भाजपा और संघ का रिश्ता राजनीतिक अंग भाजपा को सत्ता की सीढ़ियां चढ़ाने के लिए संघ हमेशा अपनी पूरी ताकत झोंकता रहा है और उसके सत्ता में आने के बाद उसे अपने तरीके से चलाने, उस पर नियंत्रण बनाये रखने की कोशिश भी करता रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही भारतीय जनता पार्टी को एक राजनीतिक संगठन बताते हुए उसके मामलों में अपने दख़ल से इनकार करता रहा है। लेकिन हक़ीकत यह है कि एक निश्चित दूरी बनाये रखते हुए भी उसने हमेशा भाजपा को अपने ही दिशा-निर्देश से चलाने की कोशिश की है। उसका ध्येय अपने इस अनुषांगिक संगठन पर अपना वर्चस्व बनाये रखना ही हैे। बदले हालात में उम्मीदों से लबरेज संघ ने भाजपा पर अपना नियंत्रण और बढ़ा दिया है, ताकि दशा-दिशा से उसके भटकाव की नौबत न आये। संगठन और सरकार के नीतिगत फैसले और इनमें होने वाली नियुक्तियों तक संघ की ही पसंद परवान चढ़ रही है। रथ पर सवार भले ही नज़र भाजपा आती है, लेकिन उस रथ की कमान संघ के पास है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था, 'जो भी अस्तित्वमान है, मैं सबमें हूं और वे सभी मुझमें हैं, लेकिन वास्तव में मैंं उनमें नहीं हूं और वे भी मुझमें नहीं हैं।' गीता के नवें अध्याय में कृष्ण के उपदेशों से प्रभावित होकर माधव सदाशिव गोलवलकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उससे प्रेरणा लेने वाले संगठनों या कहें संघ के अनुषांगिक संगठनों के आपसी संबंधों की ऐसी ही परिकल्पना की थी। संघ के इस सबसे प्रभावशाली पुरोधा का ख्याल था कि ये संगठन संघ से जुड़े रहेंगे, लेकिन आरएसएस के ध्येय और लक्ष्य उनसे ऊपर होंगे। और जहां तक लक्ष्य का सवाल है, तो 1925 में स्थापित संघ का लक्ष्य सभी हिंदुओं को संगठित कर हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना है। लिहाजा, जब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसके अनुषांगिक राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सम्बन्धों की बात होती है, तो माना जाता है कि संघ ही भाजपा है और भाजपा ही संघ है। यह अलग बात कि संघ के पदाधिकारियों ने हमेशा कहा- राजनीतिक भूमिका पूरी तरह भाजपा के हवाले है और संघ का उद्देश्य सिर्फ़ सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित करना और उन्हें आगे बढ़ाना है। भाजपा के नेताओं के मुख से भी कुछ इसी तरह के बोल फूटते रहे हैं कि संघ उसका मातृ संगठन ज़रूर है, मगर पार्टी के मामलों में उसकी कोई दख़ल नहीं होती। हां, सलाह-सुझाव लिये-दिये जाते रहते हैं। लेकिन यह सच्चाई है कि भाजपा से एक निश्चित दूरी रखते हुए भी संघ ने हमेशा उसे अपने दिशा-निर्देश से चलाने का प्रयास किया है। कहा जाये तो भाजपा को अपनी राह पर चलाते रहने के लिए संघ ने बहुत हद तक उस पर वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश की है। कालांतर के कई प्रकरणों से इसकी पुष्टि होती है।
वैसे भी गोलवलकर का मानना था कि समाज के हर तबके को प्रभावित करने के लिए संघ को सत्ता की ज़रुरत होगी और ऐसा होने पर ही संघ का 'मिशन' पूरा हो पाएगा। चूंकि राजनीतिक संगठन होने के नाते सत्ता पर भाजपा ही काबिज हो सकती है, लिहाजा संघ के लिए अपने मिशन को पूरा करने के वास्ते भाजपा को अपने और अपनी विचारधारा के साथ सहजीवी बनाये रखना ज़रूरी है। इसीलिए कहा जाता है कि संघ और भाजपा की विचारधारा भी एक है, और एक ही 'लक्ष्य प्राप्ति' उनका उद्देश्य है। शायद इसी वज़ह से भाजपा के नेताओं को नागपुर दरबार में नियमित रूप से हाजिरी लगाते देखा जाता है, उनसे दिशा-निर्देश लेते पाया जाता है। और तभी अपने राजनीतिक अंग भाजपा को सत्ता की सीढ़ियां चढ़ाने के लिए संघ हमेशा अपनी पूरी ताकत झोंकता रहा है और उसके सत्ता में आने के बाद उसे अपने तरीके से चलाने, उस पर नियंत्रण बनाये रखने की कोशिश भी करता रहा है। भले ही कुछ 'दूरियां' बरकरार रखते हुए। लेकिन जब कभी उसकी पकड़ अपने इस अनुषांगिक संगठन पर से ढीली होती लगी है, उसे इसने कसने का काम भी किया है। अपरोक्ष और ज़रूरत पड़ने पर परोक्ष रूप से भी। इस इरादे से कि भाजपा में किसी प्रकार के भटकाव का अर्थ उसके अपने 'मिशन' पर चोट होगी, यह उसे कदापि स्वीकार नहीं।
याद करें अटल-आडवाणी का युग। जब 1998 में केंद्र में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी की सदारत में सरकार बनी, तो जसवंत सिंह को वित्तमंत्री बनाने के वाजपेयी के फैसले को शपथ ग्रहण के कुछ ही घंटे पहले निरस्त कर दिया गया था। ऐसा किसके कहने पर और क्यों हुआ, सभी जानते हैं। राजग सरकार के कार्यकाल में लालकृष्ण आडवाणी को भी उप-प्रधानमंत्री के रूप में संघ के कहने पर ही पदोन्नत किया गया था। लेकिन, तब एक समस्या भी उभरी थी जिसने लोगों को और स्वयं संघ को इस भ्रम में डाल दिया था कि क्या भाजपा अब संघ से इतर अपने बूते एक संगठन, एक सत्ता बनने की कोशिश कर रही है? कारण, वाजपेयी ने अपनी सरकार में ऐसे लोगों को तवज्जो दे दी थी, जो संघ की पृष्ठभूमि के नहीं थे। उनके प्रधान सचिव बृजेश मिश्र, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा आदि इसी जमात से थे। चूंकि 'सत्ता' की आवश्यकता संघ के एजेंडे में शुरू से रही है, तब भाजपा के सरकार में रहते उसने बहुत सख्त होकर कुछ भी करने से परहेज किया। लेकिन जैसे ही 2004 में सरकार गिरी, संघ ने मुश्कें बांधनी तेज़ कर दीं। भाजपा के संस्थापक माने जाने वाले वाजपेयी-आडवाणी से सार्वजनिक तौर पर युवाओं को आगे आने देने के लिए इस्तीफे मांगे गये। राजनाथ को पार्टी अध्यक्ष बनाकर संघ की दख़ल बढ़ाई गई, फिर धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी को आगे किया गया।
खैर, ये बातें भूतकाल की हैं। वर्तमान में तस्वीर बहुत बदल गई है। कहें तो तस्वीर वही है, रंग बदल गये हैं। गाढ़े हो गए हैं। संघ जो कुछ दूरी बरत कर भाजपा के साथ चल रहा था, अब उन दूरियों को उसने प्रभावशाली तरीके से खत्म कर दिया है। गोलवलकर के वैराग्य और तप के आदर्श पर संघ को खड़ा करने के सपने से इतर उसने अब बालासाहब देवरस के राजनीतिक व्यवहरवाद पर ज़्यादा भरोसा करना शुरू कर दिया है। राजनीति और लोकतंत्र को लेकर उसकी अवधारणा में बदलाव साफ दिखता है। आपको याद होगा कि पिछले दिनों संघ की बैठक में किस तरह एक के बाद एक केंद्रीय मंत्री, जिनमें प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, रक्षामंत्री, विदेशमंत्री, गृहमंत्री जैसे शीर्ष मंत्री शामिल थे, मध्यांचल भवन पहुंचकर संघ प्रमुख मोहन भागवत व संघ के पंद्रह अन्य अधिकारियों के समक्ष अपने मंत्रालय से संबंधित प्रेजेंटेशन देते पाये गये। क्या यह बदलाव का संकेत नहीं? संघ और भाजपा के रिश्ते की दूरियों और नज़दीकियों का, उसके स्वरूप का?
हालांकि यह भी सच है कि इससे पहले भी केंद्रीय मंत्रियों समेत भाजपा नेताओं को संघ के नेताओं से बातचीत करते, उनसे नीतिगत मुद्दों पर विमर्श करते देखा गया है, लेकिन पहले यह एक या दो नेताओं के स्तर पर ही होता था और वह भी बंद कमरे में। कॉरपोरेट स्टाइल में ऐसा पहली बार होते देखा जा रहा है। तभी ऐसे सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या अब संघ ने अब पूरी तरह 'स्टेयरिंग' अपने हाथों में ले ली है? हालांकि ताकतवर तो वह पहले से ही था, लेकिन अब वे बातें खुलेआम क्यों होने लगी हैं, जो कभी बंद कमरे में होती थीं?
राजनीतिक विश्लेषक अवधेश कुमार कहते हैं, 'संघ की सूक्ष्म प्रबंधन की नीति में बदलाव के खास मायने हैं। दरअसल, इस समय देश में उसके पक्ष को भारी समर्थन मिला है और मुख्य विपक्ष नेस्तनाबूद है। ऐसे में भाजपा नेतृत्व संगठन के स्तर पर जो निर्णय ले, केंद्र सरकार के स्तर पर मोदी जो फैसले करें, संघ चाहता है कि संगठन और सरकार के प्रतिनिधि यह सुनिश्चित करें कि संघ की पकड़ हर जगह मजबूत होती जाए। इसी मजबूती से उसे अपना सफ़र आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी और लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में वह निर्णायक कदम उठा सकेगा।' शायद तभी न्यायसंगत नियंत्रण का पक्षधर रहा संघ इन दिनों यर्थाथवाद और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ नये सफ़र पर उतरा नज़र आ रहा है। भले ही गोलवलकर ने राजनीति को एक संदिग्ध चरित्रवाली औरत बताया था, जिसके कई रंग हैं, जो एक तवायफ़ की तरह है और जो किसी को खुश करने या ललचाने के लिए कोई भी भेस धर सकती है। लेकिन अब इस तरह के राजनीतिक संसर्ग पर संघ को कोई आपत्ति नहीं रही। वह खुल कर खेल में आ गया है। जाहिर है कि लक्ष्य को पाने के लिए आदर्श, विचार और नैतिकता के बंधनों से मुक्त होना ही पड़ता है। भले ही प्रत्यक्ष में कुछ और दिखे, पार्श्व में कुछ और। मोदी विकास और सशक्त राष्ट्रवाद की बात करते हैं और शिवराज सिंह चौहान स्कूलों में 'वंदे मातरम्' गवाकर विकास के एजेंडे को बढ़ाते हैं। कोई सिलेबस की किताबों में संघ के एजेंडे के मुताबिक फेरबदल करता है, तो कोई कुछ और। दरअसल, हिंदुत्व के कठोर एजेंडे को विकास और प्रगति जैसे शब्दों के जरिए नर्म जुबान में कहने-करने की अदा का प्रदर्शन हो रहा है।
बहरहाल, बात संघ व भाजपा के रिश्ते और संघ की सियासत में बढ़ती सक्रियता की ही। नि:संदेह दोनों के बीच सहजीवी रिश्ता है। पहले पहल जनसंघ की कल्पना भी संघ के राजनीतिक मोर्चे के तौर पर ही हुई थी। और फिर जनता पार्टी के विभाजन के फलस्वरूप भाजपा का गठन भी जनसंघ व आरएसएस की दोहरी सदस्यता के मसले पर उपजे विवाद का ही नतीजा था। पहले जनसंघ और फिर भाजपा का संगठन सचिव भी आरएसएस से ही आता रहा है। लेकिन अब तक संघ अपनी राजनीतिक ईकाई भाजपा से संवाद के लिए सिर्फ़ एक व्यक्ति को नियुक्त करता था। वह चुपचाप अपना काम करता रहता था। अपवाद सिर्फ़ गोविंदाचार्य हैं, जिन्हें काफी धूमधाम से भाजपा में शामिल किया गया था, लेकिन अटल बिहारी के नेतृत्व से टकराव के कारण उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। लेकिन अब जैसा हो रहा है, ऐसा लगता है कि आम चुनावों में भारी बहुमत और उससे पैदा हुई उम्मीदों के दबाव ने संघ को मजबूर कर दिया है कि वह अपने संगठनों के लिए केवल मंथन शिविर से इतर कुछ और कामों को अंजाम दे। यही वजह है कि संघ से भाजपा का कामकाज देखने भेजे गये कृष्ण गोपाल आज अकेले यह काम नहीं कर रहे, बल्कि उनके साथ सुरेश भैयाजी जोशी, दत्तात्रेय होसबोले, रामलाल जैसे कई और लोग संघ से आ गये हैं। राम माधव, शिव प्रकाश जैसे दूसरे पदाधिकारियों को संघ ने भाजपा में भेजकर पार्टी के कामकाज पर नज़र रखने का ही इंतजाम किया है। यह संकेत है कि भाजपा और उसके मातृ संगठन संघ के बीच संवाद के तौर-तरीके और स्तर में बड़े बदलाव आ चुके हैं। बदलावों की इसी बयार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पर सरकार को झुकाया, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने महत्वपूर्ण पदों पर संघ के पसंदीदा लोगों को नियुक्त कराया, संघ प्रमुख के लिए जेड प्लस सुरक्षा का इंतजाम कराया, उनके साथ दूरदर्शन की टीम लगवाई....।
दरअसल, आम चुनावों में भाजपा को मिली निर्णायक जीत के बाद चीज़ें तेज़ी से बदली हैं, बदल रही हैं। वैसे केएस सुदर्शन के बाद 2009 में मोहन भागवत के संघ प्रमुख बनने के बाद से ही चीज़ें बदलनी शुरू हो गई थीं, जो अब लगातार तेज़ होती जा रही हैं। दूसरी पीढ़ी के पहले संघ प्रमुख भागवत इस मायने में अपने पूर्ववर्तियों से बिल्कुल अलग हैं कि वे अब सक्रिय राजनीतिक भूमिका निभा रहे हैं। संघ 2009 में जिस काम को 'सूक्ष्म प्रबंधन' कहता था, उसकी सूक्ष्मता अब गायब हो चुकी है और इसको स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। संगठन का असर भाजपा पर बढ़ता जा रहा है। भागवत के आने के बाद संघ का भाजपा पर नियंत्रण ज्यादा कड़ा हो गया। स्वाभाविक है कि पहली बार संघ की राजनीतिक ईकाई भाजपा को अपने बूते केंद्र में सरकार बनाने का बहुमत प्राप्त है। इससे संघ में एक आश्वस्ति का भाव भी है, तो दूसरी तरफ इस जीत को यूं ही न गंवा देने की बेचैनी भी। तभी भाजपा पर उसका नियंत्रण और सख्त हो गया है। पिछले सालों में संघ का पूरा ध्यान यदि मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने पर था, तो इन दिनों वह बहुत सावधानी से दूसरे कामों पर ध्यान दे रहा है। दिल्ली में केशव कुंज स्थित संघ के स्थानीय मुख्यालय में मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ संघ पदाधिकारी कहते हैं, 'जनता ने जो भारी जनादेश दिया है, उसे संगठनात्मक कमजोरी के चलते गंवाया नहीं जा सकता है। संघ को पता है कि रोज़-रोज़ की राजनीतिक ज़रूरतें कई बार क्षणिक समझौतों की ओर ले जाती हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे संदेश की मूल भावना नष्ट न होने पाए।'
बदलाव की व्यापकता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अब संघ के स्वयंसेवक चुनावी राजनीति में भी बड़े पैमाने पर हिस्सा ले रहे हैं। भाजपा प्रत्याशी के मददगार के तौर पर नहीं, बल्कि स्वयं उम्मीदवार बन कर। चाहे वे बड़े चुनाव हों या फिर स्थानीय निकाय के चुनाव। पार्टी संगठन में भी उनकी तादाद इन दिनों काफी बढ़ गई है। कई राज्यों का प्रभार उनके पास है, तो सूबों में सत्ता की कमान भी। खट्टर, फडणवीस, रघुवर जैसे चेहरे यूं ही सामने नहीं आ गये। दरअसल, संघ की सक्रियता भाजपा के चाल, चरित्र और चेहरे को नये सिरे से व्याख्यायित कर रही है। संघ अब केंद्रीय और सूबाई स्तर पर भी भाजपा में ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को भेज रहा है, ताकि राजनीति पर उसकी पकड़ भी मजबूत हो और उसके 'मिशन' को भी मजबूती मिले।
वैसे बदलावों की अलग-अलग व्याख्या भी है। संघ के एक अंदरूनी सूत्र का कहना है कि 'इस जनादेश ने ही संघ को चिंता में डाला है। हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित संगठनों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई एक व्यक्ति संघ परिवार पर इतना निर्णायक प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंचा हो, जितना कि मोदी पहुंचे हैं। इससे संघ के कुछ धड़ों में आशंकाएं पैदा हुई हैं। मोदी-अमित शाह के बीच के समीकरणों से ये और भी गहरा गई हैं। लिहाजा, संघ और भाजपा के बीच इस कदर का दबाव पहली बार देखा जा रहा है।'

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