गुरुवार, 29 मार्च 2018

काठ की हांडी है अन्ना

विवेक सक्सेना
महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि जब मैं रामलीला मैदान के सामने से गुजरता हुआ गाड़ी में 'अपन तो कहेंगे' में व्यासजी को पढ़ रहा था तो उनके द्वारा खींचा गया शब्द चित्र मेरी आंखों के सामने वास्तविकता बन चुका था। इतने बड़े मैदान में तैनात अगर पुलिस वालों को भी जोड़ दिया जाए तो अन्ना के साथ अनशन पर बैठे लोगों की संख्या मुश्किल से एक हजार रही होगी। तमाम अखबारों ने भी अन्ना की घटती लोकप्रियता का जिक्र किया था। व्यासजी ने तो विस्तार से लिखा है कि किस तरह से अन्ना के इतने अहम उद्देश्य को चैनलो से लेकर राजनेताओं तक ने अनदेखी कर दी।

अक्सर लोग मुझसे पूंछते है कि तुम्हें नया इंडिया में कॉलम लिखने में ऐसा क्या सुख मिलता है कि तुम नौकरी करते समय भी बेहद आक्रामक संपादक के रहते हुए भी विनम्र नाम से रिपोर्टर डायरी लिखते थे? एक बार तो अपने रिटायरमेंट के बाद वह संपादक एक राजनेता के यहां खाने पर मिल गए और वे अपनी नाराजगी छिपाए न रह सके। उन्होंने व्यासजी की मौजूदगी में मुझसे कहा कि अगर मुझे इस रहस्य का पहले पता चल गया होता तो मैं तुम्हारे खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई करता।

मैंने मुस्कराते हुए इतना ही कहा कि भगवान गंजे को नाखून नहीं देता है। वे झेप कर रह गए। जनसत्ता में मेरे बॉस रहते हुए व उसके बाद छदम नाम से लिखते हुए भी मेरे आकर्षण की मुख्य वजह यह रही कि एक संपादक के रूप में व्यासजी ने मुझे पूरी छूट दी। अक्सर ऐसा हुआ कि अंतिम पृष्ठ पर वे अपने लेख में जो कुछ लिखते थे उसके एकदम विपरीत मैं अपने कॉलम में लिखता था।

मुझे याद है कि मुंबई बार गर्ल विवाद में मेरा व उनके एक ही पेज पर लेख छपे। उनके लेख में बार गर्ल के प्रति सहानुभूति थी जबकि मैं उन नाचने वाली महिलाओं के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति दिखाए जाने के खिलाफ था। फिर भी उन्होंने फुल स्टाप या कॉमा तक काटे बिना मेरा पूरा लेख छाप दिया। यह सब इसलिए लिखना पड़ा कि उनकी व मेरी अन्ना के प्रति राय एकदम विपरीत है। मैं भी कुछ दिनों से उन पर लिखने के लिए सोच रहा था। मैंने तो काफी पहले ही अन्ना के बारे में इसी कॉलम में लिखा था कि उनकी सेना में तो पोरस के हाथी हैं जोकि अपने ही लोगों को ज्यादा कुचलेंगे।

पता नहीं क्यों केजरीवाल से लेकर अन्ना तक के प्रति अपने मन में कभी सहानुभूति पैदा नहीं हुई। मेरा मानना है कि जिस तरह महात्मा गांधी ने सारे नेताओं की ऐसी-तैसी करके जवाहर लाल नेहरू को आगे किया वहीं काम अन्ना ने केजरीवाल के लिए किया। मुझे सिर्फ एक मामले में केजरीवाल अच्छा लगता है कि उसने अपने गुरू को ही धोखा दे दिया व अपने साथियों की ऐसी-तैसी करते हुए पूरे आंदोलन पर कब्जा कर लिया और देश के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए दिल्ली में शानदार जीत हासिल की।

मुझे अन्ना का 2011 का रामलीला मैदान का भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन याद है जब  खांसी से बेदम हो रहे केजरीवाल बहुत दुब्बले पतले थे। आज तो वे बेहद मुटा गए हैं और राजनीति के घुट्टा सांड हो चुके है। जरा उनकी गर्दन तो देखिए यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि संजय सिंह व उनमें मे से दिल्ली की राजनीति किसके लिए सबसे ज्यादा माकूल साबित हुई है?

बहरहाल महाराष्ट्र के अहमद नगर में 15 जून 1937 को जन्मे किशन बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे पहले सेना में ड्राइवर थे। अपना शुरू से मानना रहा है कि सेना की पूरी कोशिश होती है कि वह अपनी गाड़ी व लोगों को निकालते समय ऐसी हालत में पहुंचा दें कि वे किसी काम के न रहे। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के किस्से तो लोगों को याद ही होंगे। अन्ना तो अब 80 साल के होने जा रहे हैं। हिंदू धर्म में तो षष्टीपूर्ति की व्यवस्था है जिसमें माना जाता है कि 60 साल की आयु के बाद इंसान की हरकतें बदलने लगती है।

मुझे याद है कि महज सात साल पहले अन्ना के अनशन पर जुटने वाली भीड़ ऐतिहासिक थी। लोग उनको दूसरा गांधी कहने लगे थे। बच्चे अपने मां-बां के साथ उन्हें देखने आते थे। फोटो खिचांते। अन्ना टोपी लगाते व लोग उनके आंदोलन में दान देते। चलिए बच्चों की बात छोड़ भी जाएं तो मुझे लगता है कि वे आज देश में एकदम अकेले पड़ गए हैं। दिल्ली में आंदोलन करने के बाद भी उन्हें देखने आना तो दूर रहा उनके आंदोलन द्वारा पैदा हुई आप पार्टी के टुच्चे नेता तक ने उनके पक्ष में बयान तक नहीं दिया। केजरीवाल तो राजनीति के सबसे बड़े धूर्त है मगर उनके विरोधियों में जैसे प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास,  योगेद्र यादव, किरण बेदी आदि को कौन-सा सांप सूंघ गया कि उन्होंने अन्ना के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा।

जिस संघ व भाजपा पर उनके इस आंदोलन को सफल बनाने का श्रेय (आरोप) लगाया जाता है उसके नेता कहां चले गए? कांग्रेंस तो उनसे पहले ही दूरी बना चुकी थी। जिस बाबा रामदेव के अनशन के समर्थन में वे आगे आए थे वे क्यों कुछ नहीं बोल रहे? वैसे जाति से यादव और  अन्ना हजारे पर आरोप लगता आया है कि उनके आंदोलन में कभी भी दलितो, पिछड़ो, मुसलमानों को अहमियत नहीं मिली। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व जामा मस्जिद के शाही इमाम ने मुसलमानों को उनसे दूर रहने को कहा। एक समय तो उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री व बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की तारीफ की थी।

अन्ना को निजी जीवन में ऐसा तानाशाह माना जाता है जो कि अपने गांव के दलितो को वैजीटेरियन खाना खाने के लिए बाध्य करता था। टेलीग्राफ में जाने-माने लेखक रामचंद्रगुहा  ने उन पर तानाशाही करने का आरोप लगाया।तो ब्रुकर पुरुस्कार विजेता अरूंधति राय ने लिखा कि उनमें व नक्सलियों में कोई अंतर नहीं है। वे तो गांधीवादी नक्सली है जोकि प्रशासन को तबाह करने पर आमादा है। वे आत्महत्या करने वाले किसानों की चिंता नहीं करते। जब दिल्ली के सफल धरने के बाद उन्होंने महज आठ माह बाद मुंबई के एलएमआरडी मैदान में धरना दिया था तो वह बुरी तरह से फेल हो गया था। उसमें चंद हजार ही लोग आए थे। तब वहां के किसी अखबार ने लिखा था कि दिल्ली में लोग ज्यादा फालतू हैं और मुंबई के लोग उनकी असलियत को भी जानते हैं। मेरा मानना है कि चैनलों को लग रहा है कि अब अन्ना बिकने वाला सौदा नहीं रहा। वेसे मेरा तो यही मानना है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है।

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