मध्य प्रदेश के वित्त मंत्री जयंत मलैया ने पिछले दिनों कहा कि राज्य के कुल राजस्व का एक तिहाई हिस्सा सिर्फ पेट्रोल और डीजल से आता है, ऐसे में इन पर लगाए गए शुल्क में कटौती नहीं की जाएगी। लेकिन मध्य प्रदेश अकेला राज्य नहीं है, जहां पेट्रोल-डीजल पर ज्यादा शुल्क लगा कर खजाने भरे जा रहे हैं, बल्कि देश के अन्य सभी सूबों की यही स्थिति है।हालात यह है कि अब भी दो दर्जन सूबों में पेट्रोल पर 25 से 48 फीसद तक स्थानीय शुल्क लगाया जा रहा है। तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों की तरफ से डीजल पर 16 फीसद से ज्यादा का टैक्स लिया जाता है। यह एक वजह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल (क्रूड) की कीमतों के पिछले तीन वर्षो के दौरान आधे से भी कम रह जाने के बावजूद अगर आम जनता के लिए पेट्रोल और डीजल सस्ते नहीं हुए हैं।
दरअसल, पेट्रोल उत्पादों पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाने की न तो केंद्र की आदत गई है और न ही राज्यों की। इसकी वजह यह है कि अधिकांश राज्यों के कुल राजस्व में पेट्रोल व डीजल पर बिक्री कर या वैट लगा कर वसूले गए राजस्व का हिस्सा 30 से 40 फीसद के करीब है। पूरे देश में इन पर सबसे ज्यादा कर महाराष्ट्र में (47.64 फीसद) लगाया जाता है। रिजर्व बैंक के डाटा के मुताबिक वर्ष 2015-16 में बिक्री कर व वैट से इस राज्य का कुल राजस्व संग्रह 69,725.2 करोड़ रुपये का था। इसमें 23,160 करोड़ रुपये (33.21 फीसद) सिर्फ पेट्रोल व डीजल से वसूला गया था। इसी वर्ष बिहार का बिक्री कर (वैट) संग्रह 10,115.64 करोड़ रुपये का था। इसका 35.96 फीसद (3,638 करोड़ रुपये) पेट्रोल व डीजल पर लगाए गए शुल्कों से आया था।
उत्तर प्रदेश में वैट से कुल राजस्व (45,883.9 करोड़ रुपये) का 30.89 फीसद इन्हीं दो उत्पादों से था। तकरीबन हर राज्य का यही हाल है। कमाई का दूसरा तरीका नहीं खोज पाने की वजह से राज्य इन दोनों उत्पादों पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाते हैं। नतीजा यह है कि पिछले सवा तीन वर्षो में सभी राज्यों ने संयुक्त तौर पर उक्त दोनो उत्पादों से 4,89,987 करोड़ रुपये की राजस्व वसूली की है। केंद्र सरकार ने भी विगत तीन वर्षो में उत्पाद शुल्क की 3.50 रुपये की स्थायी दर को बढ़ाकर 17.33 रुपये प्रति लीटर कर दिया है। केंद्र ने इस अवधि में 13,90,084 करोड़ रुपये का राजस्व संग्रह सिर्फ पेट्रोल और डीजल से किया है। हालांकि इसमें से 42 फीसद हिस्सा राज्यों को जाता है।
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