शनिवार, 31 मार्च 2018

राजस्थान में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने आगामी चुनाव में जीत को निश्चित करने के लिए तैयार किया गया है एक्शन प्लान

प्रदेश की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने आगामी चुनाव में जीत को निश्चित करने के लिए एक्शन प्लान बनाकर उस पर काम करना शुरु कर दिया है। इसके लिए 7 मंत्रियों को तैयार किया गया है।

जयपुर। प्रदेश की भाजपा सरकार ने चुनावी साल में विपक्ष के आरोपों और हमलों का माकूल जवाब देने के लिए सात मंत्रियों की टीम तैयार की है। टीम में शामिल मंत्रियों में से प्रतिदिन एक मंत्री मीड़िया से रूबरू होंगे और प्रदेश के मौजूदा हालातों और विपक्ष के आरोपों का जवाब देंगे। हालांकि सत्ता और संगठन की इस कवायद के बाद यह तय हो गया है कि ​चुनावी साल में अब प्रदेश भाजपा में प्रवक्ताओं की भूमिका अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के मंत्री ही निभाएंगे।



इन मंत्रियों को सौपी कमान
विपक्ष के हमलों और प्रदेश के राजनीति घटनाक्रम पर जवाब देने के लिए बनाई मंत्रियों की टीम में जिन सात मंत्रियों को शामिल किया गया है। उनमें सोमवार को संसदीय कार्य मंत्री राजेन्द्र राठौड़, मंगलवार को कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी, बुधवार को गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया, गुरूवार को परिवहन मंत्री युनुस खान, शुक्रवार को उद्योग मंत्री राजपाल सिंह शेखावत, शनिवार को उच्च शिक्षा मंत्री किरण माहेश्वरी रविवार को सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्री ड़ॉ अरूण चतुर्वेदी प्रेसवार्ता कर प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक हालात और घटनाक्रम पर मीड़िया में सरकार और संगठन का पक्ष रखेंगे।

पार्टी की ओर से यह भी तय किया गया है कि सूची में शामिल मंत्री जयपुर में हो तो प्रदेश भाजपा मुख्यालय में और जयपुर से बाहर हो तो जिस जिले में वो हो वहां ही प्रेसवार्ता कर मीड़िया में विपक्ष के आरोपों का जवाब दें।

उपचुनाव हार के बाद एकमुखी हुआ सत्ता और संगठन
प्रदेश में तीन सीटों पर हुए उपचुनाव में मिली हार से सबक लेते हुए प्रदेश भाजपा और संगठन पूरी तरह एकमुखी होकर सक्रियता के साथ काम कर रहे है। इसका पहला बड़ा उदाहरण संगठन की ओर से जिलों में प्रवास योजना में संगठन पदाधिकारियों के साथ मंत्रियों को जोड़ा।

वहीं सत्ता और संगठन के स्तर पर मंत्री समूह का गठन किया गया जो लगभग प्रतिदिन भाजपा मुख्यालय में बैठक कर प्रदेश के ताजा हालातों पर चिंतन मनन करने के ​साथ ही तुरंत उठाए जाने वालें कदमों की जानकारी सरकार को देते है। मंत्री समूह की अध्यक्षता बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी करते है।

रामविलास और सुशील मोदी को दिखाए काले झंडे, विरोध में हुई नारेबाजी

 'बिहार प्रदेश के डिप्टी सीएम सुशील मोदी और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को मोकामा में विरोध का सामना करना पड़ा। सभा के दौरान प्रदर्शनकारियों ने काले झंडे दिखाए। नारेबाजी कर रहे लोगों ने मंच पर काले झंडे भी फेंके।

बता दें कि रामविलास पासवान और सुशील मोदी बाबा चौहरमल महोत्सव में हिस्सा लेने के लिए मोकामा पहुंचे थे। महोत्सव के दौरान सभा में भारी संख्या में भीम आर्मी के कार्यकर्ता भी पहुंच गए। उन्होंने रामविलास पासवान को दलित विरोधी नेता बताया।

अपील के बावजूद नहीं थमा विरोध
डिप्टी सीएम सुशील मोदी भी रामविलास पासवान के साथ मंच शेयर कर रहे थे। दोनों पास में ही बैठे हुए थे। मंच की ओर से अपील करने के बावजूद भीम आर्मी के कार्यकर्ता शांत नहीं बैठे। उन्होंने रामविलास के खिलाफ जमकर नारेबाजी की।



इनका क्या है कहना
एससी-एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर दिए गए निर्णय का भीम आर्मी विरोध कर रही है। मोकामा में भी इसी मुद्दे को लेकर उन्होंने प्रदर्शन किया। नारेबाजी कर रहे भीम आर्मी के नेता का कहना है कि दलितों का अपमान किया जा रहा है। केंद्र और राज्य में रहकर भी बीजेपी उनलोगों को सम्मान नहीं दिला पा रही है।

भाजपा को अजेय घोषित किया जा रहा है.

क्षेत्रीय दल यदि साथ आ जाएं तो भाजपा के बुरे दिनआ सकते हैं

(बाएं से) ममता बनर्जी, के चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव और मायावती
1996 से लेकर अब तक लोकसभा चुनाव में औसतन 235 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के अलावा क्षेत्रीय दलों ने जीत हासिल की है.

उत्तर प्रदेश में हाल में हुए राज्यसभा चुनाव परिणाम के बाद बसपा प्रमुख मायावती के प्रेस कॉन्फ्रेंस ने राजनीतिक बहस का मुख मोड़ दिया है.

अमूमन राज्यसभा चुनाव विश्लेषकों के लिए बहुत रोचक नहीं होते हैं. इसका कारण इन चुनावों में ज्यादातर परिणाम संभावित होते हैं.

परिणाम अप्रत्याशित होने की संभावना कम ही होती है लेकिन पिछले कुछ समय से इस देश का हर चुनाव, यहां तक कि पंचायत और शहरी निकाय के चुनाव भी महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं.

आजकल इन चुनावों पर भी लंबी-लंबी चर्चा होती है और इसके आंकड़ों के आधार पर राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य की दशा और दिशा तय होने लगती है.

पिछले साल के अंत में गुजरात चुनाव, इसी महीने मार्च में उत्तर-पूर्व राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम और हाल में उत्तर प्रदेश में हुए लोकसभा के दो उपचुनाव के परिणाम ने विश्लेषकों के बीच उथल-पुथल मचा रखी है.

महज एक साल पहले जिस मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को अजेय घोषित किया जा रहा था उसके बारे में अब कहा जा रहा है कि 2019 का लोकसभा चुनाव इतना भी आसान नहीं होगा जितना पहले सोचा जा रहा था.

2019 में परिणाम क्या आएगा अभी इसके बारे में बात करना ठीक नहीं होगा. बहरहाल पिछले एक साल में ऐसा क्या हुआ कि अचानक से चुनावी परिणाम की पिक्चर थोड़ी धुंधली-सी नजर आने लगी है?

क्या कुछ मूलभूत सैद्धान्तिक पहलुओं को नजरअंदाज किया गया या फिर उसके ऊपर किसी का ध्यान ही नहीं गया?

इस सवाल का जबाब ढूंढने से पहले पिछले कुछ समय के राजनीतिक घटनाक्रम को देखिये. उत्तर-प्रदेश में दो चिर-प्रतिद्वंदी पार्टी बसपा और सपा ने मिलकर उपचुनाव लड़ा, उन्हें जीत मिली.

राज्यसभा के चुनाव में बसपा प्रत्याशी नहीं जीत पाया लेकिन फिर मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा है कि इससे उनके मन मे सपा और अखिलेश यादव के लिए कोई द्वंद्व नहीं है.


झारखंड में कांग्रेस के पास पर्याप्त वोट नहीं थे लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन से कांग्रेस के उम्मीदवार राज्यसभा पहुंच गए.

पश्चिम बंगाल में भी कुछ इसी तरह से ममता बनर्जी ने अपना समर्थन कांग्रेस को दिया और केरल में लेफ्ट पार्टी ने शरद यादव गुट के प्रत्याशी को राज्यसभा पहुंचाने में सहयोग किया.

इसके अतिरिक्त हाल ही में तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू का एनडीए से बाहर आना और सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की मांग करना आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो इस तरफ ध्यान आकर्षित करती हैं कि भारतीय राष्ट्रीय चुनाव को समझने के लिए उसके राज्य में हो रहे विभिन्न राजनीतिक घटनाक्रम को समझना पड़ेगा.

यानी कि राज्य के राजनीतिक प्रारूप को समझना जरूरी है. राज्य एक अहम कड़ी है. 1980 के दशक के अंतिम कुछ वर्षों से ही विभिन्न राज्यों में कई पार्टियों का उदय हुआ और 1990 के दशक में कई प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां उभरीं जिनकी उस राज्य के राजनीति में न सिर्फ अहम भूमिका रही बल्कि उसने राज्य पर शासन भी किया.

इसके अलावा राज्यों में इन क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व की वजह से राष्ट्रीय पार्टियों खासकर कांग्रेस का काफी नुकसान हुआ और कई राज्यों में आज कांग्रेस चौथे-पांचवें स्थान की पार्टी हो गयी है.

उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि कई ऐसे उदाहरण है.

राज्यों में क्षेत्रीय दलों की राजनीति के महत्व को ज्यादा गहराई से समझना हो तो इस बात से भी समझा जा सकता है कि 1996 के लोकसभा चुनाव से ही औसतन 235 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के अलावा क्षेत्रीय दलों ने जीत हासिल की है.

अगर वोट के आंकड़ों को भी देखें तो इसी दौर में कांग्रेस और भाजपा का वोट प्रतिशत मिलाकर भी औसतन 50 प्रतिशत के पास ही रहा है.

पिछले लोकसभा चुनाव में भी ये आंकड़ा सिर्फ 51 प्रतिशत के पास रहा और ये दोनों पार्टियां मिलकर सिर्फ 326 सीटें ही जीत पाईं. यानी कि एक महत्वपूर्ण संख्या में वोट और सीट क्षेत्रीय पार्टियों के बीच रही है. जिसे आप आगे के दो ग्राफ में देख सकते हैं.
नोट: लोकसभा में कुल 545 सीटें हैं लेकिन सिर्फ 543 पर ही चुनाव होते हैं. दो सदस्यों को नामित किया जाता है.


2014 के आम चुनाव में मोदी और भाजपा के प्रति लोगों में भरपूर समर्थन के बावजूद छोटी पार्टियों को 49 प्रतिशत वोट मिले जो कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को मिलाकर मिले वोट से सिर्फ दो फीसदी ही कम है.

एक और बड़ी बात ग्राफ-2 से पता चलती है कि पिछले छह लोकसभा चुनावों में छोटी पार्टियों के वोट प्रतिशत में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के वोट में ही स्विंग हुआ है.

छोटी पार्टियां राष्ट्रीय स्तर के असर से बेअसर रही है लेकिन एक बड़ी बात जो इसमे छुप जाती है वो यह कि उन राज्यों में जहां क्षेत्रीय दल प्रभावशाली रहे हैं वहां राज्य स्तरीय पार्टियों के बीच भी प्रतियोगिता रही है.

इसको इस अनुसार भी समझ सकते है कि छोटी पार्टियों के कुल वोट प्रतिशत में तो बड़ा अंतर नहीं आया है लेकिन जब इसे राज्य के स्तर पर देखेंगे तो वहां उसी राज्य के दो प्रमुख पार्टियों के सीटों में बड़ी फेरबदल हुई है और एक पार्टी को अपने राज्य स्तरीय प्रतिद्वंदी के हाथों सीटें गवानी पड़ी है.


तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार आदि इसके उदहारण हैं.

इसके अलावा 2004 के चुनाव का बारीक अध्ययन करें तो भाजपा के वोट प्रतिशत में सिर्फ दो प्रतिशत का नुकसान हुआ था लेकिन वो 1999 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 44 सीटें हार गई थी जबकि कांग्रेस का भी वोट एक प्रतिशत गिरा था लेकिन फिर भी 1999 के मुकाबले वो 31 सीटें ज्यादा जीतने में सफल रही थी.

इसकी वजह ये थी कि 2004 में कांग्रेस 1999 के मुकाबले 36 कम सीटों पर चुनाव लड़ी थी मतलब उसने पिछले चुनाव के मुकाबले अपने गठबंधन के अन्य पार्टियों को ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने को दिया था जिसका परिणाम यह रहा कि राष्ट्र स्तर पर इंडिया शाइनिंग कैंपेन के वावजूद भाजपा अपनी सरकार नहीं बचा पाई.

2014 का चुनाव कुछ मामलों में थोड़ा अलग था. भाजपा को उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित सफलता हासिल हुई उसके उलट वहां की दो बड़ी पार्टियों सपा और बसपा को काफी नुकसान हुआ.

दोनों पार्टियों को मिलाकर 42.12 प्रतिशत वोट मिले थे जो कि भाजपा को मिले वोट से सिर्फ आधा (0.5) प्रतिशत ही कम थे लेकिन दोनों के अलग-अलग चुनाव लड़ने की वजह से भाजपा 71 सीटें जीतने में सफल रही थी और सपा सिर्फ 5 सीटें और बसपा को कोई भी सीट नहीं मिली.

अब अगर ये दोनों पार्टियां राज्य में गठबंधन करके (जैसाकि मीडिया रिपोर्ट से प्रतीत होता है) चुनाव लड़ती हैं तो 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बड़ा फर्क उत्तर प्रदेश में दिखेगा.

साथ ही राज्यसभा के चुनाव की तरह अगर कांग्रेस अलग-अलग राज्यों में वहां की छोटी पार्टियों को थोड़ा महत्व देखते हुए ठीक से गठबंधन करने में सफल रही तो राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ अलग परिदृश्य देखने को मिल सकता है.

हनुमन्त शोभायात्रा समिति : छोटी काशी जयपुर शहर में आज हनुमान जयंती पर शोभायात्रा


हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी श्री हनुमन्त शोभायात्रा समिति की और से हनुमान जी महाराज के जन्मदिवस के अवसर पर  31 मार्च 2018 को शोभायात्रा का आयोजन किया गया है. शोभायात्रा को सांगानेरी गेट हनुमान मंदिर से राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, चिकित्सा मंत्री कालीचरण सराफ, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री अरुण चतुर्वेदी सायं 6.30 बजे आरती उतारकर शुभारम्भ करेगे.


इससे पूर्व रामलीला मैदान में सायं 5 बजे शोभायात्रा के रथ एवं झांकियां तेयार होगी एवं अंजन कुमार गोस्वामी (महंत गोविन्द देवजी मंदिर) (अलबेली मधुरिशरण महाराज सरस निकुंज) (अवेधशाचार्य महाराज महंत गलतापीठ) (अम्बिका प्रसाद श्रीवास्तव गायत्री पीठ) (महंत जयकुमार नहर के गणेशजी) (प्रदीप ओदिच्य महंत गटगणेश) वाले आशीर्वाद देकर झांकियां को विदा करेंगे.


श्री हनुमंत शोभायात्रा समिति की और से शोभायात्रा के आयोजन का 33 वां वर्ष है शोभायात्रा के मुख्य रथ पर स्वर्ण जडित बायें हाथ से आशीर्वाद देते हनुमान जी का रियासतकाल का पुराना चित्र विराजमान होगा. यात्रा में जयपुर के सभी प्रमुख मंदिरों की झांकियां अलग – अलग रथों पर सवार होगी. इस बार शोभायात्रा में चार इलेक्ट्रोनिक (विघुत चलित) झांकियां यात्रा का विशेष आकर्षण का केंद्र होगी. जिसमे पुष्पक विमान से राम लक्षमण, सीता अयोध्या जाते हुए समुन्द्र से हनुमानजी बाहर आते हुए रथ पर सवार राम दरबार, अशोक वाटिका में सीता माता व हनुमान जी का मिलन विशेष होगा. शोभायात्रा मार्ग में अनेक विशेष मंच बनायें गए है जहाँ प्रमुख अतिथि एवं गणमान्य नागरिक यात्रा का स्वागत करेगे.


यात्रा मार्ग में जोहरी बाज़ार धनवन्तरी ओशाधालय पर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री अरुण चतुर्वेदी, जामा मस्जिद पर अल्पसंख्यक समाज के साथ अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जसबीर सिंह यात्रा का स्वागत करेगे. त्रिपोलिया बाज़ार में उपमहापोर मनोज भारद्वाज, राजकुमारी दिया कुमारी, जिला कलेक्टर रोहित महाजन, महेश्वरी युवा संगठन, छोटी चोपड़ पर ब्रहमपुरी व्यापर मंडल, विधायक सुरेन्द्र पारिक, किशनपोल बाज़ार में पुलिस आयुक्त संजय अग्रवाल, सिंहद्वार पर विधायक घनश्याम तिवाड़ी, खजाने वालो के रास्ते में मोहन लाल गुप्ता, चांदपोल बाज़ार हनुमान मंदिर पर सांसद रामचरण बोहरा आरती उतारकर स्वागत करेंगे.


इसके साथ ही पूर्व महापोर ज्योति खंडेलवाल, पूर्व सांसद महेश जोशी, पूर्व विधायक प्रताप सिंह खाचरियावास, पूर्व मंत्री ब्रजकिशोर शर्मा यात्रा एवं आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता यात्रा मार्ग में स्थान स्थान पर शोभायात्रा का स्वागत करेगे. इसके अलावा विभिन्न संगठन, सामाजिक संगठन अनेको स्थानों पर मंच बनाकर यात्रा का स्वागत करेगे शोभायात्रा मार्ग पर सभी व्यापारियों एवं दुकानदारों को आमंत्रण पत्र देकर आमंत्रित किया गया है. व्यापारी एवं आमजन में यात्रा को लेकर काफी उत्साह है.

बेटे के इंतजार में पैदा की आठवीं बेटी, अब परवरिश से कर रहें इन्कार

आर्थिक तंगी से मजबूर हो बच्ची को विशिष्ट दत्तक ग्रहण संस्थान को सौंपा



 : प्रखंड मुख्यालय अंतर्गत एक दंपत्ति ने आर्थिक परेशानी की वजह से अपने नवजात बच्ची को समाज कल्याण विभाग के अधीन विशिष्ट दत्तक ग्रहण संस्थान को सौंप दिया. जानकारी अनुसार सिंहेश्वर स्थित सीएचसी मे गुरूवार को जजहट सबैला वार्ड संख्या दस की एक गर्भवती विभा देवी ने आठवीं बच्ची को जन्म दिया. जिसके बाद से ही पुरे अस्पताल में हाईवोल्टेज ड्रामा चलने लगा. जिसका अंत शुक्रवार की शाम को हुआ.

दंपति का कहना है कि उन्हें पूर्व से सात पूत्री है और यह आठवीं बेटी है. काफी उम्र हो जाने की वजह से बेटी का भार वहन नहीं कर पायेंगे. अभी तो तीन बेटी का विवाह भी करना शेष है. अब तक चार बेटी का जैसे तैसे विवाह कर चुके है. इस क्रम में दो पूत्री की शादी तो अन्य राज्य में किया है.

पचपन पार की मां व बाप कैसे करेंगी नवजात का पालन : बच्ची के पिता पेशे से रिक्शाचालक हरिलाल राम को जिला समन्वयक व अस्पताल प्रबंधक पियुष वर्धन ने काफी समझाया कि बच्ची को वह रख ले. लेकिन, उसने मना कर दिया. अंत में एनजीओ की समन्वयक ने कागजी प्रक्रिया पुरी करने के बाद बच्ची को अपने साथ ले गयी.

वहीं बच्ची के पिता ने जानकारी देते हुये बताया कि उसे पूर्व में सात बेटी है जिसमें चार का विवाह ( 2 का दुसरे राज्य जालंधर व दो का बिहार में) उसने जैसे- तैसे कर दिया. लेकिन अब भी उसके पास तीन बेटी, मां और पत्नी का पालन पोषण करना है. उसकी उम्र अब 55 के पार है और वह ज्यादा कमाई भी नही कर पाता है. घर में रहने वाले सभी के लिये खाना भी काफी मुश्किल से जुटा पाता है.

तीन बेटियों का विवाह भी करवाना अभी शेष है. ऐसे में यह चौथी बेटी को वह कैसे पालेगा. किसी ने उसे सलाह दी कि वह बच्ची को किसी जरूरत मंद को सौंप दें और वह तैयार भी हो गया. लेकिन जब तक बच्ची को वह उनलोगों को सौंपता तब तक कई लोगों ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया. अंत में उसने फैसला लिया कि वह बच्ची को किसी अच्छे संस्था को सौंप देगा.

पहले स्थानीय को गोद देने का किया प्रयास

बच्ची के जन्म लेने के बाद महिला काफी रोने लगी कारण पुछने पर उसने अस्पताल कर्मी को बताया कि उसे पूर्व मे सात बेटी है. उनलोगों ने बेटा होने की आस लगा रखी थी. जिसके बाद वह बेटी को घर ले जाने से मना करने लगी. जिसके बाद कुछ स्थानीय लोगों ने उस बच्ची को गोद लेने में अपनी समर्थता जाहिर की और तब से ही ड्रामा शुरू हो गया.

शुक्रवार की दोपहर नवजात को स्थानीय के हवाले करने की बात होने लगी इसी बीच किसी ने एनजीओ सहित जिले के आलाअधिकारी को इस बात की सुचना दे दी. सुचना मिलने के तुरंत बाद जिले से एनजीओ कि जिला समन्वयक सुधा कुमारी व बाल कल्याण समिति के कर्मी भी अस्पताल पहुंच गये. तब तक बच्ची सहित उसके परिजन अस्पताल से बाहर पहुंच चुके थे. हालांकि सभी को दुबारा अस्पताल लाया गया.

नोटबंदी का कमाल : मोदी, जेटली कमा रहे है माल



महेश झालानी  आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय मुद्रा की छपाई का अधिकांश नियंत्रण विदेश की उस कम्पनी डे ला रु ज्योरी के हाथ मे है जो पाकिस्तान को भी नॉट बनाने के लिए कागज की सप्लाई करती है । भारत मे इस कपनी की अवांछनीय गतिविधियों के कारण पिछली सरकार ने इसे ब्लैकलिस्टेड कर दिया था । आज यही कंपनी वित्त मंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मेहरबानी से भारत को वही कागज सप्लाई कर रही है जो वह पाकिस्तान को दे रही है । यही कारण है कि मोदी की नोटबन्दी की घोषणा के बाद भी नकली नोटों का कारोबार नही थमा है ।

रिजर्व बैंक और आतंकवादियों की मिलीभगत से भारतीय बाजार नकली नोट से अटा पड़ा है । पूरी जानकारी तो उपलब्ध नही हो पाई, लेकिन मोटे तौर पर 1.36 लाख करोड़ के नकली नोट बाजार में दौड़ रहे है । यानी हर हिंदुस्तानी के पास एक नकली नोट । सीबीआई और अन्य जाच एजेंसियों को पड़ताल से ज्ञात हुआ कि पाकिस्तान से आये नकली नोट रिजर्व बैंक के बॉक्स में पैक होकर आए थे । मोदी ने नोटबन्दी की घोषणा करते हुए वक्त देशवासियो को भरोसा दिलाया था कि नोटबन्दी के बाद नकली नोट पर पाबंदी लग जायेगी । हुआ इसका उल्टा । पहले से अब नकली नोट में 3.7 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है ।

सवाल यह भी उठता है कि जब देश खुद मुद्रा छापने का कागज बनाने में सक्षम है तो फिर विदेशी कंपनियों से आयात क्यो ? मोदी अपने हर भाषण में एक रोना जरूर रोते है कि पिछले 60 साल में कांग्रेस ने कुछ नही किया । आपने क्या कर लिया ? बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते है जबकि देश मे नोट छापने का कागज तक तैयार क्यो नही कर पा रहे है, यह जनता को बताना ही होगा । हकीकत यह है कि ज्योरी जैसी कंपनी अपने सप्लायर, अफसरों और सरकार में बैठे हुक्मरानों को करीब 10-13 फीसदी का कमीशन देती है । इस हिसाब से खरबो रुपये का कमीशन हुक्मरानों और मंत्रियों की जेब मे जा रहा है ।

खुफिया सूत्रों ने बताया कि ज्योरी द्वारा उतने वजन का कागज सप्लाई नही किया जा रहा है जितने का करार हुआ था । इसके अलावा कागज में कपास की मात्रा भी पर्याप्त नही है । नोट छापने वाला कागज मुख्य रूप से कपास के मिश्रण से बनता है ताकि गुणवत्ता और दृढ़ता बरकरार रह सके । पुराने नोटों की तुलना में नए नोट एकदम घटिया है । इसके अतिरिक्त छपाई के उपयोग में ली जाने वाली स्याही की क्वालिटी भी बेहद घटिया है । इसका रंग छूटने लगता है और रंग का चयन भी सही तरीके से नही किया गया । इसलिए लोग नकली नोट को चूर्ण के नोट की संज्ञा देते है । पुराने नोट के स्थान पर नए नोटों को हेय दृष्टि से देखते है ।

आपको बता दूं कि अपनी स्थापना के बाद से लेकर आज तक रिज़र्व बैंक अब तक 22 गवर्नरों के दस्तखत वाले नोट जारी कर चुका है. 1540 से 1545 के बीच शेरशाह सूरी से ने रुपया शब्द दिया और अब भारत समेत आठ देशों की मुद्रा को रुपया के नाम ही से जाना जाता है पहले रुपया केवल धातु से बने सिक्कों को ही कहा जाता था लेकिन 1861 में पेपर करेंसी एक्ट के साथ ही अठारहवी सदी के अंतिम सालों में कागजी नोट का जन्म हुआ.

सन 1934 तक रुपये को नोट के रुप में जारी करने की जिम्मेदारी सरकार की थी, जबकि 1935 से लेकर अब तक ये काम रिजर्व बैंक के पास है. हालांकि एक रुपये के नोट को जारी करने की जिम्मेदारी अब भी सरकार के पास है जबकि 2 से लेकर 1000 रुपये के नोटों को जारी करने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है. हालांकि अब दो रुपये और पांच रुपये के नोट छपते नहीं हैं. चूंकि एक को छोड़ बाकी मूल्य के नोटों को रिजर्व बैंक जारी करता है, इसीलिए उनपर रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर होते हैं. 1 रुपये के नोट पर भारत सरकार के वित्त सचिव दस्तख्त करते हैं.

कागजी नोट के रुप में रुपया मध्य प्रदेश के देवास, महाराष्ट्र के नासिक, कर्नाटक के मैसूर औऱ पश्चिम बंगाल के सल्बोनी स्थित प्रिटिंग प्रेस में छपता है जबकि सिक्कों के रूप में मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद और नोएडा स्थित टकसाल में ढाला जाता है. आपको बता दू कि अब रुपया ही नहीं, किसी भी देश की मुद्रा के पीछे सोना या चांदी जैसा कोई बहुमूल्य धातु नही रखा जाता. 1971 में ब्रिटेन वुड व्यवस्था खत्म होने के साथ ही गोल्ड स्टैंडर्ड का भी अंत हो गया. अब विभिन्न देशों की मुद्रा की तरह रुपये को फिएट करेंसी कहा जाता है. फिएट करेंसी कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त मुद्रा होती है जिसे सरकार का सहारा होता है. फिएट लैटिन भाषा से लिया गया शब्द है. हिंदी में इसका मतलबा आज्ञा या हुकुम होता है.

नोट जारी करने वाली संस्था के मुखिया के तौर पर गवर्नर (के हस्ताक्षर) नोट रखने वाले को अंकित रकम के बराबर मूल्य अदा करने का वचन देता है. एक बात यहां बता दू कि ये वचन किसी करार के तहत नही बल्कि कानूनी प्रावधानों के तहत दिया जाता है. अब 4 सितम्बर के बाद अपने हस्ताक्षर के जरिए उर्जित पटेल ये वचन देंगे. अब सवाल ये है कि कितना नोट छापा जाए या कितने सिक्के ढ़ाले जाएं?

जहां तक बात नोटों की है, 1 रुपये को छोड़ बाकी कीमत वाले नोटों के बारे में रिजर्व बैंक आर्थिक विकास दर, महंगाई दर और नोटों की बदलने की मांग जैसे तथ्यों के आधार पर अनुमान लगता है, फिर सरकार के साथ विचार-विमर्श कर तय होता है कि कितना नोट छपेगा. रिजर्व बैंक की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 2008 से 2013 के बीच रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे डी.सुब्बाराव के हस्ताक्षर वाले 3600 करोड़ से भी ज्यादा नोट 2011-12 और 2012-13 के दौरान छपे.
इन नोट की कुल कीमत सात लाख 20 हजार करोड़ रुपये के करीब थी. वहीं सितम्बर 2013 से सितम्बर 2016 के बीच गवर्नर रहे रघुराम राजन के हस्ताक्षर वाले करीब साढ़े चार हजार नोट 2014-15 और 2015-16 के दौरान छपे. जिनकी कुल कीमत आठ लाख 13 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा थी.

इतनी बड़ी तादाद में नोट छापे जाने के बावजूद एक डॉलर के लिए 67 रुपये चुकाने पड़ रहे हैं. इसकी वजह जानते हैं. बाजार का नियम है कि जिस चीज की मांग जितनी ज्यादा होगी, उसकी कीमत उतनी ही ज्यादा होगी. आज की तारीख में दुनिया भर के बाजार में किसी मुद्रा की अगर सबसे ज्यादा मांग है तो वो है डॉलर. नतीजा ज्यादातर देशो की मुद्रा के मुकाबले डॉलर महंगा है. ये भी मत भूलिए कि जिस देश की अर्थव्यवस्था जितनी बड़ी होगी, उसका उतना ही अच्छा असर उसकी मुद्रा पर पड़ेगा. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था 18.55 खरब डॉलर के साथ पहले स्थान पर है जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार सवा दो खरब डॉलर से कुछ ज्यादा ही है.

भले ही नोट छापने और सिक्का ढालने का फैसला सरकार और रिजर्व बैंक मिलकर करते हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि गरीबी दूर करने के लिए खूब सारे नोट छाप लिए जाएं. बाजार में अगर नोट औऱ सिक्के काफी ज्यादा हो जाएंगे, तो महंगाई आसमान छूने लगेगी और अर्थ व्यवस्था तबाह हो जाएगी ।

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

अपनी माटी से दूर होता राजनीतिज्ञ जादूगर

जयपुर। अशोक गहलोत एक मंझे हुए राजनेता हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं है। वे दिल्ली में हैं। राजस्थान में आते भी हैं तो बस वहां जहां उन्हें कार्यक्रमों में बुलाया जाता है। अन्यथा चाहे तीन सीटों पर जीत का सेहरा हो या फिर विजेता कांग्रेसी विधायक और सांसदों की सोनिया के सामने हाजरी या फिर बजट पर प्रतिक्रिया देनी हो वो दूर ही रहे हैं। अक्सर दिल्ली में।

यह सही भी है। होना भी यही चाहिए। पार्टी ने प्रदेश की कमान सचिन पायलट को सौंप रखी है। उनके काम में दखल देना शोभा नहीं देता। कम-से-कम अशोक गहलोत सरीखे राजनीतिज्ञ को तो बिल्कुल नहीं। और ऐसा वो कर भी रहे हैं। बिल्कुल रंग में भंग नहीं डालते। दिल्ली में दूर से बैठकर राजस्थान की सियासत पर बारिकी से नजर रखे हुए हैं।


हालांकि वे कह चुके है कि किसी प्रदेश का अध्यक्ष यह तय नहीं करेगा कि पार्टी की ओर से कौन होगा सीएम पद का उम्मीदवार। साथ ही यह भी कि वे राजस्थान छोड़कर कहीं जाने वाले नहीं हैं। उनकी अंतिम सांस राजस्थान के लिए रहेगी। बात है उनकी। कहना है उनका। बनता भी है। कह भी सकते हैं।

लेकिन इन्हीं दो बयानों के साथ उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील के स्वागत में हाल ही में रखी गई टी-पार्टी में यह बात भी कही कि उन्होंने आज दिन तक पार्टी से कुछ नहीं मांगा। पार्टी ने जो दिया उसे सहर्ष स्वीकार किया। सिर्फ एक बार 1977 में उन्होंने विधायक का टिकट मांगा था लेकिन उसके बाद नहीं। उसके बाद सिर्फ पार्टी के आदेश की पालना की है। पार्टी के कहने पर वे प्रदेश के दो बार सीएम बने। प्रदेश अध्यक्ष रहे। कई राज्यों के प्रभारी रहे और गुजरात चुनाव में जिस तरह से वे राहुल के चाणक्य बनकर उभरे उससे वे ठीक सीपी जोशी की तरह राहुल की कोर टीम में शामिल हो गए।

सवाल यहां यहीं मौजू उठ रहा है। क्या राहुल गांधी अपने चाणक्य को केवल एक राज्य तक सीमित करके छोड़ देंगे। या अपने इस पारस पत्थर का इस्तेमाल, जिसके छूनेभर से हार, जीत में तब्दील हो जाती हो को पूरे देश व अन्य राज्यों के चुनावों में करना चाहेंगे। शायद इस बात को गहलोत भी महसूस कर चुके हैं। इसलिए अक्सर अब वे दिल्ली में ही रहते हैं। समय का तकाजा भी यही कहता है। दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। प्रदेश की जनता के लिए काम करने की उनकी लालसा है लेकिन वे अब इससे आगे और भी कुछ करना चाहते हैं।

क्योंकि इससे पहले कांग्रेस में बिना कुछ किए भी लोग चाणक्य और अर्जुन बने घूम रहे थे लेकिन यह डिजीटल का जमाना है। यहां करके दिखाना होता है। राहुल, युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां ठीक है से काम नहीं चलता है। करके दिखाना पड़ता है। राहुल जानते हैं कि गहलोत करके दिखाने वालों में हैं। और वे चाहेंगे कि वे उनके साथ बने रहें।

ऐसे में आप पाठकों को जो दिखाई दे रहा है वही हमें भी दिखाई दे रहा है कि राजस्थान का यह जादूगर वाकई प्रदेश से दिन-ब-दिन दूर होता जा रहा है। पर जो हो सचिन को यह नहीं कहना चाहिए कि वे सब लोग दिल्ली के हैं मैं तो यहां का हूं और मेरा दफ्तर भी यहीं जयपुर में है। क्योंकि गहलोत के बिना वो राजस्थान में दुबारा नहीं लौट सकते।  

नीतीश कुमार की शराबबंदी का नशा गरीबों को भारी पड़ रहा है

शराबबंदी क़ानून के तहत अब तक कुल 1 लाख 21 हज़ार 586 लोगों की ग़िरफ्तारी हुई है, जिनमें से अधिकांश बेहद ग़रीब तबके से आते हैं.

मस्तान मांझी को शराब पीने के आरोप में 5 साल की सजा हुई है. उनके पास कोर्ट-कचहरी के लिए पैसा नहीं था, लिहाजा कर्ज लेना पड़ा


जहानाबाद रेलवे स्टेशन के पास मुख्य सड़क से एक पतली गली बायीं तरफ मुड़ती है. इस गली में 6-7 मिनट पैदल चलने के बाद बजबजाती नालियों, ऊबड़-खाबड़ रास्ते और कूड़ों के बीच दड़बेनुमा घरों की बेतरतीब कतार शुरू हो जाती है. यह ऊंटी मुसहर टोली के नाम से जाना जाता है.

इसी मोहल्ले में पेंटर मांझी और मस्तान मांझी रहते हैं. दोनों भाई हैं. पेंटर मांझी का घर ईंटों को मिट्टी से जोड़कर बनाया गया है. खपरैल की छत है. एक जर्जर दरवाजा कमरे की तरफ खुलता है. कमरे में खिड़की नहीं है जिस कारण कड़ी धूप में भी भीतर घुप्प अंधेरा है. पेंटर मांझी अपने तीन बच्चों व बीवी संग इसी कमरे में रहते हैं.

पेंटर मांझी के घर से बिल्कुल सटा हुआ मस्तान मांझी का घर है. मस्तान मांझी के घर में मिट्टी का लेप नहीं चढ़ा है जिससे नंगी ईंटें साफ दिखती हैं. मस्तान मांझी का घर भी एक ही कमरे का है. इसी एक कमरे में वह अपने चार बच्चे, एक बहू, पोते और अपनी पत्नी के साथ जिंदगी काट रहे हैं.

दोनों भूमिहीन हैं. जितनी जगह में घर है, वही उनकी कुल जमीन है. भाड़े पर ठेला चलाकर वे किसी तरह परिवार की गाड़ी ठेल रहे हैं. ठेला जिस दिन नहीं चलता, उस दिन चूल्हे से धुआं भी नहीं उठता.

दोनों भाईयों को 29 मई 2017 की दोपहर शराब पीने के अपराध में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. गिरफ्तारी के महज 43 दिनों के भीतर यानी 11 जुलाई को जहानाबाद कोर्ट ने दोनों को 5-5 साल की कैद और एक-एक लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनायी थी.

अप्रैल 2016 में बिहार में शराबबंदी लागू होने के बाद शराब के मामले में यह पहली सजा थी. दोनों के खिलाफ बिहार मद्य निषेध व उत्पाद अधिनियम 2016 की धारा 37 (बी) के अंतर्गत सजा मुकर्रर हुई थी.

गिरफ्तारी के बाद मस्तान मांझी और पेंटर मांझी की सारी जमा-पूंजी कोर्ट-वकील की भेंट चढ़ गयी. बच्चों की पढ़ाई रुकी सो अलग और खाने के लाले तो थे ही. मांड़-भात खाकर किसी तरह उनका परिवार जिंदा रहा.


कुछ महीने पहले ही मस्तान व पेंटर पटना हाईकोर्ट से जमानत लेकर छूटे हैं.

मस्तान मांझी कहते हैं, ‘कोर्ट-कचहरी के चक्कर में करीब एक लाख रुपये खर्च हो गये. इतने रुपये हमारे पास कहां थे. कुछ रुपये जमा कर रखे थे, उसे लगाया. कुछ रुपये महाजन से ब्याज पर लिया और सूअर पाल रखे थे, उन्हें बेचकर कुछ पैसे का जुगाड़ किया गया.’

मांझी बताते हैं, ‘ठेला चलाकर बमुश्किल दो सौ से ढाई सौ रुपये की कमाई होती है. इसमें से 50 रुपये ठेला मालिक को देना पड़ता है. इतने कम पैसे में परिवार को खिलाऊं या महाजन का कर्ज चुकाऊं, समझ में नहीं आ रहा है.’

29 मई की वो आग उगलती दोपहर थी, जब मस्तान मांझी को पकड़ा गया था. उस दिन को वह याद करते हैं, ‘दोपहर का वक्त था. बाहर तेज धूप थी. मैं ठेला चलाकर आया था. थकान मिटाने के लिए थोड़ी ताड़ी पी ली थी और घर में लेटा हुआ था. नींद आंखों पर सवार थी. नींद आती कि उससे पहले घर में पुलिस आ धमकी. न कोई सवाल-जवाब और न ही जांच-पड़ताल. बस, पकड़ कर थाने के लॉकअप में डाल दिया. बीवी-बच्चे बिलखते रह गये.’

पेंटर मांझी भी ठेला चला कर आए थे. उन्होंने भी ताड़ी पी रखी थी. कुछ देर घर में आराम करने के बाद पत्नी से 5 रुपये लेकर वह पान खाने जा रहे थे कि देखा पुलिसवालों की फौज उनकी तरफ आ रही है.

वह कुछ समझ पाते तब तक पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर चुकी थी. पुलिस ने पेंटर की पत्नी क्रांति देवी को भी पकड़ लिया था. बाद में उसे छोड़ दिया गया.

पेंटर मांझी कहते हैं, ‘पुलिसवालों ने पांच लीटर के सफेद गैलन में पानी भर लिया और उसे शराब बताकर हमें जेल में डाल दिया.’

पेंटर के पास 6-7 सूअर थे. सभी को बेच कर और कुछ पैसा कर्ज लेकर अदालती कार्रवाई पर खर्च किया गया.

वह निराशा और गुस्सा मिश्रित भाव चेहरे पर लाकर कहते हैं, ‘जो शराब बेचते हैं, उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है और हम जैसे लोगों को पानी फेंक कर सजा दी जा रही है.’

दोनों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है. एक लाख की मोटी रकम देना उनके लिए नामुमकिन है.

‘पइसा कहां से जुटतै, जेले में रहबई एक साल (पैसे का जुगाड़ कहां से कर पायेंगे. एक साल और जेल में ही रहेंगे)’, यह कहते हुए दोनों के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान फैल गयी, जिसके पीछे बेइंतहा दर्द भी था.

अरवल जिले के करपी थाना क्षेत्र के खजुरी गांव के निवासी ललन मांझी भी करीब तीन हफ्ते जेल में बिताकर पिछले शनिवार को जमानत पर घर लौटे हैं. वह सुबह-सुबह घर पर चने की फलियां छुड़ा रहे थे. उसी वक्त पुलिस आयी और उन्हें दबोच लिया.

ललन मांझी के पास अपना एक बित्ता भी खेत नहीं है. ललन मिट्टी के घर में रहते हैं. वह दूसरे से खेत बटैया लेकर खेती-बाड़ी और दूसरों के खेत में मजदूरी कर आजीविका चलाते हैं. गिरफ्तारी ने उन्हें हजारों रुपये का कर्ज सिर पर लेकर जीने को विवश कर दिया है.

ये महज कुछ बानगियां हैं, शराबबंदी कानून के शिकंजे में फंसकर कराह रहे ऐसे परिवारों की संख्या हजारों में है.



विगत 9 मार्च को राज्य के मद्य निषेध व उत्पाद विभाग के मंत्री बीजेंद्र प्रसाद यादव ने बिहार विधान परिषद में बताया था कि शराब मामले में अब तक 1 लाख 21 हजार 586 लोगों की गिरफ्तारी हुई.

मंत्री के अनुसार, मद्य निषेध व उत्पाद विभाग ने कुल 44 हजार मामले व पुलिस ने 57 हजार मामले दर्ज किए हैं.

लेकिन, शराबबंदी में गिरफ्तार करीब सवा लाख लोगों में से फरवरी तक महज 30 लोगों को ही कोर्ट से सजा सुनाई जा सकी है. बाकी आरोपियों को जमानत पर छोड़ा जा रहा है. हाल के अदालती फरमानों के मद्देनजर आरोपियों को जमानत देने की प्रक्रिया में तेजी आई है.

शराबबंदी कानून के तहत गिरफ्तार आरोपियों की प्रोफाइल देखें तो अधिकांश लोग बेहद गरीब तबके से आते हैं. इनके पास केस लड़ने व वकील को देने के लिए पैसे तक नहीं होते हैं.

गया कोर्ट में लंबे समय से प्रैक्टिस कर रहे वरिष्ठ वकील मुरारी कुमार हिमांशु बताते हैं, ‘गया कोर्ट में रोज शराब मामले में गिरफ्तार लोगों की जमानत की 70 से 80 अपीलें आती हैं और इनमें 95 फीसदी से अधिक आरोपी बहुत गरीब होते हैं.’

मुरारी कुमार कहते हैं, ‘गिरफ्तारी के चार-पांच दिनों के भीतर जमानत लेने में कम से कम 10 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं. समय जितना बढ़ता जायेगा, खर्च भी उसी रफ्तार से बढ़ेगा.’

95 फीसदी से अधिक आरोपितों का गरीब तबके से होने का मतलब यह नहीं है कि अमीर लोग शराब नहीं पी रहे हैं या पी रहे हैं तो पकड़े नहीं जा रहे हैं.

मुरारी कुमार हिमांशु के अनुसार, ‘पैसेवाले लोग मोटी रकम देकर थाने से ही मैनेज कर लेते हैं. कोर्ट-कचहरी का चक्कर गरीबों के लिए है.’

यहां एक दिलचस्प बात यह है कि शराब के मामले में अब तक शायद ही कोई आरोपित बरी हुआ है, जबकि शराब नहीं पीने के बावजूद गिरफ्तार कर लिए जाने की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं.

कई वकीलों ने भी यह स्वीकार किया है कि उनके कई क्लाइंट ऐसे हैं, जो पूरी ईमानदारी के साथ बताते हैं कि वे शराब नहीं पीते हैं और उन्हें फंसाया गया है.

पटना सिविल कोर्ट के वकील अरविंद महुआर कहते हैं, ‘ऐसे बहुत-से मामले आ रहे हैं, लेकिन पुलिस के पास केसों का इतना बोझ है कि उसके लिए किसी एक मामले की गहराई से जांच कर पाना मुमकिन नहीं है. ऐसे में संभव है कि बेगुनाह व्यक्ति भी गुनाहगार बन जाए.’

अरवल के रामापुर गांव के रहने वाले 32 वर्षीय महादलित मिथिलेश ने पीना तो दूर शराब को आज तक हाथ भी नहीं लगाया है. मिथिलेश गुटखा भी नहीं खाते, लेकिन शराब पीने के जुर्म में दो बार गिरफ्तार होकर कर्जदार बन चुके हैं.

वह परचून की एक छोटी-सी गुमटी चलाते हैं. घर में चार बच्चे हैं और बीवी है. दो बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं. परचून की दुकान से जो थोडी बहुत कमाई होती है, उसी से परिवार चलता है.

मिथिलेश कहते हैं, ‘पहली गिरफ्तारी पिछले साल अक्टूबर में हुई थी. तीन बजे भोर में. 42 हजार रुपये खर्च हो गये तब जाकर नवंबर में जमानत मिली. उसी साल दिसंबर में रात आठ बजे पुलिस ने मुझे दोबारा पकड़ लिया. दूसरी गिरफ्तारी की जमानत लेने में 22 हजार रुपये लग गये.’


मिथिलेश की पत्नी ने काफी भागदौड़ कर जमानत दिलवायी. जितने दिन मिथिलेश जेल में रहे, बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह ठप रही. मिथिलेश ने कहा, ‘चार छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाना परिवार (पत्नी) के लिए बहुत दुखदायी था.’

मिथिलेश आगे बताते हैं, ‘पहली गिरफ्तारी के दौरान ही 5 रुपये सैकड़ा (100 रुपये पर 5 रुपये ब्याज प्रति माह) पर 30 हजार कर्ज लेना पड़ा था. उसे अब तक चुका रहे हैं.’

अरवल के ही नेउना गांव के रामभजन मांझी का भी आरोप है कि वह शराब का धंधा करते ही नहीं, लेकिन उन्हें झूठे मामले में फंसा दिया गया. बिना किसी कसूर उन्हें साढ़े तीन महीने तक जेल में बिताना पड़ा.

रामभजन का घर भी मिट्टी का है. एक कच्ची व टूटी-फूटी सड़क उनके घर तक जाती है. घर में बीवी-बच्चे और बूढे मां-बाप हैं. गिरफ्तार से परिवार की आर्थिक स्थिति चरमरा गयी थी. रामभजन का कहना है कि वह न तो शराब पीते हैं और न ही शराब का धंधा करते हैं.

उन्होंने कहा, ‘दो गुटों में हुए झगड़े को मैं निबटाने गया हुआ था. उसी मामले में मुझे गिरफ्तार कर लिया गया था. उक्त मामले में जब मुझे जमानत मिलने लगी, तो शराब का धंधा करने का झूठा मामला दर्ज कर दिया गया. कोर्ट-कचहरी में 50 हजार रुपये लग गये. कपार पर 20 हजार का कर्जा भी आ गया.’

शराबबंदी ने एक तरफ हजारों गरीब लोगों को जेल में डाल दिया है, तो दूसरी तरफ लोगों को दूसरे नशीले पदार्थों के सेवन को भी मजबूर किया है. खासकर शहरी क्षेत्रों में ऐसा ट्रेंड देखने को मिल रहा है. नशामुक्ति केंद्रों में मरीजों की बढ़ती संख्या इसकी तस्दीक करती है.

जब शराबबंदी लागू हुई थी, तब दिशा नशामुक्ति केंद्र में नशामुक्ति के लिए आने वाले मरीजों की संख्या में कमी आने लगी थी, लेकिन अब दोबारा मरीजों की संख्या में इजाफा हो गया है और इनमें 80 से 90 फीसदी मरीज दूसरे नशीले पदार्थों का सेवन कर रहे हैं.

पटना स्थित दिशा नशामुक्ति केंद्र की अंडर सेक्रेटरी राखी शर्मा कहती हैं, ‘शराबबंदी कानून लागू होने के बाद हमारे सेंटर में हर महीने करीब 150 मरीज आते थे. लेकिन, अभी इनकी संख्या में इजाफा हो गया है. इन दिनों हर महीने 200 से 225 मरीज आ रहे हैं.’

वह बताती हैं, ‘चौंकानेवाली बात यह है कि 80 प्रतिशत से अधिक लोग गांजा, भांग, ब्राउन शुगर, ह्वाइटनर, डेंडराइट आदि का सेवन कर रहे हैं. चिंता की बात यह भी है कि इनमें से अधिकांश मरीजों की उम्र 16 से 25 साल के बीच है.’

शराबबंदी के बाद बिहार सरकार यह कहकर अपनी पीठ खूब थपथपा रही है कि शराब पर पाबंदी लगने से महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा में गिरावट आयी है.

पिछले साल नवंबर में राज्य के समाज कल्याण विभाग की ओर से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी. सीएम नीतीश कुमार ने खुद यह रिपोर्ट सार्वजनिक की थी.



रिपोर्ट पांच जिलों की 2,368 महिलाओं के साथ बातचीत के आधार पर तैयार की गयी थी. इसमें बताया गया था कि महज पांच प्रतिशत महिलाएं ही लगातार शारीरिक अत्याचार व छह प्रतिशत महिलाओं ने आर्थिक सहयोग से वंचित होने की शिकायत की.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि शराबबंदी के बाद घरेलू हिंसा के मामलों में भी कमी आई है. लेकिन, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्ष 2016 के आंकड़े इस दावे को मुंह चिढ़ा रहे हैं.

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 में बिहार में पति या ससुराल के अन्य सदस्यों द्वारा महिला पर हिंसा करने के कुल 3,794 मामले दर्ज किये गये, जो वर्ष 2015 से दो अधिक थे.

वहीं, घरेलू हिंसा की बात की जाए, तो इसमें भी इजाफा ही हुआ है. एनसीआरबी के मुताबिक वर्ष 2015 में बिहार में घरेलू हिंसा के कुल 161 मामले दर्ज किये गये थे, जो वर्ष 2016 में बढ़कर 171 हो गए.

बिहार सरकार ने जब बिहार मद्य निषेध व उत्पाद अधिनियम, 2016 लागू किया था, तो उसमें कई कठोर प्रावधान रखे गये थे, ताकि सजा के डर से लोग शराब छोड़ दें. एक्ट में शराब बनाने, रखने, बेचने व निर्यात करने वालों को इस अधिनियम के तहत 10 साल से आजीवन कारावास व एक लाख रुपये जुर्माने की सजा हो सकती है.

वहीं, अगर कोई व्यक्ति शराब पीता है, तो उसे कम से कम 5 साल और अधिकतम 7 साल की सजा हो सकती है और साथ ही 1 लाख से 7 लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है.

इसके अलावा भी कई तरह के प्रावधान हैं, लेकिन हकीकत यह है कि लोगों में शराब को लेकर कोई खौफ नहीं रह गया है. अब यह ‘ओपेन सीक्रेट’ बात है कि बिहार में शराब बिक्री संगठित धंधे की शक्ल ले चुकी है.

पहले शराब अधिकृत दुकानों पर ही मिला करती थी, लेकिन अब महज एक फोन कॉल पर शराब की होम डिलीवरी हो रही है. बस, जेब थोड़ी ज्यादा ढीली करनी पड़ती है. ग्रामीण क्षेत्रों में देसी शराब अब भी बन रही है.

शराब माफियाओं के लिए शराब का धंधा सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह है. वहीं, गरीब व शारीरिक मेहनत करने वाले तबके के लिए शराब (अधिकांशतः देसी व ताड़ी) मनोविज्ञान से जुड़ा मसला है.

अरवल के रामापुर गांव के ही छोटन मांझी शराब पीने के आरोप में दो हफ्ते जेल में बिताकर लौटे हैं. वह मजदूरी करते हैं. जमानत लेने में 10 हजार रुपये खर्च हो गये.

वह कहते हैं, ‘मैं मीट भून रहा था. मीट बनाकर शराब के साथ खाने का मन था, लेकिन मुझे क्या पता था कि शराब पीने की इच्छा होने पर भी पुलिस पकड़ लेती है. पुलिस ने जिस वक्त पकड़ा था, उस वक्त तो शराब पीना दूर शराब खरीदी भी नहीं थी.’

वह आगे बताते हैं, ‘देखिये, साहब! हम लोग दिनभर मेहनत मजदूरी करने वाले लोग हैं. शराब नहीं पीयेंगे, तो नींद ही नहीं आयेगी. क्या करें!’

नीतीश कुमार ने शराब पीने पर पाबंदी लगायी है और शराब की जगह दूध पीने को कहा है तो शराब छोड़ क्यों नहीं देते?

इस सवाल का जवाब शराब पीने के आरोप में 15 दिन जेल में बिताकर लौटे अरवल के ही नेउना गांव के तपेंदर मांझी कुछ यूं देते हैं, ‘ज्यादा थके रहते हैं, तो पीते हैं. 10 रुपये की ताड़ी शरीर के सारे दर्द चुन लेती है. 10 रुपये का दूध कितना आयेगा और उससे थकावट कितनी दूर होगी?’

शराब नहीं छोड़ पाने के मनोवैज्ञानिक पहलू पर रोशनी डालते हुए पटना के जाने-माने साइकेट्रिस्ट डॉ. सत्यजीत सिंह कहते हैं, ‘अचानक शराब छोड़ देने से शराबियों पर शारीरिक और मानसिक असर पड़ता है. व्यक्ति को नींद नहीं आती है और मानसिक स्थिति गड़बड़ा जाती है. शरीर में थकावट आ जाती है व मांसपेशियों में दर्द होने लगता है.’


डॉ. सत्यजीत सिंह आगे बताते हैं, ‘जो नियमित शराब का सेवन करते हैं वे अल्कोहलिक डेलिरियम ट्रेमेंस का शिकार हो सकते हैं.’

डेलिरियम ट्रेमेंस मतिभ्रम की स्थिति है. इसमें शराब छोड़ने वाला व्यक्ति अजीबोगरीब भ्रम में रहने लगता है और मनगढ़ंत काल्पनिक घटनाएं देखता है. ऐसी स्थिति में वह खुद को और अपने संबंधियों को पहचान भी नहीं पाता.

वैसे, इन स्थितियों से निबटने के लिए राज्य के सरकारी डॉक्टरों को विशेष ट्रेनिंग दी गयी थी और हर जिला अस्पताल में 15 बेड इस तरह के मरीजों के लिए रखा गया था. लेकिन, ग्रामीण क्षेत्रों में इसे व्यापक स्तर पर प्रचारित नहीं किया गया, जिस कारण लोग जागरूक नहीं हो पाये. इसी वजह से शराब छोड़ने पर जब इस तरह का लक्षण दिखा, लोगों ने दोबारा शराब पीना शुरू कर दिया.

शराबबंदी के कारण होने वाली परेशानियों के मद्देनजर राज्य की विपक्षी पार्टियों का कहना है कि उनकी सरकार बनती है तो कानून में बदलाव किया जायेगा.

राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने इसी साल जनवरी में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनती है, तो शराबबंदी कानून में ढील दी जायेगी. राजद नेता व पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी ऐसा ही वादा कर चुके हैं.

विगत 16 मार्च को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेकुलर) के मुखिया जीतनराम मांझी ने भी कहा था कि अगर बिहार में उनकी सरकार बन जाती है, तो शराबबंदी कानून में बदलाव किया जायेगा.

दूसरी तरफ, नीतीश कुमार के लिए शराबबंदी अब नाक का सवाल बन गया है. वह किसी भी सूरत में इस कानून को वापस लेने या आमूलचूल संशोधन करने को तैयार नहीं हैं. उल्टे उन्होंने शराबबंदी को ठीक से लागू करने के लिए इंस्पेक्टर जनरल का नया पद सृजित कर एक अलग इकाई तैयार कर दी है.

बिहार सरकार के इस कदम से कितना फायदा होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा. लेकिन, मौजूदा सच यही है कि शराबबंदी के कारण हाशिये पर खड़े पेंटर, मस्तान और ललन जैसे हजारों बेबस-गरीब लोग कोर्ट-कचेहरी के चक्कर में बर्बाद हुए जा रहे हैं.

बिहार की ‘रिवॉल्वर वाली मुखिया’

पटना : महिला मुखिया का नाम आते ही आमतौर पर लोगों के बीच ऐसी धारणा है कि  यह पति या किसी दूसरे  परिजनों के इशाराें पर ही  काम करती होगी.

हालांकि गोनपुर पंचायत की मुखिया अाभा देवी के काम और उनकी पहचान को देख कर रबर स्टांप वाली मुखिया वाली छवि गायब हो जाती है. वे असल मुखिया हैं. दबंग भी हैं. वे अपने फैसलों को लागू करने में सक्षम हैं. कोई उन्हें हल्के में न ले, इसके लिए वे रिवाॅल्वर भी रखती हैं.
गोनपुरा पंचायत की दबंग मुखिया आभा देवी की पहचान रिवाॅल्वर वाली मुखिया के रूप में बन गयी है. जो दिखने में तो साधारण कद-काठी की हैं और इंटर पास हैं. आभा देवी का नाम  केवल गोनपुरा  पंचायत के लोग ही नहीं, बल्कि दूर दराज के पंचायतों में भी जाना जाता है. पंचायत के विकास के दौरान  जोखिम भरे मामलों से निबटने के लिए वे अक्सर रिवाॅल्वर अपने पास ही रखती हैं.

गांव की बेटियां उनकी दिलेरी से रहती हैं खुश

 खुले में शौच मुक्त पंचायत हो या फिर राशन दुकानों की गड़बड़ी, नाली-गली का निर्माण हो या फिर बेटियों के लिए स्कूल कॉलेज की सुविधा. सभी को लेकर उनकी जद्दोजहद देखते बनती हैं.

पंचायत में बेटियों को मैट्रिक के बाद इंटर तक की पढ़ाई के लिए कॉलेज खुलवाने से लेकर आठ आंगनबाड़ी भवन एवं पंचायत और सामुदायिक भवन तक बनवाने का श्रेय उन्हें जाता है. इन सारे कार्यों को करने के दौरान धमकियां भी मिलीं, लेकिन वे इसकी परवाह नहीं करती हैं. 2016 में दूसरी बार मुखिया के पद पर चुने जाने के बाद वह  लाइसेंसी रिवाॅल्वर रख कर काम कर रही हैं.

महादलित परिवार की बेटियों को जोड़ रही हैं उच्च शिक्षा से

कौशल विकास योजना के तहत गांव की किशोरियों और महिलाओं का ग्रुप बना कर अलग-अलग विधाओं में प्रशिक्षण दिया जा रहा है. पहले आभा  ने  लड़कियों को जागरूक किया.  इसके बाद कंप्यूटर ट्रेनिंग दिलायी. कई लड़कियां अब महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई सिखा रही हैं . इसके लिए सरकार से लेकर एनजीओ तक का सहयोग लिया जा रहा है.

दो बहनों की युगलबंदी

आभा रानी अपने गांव को बेहतर बनाने के लिए वह सब कुछ कर रही हैं, जो विकास के लिए जरूरी है. आठ वर्षों से मुखिया के पद पर कार्यरत रहने के बाद अपने पंचायत में उन्हें बदलाव का प्रतीक माना जाता है. आभा अकेली नहीं हैं, उनकी सगी बहन अर्चना भी बिहटा प्रखंड के गोढ़ना पंचायत समिति के सदस्य के रूप में काम कर रही हैं.

किसान परिवार से था नाता

वे बताती हैं कि उनके पिता कृषक हैं. 1992 में मेरी शादी फुलवारी प्रखंड के गोनपुरा पंचायत के बभनपुरा गांव  में हुई थी. शादी के समय वह इंटर पास थी, पढ़ना चाहती थी. इसलिए बीए में नामांकन भी कराया. पर घर परिवार की जिम्मेदारियों के दौरान पढ़ाई पूरी नहीं कर पायीं. वह महिलाओं के लिये कुछ करना चाहती थीं.

 उनकी बात सुन कर घर के सभी लोगों ने उन्हें राजनीति में आगे आने के लिए तैयार किया. वह पहली बार 2011 में गोनुपरा पंचायत से मुखिया पद के लिए चुनाव लड़ीं. उस चुनाव में 17 उम्मीदवार थे. चुनाव में जीत गयीं.

शुरुअात में थोड़ी परेशानी हुई. वे बताती हैं कि गांव के कुछ असामाजिक तत्व अड़ंगा लगाते हैं. नाली-गली के लिए अपनी एक इंच जमीन छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं. पर लोगों को समझाने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी. पर इन सभी समस्याओं से जूझते हुए काम करवा रही हूं.  

जरूरी है पत्रकारों की पूरी सुरक्षा

प्रेस की आजादी के लिए काम करनेवाली संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स में भारत तीन पायदान नीचे खिसक कर 136वें स्थान पर आ गया है.

वरुण गांधी 
सांसद, भाजपा
हम अपने जुझारू मीडिया को दक्षिण एशिया में सबसे स्वतंत्र मानते हैं, लेकिन फ्रीडम हाउस की नजर में यह हकीकत में आंशिक रूप से ही स्वतंत्र है. बीते साल भारत में 11 पत्रकारों की हत्या कर दी गयी, 46 पर हमले हुए और पत्रकारों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के 27 मामले सामने आये. इंडिया फ्रीडम रिपोर्ट के ये आंकड़े जमीनी स्तर पर रिपोर्टिंग के जोखिम को बताते हैं.

पांच सितंबर, 2016 को गौरी लंकेश की हत्या ने सिर्फ बातें बनानेवालों को नींद से जगा दिया. लंकेश की हत्या के दो दिन बाद बिहार के अरवल जिले में दो बाइक सवार हमलावरों ने राष्ट्रीय सहारा के पत्रकार पंकज मिश्रा की गोली मारकर हत्या कर दी.

पत्रकारों की सुरक्षा के लिए काम करनेवाले एक और एनजीओ कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट (सीपीजे) की साल 2016 की वैश्विक रैंकिंग के अनुसार, भारत में दंड-मुक्ति रैंकिंग (घटनाएं जिनमें पत्रकार की हत्या हुई और उसके हत्यारे पकड़ से बाहर रहे) में बीते एक दशक में सौ फीसदी का इजाफा हुआ है. वर्तमान में भारत की दंड-मुक्ति रैंकिंग 13वीं है.

प्रेस की आजादी को खतरा इसकी शुरुआत से ही रहा है. सन् 1857 की क्रांति के साथ ही लाॅर्ड केनिंग द्वारा बनाया गया गैगिंग एक्ट अस्तित्व में आया, जिसमें सरकार से लाइसेंस लेना जरूरी करते हुए प्रिंटिंग प्रेसों और उनमें छपनेवाली सामग्री को विनियमित किया गया था. इसके तहत किसी भी छपनेवाली सामग्री की इस बात के लिए जांच की जा सकती थी कि यह ब्रिटिश राज की नीतियों के खिलाफ तो नहीं है.

क्षेत्रीय भाषा के अखबारों ने जब 1876-77 के अकाल से निपटने में औपनिवेशिक सरकार की ढिलाई को लेकर खबरें प्रकाशित कीं, तो सरकार स्थानीय आलोचनाओं को कुचलने के लिए वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 ले आयी. इस कानून के तहत बंगाल के अमर बाजार पत्रिका समेत 35 क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों पर शिकंजा कसा गया. 'द बेंगाली' अखबार के संपादक सुरेंद्रनाथ बनर्जी को, जो अपने उपनाम 'राष्ट्रगुरु' के नाम से मशहूर थे, अपने अखबार में अदालत की अवमानना की टिप्पणी प्रकाशित करने के लिए गिरफ्तार किया गया. यहां तक कि बाल गंगाधर तिलक भी दमनकारी ब्रिटिश राज के खिलाफ लिखने के लिए दो बार जेल गये.

आज छोटे शहरों में जब-तब ऐसे हमले होते रहते हैं, जिनमें पीड़ित किसी क्षेत्रीय अखबार या चैनल में बतौर फ्रीलांसर काम करनेवाला शख्स होता है, जिसके जिम्मे स्टूडियो या दफ्तर में बैठने के बजाय ज्यादातर फील्ड का काम होता है.

सीमित कानूनी संरक्षण के साथ प्रेस की आजादी का ज्यादा मतलब नहीं रह जाता. ऐसी आजादी ऑनलाइन धमकियों और मुकदमों के सामने आसानी से कमजोर पड़ सकती है. इसके साथ ही आईपीसी की धारा 124(ए) (राष्ट्रद्रोह का प्रावधान) तो है ही.

अक्सर नेताओं और नामचीन हस्तियों द्वारा मानहानि के प्रावधान का इस्तेमाल प्रेस को अपने खिलाफ टिप्पणी करने से रोकने के लिए किया जाता है. खासकर तमिलनाडु में, ऐसे तरीके बहुत ज्यादा अपनाये जाते हैं. साल 1991 से 1996 के बीच जयललिता की सेहत और राज्य सरकार की कार्रवाइयों को लेकर खबरें छापने पर उनकी सरकार द्वारा प्रकाशनों के खिलाफ मानहानि के करीब 120 मुकदमे दर्ज कराये गये.
यहां तक कि टीवी एंकर साइरस ब्रोचा को अपने मजाकिया शो में उनके जैसे कपड़े पहनने के लिए भी मुकदमे का सामना करना पड़ा. बड़े मीडिया हाउस तो ऐसे मानहानि के मुकदमों का खर्च उठा सकते हैं, लेकिन छोटे और मंझोले प्रकाशन के लिए इससे अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है.

नतीजा यह होता है कि संपादक ज्यादातर ऐसी स्टोरी छापने से परहेज करते हैं, और संरक्षण विहीन पत्रकार हतोत्साहित होता है. हमें आपराधिक मानहानि के प्रावधान को खत्म करने और हरजाना की राशि सीमित करने के लिए कदम उठाने होंगे, जिससे कि क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकार मानहानि के मुकदमे के भय के बिना काम कर सकें.

बोलने की आजादी, और इसका विस्तार कहे जानेवाले प्रेस की आजादी निर्बाध होनी चाहिए. लेकिन अनुच्छेद 19 की उपधारा 2 का मौजूदा संवैधानिक प्रावधान प्रेस पर प्रभावी नियंत्रण लगाता है. सरकारी गोपनीयता कानून पत्रकारों को देश की रक्षा से जुड़े मामलों की खबरें छापने से रोकता है- हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की भी पूरी संभावना है.

इसके लिए संसद इतना जरूर कर सकती है कि पत्रकारों को आपराधिक कार्रवाई से बचाने के लिए एक कानून बनाये और उन्हें राष्ट्रद्रोह कानून के दायरे से बचाये. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में एक अध्याय जोड़कर सरकारी गोपनीयता कानून के प्रावधानों का विवरण दिया जाना चाहिए. ग्रीस की संसद द्वारा दिसंबर 2015 में प्रेस कानून में दूरगामी असर वाला बदलाव बाकी देशों के लिए खाका पेश करता है.

इसमें अदालत को दोनों पक्षों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ ही मानहानि के प्रभाव, प्रकृति और नुकसान की गंभीरता के अनुपात में हरजाना की राशि का निर्धारण करने की बात कही गयी है. यह एक अनिवार्य प्राथमिक प्रक्रिया द्वारा पत्रकार को अपने पहले ड्राफ्ट में की गयी किसी चूक या गलतबयानी को दुरुस्त करने का भी मौका देता है.

पत्रकारों के लिए बढ़ते खतरे से गंभीर मामलों में रिपोर्टिंग की गुणवत्ता व संख्या भी प्रभावित होगी. महत्वपूर्ण मसलों की पड़ताल में कमी आयेगी, कई मामलों में पूरी पड़ताल नहीं की जायेगी, मीडिया का नजरिया अति-राष्ट्रवादी हो जायेगा और आत्मालोचना की प्रवृत्ति घट जायेगी.

इसके लिए महत्वपूर्ण सुधार किये जाने की जरूरत है. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को एक अलग कानून (एडवोकेट्स एक्ट जैसा) बनाकर बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तरह अधिकार संपन्न बनाये जाने की जरूरत है, जिससे पत्रकारों का दर्जा ऊंचा होगा. साथ ही इससे उन्हें अनैतिक और अव्यावसायिक तौर-तरीकों से सुरक्षा भी मिलेगी. प्रेस काउंसिल का दायरा बढ़ाकर इसके तहत इलेक्ट्रॉनिक, ब्रॉडकास्ट और न्यू मीडिया समेत सभी तरह का मीडिया लाया जाना चाहिए.

इस क्षेत्र को व्यापक स्तर पर संरक्षण देना होगा. ऐसा नहीं करने पर हम अपने लोकतंत्र के सुरक्षा उपायों को कमजोर ही करेंगे. हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने पत्रकारों की भी पूरी सुरक्षा करें.

1947 में नहीं,1956 में भारत के नक्शे पर उभरा 'राजस्थान'

राजस्थान का निर्माण बहुत से मार्ग से होकर गुजरा है। राजपूताना की 19 रियासतों और 3 खुद मुख्तयार ठिकाने व अजमेर मेरवाड़ा ब्रिटिश इलाके को भारत संघ में विलीन करके राजस्थान का निर्माण हुआ। 1 नवंबर 1956 को राजस्थान का नक्शा अस्तित्व में आया।

जयपुर। मत्स्य संघ का निर्माण अलवर ,धौलपुर, करौली, और भरतपुर रियासतों को मिलाकर हुआ हैं। जिसका स्थापना दिवस 17 मार्च 1948 को भरतपुर में आरंभ किया गया। वहीं राजस्थान 30 मार्च 1949 को बन गया। 15 मई 1949 में मत्स्य संघ का विलय हुआ। मत्स्य संघ का विलय 15 मई 1949 को राजस्थान राज्य में हुआ। मत्स्य संघ में धौलपुर महाराजा को संघ का राज प्रमुख, भरतपुर महाराजा को उप राजप्रमुख बनाया गया और अलवर को राजधानी बनाया गया।


पहले राजस्थान में 26 जिले बने, जो अब 33 जिले बन चुके है। बाबू शोभाराम को मुख्मंत्री( प्रधानमंत्री), जुगल किशोर चतुर्वेदी(भरतपुर) मंगलसिंह टांक(धौलपुर) मास्टर भोलानाथ (अलवर) गोपीलाल यादव(भरतपुर) और चिरंजीलाल शर्मा(करौली) को मंत्री चुना गया। मत्स्य संघ का उद्धघाटन 17 मई 1948 को भरतपुर में किया गया।

 वरिष्ठ इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि राजपूताना अंग्रेज प्रेसीडेंसी की 22 रियासतों में से 19 रियासतों और 3 चीफ स्टेट से राजस्थान राज्य निर्मित हुआ है। सबसे पहले 9 दिसम्बर 1945 को उदयपुर शहर में लोक परिषद राजपूताना के सम्मेलन में यह प्रस्ताव लाया गया कि राजपूताना रियासतों को एक ही इकाई के रूप में भारतीय संघ में शामिल होना चाहिए। परिषद ने 20 जनवरी 1948 को सभी रियासतों को मिलाकर एक राज्य 'राजस्थान' बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया।

राजस्थान के निर्माण के लिए अलवर से ही आरंभ किया गया था । भारत के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह पहल की। 3 फरवरी 1948 को महाराजा तेजसिंह और प्रधानमंत्री एनबी खर्रे को देहली हाउस बुलाकर गिरफ्तार किया गया। वहीं खर्रे को प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया। जिसके बाद 5 फरवरी को अलवर रियासत को राजा ने भारत सरकार को सौंप दिया था। 

दो अध्यक्षों के हाथ में पिंक सिटी प्रेस क्लब की सत्ता

जयपुर। राजधानी की पिंक सिटी प्रेस क्लब की वार्षिक कार्यकारिणी 2018-19 का चुनाव बड़ा ही रोचक रहा। गुरुवार को हुई मतगणना में अध्यक्ष पद पर राधारमण शर्मा और अभय जोशी निर्वाचित हुए हैं। दोनों के बराबर मत आने के बाद छह-छह माह के लिए दोनों के पास अध्यक्ष का भार रहेगा। पहले छह माह राधारमण शर्मा कार्यभार संभालेंगे, वहीं बाद के छह माह का कार्यभार अभय जोशी संभालेंगे।

 महासचिव पद पर मुकेश चौधरी निर्वाचित घोषित किए गए हैं। इसी प्रकार, कोषाध्यक्ष पद पर रघुवीर जांगिड़, उपाध्यक्ष के दो पदों पर परमेश्वर प्रसाद शर्मा व देवेन्द्र सिंह विजयी घोषित हुए हैं।

मुख्य निर्वाचन अधिकारी अनिल शेखावत ने बताया कि
मतगणना में अध्यक्ष पद के प्रत्याशी राधारमण शर्मा को 192 व अभय जोशी को 192, महासचिव पद पर मुकेश चौधरी को 412, कोषाध्यक्ष पद पर रघुवीर जांगिड़ 390, उपाध्यक्ष के दो पदों पर देवेन्द्र सिंह 208 और परमेश्वर प्रसाद शर्मा 195 मत मिले।


 कार्यकारिणी के दस पदों के लिए मांगीलाल पारीक को 302, अनिता शर्मा को 276, राहुल भारद्वाज को 274, विनय जोशी को 274, रामेन्द्र सिंह सोलंकी को 266, महेश आचार्य को 259, गिरिराज प्रसाद गुर्जर को 256, विमल सिंह तंवर को 242, कानाराम कड़वा को 232 और निखलेश कुमार शर्मा को 219 मत मिले हैं।

बिहार पुलिस को अंगेजी सुनकर गुस्‍सा आता है

थानेदार ने उसे पीट-पीटकर अधमरा कर दिया
खगड़िया । यह बिहार की पुलिस है। इससे अंग्रेजी बोले तो गए काम से। जी हां, हम बात कर रहे हैं खगडि़या के चाैथम थाना प्रभारी की, जिन्‍हें अंग्रेजी में बातचीत से गुस्‍सा अा जाता है। अब इस गुस्‍से की चपेट में कोई बेगुनाह आ जाए तो इसमें भला उनका क्‍या कसूर? पुलिस बर्बरता की यह घटना शायद सामने नहीं आती, अगर पीडि़त की हालत खराब न हो जाती। अस्‍पताल में भर्ती उस युवक ने जो आपबीती सुनाई है वह रोंगटे खड़े कर देने वाली है। अब इसका वीडियो सामने आने के बाद पुलिस बैकफुट पर है।
24 घंटे से अधिक की हिरासत पर कर दिया सवाल
घटनाक्रम का आरंभ कुछ यूं हुआ। मोटरसाइकिल चोरी के एक मामले में चौथम पुलिस ने छह युवकों को संदेह के आधार पर मंगलवार को हिरासत में लिया। पूछताछ 24 घंटे बाद तक जारी रही तो हिरासत में लिए गए अपने मामा इंदल कुमार से मिलने पहुंचे तेगाछी निवासी छात्र अभिषेक कुमार ने थानेदार से सवाल कर दिया। उसने कानून का हवाला देकर कहा कि पुलिस 24 घंटे से अधिक किसी से पूछताछ नहीं कर सकती।
पटना के सेंट जोसेफ स्कूल में 12वीं का छात्र है पीडि़त
पढ़े-लिखे अभिषेक की गलती यह थी कि उसने थानेदार से अंग्रेजी में बातचीत कर ली। अभिषेक पटना के सेंट जोसेफ स्कूल में 12वीं का छात्र है और अपने घर चौथम आया था।

अंग्रेजी सुन वर्दी को चढ़ गई गर्मी
एक तो पुलिस से सवाल, उपर से अंग्रेजी में बातचीत। ऐसे में वर्दी को गर्मी चढ़ गई तो क्‍या आश्‍चर्य? फिर तो पुलिस को अभिषेक पर भी मोटरसाइकिल चोरी का संदेह होना ही था। थानेदार का आदेश गूंजा और अभिषेक भी हाजंत में बंद अपने मामा के पास पहुंचा दिया गया।
दो दिनों तक हाजत में बंद कर पीटा, फिर 50 हजार लेकर छोड़ा
अभिषेक के अनुसार फिर अगले दो दिनों तक उसे हाजत में बंद कर 'अंग्रेजी' बोलने की सजा पीट-पीटकर दी गई। अभिषेक की मां के अनुसार थानेदार ने घायल अभिेषेक को छोड़ने के बादले दलाल के माध्‍यम से 50 हजार रुपये लिए, फिर जबरन पीआर बांड भरवा कर छोड़ा।
मामला ऐसे हो गया उजागर
पुलिस बर्बरता व मनमानी का यह मामला अन्‍य मामलों की तरह ही दब जाता, अगर अभिषेक की हालत बिगड़ने पर उसे अस्‍पताल में भर्ती नहीं कराया जाता। यहां उसपर मीडिया की नजर पड़ गई और मामला खुल गया। रो-रोकर अभिषेक ने पूरी कहानी मीडिया को सुना दी। इसका वीडियो जब वायरल हो गया तो पुलिस भी बैकफुट पर आ गई।
एसपी ने की कार्रवाई, थानेदार ने दी सफाई
फिर, वहीं हुआ जो ऐसे मामलों में होता है। खगड़िया की एसपी मीनू कुमारी ने सदर एसडीपीओ को जांच का आदेश दिया और उनकी प्रारंभिक रिपोर्ट पर चौथम थानाध्यक्ष मुकेश कुमार और दाराेगा श्याम मूरत सिंह को निलंबित कर दिया। उधर, घटना को लेकर निलंबित थानाध्यक्ष मुकेश कुमार ने अपनी सफाई दी। उन्‍होंने मारपीट की घटना से इन्‍कार किया। कहा कि छात्र को पूछताछ के बाद पीआर बांड पर छोड़ दिया गया। लेकिन, वे यह नहीं बता सके कि छात्र पर चोरी का संदेह क्‍यों हुआ और उसे हाजत में बंद कर पूछताछ की क्‍या जरूरत थी।

न्यायपालिका और सरकार के बीच भाईचारा लोकतंत्र के लिए मौत की घंटी: जस्टिस चेलामेश्वर

न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर
उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर ने प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) को एक पत्र लिखकर उनसे न्यायपालिका में कार्यपालिका के कथित हस्तक्षेप के मुद्दे पर पूर्ण पीठ बुलाने पर विचार करने को कहा है.

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने 21 मार्च को लिखे पत्र में आगाह किया, ‘न्यायपालिका और सरकार के बीच किसी भी तरह का भाईचारा लोकतंत्र के लिए मौत की घंटी है.’

शीर्ष न्यायालय के 22 अन्य न्यायाधीशों को भी भेजे गये इस पत्र में कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दिनेश माहेश्वरी द्वारा केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय के इशारे पर जिला एवं सत्र न्यायाधीश कृष्ण भट के खिलाफ शुरू की गई जांच पर सवाल उठाए गए हैं.

सीजेआई दीपक मिश्रा के कार्यालय से इस पत्र पर प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी जबकि कई विधि विशेषज्ञों ने संपर्क किये जाने पर इस मामले में टिप्पणी से इंकार किया.

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने कार्यपालिका द्वारा सीधे कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश से भट के खिलाफ जांच के लिए कहने पर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि ऐसा तब किया गया जबकि कॉलेजियम ने पदोन्नति के लिए उनके नाम की दो बार सिफारिश की थी.

वर्ष 2016 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसके मुखर्जी से एक अधीनस्थ महिला न्यायिक अधिकारी द्वारा लगाए गए आरोपों पर भट के खिलाफ जांच करने को कहा था.

जांच में भट को क्लीन चिट दिए जाने के बाद कॉलेजियम ने भट के नाम की पदोन्नति के लिए सिफारिश की थी.

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने छह पृष्ठ के पत्र में लिखा, ‘नीचे जाने की होड़ में बेंगलुरू से किसी ने हमें पहले ही हरा दिया है. कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हमारे पीठ पीछे कार्यपालिका के आदेश पर काम करने के बहुत इच्छुक हैं.’

न्यायिक स्वतंत्रता का मुद्दा उठाते हुए उन्होंने कहा, ‘हम उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों पर कार्यपालिका के बढ़ते अतिक्रमण के सामने अपनी निष्पक्षता और अपनी संस्थागत ईमानदारी खोने का आरोप लग रहा है.’

सीजेआई द्वारा मामलों के आवंटन पर तीन अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ 12 जनवरी को अभूतपूर्व प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए कॉलेजियम द्वारा नामों की सिफारिश के बाद भी सरकार के फाइलों पर बैठे रहने को लेकर भी नाराजगी जताई.

उन्होंने सीजेआई से इस मुद्दे पर पूर्ण पीठ बुलाकर न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के विषय पर गौर करने को कहा. उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि उच्चतम न्यायालय संविधान के नियमों के तहत प्रासंगिक बना रहे.

गुरुवार, 29 मार्च 2018

राजस्थान में 4 साल में बदले 5 मुख्य सचिव

जयपुर। प्रदेश की नौकरशाही को जल्द ही नया मुखिया मिलने वाला है। मौजूदा मुख्य सचिव एनसी गोयल का कार्यकाल इस महीने पूरा हो रहा है और 1 अप्रैल से नए मुख्य सचिव को प्रदेश की नौकरशाही की कमान सौंपी जाएगी।

मौजूदा वसुंधरा राजे सरकार के बीते सवा 4 साल के कार्यकाल में 5 मुख्य सचिव बनाए जा चुके हैं और यदि एनसी गोयल का कार्यकाल नहीं बढ़ाया गया तो छटा मुख्य सचिव भी मिल जाएगा। हालांकि एनसी गोयल के कार्यकाल को बढ़ाए जाने की संभावना बेहद कम है।



ऐसे में वरिष्ठता के आधार पर और जातिगत समीकरण को साधते हुए नए मुख्य सचिव बनाया जाएगा। हालांकि प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी का मुखिया बार-बार बदलने का असर सरकार की बड़ी योजनाओं पर भी देखने को मिला। एक के बाद एक नया मुख्य सचिव आने से सरकार की बड़ी योजनाएं भी पटरी से उतरती चढ़ती रही।

इस तरह बदले ब्यूरोक्रेसी के मुखिया
प्रदेश में वसुंधरा राजे सरकार सत्ता में आई तब ब्यूरोक्रेसी की कमान वरिष्ठ आईएएस अधिकारी राजीव महर्षि को मुख्य सचिव बनाकर सौंपी गई। लेकिन महर्षि बीच में ही अपने कार्यकाल छोड़ दिल्ली चले गए और सीएस राजन को मुख्य सचिव बनाया गया। राजन को दो बार सेवा विस्तार भी दिया गया।

राजन के सेवानिवृत्ति होने के बाद ओपी मीणा को मुख्य सचिव बनाया गया और फिर अशोक जैन 11 महीने तक मुख्य सचिव रहे। जैन के बाद सबसे कम कार्यकाल वाले वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एनसी गोयल को मुख्य सचिव बनाया गया। इस तरह एक के बाद एक प्रदेश में नौकरशाही को 5 बॉस देखने को मिले।

मुख्य सचिव की रेस में गुप्ता सबसे आगे
अप्रैल में प्रदेश को मिलने वाले ब्यूरोक्रेसी के नए मुखिया की रेस में वित्त विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव डीबी गुप्ता नाम सबसे आगे चल रहा है । डीबी गुप्ता साल 2019 के अंत में सेवानिवृत्त होंगे। हाल ही में 3 आईएएस अफसरों के रिटायरमेंट के बाद 3 विभागों का अतिरिक्त प्रभार अन्य अधिकारियों को दिया गया जिससे यह तय हो गया कि मौजूदा मुख्य सचिव एनसी गोयल को 3 महीने का सेवा का विस्तार अब शायद ही मिल पाए।

क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता छीन रही है मोदी सरकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा
12 जनवरी 2018 का दिन देश के न्यायिक इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो चुका है. यही वो दिन था जब सुप्रीम कोर्ट के पांच सबसे वरिष्ठ जजों में से चार ने एक प्रेस वार्ता करके देश के मुख्य न्यायाधीश पर कई गंभीर आरोप लगाए थे.

उन्होंने बताया था कि देश की सबसे बड़ी अदालत में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यह घटना अभूतपूर्व थी और इसने न्यायिक गड़बड़ियों की ओर खुलकर इशारा किया था.

लेकिन इस घटना से ठीक दो दिन पहले भी भारतीय न्याय व्यवस्था में कुछ ऐतिहासिक हुआ था. 10 जनवरी 2018 के दिन सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एक अहम फैसला लिया था.

यह फैसला था दो लोगों को सुप्रीम कोर्ट में बतौर जज नियुक्त करने का. इनमें से एक थे उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ और दूसरी थीं सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील इंदु मल्होत्रा.

कॉलेजियम का यह फैसला ऐतिहासिक इसलिए था क्योंकि पहली बार किसी महिला वकील को सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया जा रहा था.

10 जनवरी को लिए गए इस फैसले को लगभग तीन महीने होने को हैं लेकिन केंद्र सरकार ने अब तक भी इन नियुक्तियों को लंबित ही रखा है. इन्हें लंबित क्यों रखा गया है?

इस सवाल का जवाब टटोलने की अगर कोशिश करें तो कुछ ऐसे तथ्य सामने आते हैं जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर मंडरा रहे गंभीर संकट की ओर भी इशारा करते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्ठ वकील तो केंद्र सरकार पर यह आरोप भी लगा रहे हैं कि यह सरकार सिर्फ अपने ‘हितैषियों’ को ही सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करने का षड्यंत्र कर रही है.

बिल्कुल यही आरोप अब सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज जस्टिस चेलामेश्वर ने भी चीफ जस्टिस को लिखे एक हालिया पत्र के जरिये लगाए हैं.

ये पहली बार नहीं है जब केंद्र सरकार पर न्यायिक नियुक्तियों को इस तरह से प्रभावित करने के आरोप लग रहे हैं. बीते कुछ सालों में हुई नियुक्तियों पर यदि गौर करें तो ऐसे कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं जो भविष्य की एक खतरनाक तस्वीर बनाते हैं.

इसे समझने की शुरुआत जस्टिस केएम जोसेफ और इंदु मल्होत्रा की नियुक्ति के हालिया मामले से ही करते हैं. माना जा रहा है कि इन नियुक्तियों के लंबित रहने का कारण उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस केएम जोसेफ ही हैं जिन्हें केंद्र सरकार किसी भी हाल में सुप्रीम कोर्ट आते हुए नहीं देखना चाहती.

इसका कारण उस फैसले को माना जा रहा है जो जस्टिस जोसेफ ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में रहते हुए साल 2016 में दिया था. 2016 में उत्तराखंड की राजनीति में जबरदस्त भूचाल आया था.

तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कई विधायकों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ बगावत कर दी थी. राज्य में राजनीतिक उठापटक चल ही रही थी कि इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में मंत्रिमंडल की एक बैठक बुलाई और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया.

तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के इस फैसले को उत्तराखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी. यहां कई दिनों की सुनवाई के बाद चीफ जस्टिस केएम जोसेफ ने केंद्र सरकार को गलत पाया और राष्ट्रपति शासन के आदेश को रद्द कर दिया.

पिछले दिनों चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक से न चलने को लेकर देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)
पिछले दिनों चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक से न चलने को लेकर देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

उन्होंने माना कि केंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड में जबरन राष्ट्रपति शासन लागू करना बिल्कुल गलत था और सरकार ने अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल किया है.

जस्टिस जोसेफ ने अपने इस फैसले में केंद्र सरकार पर कई सख्त टिप्पणियां भी की जिसके चलते सरकार की काफी किरकिरी हुई. इस फैसले से बौखलाई केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट तक में जस्टिस जोसेफ के फैसले को चुनौती दी लेकिन यहां भी उसे मुंह की ही खानी पड़ी.

इसी फैसले को अब जस्टिस जोसेफ की नियुक्ति की राह में रोड़ा माना जा रहा है. ये संभावना जताई जा रही है कि केंद्र सरकार ने जानबूझकर उनकी नियुक्ति को इसी कारण लंबित रखा है. इस संभावना को एक अन्य कारण के चलते भी बल मिल रहा है.

2016 में ही सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने स्वास्थ्य कारणों के चलते जस्टिस केएम जोसेफ का ट्रांसफर उत्तराखंड से आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट करने की संस्तुति की थी. लेकिन केंद्र सरकार ने उनके ट्रांसफर तक पर अपनी सहमति नहीं दी और इसे लंबित ही रहने दिया जबकि अन्य जजों के ट्रांसफर सरकार इस दौरान लगातार करती रही.

जस्टिस जोसेफ से पहले मशहूर वकील गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति के चलते भी मौजूदा केंद्र सरकार पर कई सवाल उठ चुके हैं. साल 2014 में कॉलेजियम ने गोपाल सुब्रमण्यम का नाम बतौर जज नियुक्त किए जाने के लिए भेजा था. लेकिन सरकार ने उनके नाम पर अपनी सहमति देने से इनकार कर दिया था.

दरअसल सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में गोपाल सुब्रमण्यम न्यायालय के सहायक रह चुके थे. इस मामले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मुख्य आरोपित थे. गोपाल सुब्रमण्यम की नियुक्ति खारिज किए जाने का कारण उनका इस केस से जुड़ा होना ही माना जाता है.

दिलचस्प यह भी है कि गोपाल सुब्रमण्यम का नाम ख़ारिज होने के बाद यूयू ललित को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया जो कि सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह के वकील रहे थे.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस चेलामेश्वर ने भी अब केंद्र सरकार पर खुलकर यह आरोप लगाया है कि वह जजों की नियुक्ति में मनमानी कर रही है.

पिछले हफ्ते ही चीफ जस्टिस और अन्य 22 जजों को पांच पन्नों का एक लंबा पत्र लिखते हुए उन्होंने कहा है कि ‘केंद्र सरकार कॉलेजियम के सुझावों को बेहद चुनिंदा और मनमाने तरीके से स्वीकार रही है. सुझाए गए जिन नामों से सरकार सहज नहीं है, उनकी नियुक्ति या तो रद्द की जा रही है या उसे लंबित छोड़ा जा रहा है. ये न्यायिक स्वतंत्रता के लिए बेहद घातक है.’

अपने पत्र में जस्टिस चेलामेश्वर ने चीफ जस्टिस से यह भी मांग की है कि न्यायिक नियुक्तियों में केंद्र सरकार की इस मनमानी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट की एक ‘फुल बेंच’ का गठन किया जाए और इस मुद्दे की वहां न्यायिक सुनवाई की जाए.

जस्टिस चेलामेश्वर ने यह हालिया पत्र कर्नाटक हाईकोर्ट में होने वाली एक जज की नियुक्ति के चलते लिखा है. कर्नाटक के एक जिला एवं सत्र न्यायाधीश पी कृष्णा भट का नाम कुछ समय पहले कॉलेजियम ने हाईकोर्ट में नियुक्ति के लिए सुझाया था. लेकिन केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति जाहिर की और कृष्णा भट के खिलाफ कुछ आरोपों की जांच के आदेश देते हुए यह सुझाव लौटा दिया.

इसके बाद कर्नाटक के तत्कालीन चीफ जस्टिस ने इन आरोपों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया. समिति ने पाया कि कृष्णा भट पर लगे आरोप निराधार हैं लिहाजा कॉलेजियम ने दोबारा उनका नाम नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार को भेज दिया.

‘सेकंड जजेस केस’ के अनुसार अगर केंद्र सरकार द्वारा ठुकराए गए किसी नाम को कॉलेजियम दोबारा से नियुक्ति के लिए भेजता है तो केंद्र सरकार उसे स्वीकारने के लिए बाध्य होती है. लेकिन कृष्णा भट के मामले में ऐसा नहीं हुआ.

बल्कि इस बार केंद्र सरकार ने सीधे कर्नाटक के चीफ जस्टिस को पत्र लिखते हुए कृष्णा भट के खिलाफ जांच करने की मांग की. इसी से नाराज होकर जस्टिस चेलामेश्वर ने हालिया पत्र लिखा है और आरोप लगाए हैं कि केंद्र सरकार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्तिओं को प्रभावित करके न्यायिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल रही है.

न्यायिक नियुक्तियों के इन चुनिंदा चर्चित मामलों से इतर यदि बीते कुछ सालों में हुई नियुक्तियों के आंकड़े को देखा जाए तो भी एक चिंताजनक तस्वीर सामने आती है. लेकिन इन आंकड़ों पर चर्चा करने से पहले जजों की नियुक्ति की उस प्रक्रिया को जान लेते हैं जो इस सरकार के आने से ही लगातार विवादों से घिरी रही है.

मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए अपनाए जाने वाली ‘कॉलेजियम व्यवस्था’ को खत्म करने का फैसला कर लिया था. इसकी जगह मोदी सरकार ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम’ यानी एनजेएसी बिल लेकर आई.

इस अधिनियम को मूर्त रूप देने के लिए संविधान में भी संशोधन किया गया. एनजेएसी को राष्ट्रपति की अनुमति भी मिल चुकी थी लेकिन इस नई व्यवस्था के तहत कोई नियुक्तियां होती इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने एनजेएसी को असंवैधानिक करार दे दिया.

इस फैसले के साथ ही यह भी तय हो गया कि आने वाले समय में भी जजों की नियुक्ति कॉलेजियम व्यवस्था के तहत ही होंगी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि नियुक्तियों की प्रक्रिया के लिए केंद्र सरकार और कॉलेजियम आपसी सहमति से एक ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ भी तैयार करे.

यह फैसला अक्टूबर 2015 में आ चुका था. लेकिन तब से आज तक इस ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है और यही सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी का एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है.

साल 2016 में केंद्र सरकार ने ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ का एक मसौदा कॉलेजियम को भेजा था. इसमें एक प्रावधान था कि कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए किसी भी नाम को सरकार ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देते हुए खारिज कर सकती है.

इस प्रावधान को मानने से कॉलेजियम ने साफ इनकार दिया. इसके साथ ही सरकार का यह भी प्रस्ताव था कि जजों की नियुक्तियों के दौरान राज्यों में ‘एडवोकेट जनरल’ और केंद्र में ‘अटॉर्नी जनरल’ की भी अहम भूमिका हो.

इस प्रावधान से भी कॉलेजियम को आपत्ति थी. लिहाजा कॉलेजियम ने ऐसे ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ को स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

इस दौरान कॉलेजियम ने जजों की नियुक्ति और ट्रान्सफर के लिए जो नाम सरकार को भेजे, सरकार उन्हें लगातार नजरंदाज ही करती रही. देश के मौजूदा चीफ जस्टिस से पहले जो भी लोग इस पद पर रहे, उन्होंने सरकार के इस रवैये पर खुलकर बयान भी दिए.

पूर्व चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में ही एक कार्यक्रम में यह बात खुलकर बोली कि मौजूदा सरकार जजों की नियुक्तियों पर ठीक से काम नहीं कर रही. टीएस ठाकुर के बाद चीफ जस्टिस बने जेएस खेहर ने भी सरकार के ऐसे रवैये के प्रति अपनी नाराजगी साफ जाहिर की.

मई 2017 में जस्टिस खेहर की अध्यक्षता में ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ को भी कॉलेजियम ने अपनी तरफ से अंतिम स्वरुप देते हुए केंद्र सरकार को भेज दिया.


इसमें केंद्र सरकार द्वारा लाए गए ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ वाले प्रावधान को भी स्वीकार कर लिया गया. लेकिन इसके बावजूद भी सरकार ने अब तक ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ को अपनी स्वीकृति नहीं दी है.

अब बात करते हैं इस दौरान हुई नियुक्तियों के आंकड़ो की. कई महीनों तक कॉलेजियम के सुझावों को नजरंदाज करने के बाद 2016 के अंत में केंद्र सरकार ने इन सुझावों पर फैसला लिया.

कॉलेजियम ने कुल 77 जजों के नाम नियुक्ति के लिए सुझाए थे. केंद्र सरकार ने इनमें से मात्र 34 सुझावों को अपनी स्वीकृति दी और बाकी 43 सुझावों को खारिज कर दिया.

देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब कॉलेजियम के इतने सुझाव एक साथ खारिज किए गए. न्यायिक नियुक्तियों में केंद्र सरकार के ऐसे दखल को कानून के कई जानकार इसलिए बेहद खतरनाक मानते हैं कि अगर जजों की नियुक्तियां सरकार की प्राथमिकताओं और पसंद के अनुसार ही होने लगी तो न्यायपालिका का स्वतंत्र होना असंभव हो जाएगा.

बीते कुछ सालों में अलग-अलग हाईकोर्ट में सैकड़ों जजों की नियुक्तियां हुई भी हैं. लेकिन कॉलेजियम के कई-कई सुझावों को केंद्र सरकार ने बड़ी चालकी से लंबित ही छोड़ दिया है.

दरअसल मौजूदा व्यवस्था के अनुसार यदि केंद्र सरकार कॉलेजियम के किसी सुझाव को ठुकरा देती है और कॉलेजियम अपना वही सुझाव दोबारा सरकार के पास भेजता है, तब सरकार उसे मानने के लिए बाध्य होती है. इसीलिए जिन सुझावों को सरकार स्वीकार नहीं करना चाहती, उन्हें खारिज करने की जगह लंबित ही छोड़ दिया जाता है.

यही कारण है कि जस्टिस केएम जोसेफ की नियुक्ति के सुझाव को न तो सरकार ने अब तक स्वीकार किया है और न ही इसे खारिज ही किया है.

अमूमन ऐसी स्थिति में चीफ जस्टिस सरकार पर दबाव बनाते हैं ताकि सरकार जल्द से जल्द कॉलेजियम के सुझावों पर कोई फैसला ले सके. लेकिन मौजूदा चीफ जस्टिस पर यह आरोप कई बार लग चुके हैं कि वे न तो न्यायिक नियुक्तियों को लेकर अपने पूर्ववर्ती जजों की तरह सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं और न ही वे न्यायिक स्वतंत्रता को लेकर ही कभी प्रयासरत दिखते हैं.

इस तरह के आरोप खुद सुप्रीम के वरिष्ठ जजों ने ही उन पर लगाए हैं. इन आरोपों के चलते ही विपक्षी दल उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की भी तैयारी कर रहा है.

यही तमाम कारण हैं जिनके चलते कानून के कई जानकार मौजूदा परिस्थितियों को बेहद चिंताजनक मान रहे हैं. यह भी माना जा रहा है कि जस्टिस जोसेफ की नियुक्ति पर केंद्र सरकार अंततः जो फैसला लेगी, उससे देश के न्यायिक भविष्य की तस्वीर भी साफ हो जाएगी.

इतनी चर्चाओं में आने के बाद भी यदि इस नियुक्ति को सरकार अपनी सहमति नहीं देती तो आने वाले समय में स्वतंत्र न्यायपालिका की उम्मीद करना भी बेईमानी ही कहा जाएगा.

न्यूजीलैंड के पर्यटकों ने लिया राजस्थान के एक गांव को गोद

राजस्थान में चित्तोडगढ़ जिले के राजपुरिया गांव को न्यूजीलैंड के आधा दर्जन पर्यटकों ने गोद लिया है 
राजस्थान में चित्तोडगढ़ जिले के राजपुरिया गांव को न्यूजीलैंड के आधा दर्जन पर्यटकों ने गोद लिया है । ये पर्यटक 500 की आबादी वाले राजपुरिया गांव में भील समाज के परिवारों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का काम कर रहे है ।

इन परिवारों के बच्चों की शिक्षा,चिकित्सा सहित अन्य समस्त खर्च न्यूजीलैंड के लोग ही वहन कर रहे हैं । जानकारी के अनुसार करीब 4 साल पहले न्यूजीलैंड के पर्यटकों का 6 सदस्यीय दल चित्तोडगढ़ फोर्ट भ्रमण के लिए आया था । इस दल ने सड़क मार्ग से गुजरते हुए राजपुरिया गांव का हाल देखा । दल में शामिल सभी पर्यटक गांव में पहुंचे और यहां रह रहे भील परिवारों की हालत देखकर,उनके लिए कुछ करने की ठान ली । शुरूआत में दल के सदस्यों ने गांव के एकमात्र प्राथमिक स्कूल में एक कमरा बनवाया,इससे पहले स्कूल कच्चे छप्पर के नीचे चलता था ।

इसके बाद पिछले साल छह सदस्यीय यह दल फिर राजपुरिया गांव पहुंचा और ग्रामीणों के साथ चौपाल पर चर्चा की । स्थानीय भाषा समझने के लिए एक शिक्षक का सहारा लिया । इस चर्चा में सामने आई ग्रामीणों की समस्या के बाद यहां प्राथमिक चिकित्सा केन्द् के लिए एक कमरा बनवाया और ग्रामीणों के लिए स्वास्थ जांच शिविर आयोजित किया ।


यही दल पिछले सप्ताह फिर रायपुरिया गांव आया और इस बार बच्चो चित्तोडगढ़ के एक सिनेमाघर में " परी " फिल्म दिखाने के साथ ही फोर्ट का भ्रमण कराया । स्थानीय प्राथमिक स्कूल के शिक्षक रामदेव का कहना है कि न्यूजीलैंड के पर्यटकों के प्रयास से गांव के लोगों के जीवन स्तर में थोड़ा बहुंत सुधार आया है । लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे हैं । इन पर्यटकों ने इस बार ग्रामीणों को स्थायी रोजगार की व्यवस्था कराने का आश्वासन दिया है ।  

काठ की हांडी है अन्ना

विवेक सक्सेना
महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि जब मैं रामलीला मैदान के सामने से गुजरता हुआ गाड़ी में 'अपन तो कहेंगे' में व्यासजी को पढ़ रहा था तो उनके द्वारा खींचा गया शब्द चित्र मेरी आंखों के सामने वास्तविकता बन चुका था। इतने बड़े मैदान में तैनात अगर पुलिस वालों को भी जोड़ दिया जाए तो अन्ना के साथ अनशन पर बैठे लोगों की संख्या मुश्किल से एक हजार रही होगी। तमाम अखबारों ने भी अन्ना की घटती लोकप्रियता का जिक्र किया था। व्यासजी ने तो विस्तार से लिखा है कि किस तरह से अन्ना के इतने अहम उद्देश्य को चैनलो से लेकर राजनेताओं तक ने अनदेखी कर दी।

अक्सर लोग मुझसे पूंछते है कि तुम्हें नया इंडिया में कॉलम लिखने में ऐसा क्या सुख मिलता है कि तुम नौकरी करते समय भी बेहद आक्रामक संपादक के रहते हुए भी विनम्र नाम से रिपोर्टर डायरी लिखते थे? एक बार तो अपने रिटायरमेंट के बाद वह संपादक एक राजनेता के यहां खाने पर मिल गए और वे अपनी नाराजगी छिपाए न रह सके। उन्होंने व्यासजी की मौजूदगी में मुझसे कहा कि अगर मुझे इस रहस्य का पहले पता चल गया होता तो मैं तुम्हारे खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई करता।

मैंने मुस्कराते हुए इतना ही कहा कि भगवान गंजे को नाखून नहीं देता है। वे झेप कर रह गए। जनसत्ता में मेरे बॉस रहते हुए व उसके बाद छदम नाम से लिखते हुए भी मेरे आकर्षण की मुख्य वजह यह रही कि एक संपादक के रूप में व्यासजी ने मुझे पूरी छूट दी। अक्सर ऐसा हुआ कि अंतिम पृष्ठ पर वे अपने लेख में जो कुछ लिखते थे उसके एकदम विपरीत मैं अपने कॉलम में लिखता था।

मुझे याद है कि मुंबई बार गर्ल विवाद में मेरा व उनके एक ही पेज पर लेख छपे। उनके लेख में बार गर्ल के प्रति सहानुभूति थी जबकि मैं उन नाचने वाली महिलाओं के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति दिखाए जाने के खिलाफ था। फिर भी उन्होंने फुल स्टाप या कॉमा तक काटे बिना मेरा पूरा लेख छाप दिया। यह सब इसलिए लिखना पड़ा कि उनकी व मेरी अन्ना के प्रति राय एकदम विपरीत है। मैं भी कुछ दिनों से उन पर लिखने के लिए सोच रहा था। मैंने तो काफी पहले ही अन्ना के बारे में इसी कॉलम में लिखा था कि उनकी सेना में तो पोरस के हाथी हैं जोकि अपने ही लोगों को ज्यादा कुचलेंगे।

पता नहीं क्यों केजरीवाल से लेकर अन्ना तक के प्रति अपने मन में कभी सहानुभूति पैदा नहीं हुई। मेरा मानना है कि जिस तरह महात्मा गांधी ने सारे नेताओं की ऐसी-तैसी करके जवाहर लाल नेहरू को आगे किया वहीं काम अन्ना ने केजरीवाल के लिए किया। मुझे सिर्फ एक मामले में केजरीवाल अच्छा लगता है कि उसने अपने गुरू को ही धोखा दे दिया व अपने साथियों की ऐसी-तैसी करते हुए पूरे आंदोलन पर कब्जा कर लिया और देश के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए दिल्ली में शानदार जीत हासिल की।

मुझे अन्ना का 2011 का रामलीला मैदान का भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन याद है जब  खांसी से बेदम हो रहे केजरीवाल बहुत दुब्बले पतले थे। आज तो वे बेहद मुटा गए हैं और राजनीति के घुट्टा सांड हो चुके है। जरा उनकी गर्दन तो देखिए यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि संजय सिंह व उनमें मे से दिल्ली की राजनीति किसके लिए सबसे ज्यादा माकूल साबित हुई है?

बहरहाल महाराष्ट्र के अहमद नगर में 15 जून 1937 को जन्मे किशन बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे पहले सेना में ड्राइवर थे। अपना शुरू से मानना रहा है कि सेना की पूरी कोशिश होती है कि वह अपनी गाड़ी व लोगों को निकालते समय ऐसी हालत में पहुंचा दें कि वे किसी काम के न रहे। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के किस्से तो लोगों को याद ही होंगे। अन्ना तो अब 80 साल के होने जा रहे हैं। हिंदू धर्म में तो षष्टीपूर्ति की व्यवस्था है जिसमें माना जाता है कि 60 साल की आयु के बाद इंसान की हरकतें बदलने लगती है।

मुझे याद है कि महज सात साल पहले अन्ना के अनशन पर जुटने वाली भीड़ ऐतिहासिक थी। लोग उनको दूसरा गांधी कहने लगे थे। बच्चे अपने मां-बां के साथ उन्हें देखने आते थे। फोटो खिचांते। अन्ना टोपी लगाते व लोग उनके आंदोलन में दान देते। चलिए बच्चों की बात छोड़ भी जाएं तो मुझे लगता है कि वे आज देश में एकदम अकेले पड़ गए हैं। दिल्ली में आंदोलन करने के बाद भी उन्हें देखने आना तो दूर रहा उनके आंदोलन द्वारा पैदा हुई आप पार्टी के टुच्चे नेता तक ने उनके पक्ष में बयान तक नहीं दिया। केजरीवाल तो राजनीति के सबसे बड़े धूर्त है मगर उनके विरोधियों में जैसे प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास,  योगेद्र यादव, किरण बेदी आदि को कौन-सा सांप सूंघ गया कि उन्होंने अन्ना के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा।

जिस संघ व भाजपा पर उनके इस आंदोलन को सफल बनाने का श्रेय (आरोप) लगाया जाता है उसके नेता कहां चले गए? कांग्रेंस तो उनसे पहले ही दूरी बना चुकी थी। जिस बाबा रामदेव के अनशन के समर्थन में वे आगे आए थे वे क्यों कुछ नहीं बोल रहे? वैसे जाति से यादव और  अन्ना हजारे पर आरोप लगता आया है कि उनके आंदोलन में कभी भी दलितो, पिछड़ो, मुसलमानों को अहमियत नहीं मिली। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व जामा मस्जिद के शाही इमाम ने मुसलमानों को उनसे दूर रहने को कहा। एक समय तो उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री व बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की तारीफ की थी।

अन्ना को निजी जीवन में ऐसा तानाशाह माना जाता है जो कि अपने गांव के दलितो को वैजीटेरियन खाना खाने के लिए बाध्य करता था। टेलीग्राफ में जाने-माने लेखक रामचंद्रगुहा  ने उन पर तानाशाही करने का आरोप लगाया।तो ब्रुकर पुरुस्कार विजेता अरूंधति राय ने लिखा कि उनमें व नक्सलियों में कोई अंतर नहीं है। वे तो गांधीवादी नक्सली है जोकि प्रशासन को तबाह करने पर आमादा है। वे आत्महत्या करने वाले किसानों की चिंता नहीं करते। जब दिल्ली के सफल धरने के बाद उन्होंने महज आठ माह बाद मुंबई के एलएमआरडी मैदान में धरना दिया था तो वह बुरी तरह से फेल हो गया था। उसमें चंद हजार ही लोग आए थे। तब वहां के किसी अखबार ने लिखा था कि दिल्ली में लोग ज्यादा फालतू हैं और मुंबई के लोग उनकी असलियत को भी जानते हैं। मेरा मानना है कि चैनलों को लग रहा है कि अब अन्ना बिकने वाला सौदा नहीं रहा। वेसे मेरा तो यही मानना है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है।

बिहार बार काउंसिल चुनाव: बोगस वोटिंग मामले में हो सकती है कार्रवाई

बिहार बार काउंसिल चुनाव. बीसीआई समेत संबंधित अधिकारियों को भेज दी गयी है रिपोर्ट


पटना : बिहार बार काउंसिल के 25 सदस्यों के लिए 27 मार्च को संपन्न हुए चुनाव  में बोगस वोटिंग करने वाले अधिवक्ता और मतपत्र पढ़ने वाले उम्मीदवार के विरुद्ध कार्रवाई हो सकती है. मिली जानकारी के अनुसार मामले से संबंधित एक  रिपोर्ट  बीसीआई समेत संबंधित अधिकारियों को भेज दी गयी है.

गौरतलब है  कि पटना हाईकोर्ट स्थित एक बूथ पर अधिवक्ता सत्येंद्र कुमार झा बोगस वोट डालते पकड़े गये.  उनसे जब यह पूछा  गया कि वे किसके पक्ष में मतदान करने आये थे तो उन्होंने बताया कि वे  बार  काउंसिल चुनाव के एक उम्मीदवार तारकेश्वर ठाकुर के समर्थक हैं. उनके कहने  पर बोगस वोट देने आये थे. तारकेश्वर ठाकुर प्रदेश भाजपा विधि एवं विधायी  प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक भी हैं.

मतपत्र छीनकर खुलेआम फाड़ डाला

इस संबंध में अधिवक्ता के विरुद्ध कार्रवाई करने और जिनके समर्थन में उन्होंने बोगस वोट दिया उनकी उम्मीदवार  रद्द करने की एक लिखित शिकायत निर्वाची पदाधिकारी से की गयी थी. वहीं  दूसरी ओर एक उम्मीदवार निरंजन कुमार झा ने एक मतदाता से  उसका मतपत्र छीनकर खुलेआम फाड़ डाला. साथ ही बार काउंसिल को चुनौती दे डाली.

इससे संबंधित एक  रिपोर्ट बार काउंसिल ऑफ इंडिया सहित संबंधित पदाधिकारियों को भी भेजे जाने  की जानकारी मिली है. इस मामले में  एक ओर जहां इन उम्मीदवारों  की  उम्मीदवारी  समाप्त की जा सकती है वहीं बोगस वोटिंग करने वाले अधिवक्ता  के  खिलाफ भी काउंसिल द्वारा कारवाई की संभावना जतायी जा रही है. 

गौरतलब है  कि बार काउंसिल चुनाव के लिए नियमानुसार अधिवक्ता मतदाता को कम से कम पांच  प्रत्याशियों और अधिकतम पचीस प्रत्याशियों को वरीयताक्रम के अनुसार मत देने  थे. ऐसे में एक एक मतदाता को मतपत्र पर वरीयताक्रम अंकित करने में हो रही  देरी से पटना हाईकोर्ट के एक अधिवक्ता और इस चुनाव के उम्मीदवार निरंजन  कुमार परेशान हो गये. गुस्से में उन्होंने मतदान के लिए मिले एक मतदाता के  मतपत्र को सबके सामने फाडकर बार काउंसिल को चुनौती दे डाली.

इसी संबंध में  रिपोर्ट बीसीसीआई समेत संबंधित अधिकारियों को भेजा गया है. पूरे देश में  बार काउंसिल का चुनाव सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कराया जा रहा है. पटना  हाईकोर्ट के दो पूर्व न्यायाधीशों की देखरेख में बिहार बार काउंसिल का  चुनाव संपन्न हो रहा है.

सात अप्रैल के पहले औरंगाबाद में चुनाव

पटना : औरंगाबाद में अव्यवस्था के कारण स्थगित किये गये बिहार बार काउंसिल का  चुनाव अब सात अप्रैल के पहले करा लिया जायेगा. मिली जानकारी के अनुसार  चुनाव कराने के लिए औरंगाबाद जिला प्रशासन से बात कर चुनाव की तारीख जल्द  ही निर्धारित की जायेगी.  गौरतलब है कि है औरंगाबाद में अव्यवस्था के कारण  27 मार्च को होने वाले बिहार बार काउंसिल के चुनाव को स्थगित कर दिया गया  था.
हालांकि बार काउंसिल से मतदान कराने के लिए पोलिंग ऑफिसर पटना स्थित  बिहार बार काउंसिल के कार्यालय से 27 मार्च को औरंगाबाद के नजदीक पहुंच गये  थे, लेकिन कुछ कारणों से बीच रास्ते से लौटकर पटना आ गये.

स्ट्रांग रूम में रखी गयीं मतपेटियां

पटना.  27 मार्च को बिहार बार काउंसिल के संपन्न हुये चुनाव की मतपेटियां बिहार  बार काउंसिल में बने स्ट्रांग रूम में रखी गयी हैं. चुनाव के बाद मंगलवार  शाम छह बजे से लेकर बुधवार को बारह बजे दोपहर तक राज्य के विभिन्न हिस्सों  से मतदान कराकर आये ऑफिसरों ने बार काउंसिल में बने स्ट्रांग रूम में  मतपेटियों को जमा करवाया.

औरंगाबाद में चुनाव संपन्न हो जाने के बाद बिहार  बार काउंसिल चुनाव की मतगणना शुरू की जायेगी. गौरतलब है कि 25 सदस्यीय बार  काउंसिल के लिए राज्य के 243 अधिवक्ता प्रत्याशियों का भाग्य मतपेटियों में  बंद हो चुका है.

बुधवार, 28 मार्च 2018

राजस्थान विधानसभा में विभिन्न ​समितियों की घोषणा की गई


राजस्थान विधानसभा में  विभिन्न समितियों का गठन किया गया। इसमें नाराज चल रहे भाजपा के वरिष्ठ विधायक धनश्याम तिवाड़ी और ज्ञानदेव आहूजा को भी स्थान दिया गया है। विधानसभा में बुधवार को जनलेखा, प्राक्कलन समिति क और ख, राजकीय उपक्रम, नियम, सदाचार, स्थानीय निकायों एंव पंचायतीराज संस्थाओं की समिति, विशेषाधिकार, गृह, अधीनस्त विधान संबधी, याचिका, सरकारी आश्वासन, प्रश्न एंव तदर्थ, पर्यावरण, पुस्तकालय, महिलाओं एंव बालकों के कल्याण संबधी, पिछड़े वर्ग के कल्याण, अनुसूचित जाति कल्याण और अल्पसंख्यकों के कल्याण संबधी आदि समितियों का गठन किया गया।


जनलेखा समिति में प्रद्युम्न सिंह को सभापति मनोनीत किया है जबकि विट्ठल शंकर अवस्थी, राम हेत सिंह यादव, निर्मल कुमावत, कैलाश भंशाली, अभिषेक मटोरिया, अर्जुनलाल, नारायण सिंह, गोविंद सिंह डोटासरा, माणिक चंद सुराणा, म. रणधीर सिंह भींडर, डॉ. फूलचंद भिंडा, डॉ. बालू राम चौधरी, जोगाराम पटेल एवं प्रहलाद गुंजल को सदस्य मनोनीत किया गया है।

प्राक्कलन समिति क में ज्ञानदेव आहूजा को सभापति एवं  गुरजंट सिंह, बाबू सिंह, मनोहर सिंह, मानसिंह किनसरिया, जयराम जाटव, पब्बाराम, भंवरलाल एवं मेवाराम जैन को सदस्य मनोनीत किया गया है।

राजकीय उपक्रम समिति में मोहनलाल गुप्ता को सभापति एवं नरपत सिंह राजवी, सुरेंद्र पारीक, हमीरसिंह भायल, गौतम कुमार, शुभकरण चौधरी, नारायण सिंह देवल, अजीत सिंह, दलीचंद डागी, बृजेंद्र सिंह ओला, रमेश, राजकुमारी दीया कुमारी, अल्का सिंह, कामिनी जिंदल एवं डॉ मंजू बाघमार को समिति के सदस्य मनोनीत किया गया है।

नियम समिति में अशोक गहलोत, रामेश्‍वर लाल डूडी, अशोक परनामी, हरी सिंह रावत, विश्‍वेन्‍द्र सिंह,सुन्‍दर लाल, प्रेमसिंह बाजौर, सुरेन्‍द्र सिंह राठौड, अशोक एवं अनिता कटारा को सदस्य मनोनीत किया है। विधानसभा अध्यक्ष इस समिति के पदेन सभापति होंगे।

सदाचार समिति में नारायण सिंह, अशोक डोगरा, रतनलाल जलधारी, कृष्‍णा कडवा, बृजेन्‍द्र सिंह ओला, विट्ठल शंकर अवस्‍थी एवं महेन्‍द्र जीत सिंह मालवीय को सदस्‍य मनोनीत किया गया है। विधानसभा उपाध्‍यक्ष राव राजेन्‍द्र सिंह इस समिति के पदेन सभापति होंगे।

स्थानीय निकायों और पंचायती राज संस्थाओं संबंधी समिति में विजय बंसल (पप्‍पू बंडा) को सभापति एवं  लक्ष्‍मीनारायण बैरवा, चन्‍द्रभान सिंह ‘आक्‍या’, झाबर सिंह खर्रा, संजीव कुमार, नन्‍द किशोर महरिया, पूरणमल सैनी, शंकर सिंह राजपुरोहित, घनश्‍याम एवं  अंजू देवी धानका को सदस्य बनाया गया है।

विशेषाधिकार समिति में हीरालाल को सभापति एवं  माणिक चंद सुराणा, झाबर सिंह खर्रा, प्रहलाद गुंजल, मानवेन्‍द्र सिंह, दलीचन्‍द डांगी, जीतमल खॉट, धीरज गुर्जर, मेवाराम जैन तथा डा. राजकुमार शर्मा, शिमला बावरी एवं अल्का सिंह को सदस्य बनाया गया है।

गृह समिति में धर्मपाल चौधरी को सभापति एवं प्रताप सिंह, म. रणधीर सिंह भीण्‍डर, संदीप शर्मा, सुखराम विश्‍नोई, एवं मंगलराम को सदस्य मनोनीत किया गया है।

अधीनस्थ विधान संबंधी समिति में ज्ञानचन्द पारख को सभापति एवं कुंजीलाल, राजेन्द्र सिंह भादू, गोरधन, अशोक डोगरा, मनोज कुमार, अनिता कटारा तथा शकुन्तला रावत को सदस्य बनाया है।

याचिका समिति में श्री घनश्‍याम तिवाडी को सभापति एवं सर्व श्री तरूण राय कागा, अर्जुन लाल जीनगर, कैलाश चौधरी, भवानी सिंह राजावत, गिरीराज सिंह, भंवर सिंह, नवीन पिलानिया तथा श्रीमती गीता वर्मा को सदस्य बनाया गया है।

सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति में  केसाराम चौधरी को सभापति एवं शैतान सिंह, विद्याशंकर नन्‍दवाना, सुरेश धाकड, जगदीश नारायण, ललित कुमार, रामपाल, अर्जुनलाल जीनगर एवं गीता वर्मा को सदस्य मनोनीत किया गया है।

प्रश्न एवं संदर्भ समिति में बनवारी लाल सिंघल को सभापति एवं राजेन्‍द्र गुर्जर, विजय सिंह, शंकर सिंह, राजेन्‍द्र सिंह यादव, रतन लाल जलधारी, हरिसिंह रावत एवं श्रीराम भींचर को सदस्य बनाया गया है।

पर्यावरण संबंधी समिती में भागीरथ चौधरी को सभापति मनोनीत किया गया है जबकि सर्वश्री छोटू सिंह, रामचन्द्र, शंकरलाल शर्मा, धीरज गुर्जर, नवीन पिलानिया, कुंजीलाल, विवेक धाकड़, कु. जगत सिंह तथा सिद्धी कुमारी को सदस्य मनोनीत किया गया है। 

पुस्तकालय समिति में किशनाराम को सभापति एवं कंवर लाल, बच्चू सिंह, रामनारायण, अशोक तथा श्रीमती गोलमा को सदस्य बनाया गया है।

महिलाओं एवं बालकों के कल्याण संबंधी समिति में सूर्यकान्ता व्यास को सभापति एवं अनिता, अमृता मेघवाल, द्रोपती, राजकुमारी, रानी सिलोटिया, सुशील कंवर, शकुन्‍तला रावत, कामिनी जिन्‍दल और शोभारानी कुशवाह को सदस्य बनाया गया है।

पिछडे वर्ग के कल्याण संबंधी समिति में रामलाल गुर्जर को सभापति एवं कन्हैयालाल, जयनारायण पूनिया, पूराराम, मानसिंह, दर्शन सिंह, कृष्‍णा कडवा, मास्टर मामनसिंह यादव, अंजू देवी धानका एवं हनुमान बेनीवाल को सदस्य मनोनीत किया है।

अनुसूचित जनजाति कल्याण समिति में नवनीत लाल को सभापति नियुक्त किया गया है तथा नानालाल अहारी, अमृतलाल, गौतम लाल, गोपीचन्‍द मीणा, देवेन्‍द्र कटारा, प्रताप लाल भील, फूलसिंह मीणा, महेन्‍द्रजीत सिंह मालवीय, हीरालाल दरांगी एवं गोलमा को सदस्य मनोनीत किया गया है।

अनुसूचित जाति कल्याण समिति में चन्‍द्रकान्‍ता मेघवाल को सभापति एवं खेमाराम, सुखाराम, जगसीराम, समाराम गरासिया, भजनलाल जाटव, डा प्रेमचन्‍द बैरवा को सदस्य बनाया गया है।

अल्पसंख्यकों के कल्याण संबंधी समिति में हबीबुर्रहमान अशरफी लाम्बा को सभापति एवं मंगलराम, रामपाल, नरेन्‍द्र कुमार एवं गुरजंट सिंह को सदस्य मनोनीत किया गया है।

नियम समिति में अशोक गहलोत, रामेश्‍वर लाल डूडी, अशोक परनामी, हरी सिंह रावत,  विश्‍वेन्‍द्र सिंह,सुन्‍दर लाल, प्रेमसिंह बाजौर, सुरेन्‍द्र सिंह राठौड, श्री अशोक एवं श्रीमती अनिता कटारा को सदस्य मनोनीत किया है। विधानसभा अध्यक्ष इस समिति के पदेन सभापति होंगे।