शुक्रवार, 23 मार्च 2018

मैं इश्क भी लिखना चाहूं तो इन्कलाब लिखा जाता है...भगत सिंह


शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पे मर मिटनेवालों का बाकी यही निशां होगा





आज की युवा पीढ़ी जिसे अपने मोबाइल, लैपटॉप, पिज्जा-बर्गर और गर्लफ्रेंड के रुठने-मनाने की चिंता सताती है उस दौर में शहीद दिवस की बात करना बेहद लाज़मी है। क्योंकि इस पीढ़ि को ये पता होना चाहिए कि ये आज़ादी जिसको हम फॉर ग्रांटेड लेते हैं वो देश के वीर बहादुरों के खून से लिखी गई है। शहीद दिवस पर पढ़े खास रिपोर्ट...

कभी सनम को छोड़ के देख लेना, कभी शहीदों को याद करके देख लेना !
कोई महबूब नहीं है वतन जैसा यारों, देश से कभी इश्क करके देख लेना..!!

आज से चंद रोज़ पहले देश के विश्व विख्यात विद्यालय जेएनयू में अपनी छात्र राजनीति चमकाने के चक्कर में कन्हैया कुमार ने आज़ादी के नारे लगाए। इन नारों को लगाने के बाद उन्हें मीडिया कवरेज मिली और देश के राजनैतिक दलों में उठने-बैठने का मौका मिला। लेकिन इन सब बातों के बीच वो और उन जैसे हज़ारों ये भूल गए कि ये आज़ादी हमें देश के उन वीर सपूतों से मिली जिन्होंने देश को आज़ाद कराने के लिए हंसते-हंसते अपने प्राण दिए।


मेरे जज्बातों से इस कद्र वाकिफ है मेरी कलम
 मैं इश्क भी लिखना चाहूं तो
 इन्कलाब लिखा जाता है

23 मार्च है, जिसे हम शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं, उन वीर सपूतों को याद करते हैं जिन्होंने बेहद कम उम्र में देश के लिए अपने प्राणों का त्याग किया। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने व गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि देता है।

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पे मर मिटनेवालों का बाकी यही निशां होगा

उन अमर क्रांतिकारियों के बारे में आम मनुष्य की वैचारिक टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। उनके उज्ज्वल चरित्रों को बस याद किया जा सकता है। भगतसिंह ने अपने अति संक्षिप्त जीवन में वैचारिक क्रांति की जो मशाल जलाई, उनके बाद अब किसी के लिए संभव न होगी।



आदमी को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं
 बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है  लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं 
और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।

बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था। भगतसिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून-खराबा न हो और अंग्रेजों तक उनकी आवाज़ पहुंचे। निर्धारित योजना के अनुसार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका था। इसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना संदेश दुनिया के सामने रखा। उनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल होने के कारण देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चला।

मरना है तो वतन के लिए मरो...
कुछ करना है तो वतन के लिए करो..
अरे टुकड़ों में तो बहुत जी लिया..
अब जीना है तो मिल कर वतन के लिए जियो..
जय हिंद !!!

यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा। फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था और 23 मार्च 1931 को शाम 7.23 पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई।

लिख रहा हूं मैं अजांम जिसका कल आगाज आयेगा,
मेरे लहू का हर एक कतरा इकंलाब लाऐगा...

सुखदेव भी आज़ादी के सिपाही रहे। देश के लिए उन्होंने भी हंसते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए। सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब को लायलपुर पाकिस्तान में हुआ। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहने से इन दोनों वीरों में गहरी दोस्ती थी, साथ ही दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे। सांडर्स हत्याकांड में इन्होंने भगतसिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था।



मेरी महफ़िल है, मेरा सेहरा है, मेरा कफ़न है, वतन मेरा..
एक ज़िन्दगी नहीं,
हर जनम वारं दूँ, अपने हिन्दुस्तान पर...

राजगुरु का नाम भी देश के लिए मरमिटने वाले शहीदों में शुमार है। उनके हौसले में उस वक्त भी कमी नहीं आई जब अंग्रेज़ उन्हें फांसी के फंदे से लटका रहे थे। 24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ा में राजगुरु का जन्म हुआ। शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे।

मैं रहूँ या ना रहूँ पर ये वादा है तुमसे मेरा कि,
मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आयेगा...

पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज सहायक पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स को गोली मार दी थी और खुद ही गिरफ्तार हो गए थे।

 हमारे हौसलों को सुर्ख़ियों की चाह क्यूँकर हो,
वो खुश्बू बन महकते हैं ज़ुबानी ऐ वतन मेरे..

इन वीरों के क्या कहने जो मौत को हंसते हुए गले लगाते हैं और जाते-जाते पीछे छोड़ जाते हैं अपनी ज़िंदगी जीने का अंदाज़ और चंद पन्नों में लिखे अल्फाज़ जो आज भी जिंदा है अमर हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें