंप देना है और सरकार को हर बिजनेस से बाहर हो जाना है। इतना ही नहीं रणनीतिक सेक्टर में भी सरकार निजी कंपनियों को शामिल करेगी और खुद बहुत कम काम करेगी। कोरोना वायरस के संकट के बीच प्रोत्साहन पैकेज के नाम पर निजीकरण के पैकेज की घोषणा करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारण ने कहा कि रणनीतिक सेक्टर में भी चार में से सिर्फ एक कंपनी भारत सरकार की होगी। इसी के तहत रक्षा उत्पादन का क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए खोला गया। इसके साथ ही सरकार खुल कर यह भी कह रही है कि सिर्फ सारी सरकारी कंपनियों का निजीकरण ही नहीं किया जाएगा, बल्कि निजी क्षेत्र के लिए नियमों में ढील दी जाएगी और जहां जरूरत होगी वहां कानून बदल दिया जाएगा। ऐसे कानून भी बदल दिए जाएंगे, जिनको छुना अभी तक गुनाह माना जाता था।
सब कुछ बेच देना अब राज्य की नीति हो गई है और खरीददार को वह सारी सुविधाएं देना भी राज्य की नीति हो गई है, जो पहले सरकारी या किसी निजी कंपनी को हासिल नहीं थी। सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने पिछले दिनों अंग्रेजी के एक अखबार में लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि सरकार रणनीतिक सेक्टर के बारे के सारे सार्वजनिक उपक्रम, पीएसयू बेच देगी। यह कहना अपनी जगह है पर उसके आगे उन्होंने जो कहा वह सिर्फ सरकार की प्रतिबद्धता जाहिर करने वाली बात नहीं थी, बल्कि यह भी दिखाता था कि सरकार किस भाव में यह काम कर रही है। सान्याल ने लिखा कि सरकार को अपनी नीतियों में पूरी तरह से स्पष्ट है और उसे किसी किस्म की शर्मिंदगी नहीं है। सरकार कोई क्षमा याचना के साथ यह काम नहीं कर रही है। उन्होंने यह बात इस अंदाज में लिखी, जैसे देश के लोगों ने सरकार को सिर्फ इसी काम के लिए जनादेश दिया है और वह उसे पूरा कर रही है। जबकि हकीकत यह है कि सरकारी कंपनियों को बेच देना किसी सरकार के घोषित एजेंडे में नहीं होता है।
भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार ने अपने लेख में कुछ और ऐसी बातें कहीं, जो चिंता पैदा करने वाली हैं। जैसे उन्होंने कहा कि जिन कानूनों को ‘टॉप टेन कमांडमेंट्स’ माना जाता था यानी जिन कानूनों को सबसे पवित्र माना जाता था और कोई उन्हें हाथ लगाने के बारे में सोच भी नहीं सकता था उन कानूनों को इस सरकार ने एक झटके में बदल दिया। इस सिलसिल में उन्होंने श्रम कानूनों में किए जा रहे बदलावों का खासतौर से जिक्र किया और कोरोना वायरस के संक्रमण से लड़ने के बहाने आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करने के फैसले का जिक्र किया। सरकार ने ये दोनों काम कोरोना वायरस के बहाने किया है।
सवाल है कि अगर सरकार सभी पीएसयू को बेचने या सब कुछ निजी हाथों में सौंप देने या श्रम कानूनों से लेकर औद्योगिक गतिविधियों को नियंत्रित करने वाले सारे कानूनों को बदल देने को ही सुधार मान रही है और इसके लिए पहले से प्रतिबद्ध है तो उसने इन्हें लागू करने के लिए कोरोना वायरस जैसी महामारी फैलने का इंतजार क्यों किया? सरकार ने यह काम पहले क्यों नहीं कर दिया? इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार की यह प्रतिबद्धता नहीं थी, न उसे इसके लिए जनादेश मिला था और न वह तत्काल इस पर अमल करने जा रही थी। लेकिन कोरोना वायरस की महामारी फैली तो प्रधानमंत्री ने इसे अवसर बनाने की बात कही और इसे अवसर मान कर सारे वह काम किए जाने लगे, जो सामान्य स्थितियों में नहीं किए जाते हैं।
यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है जो सरकार कोरोना महामारी को अवसर बना कर ऐसे फैसले कर रही है, जिन्हें सामान्य स्थितियों में करना मुश्किल है। दूसरे सरकार यह काम खुद की मनमर्जी से कर रह है। देश की आर्थिक नीतियां बदली जा रही हैं और उसमें संसद की कोई भूमिका नहीं है। सरकार न तो विपक्षी पार्टियों को भरोसे में ले रही है और न संघीय ढांचे का सम्मान करते हुए विपक्षी पार्टियों की सरकारों से राय ले रही है। गौरतलब है कि आवश्यक वस्तु कानून या एक देश, एक बाजार की नीति बनाते समय राज्य सरकारों से राय लेना जरूरी था। एक राज्य का किसान दूसरे राज्य के बाजार में जाकर सामान बेच सकता है, यह फैसला करने से पहले क्या राज्य सरकारों से नहीं पूछा जाना चाहिए था? पर सरकार नियम और परंपरा में बंध कर कोई काम नहीं कर रही है। वह मनमाने तरीके से निजीकरण के फैसले कर रही है और रिपब्लिक ऑफ इंडिया को रिपब्लिक ऑफ क्रोनी कैपिटलिज्म में बदल रही है।

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