राजनीतिक विमर्श कैसे भटक जाता है, इसे समझना हो तो आज के मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक हालात को देख कर सहज ही समझा जा सकता है। सोमवार से संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण शुरू होगा, जिसमें मंत्रालयों के हिसाब से बजट प्रावधानों पर चर्चा होगी और बजट पास कराया जाएगा। इससे ठीक पहले राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग, एनएसओ ने सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी के विकास दर का आंकड़ा जारी किया। पिछले हफ्ते जारी आंकड़े के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही यानी अक्टूबर से दिसंबर 2019 में जीडीपी के विकास की दर 4.7 फीसदी रही थी। इससे पहले के वित्त वर्ष की इसी अवधि में जीडीपी की विकास दर 5.6 फीसदी रही थी। यानी लगभग एक फीसदी की कमी आई है। सरकार इस पर खुश हो सकती है कि जुलाई से सितंबर के बीच विकास दर 4.5 थी, जो बढ़ कर 4.7 फीसदी हो गई है।
उधर सारी दुनिया में कोरोना वायरस का कहर फैला है। चीन से शुरू होकर अब इसका संक्रमण 50 से ज्यादा देशों में पहुंच गया है। अमेरिका, ईरान, दक्षिण कोरिया, जापान जैसे अनेक देश इससे बचाव के उपाय करने में युद्धस्तर पर लगे हैं। इस उप महाद्वीप को भूराजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा प्रभावित करने का एक समझौता कतर में 29 फरवरी को हुआ, जिसमें अमेरिका ने तालिबान के साथ एक संधि पर दस्तखत किया, जिसके तहत अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं की वापसी होगी और तालिबान को शांति बहाली का जिम्मा दिया जाएगा। इससे आने वाले दिनों में कितना बड़ा संकट खड़ा होना है, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है।
पर हैरानी की बात है कि भारत में न तो आर्थिक विकास दर या अर्थव्यवस्था के दूसरे बुनियादी मुद्दों पर चर्चा हो रही है, न कोरोना वायरस से निपटने के उपाय हो रहे हैं और न तालिबान के साथ समझौते को लेकर कोई चिंता और तैयारी है। भारत में चर्चा सिर्फ संशोधित नागरिकता कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर हो रही है। नागरिकता के मसले पर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में दंगे हो गए। 42 लोग मारे गए और सैकड़ों लोग अस्पताल में भरती हैं। दिल्ली से बहुत दूर पूर्वोत्तर के मेघालय में नागरिकता कानून पर दंगा हो गया। दो लोग मारे गए, कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगी है और इंटरनेट की सेवा बंद है।
सो, दिल्ली से लेकर मेघालय तक एक ही राजनीतिक विमर्श है- नागरिकता का। सोचें, क्या यह इतना बड़ा मुद्दा है, जिसकी वजह से समूचे लोक हित के विमर्श को बदल दिया जाए? जाहिर है यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं है। पर चूंकि तमाम प्रयासों के बावजूद न आर्थिकी संभल रही है और न चंद दिनों की सुर्खियों के अलावा कूटनीतिक प्रयासों से कुछ हासिल हो रहा है। तभी जान बूझकर लोकप्रिय विमर्श को ऐसी दिशा दे दी गई है, जिससे चौतरफा अशांति फैली है। ऐसी अशांति और अव्यवस्था में आमतौर पर जन हित के मुद्दे हाशिए में चले जाते हैं और उनकी जगह भावनात्मक मुद्दे ले लेते हैं।
अगर नागरिकता का मसला नहीं चल रहा होता और राष्ट्रीय राजधानी में दंगे नहीं हुए होते तो निश्चित रूप से संसद के बजट सत्र में आर्थिकी से जुड़े मुद्दों पर गंभीर चर्चा होती। विपक्ष के पास इस बात का मौका था कि वह आर्थिकी से जुड़ी बुनियादी समस्याओं का मुद्दा उठाए और सरकार से जवाब मांगे। आखिर जब सरकार कह रही है कि अर्थव्यवस्था की बुनियादी चीजें मजबूत हैं तब भी विकास दर क्यों नहीं संभल रही है? सरकार का वित्तीय घाटा क्यों बढ़ता जा रहा है और कर राजस्व की वसूली क्यों कम होती जा रही है? पिछले महीने की जीएसटी वसूली जरूर एक लाख पांच हजार करोड़ रुपए की हुई है पर सरकार ने तो पिछली कमियों की भरपाई के लिए एक लाख दस हजार करोड़ रुपए महीने की वसूली का लक्ष्य रखा है!
कोरोना वायरस की वजह से भारत में सिर्फ संक्रमण फैलने की चिंता नहीं है, बल्कि बड़ा आर्थिक संकट भारत के सामने खड़ा होने वाला है। भारत में दवाओं के लिए ज्यादातर कंपोनेंट चीन से आते हैं। एलईडी से लेकर दूसरे कई इलेक्ट्रोनिक्स उत्पादों के लिए कंपोनेंट चीन से आता है। इन सबकी आपूर्ति पूरी तरह से रूकी हुई है। भारत में पैरासिटामोल दवा की कीमत में 50 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। बाकी सारी चीजों की कीमत बढ़ना महज वक्त की बात है। पिछले कारोबारी हफ्ते के आखिरी दिन शुक्रवार को सारी दुनिया में शेयर बाजार धड़ाम से गिरे थे। भारत में 14 सौ अंकों से ज्यादा की गिरावट हुई थी। एक दिन में निवेशकों के पांच लाख करोड़ रुपए से ज्यादा डूबे थे। यह कोरोना वायरस का कहर था। ऐसे संकट के समय में भारत नागरिकता की बहस में उलझा है।
विपक्ष भी आर्थिकी छोड़ कर नागरिकता और दंगों की चर्चा में उलझा है। यह स्थिति सत्तारूढ़ दल के अनुकूल पड़ती है। नागरिकता पर जितनी ज्यादा चर्चा होगी विभाजनकारी राजनीति को उतनी ज्यादा खाद-पानी मिलेगी। असल में लोकसभा चुनावों के बाद से देश के कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक भाजपा हारी है या विपक्ष ने एकजुट होकर उसे किनारे किया है। इससे लोगों का मूड जाहिर हुआ है। लोगों ने लोकसभा चुनाव में पहले से ज्यादा बहुमत से नरेंद्र मोदी को चुन लिया पर वे उनसे उम्मीद कर रहे हैं कि सरकार उनके आर्थिक संकट को दूर करेगी, रोजगार बढ़ाएगी, आमदनी बढ़ाएगी पर हो इसका उलटा रहा है। आमदनी घट रही है और रोजगार खत्म हो रहे हैं। तभी उन सबसे ध्यान भटकाने और विमर्श की दिशा बदलने के लिए सीएए, एनपीआर और एनआरसी को बहस के केंद्र में लाया गया है। इससे एक तो सरकार को मुश्किल सवालों से राहत मिली हुई है और दूसरे आगे होने वाले चुनावों में फायदा भी हो सकता है।

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