किसी भी देश में आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी पुलिस पर होती है। इसलिए किसी भी सरकार की आंतरिक सुरक्षा के प्रति गंभीरता का पैमाना यह सकता है कि उसका पुलिस व्यवस्था को दुरुस्त करने के प्रति क्या नजरिया है। अतीत में सचमुच तत्कालीन सरकारों ने पुलिस व्यवस्था की घोर उपेक्षा की। पुलिस राजनीतिक आकाओं के हित साधती रहे, उन्हें बस इतनी चिंता रही। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वर्तमान सरकार का रिकॉर्ड भी इस मामले में बेहतर नहीं है। पिछले तीन साल में ना तो पुलिसकर्मियों की संख्या को अपेक्षित स्तर तक लाने की पहल हुई है, ना वीआईपी कल्चर खत्म करने की और ना ही पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने की। भारत में वीआईपी संस्कृति किस तरह कायम है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि औसतन हर वीआईपी की सुरक्षा में तीन पुलिसकर्मी तैनात हैं, जबकि औसतन 663 आम नागरिकों पर सिर्फ एक पुलिसकर्मी है। ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) के ताजा आंकड़ों के अनुसार इस वक्त देश में 19.26 लाख पुलिसकर्मी हैं। इनमें से 56,944 पुलिसकर्मी 20,828 विशिष्ट लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात हैं। देश के 29 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में प्रति वीआईपी के लिए तैनात पुलिसकर्मियों की औसत संख्या 2.73 है। जबकि आम जनता के लिए भारत आज भी विश्व का सबसे कम पुलिसकर्मियों वाला देश है। वीआईपी कल्चर पर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। समझा जाता है कि जान-माल के खतरे से अधिक अपने साथ एक पुलिसकर्मी को सुरक्षा में तैनात रखना खास लोगों के लिए स्टेटस सिंबल होता है।
एनडीए सरकार ने इस प्रवृति को खत्म करने के लिए कई एलान किए। लाल बत्ती प्रतिबंधित करना उनमें शामिल है। लेकिन इससे कोई व्यापक सुधार नहीं हुआ है। बीपीआरडी के अनुसार वीआईपी संस्कृति की जड़ें पूर्वी और उत्तर भारत में और ज्यादा गहरी हैं। बिहार का आम जनता के लिए पुलिसकर्मियों की नियुक्ति का अनुपात सबसे खराब है। बिहार में 3,200 वीआईपी की सुरक्षा के लिए 6,248 पुलिसकर्मी तैनात हैं। लेकिन बात सिर्फ संख्या की नहीं है। आम जन के लिए तैनात पुलिसकर्मियों को मिलने वाली सुविधाओं पर गौर करें, तो सूरत बदतर नजर आएगी। ऊपर से राजनीतिक मकसदों के लिए पुलिस के इस्तेमाल की प्रवृत्ति गुजरे दशकों में लगातार बढ़ती गई है। इसके बीच आंतरिक सुरक्षा के प्रति निष्ठाएं जताना जुमला के अलावा और क्या माना जा सकता है?
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