पटना। महागठबंधन से अलग होने के बाद नीतीश कुमार उपचुनाव के बहाने पहली बार जनता के सामने थे। ये साबित करने की चुनौती थी कि एनडीए में जाने का उनका फैसला वास्तव में 'जनहित' में ही लिया गया था। लेकिन जहानाबाद के नतीजे ने उनके अरमानों को बुरी तरह से कुचल दिया, जेडीयू कैंडिडेट को हार का सामना करना पड़ा।
दरअसल, काफी ना-नुकुर के बाद नीतीश कुमार ने जहानाबाद सीट से अपना उम्मीदवार उतारा था, जिस आशंका को भांपकर नीतीश ने पहले उपचुनाव ना लड़ने का निर्णय किया था, वही हुआ। उनकी पार्टी और गठबंधन यहां से आरजेडी प्रत्याशी से चुनाव हार गए। जीत के लिए हर कोशिश हुई थी। एनडीए के नेताओं ने पसीना भी खूब बहाया था, लेकिन नतीजे शायद वहां की जनता ने पहले ही सुना दिया था, ठीक उसी तरीके से जैसा नीतीश बिना चुनाव में गए ये मान चुके थे कि जनादेश सिर्फ उन्हें मिला था महागठबंध को नहीं।
आखिर कहां हुई चूक?
जहानाबाद सीट से गठबंधन के तहत नीतीश ने वोट फैक्टर को देखते हुए ब्रह्मर्षि समाज पर दांव लगाया। उन्होंने अभिराम शर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया। यहां ब्राह्मण और बनिया वर्ग की भी ठीक-ठाक संख्या है, जो पारंपरिक तौर पर बीजेपी के वोटर माने जाते हैं। जबकि कुर्मी वोट नीतीश के साथ होते हैं। मुमकिन है कि इनका वोट जेडीयू को मिला भी होगा। लेकिन दलित और खासकर महादलित वोटर अहम फैक्टर हैं जो 2015 के चुनाव में तो नीतीश के साथ रहे, लेकिन इस बार माना जा रहा है कि वे नीतीश से नाराज थे।
कुशवाहा वोटर नीतीश से दूर
यहां कुशवाहा मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक तो नहीं है लेकिन कम मार्जिन के हिसाब से निर्णायक भी साबित होते हैं। अब चूकि उपेंद्र कुशवाहा इस वर्ग के नेता माने जाते हैं, तो क्या कुशवाहा से नीतीश को मदद नहीं मिली। जबकि उन्होंने काफी प्रचार भी किया था। कहीं ऐसा तो नहीं अंदर ही अंदर उपेंद्र कुशवाहा से नीतीश की 'लड़ाई' उनपर भारी पड़ी।
मांझी फैक्टर कितना कारगर
हम प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हालिया वर्षों में महादलित वोटरों खासकर मुसहर समाज के बड़े चेहरे बनकर उभरे हैं। बीच चुनाव में उन्होंने पाला बदल लिया, ऐसे में मुमकिन ये भी है कि उनके वोटर महागठबंधन में शिफ्ट कर गए हों। वैसे भी जहानाबाद इलाके में मांझी की अच्छी पकड़ मानी जाती है।
सहानुभूति या सरकार के खिलाफ आक्रोश
आरजेडी ने अपनी इस सीटिंग सीट पर विधायक मुंद्रिका सिंह यादव के निधन के बाद उनके बेटे सुदय यादव पर दांव खेला। पिछले चुनाव में यहां आरजेडी को भारी संख्या में जनमत मिला था। आरजेडी ने 76 हजार वोट हासिल कर एनडीए के सहयोगी रालोसपा को 40 हजार से अधिक मतों से हराया था। राजनीति में ये देखने को मिलता है कि नेताओं की मौत के बाद के बाद जनता की सहानुभूति उनके परिवार के सदस्यों को मिलती है। उनकी छवि एक साथ-सुथरे नेता के रूप में थी। इसका लाभ उनके बेटे को मिला है।
दरअसल, काफी ना-नुकुर के बाद नीतीश कुमार ने जहानाबाद सीट से अपना उम्मीदवार उतारा था, जिस आशंका को भांपकर नीतीश ने पहले उपचुनाव ना लड़ने का निर्णय किया था, वही हुआ। उनकी पार्टी और गठबंधन यहां से आरजेडी प्रत्याशी से चुनाव हार गए। जीत के लिए हर कोशिश हुई थी। एनडीए के नेताओं ने पसीना भी खूब बहाया था, लेकिन नतीजे शायद वहां की जनता ने पहले ही सुना दिया था, ठीक उसी तरीके से जैसा नीतीश बिना चुनाव में गए ये मान चुके थे कि जनादेश सिर्फ उन्हें मिला था महागठबंध को नहीं।
आखिर कहां हुई चूक?
जहानाबाद सीट से गठबंधन के तहत नीतीश ने वोट फैक्टर को देखते हुए ब्रह्मर्षि समाज पर दांव लगाया। उन्होंने अभिराम शर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया। यहां ब्राह्मण और बनिया वर्ग की भी ठीक-ठाक संख्या है, जो पारंपरिक तौर पर बीजेपी के वोटर माने जाते हैं। जबकि कुर्मी वोट नीतीश के साथ होते हैं। मुमकिन है कि इनका वोट जेडीयू को मिला भी होगा। लेकिन दलित और खासकर महादलित वोटर अहम फैक्टर हैं जो 2015 के चुनाव में तो नीतीश के साथ रहे, लेकिन इस बार माना जा रहा है कि वे नीतीश से नाराज थे।
कुशवाहा वोटर नीतीश से दूर
यहां कुशवाहा मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक तो नहीं है लेकिन कम मार्जिन के हिसाब से निर्णायक भी साबित होते हैं। अब चूकि उपेंद्र कुशवाहा इस वर्ग के नेता माने जाते हैं, तो क्या कुशवाहा से नीतीश को मदद नहीं मिली। जबकि उन्होंने काफी प्रचार भी किया था। कहीं ऐसा तो नहीं अंदर ही अंदर उपेंद्र कुशवाहा से नीतीश की 'लड़ाई' उनपर भारी पड़ी।
मांझी फैक्टर कितना कारगर
हम प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हालिया वर्षों में महादलित वोटरों खासकर मुसहर समाज के बड़े चेहरे बनकर उभरे हैं। बीच चुनाव में उन्होंने पाला बदल लिया, ऐसे में मुमकिन ये भी है कि उनके वोटर महागठबंधन में शिफ्ट कर गए हों। वैसे भी जहानाबाद इलाके में मांझी की अच्छी पकड़ मानी जाती है।
सहानुभूति या सरकार के खिलाफ आक्रोश
आरजेडी ने अपनी इस सीटिंग सीट पर विधायक मुंद्रिका सिंह यादव के निधन के बाद उनके बेटे सुदय यादव पर दांव खेला। पिछले चुनाव में यहां आरजेडी को भारी संख्या में जनमत मिला था। आरजेडी ने 76 हजार वोट हासिल कर एनडीए के सहयोगी रालोसपा को 40 हजार से अधिक मतों से हराया था। राजनीति में ये देखने को मिलता है कि नेताओं की मौत के बाद के बाद जनता की सहानुभूति उनके परिवार के सदस्यों को मिलती है। उनकी छवि एक साथ-सुथरे नेता के रूप में थी। इसका लाभ उनके बेटे को मिला है।

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