शुक्रवार, 30 मार्च 2018

अपनी माटी से दूर होता राजनीतिज्ञ जादूगर

जयपुर। अशोक गहलोत एक मंझे हुए राजनेता हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं है। वे दिल्ली में हैं। राजस्थान में आते भी हैं तो बस वहां जहां उन्हें कार्यक्रमों में बुलाया जाता है। अन्यथा चाहे तीन सीटों पर जीत का सेहरा हो या फिर विजेता कांग्रेसी विधायक और सांसदों की सोनिया के सामने हाजरी या फिर बजट पर प्रतिक्रिया देनी हो वो दूर ही रहे हैं। अक्सर दिल्ली में।

यह सही भी है। होना भी यही चाहिए। पार्टी ने प्रदेश की कमान सचिन पायलट को सौंप रखी है। उनके काम में दखल देना शोभा नहीं देता। कम-से-कम अशोक गहलोत सरीखे राजनीतिज्ञ को तो बिल्कुल नहीं। और ऐसा वो कर भी रहे हैं। बिल्कुल रंग में भंग नहीं डालते। दिल्ली में दूर से बैठकर राजस्थान की सियासत पर बारिकी से नजर रखे हुए हैं।


हालांकि वे कह चुके है कि किसी प्रदेश का अध्यक्ष यह तय नहीं करेगा कि पार्टी की ओर से कौन होगा सीएम पद का उम्मीदवार। साथ ही यह भी कि वे राजस्थान छोड़कर कहीं जाने वाले नहीं हैं। उनकी अंतिम सांस राजस्थान के लिए रहेगी। बात है उनकी। कहना है उनका। बनता भी है। कह भी सकते हैं।

लेकिन इन्हीं दो बयानों के साथ उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के स्वागत में हाल ही में रखी गई टी-पार्टी में यह बात भी कही कि उन्होंने आज दिन तक पार्टी से कुछ नहीं मांगा। पार्टी ने जो दिया उसे सहर्ष स्वीकार किया। सिर्फ एक बार 1977 में उन्होंने विधायक का टिकट मांगा था लेकिन उसके बाद नहीं। उसके बाद सिर्फ पार्टी के आदेश की पालना की है। पार्टी के कहने पर वे प्रदेश के दो बार सीएम बने। प्रदेश अध्यक्ष रहे। कई राज्यों के प्रभारी रहे और गुजरात चुनाव में जिस तरह से वे राहुल के चाणक्य बनकर उभरे उससे वे ठीक सीपी जोशी की तरह राहुल की कोर टीम में शामिल हो गए।

सवाल यहां यहीं मौजू उठ रहा है। क्या राहुल गांधी अपने चाणक्य को केवल एक राज्य तक सीमित करके छोड़ देंगे। या अपने इस पारस पत्थर का इस्तेमाल, जिसके छूनेभर से हार, जीत में तब्दील हो जाती हो को पूरे देश व अन्य राज्यों के चुनावों में करना चाहेंगे। शायद इस बात को गहलोत भी महसूस कर चुके हैं। इसलिए अक्सर अब वे दिल्ली में ही रहते हैं। समय का तकाजा भी यही कहता है। दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। प्रदेश की जनता के लिए काम करने की उनकी लालसा है लेकिन वे अब इससे आगे और भी कुछ करना चाहते हैं।

क्योंकि इससे पहले कांग्रेस में बिना कुछ किए भी लोग चाणक्य और अर्जुन बने घूम रहे थे लेकिन यह डिजीटल का जमाना है। यहां करके दिखाना होता है। राहुल, युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां ठीक है से काम नहीं चलता है। करके दिखाना पड़ता है। राहुल जानते हैं कि गहलोत करके दिखाने वालों में हैं। और वे चाहेंगे कि वे उनके साथ बने रहें।

ऐसे में आप पाठकों को जो दिखाई दे रहा है वही हमें भी दिखाई दे रहा है कि राजस्थान का यह जादूगर वाकई प्रदेश से दिन-ब-दिन दूर होता जा रहा है। पर जो हो सचिन को यह नहीं कहना चाहिए कि वे सब लोग दिल्ली के हैं मैं तो यहां का हूं और मेरा दफ्तर भी यहीं जयपुर में है। क्योंकि गहलोत के बिना वो राजस्थान में दुबारा नहीं लौट सकते।  

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