रविवार, 24 सितंबर 2017

अंत्योदय ही से होगी देश की तरक्की

एकात्म मानववाद के प्रणोता और भारतीय जनसंघ के अग्रणी नेता दीन दयाल उपाध्याय की जन्म शताब्दी (25 सितंबर 2016 से 25 सितंबर 2017) के अवसर को सरकार गरीब कल्याण वर्ष के रूप में मना रही है। दुनिया के तमाम विद्वानों ने समाज के राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के लिए अलग-अलग वैचारिक दर्शन प्रतिपादित किए हैं। हरेक विचारधारा समाज के राजनीतिक और आर्थिक उन्नति के मूल सूत्र के रूप में खुद को प्रस्तुत करती है। चाहे पूंजीवाद हो अथवा साम्यवाद एवं समाजवाद हो, प्रत्येक विचारधारा समाज की समस्याओं का समाधान देने के दावे के साथ सामने आते हैं। हालांकि किस विचारधारा को अपनाने किसी समस्या के समाधान को कितना प्राप्त किया गया है, यह एक उलझा हुआ अनुत्तरित प्रश्न है। 1पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद जैसे वैचारिक सिद्धांत भारत में भी बहस और प्रयोग का हिस्सा बने, जो पूर्णतया अभारतीय एवं आयातित कहे जा सकते हैं। स्वतंत्रता के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समाजवाद के आकर्षण से निकल ही नहीं पाए और देश लंबे कालखंड तक समाजवाद की आर्थिक नीतियों के अनुरूप चलता रहा। उसका प्रभाव अब भी देश की राजनीतिक व्यवस्था में कायम है। जब नेहरू आयातित विचारधाराओं के सहारे देश की दशा-दिशा तय कर रहे थे, तब भारतीय जनसंघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय उन नीतियों का न सिर्फ विरोध कर रहे थे बल्कि भारत और उसके अनुकूल वैचारिक दर्शन की पृष्ठभूमि भी तैयार कर रहे थे।
समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद को मानव कल्याण का संपूर्ण सूत्र नहीं मानते थे। उनके अनुसार यह भारतीय विचार नहीं होने की वजह से देश की समस्याओं से निपटने और समाधान देने में अक्षम हैं। उन्होंने इसके बरक्स एकात्म मानववाद का ऐसा वैचारिक आदर्श सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसमें मानव को संपूर्णता में एक इकाई मानकर उसकी सभी जरूरतों को समझने एवं उनकी संतुलित आपूर्ति करने का सूत्र प्रस्तुत किया गया है। इस वैचारिक दर्शन का आधार उद्देश्य ‘अंत्योदय’ की अवधारणा पर टिका है। एकात्म मानववाद के रूप में दीन दयाल उपाध्याय ने भारत की तत्कालीन राजनीति और समाज को उस दिशा में मोड़ने की सलाह दी है, जो सौ फीसद भारतीय है। एकात्म मानववाद के इस वैचारिक दर्शन का प्रतिपादन दीन दयाल उपाध्याय ने मुंबई में 22 से 25 अप्रैल 1965 में चार अध्यायों में दिए गए भाषण में किया। इसमें उन्होंने एक मानव के संपूर्ण सृष्टि से संबध पर व्यापक दृष्टिकोण रखने का काम किया था। वे मानव को विभाजित करके देखने के पक्षधर नहीं थे। वे मानवमात्र का हर उस दृष्टि से मूल्यांकन करने की बात करते हैं, जो उसके सम्पूर्ण जीवन काल में छोटी अथवा बड़ी जरूरत के रूप में संबंध रखता है।
दुनिया के इतिहास में सिर्फ ‘मानव-मात्र’ के लिए समग्रता में अगर किसी एक विचार दर्शन ने चिंतन प्रस्तुत किया है तो वह एकात्म मानववाद का दर्शन है। चाहे राजनीति का प्रश्न हो, चाहे अर्थव्यवस्था का प्रश्न हो अथवा समाज की विविध जरूरतों का प्रश्न हो उन्होंने मानवमात्र से जुड़े लगभग प्रत्येक प्रश्न की समाधानयुक्त विवेचना अपने वैचारिक लेखों में किया है। भारतीय अर्थनीति कैसी हो, इसका ढांचा क्या हो इन सभी विषयों को दीन दयाल उपाध्याय ने ‘भारतीय अर्थनीति विकास की दिशा’ में रखा है। शासन का उद्देश्य अंत्योदय की परिकल्पना के अनुरूप होना चाहिए, इसको लेकर भी उनका रुख स्पष्ट है। समाजवादी नीतियों से प्रेरित तत्कालीन सरकारों ने व्यापार जैसे काम को भी अपने हाथ में ले लिया जो कि राज्य के लिए बेहद घातक साबित हो रहा है। दीन दयाल उपाध्याय इसके खिलाफ थे। उनका स्पष्ट मानना था कि शासन को व्यापार नहीं करना चाहिए और व्यापारी के हाथ में शासन नहीं आना चाहिए, लेकिन तत्कालीन सरकारों द्वारा इसके प्रतिकूल काम किया गया।
आज दशकों बाद हमारी व्यवस्था समाजवादी नीतियों के चक्रव्यूह में ऐसे उलझ चुकी है कि उसमें से इसे निकालना अथवा ऐसा करने की सोचना भी बेहद कठिन नजर आता है। सरकार आश्रित प्रजा तैयार करने की समाजवादी नीति ने इन सत्तर वर्षो में हमें इतना पंगु बना दिया है कि हम स्वच्छता के लिए भी प्रधानमंत्री की अपील पर आश्रित हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब स्वच्छता की बात करते हैं तो दरअसल वह इस देश की सात दशक में तैयार समाजवादी नीतियों की व्यवस्था पर एक प्रश्न खड़ा करते हैं। अब क्या समाज के सदस्य के रूप में हम स्वच्छता के लिए भी सरकार पर निर्भर रहेंगे?1दीन दयाल उपाध्याय का मानना था कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक शासन की नीतियों का लाभ पारदर्शी ढंग से पहुंचे और प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो। आज जब उनके विचार दर्शन को अपनी वैचारिक संपत्ति मानने वाली भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सहित 17 प्रदेशों में सरकारें हैं तो अंत्योदय की अवधारणा का शासन की नीतियों में परिलक्षित होना अपेक्षित हो जाता है।
दीन दयाल जन्म शताब्दी वर्ष को गरीब कल्याण वर्ष के रूप में मनाते हुए सरकार की कुछ योजनाओं में अंत्योदय की प्रेरणा स्पष्ट दिखती है। मसलन, उज्‍जवला एवं उजाला योजना को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। बेशक घर में रसोई गैस और बिजली की पहुंच, शहरी परिवेश के लिए कोई बड़ी बात नहीं हो, लेकिन उस समाज के लिए किसी वरदान से कम नहीं है जिनको यह सुविधाएं पिछले सात दशकों में मयस्सर नहीं हो पाई थीं। राजनितिक शुचिता एवं कोष व्यवस्था को लेकर दीन दयाल उपाध्याय ने पारदर्शी तंत्र का आग्रह किया था। आज सरकार ने राजनीतिक दलों के चंदे को नकदी में 2000 रुपये की सीमा में बांध कर एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। दीन दयाल उपाध्याय के विचारों के प्रति आग्रह रखते हुए आयातित विचारधाराओं के तंत्र से निकलकर अंत्योदय के लक्ष्य और एकात्म मानववाद के वैचारिक सिद्धांत को आत्मसात करके ही भारतीयता के मूल स्वरूप में मानव कल्याण के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं) 

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