यदि हम सचमुच हिंदू हंै, सच्चे हिंदू है और सनातनी हिंदू की लौ, बात्ती का बल लिए हंै तो चिंता होनी चाहिए कि हम उन चेहरों से कैसे मुक्ति पाएं जिनसे बार-बार शर्मसार होते है और दुनिया के सर्वाधिक अंधविश्वासी, मूर्ख भक्त प्रमाणित होते है। हम यदि सर्वोच्च धर्म होने का गुमान रखते हैं तो उसमें यह तो सोचना होगा कि कैसे जिंदा भगवानों से मुक्ति पाएं। हममें जब यह कठमुल्लाई जड़ता नहीं है कि भगवान एक है, एक किताब है और वही धर्म है तो फिर जिंदा भगवान भला कैसे स्वीकार कर ले रहे हंै? हम तो वे सनातनी हिंदू हंै जिसमें भगवान से भी शास्त्रार्थ है। आस्थावान की आस्था भी तर्क, शास्त्रार्थ, प्रकृति की लीला, अग्नि, वायु, जल आदि के उन तत्वों को समेटे हुए हैं जिसके अनंत ब्रहाण्ड में आज का वैज्ञानिक भी खोया हुआ है। सो ऐसे हिंदू धर्म में गुरमित रामरहीम, आसाराम, राधे मां, रामपाल, निर्मलजीत सिंह आदि को बाबा मान कर पूजना भला क्या अर्थ लिए हुए है?
इस सवाल पर आप जितना सोचेंगे बिना पैंदे की गहराई में डुबते जाएंगे। पहली बात तो यह कि जो खूबी है उसे ही हमने श्राप बना लिया है। हम एक धर्मग्रंथ, एक ईश्वर-पैंगबर की धर्मसत्ता नहीं मानते हंै तो उससे हम ऐसे अराजक हुए पड़े हंै कि ओर-छोर भटका हुआ है। हिंदू क्योंकि आदिधर्म है और संगठित धर्म का एकांगीपन, एक सत्ता में जकड़ा नहीं है तो उसे नियंत्रित करने वाली एक धर्म सत्ता भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि जिस नैसर्गिक व्यवस्था में, जीवन जीने की सहज गृहस्थ धर्म में परंपरा, आचरण, मर्यादा, जीवन व्यवहार, जीवन शैली का जो अंदाज था उसे चौदह सौ साल के विदेशी धर्म ने ऐसे और इतना छिन्न-भिन्न किया कि आस्था के बत्तीसों करोड़ देवी-देवता बना बैठे। तलवार के आगे हम भक्ति में डुबे। मठो, बाबाओं, अखाड़ों, साधू-संतों का झंझाल बनता गया। हर व्यक्ति, हर परिवार अपनी आस्था की मूर्ति को देवालय में बैठा चमत्कार की इस उम्मीद में जीने लगा कि इससे भला होगा। इस पीर, बाबा की शरण से तलवार, बीमारी, भूख से बचेंगे। लालशाएं पूरी होंगी।
कोई माने या न माने अपनी थीसिस है कि तीर्थंकर, बुद्वम शरणम गच्छामी तक हिंदू कुल मिला कर उस सनातनी संस्कार, प्रकृति की लीला की पहेलियों में यह सोचते हुए जीता रहा कि इस सृष्टि और उसमें होने का क्या अर्थ है? वहां तक सब धर्म व्यवस्था, शास्त्रार्थ, तपस्या, हठयोग, राजा-प्रजा, अवतारों के उन लक्षणों में धर्म आचरण निज- समाज के सामूहिकथा मंथन में ढला हुआ था। पर बुद्म शरणम् गच्छामी के बाद से एक ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि या तो शरण में आओँ तो मुक्ती है या हमें अपनाओं तो जीवनदान है।
मैं बुरी तरह भटक गया हूं। एक छोटी बेसिक बात से न जाने कहां चला गया। सो फिलहाल लौटा जाए आज की मूल बात पर कि 21 वीं सदी के हम हिंदू यदि आज बाबा राम रहीम से शर्मसार हंै तो जिम्मेवार तो हम खुद ही हैं। 21 वीं सदी में भी हिंदू क्यों इतना अविवेकी, अंधविश्वासी है जो राम रहीम को बाबा, भगवान मान बैठा? ऐसे बाबा-साधू-भगवान हैं तो धर्म के कथित संगठन, मठाधिपति क्या कर रहे है?
आज साधूओं की अखाड़ा परिषद् की एक खबर देखने को मिली। इसने 14 फर्जी साधूओं की लिस्ट जारी कर कहा कि इनसे जनता सावधान रहे और हम यह लिस्ट सरकार को दे रहे हैं और वह इनके खिलाफ कार्रवाई करे।
क्या यह पर्याप्त है? दूसरे, सरकार कार्रवाई क्यों करे? वह तो कानून-व्यवस्था के अनुसार जो करना है करेगी। मूल मसला तो धर्म आस्था के दोहन का है। कैसे धर्म ने, साधू-संतों ने, अखाड़ा परिषद् या शंकराचार्यों ने धर्म आस्था में ये नए भगवान पैदा होने दिए? क्या सरकार से अब यह काम भी करवाना है कि कौन साधू-बाबा वैधानिक है और कौन नहीं? क्या वह साधूओं का भंडाफोड़ करे कि कौन असली है और कौन फर्जी?
अखाड़ा परिषद् ने उन 14 बाबा, साधू-संतों की ब्लैक लिस्ट बनाई है जो पहले से ही बदनाम है या जो जेल में हंै। मजेदार बात है कि अखाड़ा परिषद् के ही एक जूना अखाड़े ने राधे मां को महामंडलेश्वर की पदवी दी। परिषद् ने गुरमित, आसाराम, नारायण साई, राधे मां, निर्मल बाबा, खुशी महाराज, सचिदानंद गिरी, ओमबाबा, इच्छाधारी भीमानंद, रामपाल, स्वामी असीमानंद, ओमनमो शिवाय बाबा, वृहस्पति गिरी, मलखना गिरी की जो ब्लैकलिस्ट बनाई है उसमें कई अपना अभिनंदन इसके अखाड़ों से करा चुके हैं। मगर अब जब ये पकड़े गए तो जनता से कह रहे हंै कि सावधान रहो!
जाहिर है अखाड़ा परिषद् व हिंदू धर्माचार्य अपने बाबा, साधू-संतों के किस्सों की बदनामी से हैरान-परेशान और सदमें में हंै। बावजूद इसके साधू-संत-धर्माचार्य अपनी प्रतिष्ठा की चिंता में सोचने-समझने और विवेक का इतना भी बुद्दीबल नहीं दिखला पा रहे हैं कि वक्त है जो कुछ ऐसी व्यवस्था हो जिसमें आस्था के साथ खेल, फर्जीवाड़ा किसी प्रक्रियागत धर्म व्यवस्था से रूके। अपना सवाल है कि क्या इस मसले पर हिंदू आस्था के कथित धर्माचार्यों, हिंदू संगठनों ( शंकराचार्यों से ले कर विश्व हिंदू परिषद्, भारत साधू समाज, आरएसएस आदि) को सामूहिक तौर पर विचार करते हुए कोई प्रक्रिया, तरीका नहीं निकालना चाहिए जिससे आस्था का दुरूपयोग रूके। अपना मानना है कि यह काम मुश्किल नहीं है।। कांची, पुरी, द्वारका के शंकराचार्यों सहित सदाचारी, ज्ञानी-ध्यानी धर्माचार्यों को बैठ कर मार्गदर्शिका बनानी चाहिए कि साधू बनना, बाबा बनना बिना तपस्या के, ज्ञान-ध्यान की साधना के संभव नहीं है और वे बाबा, बाबा नहीं माने जा सकते हंै जो धर्म को धंधा बनाए और अपने को भगवान कहलाएं। ध्यान रखा जाए यह तथ्य कि आदि शंकाराचर्य ने ही अराजकता में व्यवस्था बनाने, बिखराव के सांस्कृतिक के बीच एकता के लिए व्यवस्थाएं बनवाई थी। उसी में अखाड़ा परिषद् भी बनी थी।
तो अब क्यों नहीं शंकराचार्यों को पहल करनी चाहिए? ( गनीमत है कि इन सनातनी शंकराचार्यों ने अपने को भगवान, कैंसर जैसे रोगों के डाक्टर से ले कर स्वदेशी में धंधे जैसे काम नहीं किए। कल्ट, राजनीति, बिजनेस से अपने को बचाए रखा) हिंदू धर्माचार्यों और खास कर शंकाराचार्यों को पहल कुछ करनी चाहिए। इस पुण्य काम में यदि भाजपा, मोदी सरकार भी टेका दे तो हिंदू समाज का निश्चित बहुत भला होगा। मगर दुकानदार बाबाओं से बचते हुए। अन्यथा जो भी होगा वह राजनैतिक रंग लिए होगा जबकि आधुनिक हिंदू को एक साफ –सुथरे बिना विवाद की धर्म आस्था व्यवस्था चाहिए।
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