मंगलवार, 20 मार्च 2018

सरकार इन दिनों कशमकश में है

जयपुर। जयपुर और दिल्ली में यह घमासान मचा हुआ है कि किसको ठीक करें। किसे बदलें। नहीं बदलें। ऐसा क्या करें कि जनता मान जाए। मान जाए कि पार्टी और सरकार उनके साथ है। भाजपा इन दिनों इसी कशमकश में लगी हुई है। कांग्रेस भी उलझ-पुलझ है। पार्टी मानती है कि 3 सीटों पर जीत ही यह ना मानकर चल लें कि राजस्थान की सत्ता उनके हाथ में आ गई है।

पार्टी और सरकार में क्या फेरबदल होना है यह तो आने वाले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा। भाजपा के राजस्थान प्रभारी वी.सतीश कई बार मंत्रियों के साथ बैठ चुके हैं। दिल्ली भी हो आ चुके हैं। वसुंधरा से भी बात की। कई दौर की बातचीत हो चुकी है। तारतम्य बैठाने की कोशिश कर रहे हैं। 3 सीटों पर हुई हार से ही वे जयपुर-दिल्ली के चक्कर लगा रहे हैं। उनके सुझाए तरीकों पर काम भी शुरू हो चुका है।

3 हार के बाद यह काम करती सरकार
- ढेरों भर्तियां निकाली गई हैं।
- तबादलों पर लगी रोक हटा ली गई है।
- पार्टी कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता के आधार पर तबादले की बात अमल में लाई गई।
- पुराने कार्यकर्ताओं को जोड़ा जा रहा है।
- स्थानीय निकाय, बोर्ड के पदों को पार्टी कार्यकर्ताओं से भरा जा रहा है।

ऐसी भतेरी बातें हैं जो यह सरकार इन 3 हार के बाद कर रही है। अब कयास यह कि संगठन और  सरकार में भी फेरबदल किया जाएगा। लेकिन मौजूं सवाल सबके सामने यही है कि क्या इतना सबकुछ करने के बाद भी बात बन पाएगी। बात बने या ना बने। लेकिन इसके अलावा भाजपा के पास और कोई विकल्प भी नहीं है।

सैंकड़ों भर्तियां कोर्ट के चक्कर लगातीं
योजनाओं, भर्तीयों और तबादलों की घोषणा हो चुकी है। नौकरशाही से यह सब करवाना टेड़ी खीर साबित होगा सरकार के लिए। यह बात खुद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे कह चुकी हैं। वे मानती है योजनाओं की घोषणा करना अलग बात होती है लेकिन उसे धरातल पर उतारना दूसरी बात।

नौकरशाही ढंग से किसी योजना को अमल में नहीं लाती है तो वह घोषणा कोर्ट के चक्करों में फंस कर रह जाती है। वसुंधरा ही नहीं गहलोत सरकार की भी हजारों की तादाद में ऐसी बहुत सी भर्तियां हैं जो आज भी कोर्ट के प्रोसेस में अटकी हुई हैं।


चलिए। यह सब होता रहेगा। बात करते हैं। बदलने की। संगठन और सरकार दोनों में। संगठन में अशोक परनामी को राज्यसभा नहीं भेजा गया। 3 चुनावों में हार के बाद जिम्मेदारी कुछ हद तक प्रदेशाध्यक्ष पर बनती है। लेकिन इस बदलाव से जनता में कोई मैसेज नहीं जाने वाला है। कुछ मंत्रियों को संगठन में और संगठन से कुछ लोगों को सरकार में लिया जा सकता है।

राजस्थान का राजनीतिक इतिहास फेरबदल के पक्ष में नहीं
लेकिन राजस्थान का राजनीतिक इतिहास बताता है कि अंतिम समय में फेरबदल का कभी भी सत्तारूढ़ पार्टी को लाभ नहीं मिला है। 1998 में तत्कालीन भेरोसिंह सरकार ने यह किया था। लेकिन कांग्रेस 156 के प्रचंड बहुमत के साथ 1998 में सत्ता में आई।

अशोक गहलोत को साल में अंत में यही सब दिखा। 2002 और 2003 में मंत्रिपरिषद में बदलाव किए। लेकिन नतीज ढाक के तीन पात। 2003 में वसुंधरा पैराशूट से दिल्ली से राजस्थान की धरा पर उतरी और अपनी आंधी में गहलोत के 156 के बहुमत को तिनकों में बिखेर दिया। यह तब हुआ जब इसके चार महीने बाद ही लोकसभा के चुनाव हुए और यूपीए 1 की सरकार सत्ता में आई।


2008 में फिर चुनाव थे। पार्टी के अंतरकलह और इंकम्बैंसी से बचने के लिए वसुंधरा ने 2007 में मंत्रीपरिषद में बदलाव किया। लेकिन नतीजा फिर वही सिफर रहा। 2008 में वसुंधरा साफ थी और गहलोत एक बार फिर जयपुर की गद्दी पर आसीन थे।

अब 2013 में चुनाव होने थे तो गहलोत इस बार थोड़ा जल्दी 2011 में फेरबदल किया। लेकिन नतीजा वही चिरपरिचित की जनता पहले की फैसला कर चुकी होती है। 2013 में मोदी बयार में भाजपा 160+ के साथ सत्ता में दुबारा लौटी।

राजनीतिक निंद्रा को पंखा देती नौकरशाही
अब फिर चुनाव हैं। दिसम्बर 2018 में। वसुंधरा और पार्टी फिर से वही चूका हुआ तीर इस्तेमाल करना चाहती है जो कभी निशाने पर नहीं लगा। दरअसल इन राजनीतिक दलों के साथ दिक्कत यही है कि इनकी नींद तब टूटती है जब सारा खेल खत्म हो गया होता है।

3 उपचुनावों में जीत के बाद अशोक गहलोत अपने तजुर्बे से कह चुके हैं कि राजस्थान की जनता मन बना चुकी है। इसलिए वसुंधरा सरकार अब चाहे कितना ही एड़ी-चोटी का जोर लगा ले कुछ होने वाला नहीं है। वे कह भी सही रहे हैं। राजस्थान का बीते 20 साल का राजनीतिक इतिहास तो यही बात रहा है।

बदलने के अलावा भाजपा-कांग्रेस को कुछ आता भी नहीं
अब सवाल यही उठता है कि जब भाजपा और वसुंधरा सरकार दोनों को पता है कि कुछ होने वाला नहीं है तो फिर ऐसी कवायद ही क्यों। लेकिन उनके सामने समस्या यही है कि इसके अलावा उन्हें कुछ आता भी नहीं। सारी मुसीबत की जड़ उनकी सत्ता की निंद्रा है जिसे नौकरशाही जबरदस्त पंखा देती है। क्योंकि सत्ता सुख जो हमेशा भोगती है वह नौकरशाही है। नेता तो आते जाते रहे हैं। तो भुगतो।

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