'मोहर्रम' का इस्लाम धर्म में बहुत महत्व है।
सन् 680 में इसी माह में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द साहब के नाती और यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या) के बीच हुआ। इस धर्म युद्ध में जीत हजरत साहब की हुई। लेकिन जाहिरी तौर पर यजीद के कमांडर ने हज़रत इमाम हुसैन और उनके सभी 72 साथियो (परिवार वालो) को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने का पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे।
इसलिए तभी से तमाम दुनिया के मुसलमान इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उन्हें याद करते हैं।
जयपुर।जगजाहिर विशेष देश में आज मातम का पर्व मुहर्रम मनाया जा रहा है। मुहर्रम की 10 तारीख यानी आज के दिन ताजिये निकाले जाते हैं। एक महीने तक ताजियों को बनाया जाता है,सजाया जाता है और आज के दिन उन्हें कर्बला पहुंचकर दफना दिया जाता है। मुहर्रम का सबसे अहम दिन रोज-ए-आशूरा है। मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशूरा कहते हैं। जब बात मुहर्रम की होती है तो सबसे पहले जिक्र कर्बला का किया जाता है। आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को शहीद कर दिया गया था। इसलिए कहा जाता है इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद। मातम का यह पर्व मुख्यतया शिया समुदाय का है। वहीं सुन्नी मुस्लिम नमाज और रोजे के साथ इस महीने को मनाते हैं। जबकि कुछ सुन्नी समुदाय के लोग मजलिस और ताजियादारी भी करते हैं। हालांकि सुन्नी समुदाय में देवबंदी फिरके के लोग ताजियादारी के खिलाफ हैं।
इस्लाम की जहां से शुरुआत हुई, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया के इंतकाल के बाद शाही वारिस के रूप में उनके बेटे यजीद को शाही गद्दी पर बैठने का मौका मिला। लोगों के दिलों में बादशाह यजीद का बहुत खौफ था। यजीद के नाम सुनते ही लोग कांप उठते थे।
पैगंबर मोहम्मद के वफात के बाद यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था। जिसके लिए यजीद ने इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफे के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वह राज कर सकेगा।
पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को ये बिल्कुल मंजूर नहीं था। यजीद को हुसैन का इंकार सहन नहीं हुआ और वह हुसैन को खत्म करने की साजिश करने लगा। यजीद की बात न मानने के साथ ही हुसैन ने अपने नाना पैगंबर मोहम्मद का शहर मदीना छोड़ने का भी फैसला किया। मुहर्रम की दूसरी तारीख को जब हुसैन कर्बला पहुंचे , उस समय उनके साथ एक छोटा सा लश्कर था, जिसमें औरतों से लेकर छोटे बच्चों तक कुल मिलाकर 72 लोग शामिल थे। इसी दौरान कर्बला के पास यजीद ने उनके काफिले को घेर लिया और खुद को खलीफा मानने के लिए उन पर दबाव बनाया, लेकिन इमाम हुसैन ने साफ इंकार कर दिया।
हुसैन के कर्बला पहुंचने के बाद मुहर्रम की 7 तारीख को इमाम हुसैने के पास खाने पीने की जितनी भी चीजें थीं वे सभी खत्म हो चुकीं थीं, ये देखकर यजीद ने हुसैन के लश्कर का पानी भी बंद कर दिया था। मुहर्रम की 7 तारीख से 10 तारीख तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के लोग भूखे प्यास रहे। लेकिन इमाम हुसैन सब्र से काम लेते रहे और जंग को टालते रहे। इन्ही दिनों में इमाम हुसैन ने अपने काफिले में मौजूद लोगों को वहां से चले जाने के लिए कहा, लेकिन कोई भी हुसैन को छोड़कर नहीं गया। मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया।
यजीद के पास हथियार, खंजर, तलवारें थीं। जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे। इसी जंग के दौरान मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों का बड़ी बेरहमी के साथ शहीद कर दिया। उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद हो गए थे।
यही वजह है कि मुहर्रम की 10 तारीख सबसे अहम होती है, जिसे रोज-ए-आशुरा कहते हैं.
हुसैन को शहीद करने के बाद यजीद ने अहले बैत समर्थकों के घरों में आग लगा दी। इसके बाद काफिले में मौजूद लोगों के घरवालों को अपना कैदी बना लिया था। कर्बला में इस्लाम के हित में जंग करते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को शहीद हुए थे। हुसैन की उसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से दुख जाहिर करते हैं। शिया लोग अपना दुख जाहिर करने के लिए मातम करते हैं, मजलिस पढ़ते हैं।
मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही सभी शिया समुदाय गम में डूब जाता है। शिया महिलाएं और लड़कियां चांद निकलने के साथ ही अपने हाथों की चूड़ियों को तोड़ देती हैं। इतना ही नहीं वे सभी श्रृंगार की चीजों से भी पूरे 2 महीने 8 दिन के लिए दूरी बना लेती हैं। इस अवधि में शिया समुदाय के लोग लाल सुर्ख और चमक वाले कपड़े नहीं पहनते। ज्यादातर काले रंग के ही कपड़े पहनते हैं। मुहर्रम के पूरे महीने शिया मुस्लिम किसी तरह की कोई खुशी नहीं मनाते हैं और न उनके घरों में 2 महीने 8 दिन तक कोई शादियां होती हैं। वे न किसी अन्य की शादी या फिर खुशी में भी शामिल नहीं होते।

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