भारत महान के लोगों ने छह साल पहले जो उम्मीदें नरेंद्र मोदी से जोड़ी थीं, वो अब तक पूरी भले न हुई हों पर टूटी नहीं हैं। तभी 2014 में उनको 17 करोड़ लोगों ने वोट दिया था और 2019 में 22 करोड़ ने उनको वोट दिया। ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारे ने लोगों की उम्मीदें और भरोसा दोनों बढ़ा दिए। अब इन उम्मीदों की असली परीक्षा है।रविवार को जिस तरह से लोग घरों से निकले, अपनी बॉलकनी में खड़े हुए, छतों पर गए या घरों के सामने सड़क पर खड़े होकर जिस अंदाज में ताली और थाली बजाई उससे लोगों के मन में गहरे तक बैठी आस्था प्रतीकित हुई। वह आस्था जितनी ईश्वर के प्रति थी उतनी ही मसीहा मोदी के प्रति भी थी।
लोगों ने रविवार की शाम पांच बजे सायरन बजने का इंतजार नहीं किया और न रूटीन के अंदाज में ताली बजाने खड़े हुए। ध्यान रहे इस तरह के काम पहले भी होते रहे हैं। कुछ समय पहले ही बिहार में सरकार ने मानव शृंखला बनवाई थी और करोड़ों लोगों के उसमें शामिल होने का दावा किया गया। पर वह पूरा अभियान प्रायोजित था, जिसमें समूचा सरकारी अमला लगा हुआ था। वह बिहार राज्य के मुख्यमंत्री के कामों के प्रति आभार या उनसे किसी किस्म की उम्मीद या आस्था का प्रतीक नहीं था, बल्कि उसमें एक किस्म की मजबूरी का भाव था। पर 22 मार्च के जनता कर्फ्यू और उसके बाद ताली व थाली बजाने के काम में कहीं भी मजबूरी का भाव नहीं दिखा। वह स्वंयस्फूर्त था। उसमें लोगों की उम्मीद, भरोसा झलक रहा था।
लोगों को, जिनमें बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सब शामिल थे, ताली और थाली बजाते देख कर रोंगटे खड़े हो रहे थे और मन में यह विचार आ रहा था कि क्या नरेंद्र मोदी यह सब देख सुन कर डर नहीं रहे होंगे! लोग दुख को सबसे बड़ा बोझ मानते हैं पर उम्मीदों और भरोसे का बोझ उससे भी भारी होता है। निश्चित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री ने अपने देश के 130 करोड़ों लोगों की उम्मीदों का बोझ रविवार की शाम को अपने कंधों पर किसी और समय के मुकाबले ज्यादा महसूस किया होगा।
साढ़े तीन साल पहले लोग जिस आस्था और उम्मीद के साथ बैंकों के आगे नोट बदलने के लिए खड़े थे, वह भी एक क्षण था। लोगों ने यह उम्मीद पाली थी कि देश की अर्थव्यवस्था काली से सफेद हो रही है और आज की यह तकलीफ भविष्य में बहुत सुकून देने वाली होगी। यह अलग बात है कि लोगों की वह उम्मीद पूरी नहीं हुई। पर उसमें और इसमें फर्क है। यह अर्थव्यवस्था का नहीं, बल्कि लोगों के जीवन का मामला है। लोगों की अपनी और अपने बच्चों, बुजुर्गों की जिंदगी का सवाल है। तभी लोगों ने रविवार की शाम को उसी अंदाज में तालियां, थालियां, घंटियां और शंख बजाए, जिस अंदाज में वे ईश्वर की अराधना करते हैं। ज्यादातर लोगों के चेहरे पर वहीं कातरता और उम्मीद का भाव था, जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के सामने झुकते हुए होता है। वह सचमुच अद्भुत क्षण था।
सो, अब मसीहा मोदी को दिखाना है कि वे हैं तो मुमकिन हैं। वे अपने समर्थकों की नजर में महामानव हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। उन्होंने दुनिया को अपने कदमों में झुकाया हुआ है। इसलिए उन्हें अब सचमुच कोरोना वायरस को भी अपने कदमों में झुकाना है। यह दिखाना है कि जिस वायरस ने दुनिया की महाशक्तियों को तोड़ कर रख दिया, उसकी भारत में नहीं चली क्योंकि भारत में मोदी है। मोदी के एक इशारे पर या एक आवाज पर जो करोडों लोग नोटबंदी के समय लाइन में लगे, आधार को अपनी हर पहचान से लिंक करने के लिए लाइन में लगे, कारोबार छोड़ कर जीएसटी भरने की कतार में खड़े हुए और अपने घर के बर्तन-भांडे लेकर उन्हें बजाने के लिए दरवाजों पर खड़े हुए, अब वे अपने लिए कुछ उम्मीद कर रहे हैं।
वे जिस अंदाज में ताली और थाली बजा रहे थे, वह कोरोना वायरस से लड़ने वाले सेनानियों के प्रति आभार जताने से कुछ ज्यादा था। वह उस काम में अपने लिए एक भरोसा, एक सुकून, एक राहत तलाशने की तरह था। वे उसके जरिए अपने मसीहा के हाथ मजबूत कर रहे थे। उनमें बड़ी संख्या सचमुच ऐसा मानने वालों की थी कि मोदी ने ताली और थाली बजाने को कहा है तो इसका कोई बहुत बड़ा अर्थ है। वे व्हाट्सएप से प्रसारित हो रहे इन बातों पर भरोसा कर रहे थे कि यह शोर नहीं, नाद है और इससे जो ध्वनि तरंगें उठेंगी वह कोरोना के वायरस को खत्म कर देंगी।
मोदी ने बाद में खुद भी ट्विट करके कहा कि यह विजय का नाद है। सो, अब लोग सचमुच विजय की उम्मीद कर रहे हैं। इस देश के बहुसंख्यक लोगों ने जिस तरह अपने को भगवान के भरोसे छोड़ा है, वैसे ही मोदी के भरोसे भी छोड़ है। अगर मोदी इस भरोसे पर खरा उतरते हैं तो ज्ञात इतिहास के सारे महापुरुषों से भी बड़े हो जाएंगे अन्यथा मोहभंग का जो सिलसिला शुरू होगा वह भी अभूतपूर्व होगा।
प्रधानमंत्री मोदी पिछले कुछ समय से कह रहे हैं कि लोगों को अधिकार के साथ साथ कर्तव्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। हकीकत यह है कि लोग अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं। सरकार बहादुर ने कहा कि लोग घरों में बंद हो जाएं तो लोग घरों में बंद हो गए। ताली और थाली बजाने को कहा गया तो उसके लिए भी खड़े हो गए। सरकार ने स्कूल-कॉलेज बंद कराए और काम धंधे रुकवाए उसके लिए भी लोग तैयार हो गए। तो अब सरकार की बारी है कि वह लोगों की जान बचाए। अभी देश के लोग सिर्फ जिंदा रहने की सोच के साथ जी रहे हैं। यह लोगों का सबसे बुनियादी अधिकार है और सरकार से बहुत छोटी उम्मीद है। अगर यह उम्मीद भी पूरी नहीं होती है तो मोहभंग का वह दौर शुरू होगा, जिसके बाद उम्मीद, भरोसा सब बेमानी हो जाएंगे।

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