रविवार, 24 सितंबर 2017

मीडिया कंट्रोल में, फिर भी हल्ला

समझ सचमुच नहीं आ रहा है कि जब अखबार, टीवी चैनल सब पर नरेंद्र मोदी, अमित शाह का कब्जा है तो कैसे यह शोर बना कि आर्थिकी डुब रही है!  डा सुब्रहमण्यम स्वामी के इंटरव्यू को भी जब दबवा, कील करा दिया। दक्षिणपंथी समर्थक अर्थशास्त्रियों के कमेंट जब दब गए तो यह शोर कैसे है कि देश दिवालिया हो रहा है! आर्थिकी क्रेस हो रही है। पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान पर है। महंगाई बढ़ रही है। हिसाब से महंगाई ज्यादा नहीं है। साढ़े तीन प्रतिशत भला क्या महंगाई होती है? फिर जब लोगों को खरीदना ही नहीं है, लोगों के पास पैसा  ही नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है कि टमाटर महंगा बिक रहा है या रेस्टोरेंट में खाना महंगा है! जब बाजार में ग्राहक ही नहीं है तो सस्ते-महंगे का क्या मतलब है?

ऐसे ही पेट्रोल-डीजल का मामला है। उन्हंे तो साढ़े तीन साल से नरेंद्र मोदी सरकार ने बढ़ाया हुआ है तो नई बात क्या है कि वह 70 रू लीटर बिके या 80 रू! पहले तो हल्ला नहीं था अब क्यों है? ऐसे ही जीडीपी बढ़े या घटे, आम आदमी का उससे क्या लेना-देना? चौथी बात यदि जीएसटी से व्यापारी, कारोबारी की कमर टूट रही है तो टूटे वह पहले भी भाजपा, नरेंद्र मोदी समर्थक थे और 2019 में भी नरेंद्र मोदी को वोट देंगे तो उसकी चिंता क्यों होनी चाहिए? जब नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री अरुण जेटली उनकी चिंता नहीं कर रहे है उन्हे अपना बंधुआ वोट बैंक माने हुए है तो राष्ट्रव्यापी शोर क्यों?

सबसे बड़ी बात है कि जब अखबारों में, राष्ट्रीय-प्रादेशिक टीवी चैनलों में आर्थिकी के बिगड़ने की चर्चा लगभग नहीं है। प्राइम टाइम पर पूरी तरह देश दाढी बढ़ाए मुल्लाओं बनाम राष्ट्रवादी हिंदूओं की चखचख सुन रहा है तो आर्थिक दशा-दिशा की फील क्यों बननी चाहिए?

क्या यह सब होना पहेली नहीं है? इस पहेली को बारीकि, गहराई से समझने में गुजरात के विकास गांडो थायों छे का शोर भी केस स्टेडी बनता है! आखिर कैसे यह हुआ कि गुजराती अस्मिता, गुजरात के विकास पुरुष के रूप में 12 साल तक घर-घर जिन नरेंद्र मोदी को पूजा जाता रहा वहा यदि आज विकास गांडो थायों छे का मजाक बना है तो यह हुआ कैसे? बता दू कि गुजराती के अखबार, टीवी चैनल भी नरेंद्र मोदी की रोजाना सुबह-शाम आरती उतारते हैं। मीडिया वहा भी डरा और लेटा हुआ है।

फिर एक और भारी तथ्य कि सोशल मीडिया पर भी भाजपा, नरेंद्र मोदी का पूरा कब्जा है। भक्त सोशल मीडिया लंगूरों की लाखों की जब तादाद है, ठेके के साथ सिस्टम से काम होता है तो यह हल्ला होना ही नहीं चाहिए तो कि विकास गांडो थायों छे?

इसलिए मुझे अपने आप पर शक होता है कि मैं जो शोर सुन रहा है वह हकीकत में है या मैंने चश्मा उलटा लगा लिया है। इसलिए शोर नहीं है फिर भी शोर बूझ रहा हूं।

बहरहाल यदि शोर है तो क्यों?  मैं मोदी सरकार, नरेंद्र मोदी के भक्त अर्थशास्त्रियों की थीसिस याकि गुरूमूर्ति से ले कर सुरजीत भल्ला की मनोदशा, दलील का आपको यह निचोड़ बता देता हूं कि संकट अधिक से अधिक 6-8 महीनों का है। महंगाई की बात फालतू है। जो फैसले हुए है वे आर्थिक सुधार के क्रांतिकारी फैसले है। यदि अब पीछे हटे तो न इधर के रहेंगे और न उधर के। नरेंद्र मोदी को अपने को दृढ निश्चयी बता एक बार के लिए आर्थिकी की अग्निपरीक्षा हो जाने देना है। उस परीक्षा से फिर भारत सत्यवादी सोने की चीड़िया की तरह निखरा मिलेगा।

तर्क के नाते इस थीसिस पर फिर अपना सवाल है कि तब नरेंद्र मोदी-अमित शाह खम ठोंक, उसी जोश से पहले की तरह भाषण क्यों नहीं दे रहे है? क्यों सफाई वाले ऐसे भाषण देने लगे है कि गर्वनेश चुनाव जीतने के लिए नहीं देश के लिए होती है! क्यों नहीं सोशल मीडिया की टीम से यह आक्रामकता दिखलवा रहे है कि फील अच्छी है। क्यों नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली ने इस सप्ताह यह मैसेज दिया कि हां, आर्थिकी में गडबड़ी है और पैकेज, स्टीमलस ला रहे है। क्या यह विरोधियों के असर में आना, जनता की खराब फील को बढ़ाने, आर्थिकी के पटरी से उतरने, बिगड़ने की स्वीकारोक्ति नहीं है?

जो हो, निष्कर्ष दो है। मीडिया को मोदी-शाह कितना ही कंट्रोल में करें, कैसे भी उसे खत्म करें, सवा सौ करोड़ लोगों की फील नियंत्रित नहीं हो सकती। दूसरे नरेंद्र मोदी, अरुण जेटली, धर्मेंद्र प्रधान, पीयूष गोयल आदि ने खुद यह मैसेज बनवाया है कि आर्थिकी संभल नहीं रही। आर्थिकी सकंट में है, जनता नाराज है इसलिए अब पैकेज, प्रोत्साहक भी लाएंगे तो पेट्रोल-डीजल को जीएसटी में ला कर उसे चुनाव से ऐन पहले सस्ता भी बनवाएंगे।

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