बुधवार, 25 मार्च 2020

लॉकडाउन कैबिनेट से या पीएम का ?

सवाल अमेरिकी संसद में रात दो बजे आर्थिक पैकेज की सहमति के रिपब्लिकन पार्टी व डेमोक्रेटिक पार्टी के सीनेटरों के भाषण सुन कर बना। अचानक ख्याल आया भारत में भी तो लोकतंत्र है। तब 130 करोड़ लोगों को 21 दिन के लिए घरों में बंद रहने का प्रधानमंत्री मोदी का आदेश कैबिनेट में विचार से हुआ या उनके इल्हाम से? इतना बड़ा फैसला हिसाब से पूरे विचार, आगा-पीछा सोच कर, पूरी कार्ययोजना से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ही होना चाहिए। तब मैंने ढूढ़ाई शुरू की। पीआईबी से लेकर तमाम वेबसाइटों पर तालाबंदी की खबरों, प्रेस रिलीज को तलाशा। लेकिन कुछ मालूम नहीं हुआ। प्रधानमंत्री के भाषण के बाद सिर्फ कैबिनेट सचिव द्वारा प्रदेशों के मुख्य सचिवों से बात करने, फिर गृह मंत्रालय द्वारा राज्यों को गाइडलाइन भेजे जाने की खबर मिली। फिर कोरोना वायरस पर बने मंत्री समूह का ख्याल आया। मतलब उसके विचार-विमर्श में लॉकडाउन की जरूरत के निष्कर्ष पर कैबिनेट में फैसला हुआ होगा। पर वैसी भी खबर नहीं मिली। याद आया कि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा जैसे पहले भाषण में करके फिर कैबिनेट से सहमति ली थी, वह तरीका इस ऐलान के साथ भी हो। कैबिनेट बैठक, उसमें मंत्रियों के दूर-दूर बैठे होने का फोटो दिखा तो लगा शायद यह कैबिनेट बैठक फैसले पर ठप्पा लगवाने वाली थी। पर मेरे ऐसा सोचने की पुष्टि में न प्रेस रिलीज देखने को मिली और न राष्ट्रपति से अधिसूचना जारी होने की खबर आई। 


उफ! क्या मतलब? तब भारत के संविधान का कौन सा प्रावधान 21 दिन के लॉकडाउन को वैधानिक बनाने वाला है? यों भी चिकित्सा-स्वास्थ्य राज्यों का विषय है और उस नाते मेडिकल आपदा में लॉकडाउन का फैसला राज्यों को ही लेने का हक है। क्या नहीं? अमेरिका में गवर्नर अपने-अपने राज्य की स्थिति के अनुसार लॉकडाउन का फैसला ले रहे हैं। वहां कोरोना संकट में फिलहाल नंबर एक बहस यह है कि डोनाल्ड  ट्रंप का जहां मानना है कि पूरे देश, पूरी आर्थिकी को बंद नहीं किया जा सकता है, क्योंकि संकट महीनों लंबा चल सकता है। ऐसे में यदि अमेरिका पूरी तरह लॉकडाउन हुआ और दुनिया की नंबर एक आर्थिकी पर ताला लगा तो दुनिया का भट्ठा बैठेगा व अमेरिका की आर्थिकी को उठने में सालों लगेंगे। ट्रंप की इस सोच को डेमोक्रेटिक पार्टी गलत बताती है। न्यूयार्क के डेमोक्रेट गवर्नर ने ट्रंप की रीति-नीति को खारिज कर दो टूक स्टैंड लिया है कि मैं पहले इंसान को बचाने की चिंता करूंगा न कि आर्थिकी की। इसलिए मेरे यहां पूरा लॉकडाउन। मगर दोनों अपनी जिद्द के साथ संविधान में लिखी प्रक्रिया, कानून व व्यवस्था में काम कर रहे हैं। न्यूयार्क का गर्वनर अपने राष्ट्रपति ट्रंप याकि संघीय प्रशासन के कहे अनुसार नहीं चल रहा है।

मोटे तौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में चिकित्सा-स्वास्थ्य राज्यों का अधिकार है। ऐसा जर्मनी में भी है जबकि कोरोना का संकट राष्ट्रीय है। तभी वहां चांसलर मर्केल ने पिछले सप्ताह पूरे देश में कोरोना पर एक रीति-नीति के मकसद में नया संघीय कानून बना कर केंद्र सरकार के इमरजेंसी पॉवर बनवाए। जर्मनी की चांसलर ने चुनौती के अनुसार कानून बदलवाया। मगर अमेरिका में चली आ रही संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार अलग-अलग एप्रोच में कोरोना का सामना कर रहे हैं। अमेरिका जैसी ही (ब्रिटेन में भी ऐसे ही है) भारत में मेडिकल को लेकर संवैधानिक स्थिति है।

अपनी दलील थी और है कि भारत में कोरोना की चुनौती से प्रदेश सरकारें नहीं लड़ सकती हैं और न सरकारी अस्पतालों के भरोसे कोरोना पर काबू पाया जा सकता है। तभी मैंने लिखा था कि छह महीने के लिए देश की पूरी चिकित्सा व्यवस्था-भारत के निजी अस्पतालों का टेकओवर करते हुए केंद्र सरकार को अध्यादेश से अपनी इमरजेंसी पॉवर बना सेना की देखरेख में कोरोना से मेडिकल लड़ाई लड़नी चाहिए। इस तरह का विचार ‘ग्रुप ऑफ मिनिस्टर’ (जिसका गठन तीन फरवरी को हुआ था) में हो कर कैबिनेट के फैसले से मेडिकल रोडमैप व व्यवहार बने। लेकिन वह कुछ हुआ नहीं और सीधे पूरा देश बंद।

मूल सवाल है कि पूरा भारत किस इमरजेंसी प्रावधान में, संविधान की किस व्यवस्था में तालाबंद है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में या भाषण के बाद किसी सरकारी अधिसूचना से जनता को नहीं बताया है कि कैसे उन्हें वैसे ही घरों में रहना है जैसे कर्फ्यू में रहते हैं। कर्फ्यू से अधिक सख्ती रहेगी। पर कर्फ्यू तो कानून से लगता है। निःसंदेह सरकार के पास जनता को पाबंद करने के कानून हैं। जैसे इमरजेंसी, मार्शल ला, कर्फ्यू, धारा 144 में जनता को पाबंद करने के संविधान अधिकार हैं लेकिन उसकी प्रशासन से अधिसूचना जारी होती है। राष्ट्रपति की अधिसूचना से इमरजेंसी लगा सकते हैं, लोगों की स्वतंत्रताएं खत्म कर सकते हैं। लेकिन मेडिकल आपदा में लोगों की तालाबंदी का कानून नहीं है। इसके लिए केंद्र सरकार को अध्यादेश या हाल के संसद सत्र में कानून बनवा लेना था। पर जब नहीं ऐसा कुछ किया तो मेडिकल चुनौती से निपटने का दायित्व तो भारत में राज्य सरकारों का ही है। मुख्यमंत्रियों को ही मेडिकल कार्ययोजना बना काम करना है, ए से लेकर जेड तक का सब काम राज्य सरकारों का है तो राज्यों को ही लॉकडाउन का फैसला लेने देना था। या तो अध्यादेश से केंद्र सरकार सब अपने जिम्मे ले या राज्य विशेष की स्थिति अनुसार राज्यों से फैसले होने दे।

सवाल है इस तरह क्यों सोचा जाना चाहिए? इसलिए क्योंकि कोरोना से क्षेत्र विशेष याकि छोटे दायरे में ही लड़ना प्रभावी साबित है। प्रदेश स्तर पर, प्रदेश का गवर्नर, मुख्यमंत्री, छोटे इलाके का जिला प्रशासन लोकल हकीकत में अपनी आजादी, अपनी सख्ती, तत्काल फैसले में फोकस बना, सघन टेस्ट से वायरस खत्म करा सकता है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अखिल भारतीय स्तर पर, केंद्र सरकार के स्तर पर, पूरे भारत को 21 दिन लॉकडाउन करके कोरोना से लड़ाई को 130 करोड़ लोगों के बीच, पूरे देश में छितरा दिया है! समझें कि तीन करोड़ या छह-आठ करोड़ आबादी वाले देशों के लॉकडाउन और 130 करोड़ लोगों के लॉकडाउन में विशाल फर्क है। वैज्ञानिक तौर पर अब प्रामाणिक है कि इलाके विशेष में कोरोना वायरस का फैलाव, उसका शीर्ष (एपेक्स) अलग-अलग समय अवधि लिए होता है। तभी बड़े देश के नाते अमेरिका में पूरे देश को बंद करने की नीति नहीं बनी। वहा माना जा रहा है कि कोरोना बीमारों के कर्व के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समय पर पीक संख्या पर पहुंचने के चलते अमेरिका छह महीने कोरोना से लड़ता हुआ होगा। वैसा ही भारत में होना है। भारत में यदि केरल, महाराष्ट्र में अप्रैल-मई में पीक बना तो दिल्ली-एनसीआर-राजस्थान-पंजाब में जून-जुलाई में बनेगा। उसके बाद के महीनों में कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना में। गुजरात-बिहार-यूपी में पीक आते-आते सर्दियां आ सकती हैं। उत्तर-पूर्व, ओड़िशा याकि जहां अभी एक-दो की संख्या है वहां कर्व का न जाने कब पीक बने। इतना तय है कि अलग-अलग राज्य अलग-अलग महीनों में वायरस बीमारों का पीक लिए हुए होंगे। इसलिए 24 मार्च का घोषित अखिल भारतीय लॉकडाउन 21-21 दिन की घोषणाओं के साथ यदि वैक्सीन नहीं बन जाने तक भारत में खींचता रहा तो न जाने क्या होगा! सोचें, ऐसे सिनेरियो में 130 करोड़ लोग कितने महीने कैसे जीवन जियेंगे, क्या भारत सरकार के कैबिनेट ने, मंत्री समूह ने विचार किया है?

संदेह नहीं कोरोना लाखों जान लेगा। लॉकडाउन, सामाजिक दूरी से जीना भारत के 130करोड़ लोगों को बचाने का मान्य तरीका भी है। पर अखिल भारतीय स्तर पर, एक फरमान से यह तरीका उस नाते बिना सोचे समझे है क्योंकि यह प्रदेश सरकारों पर लड़ाई लड़ने का दारोमदार छोड़ते हुए है।

जो हो, लॉकडाउन के 24 घंटे हो गए हैं। अपने को लगता नहीं है कि प्रदेश सरकारों से यह ब्रीफिंग होगी कि लॉकडाउन के 24 घंटों में आईसीयू बिस्तरों की संख्या बढ़ी, कितने स्टेडियम अस्पताल में बदलने पर विचार हुआ या कितने हजार वेंटिलेटरों की जरूरत का अनुमान लगा आर्डर देना शुरू कर रहे है। प्रदेश का कोई मुख्यमंत्री घरों में बंद अपनी जनता को यह बताता नहीं मिलेगा कि आज हमने राज्य में दस हजार टेस्ट किए। या बिस्तर, वेंटिलेटर, स्टाफ, साधनों का बंदोबस्त सोचा या केंद्र सरकार ने हजार-दो हजार करोड़ रू रुपए भेजे! वुहान, दक्षिण कोरिया, उत्तरी इटली या न्यूयार्क जैसे क्षेत्र विशेष, स्पाटपाइंट में लॉककडाउन के पहले 24 घंटों में बीमारी से लड़ने का युद्धस्तरीय जो ऑपरेशन दिखा था, जो विजुअल आए वैसा कुछ यदि किसी प्रदेश में आपको कुछ दिखलाई दे तो जरूर मेरी जानकारी व्हाट्सअप मैसेज से बढ़वाएं। जबकि इस एप्रोच में आप हर दिन वैश्विक प्रेस कांफ्रेस में न्यूयार्क के गवर्नर को सुन सकते हैं। उलटे भारत में प्रदेश सरकारें इस समय इसी में वक्त जाया कर रही होगीं कि टीवी चैनलों पर लॉकडाउन में घूमते हुए कितने लोग दिखाई दे रहे हैं और इन पर पुलिस से डंडे चलवा कर, नोटिस फाड़ कर अपनी कार्यक्षमता दिखलाओ! मतलब टेस्ट, ट्रेस, आइसोलेशन भगवान भरोसे।

एक और तथ्य जाने। भारत के संविधान में लॉकडाउन, महामारी के लिए दिखाने का सिर्फ एक कानून 1897 में बना प्लेग को रोकने वाला इपेडिमिक डिसीसेज एक्ट है। अंग्रेजों का बनवाया यह एक्ट भी स्थानीय प्रशासन, राज्यों के अधिकार के लिए है। इससे तब किसी अंग्रेज गवर्नर-जनरल ने कभी पूरे भारत में लॉकडाउन का फरमान नहीं सोचा था। कानून से अंग्रेजों ने अपनी लापरवाही भी छुपाई थी। इसी के हवाले प्लेग फैलने में अंग्रेज सरकार की लापरवाही की ‘केसरी’ अखबार में खबरें छापने पर बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेजों ने जेल में डाला था।

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