क्योंकि गोली झूठ है और कलम सत्य! गोली तानाशाही है और कलम लोकतंत्र! गोली मूर्खता है तो कलम समझदारी! गोली अंधविश्वास है और कलम हकीकत! गोली और गाली एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गाली व गोली रावण होना है तो कलम श्रीराम है, श्री गणेश है! बेंगलुरू में कलम उठाए, जिस गौरी लंकेश को गोलियां दाग कर मारा गया वे भले नास्तिक रही हों, राम और गणेश को न मानती हों मगर उनकी कलम बुद्धि के देवता गणेश के कर्म और धर्म को लिए ही थी। मैं हिंदूवादी हूं और वामपंथियों, नास्तिकों की तरह धर्म-अध्यात्म, सनातनी धर्म की महिमा को अमान्य नहीं करता तो यह मेरी बुद्धि, विचार का अपना निज प्रताप है। मगर उसके कारण मैं उसे कैसे कलम वाला नहीं मानूंगा जो बुद्धि के अपने अनुष्ठान से, तार्किकता में बेबाकी से अपनी बात कहे! उससे अपना एक विश्वास बनाए। आखिर हम इंसान हैं तो बुद्धि है, बुद्धि है तो कलम है और कलम है तो तर्क है, वितर्क है, ज्ञान है विज्ञान है। आस्तिकता है नास्तिकता है। सत्य है तो कटु सत्य भी है और इसी से फिर आगे बढ़ते जाना है।
और सोचें गोली से, गाली से क्या है? जो इंसान, जो विचार सत्य का सामना न कर सके क्या वह सत्यवादी हो सकता है? जो धर्म सत्य का सामना न कर सके वह क्या धर्म हो सकता है? जो राम अयोध्या के धोबी के सीता पर सवाल को नहीं सुन सकें वे क्या राम हो सकते हैं?
सोच सकते हैं मैं बात को कहां से कहां ले जा रहा हूं। पर गौरी लंकेश की हत्या ने दिमाग में कई तरह के विचार बनवाए। भला छोटा सा एक फर्रा साप्ताहिक अखबार। अखबार को उनके पिता पी लंकेश ने शुरू किया था। वे सत्यवादी और अंधविश्वासों के घोर विरोधी थे। साप्ताहिक अखबार उनका मिशन था। उस विरासत को उनकी बेटी गौरी लंकेश ने इस शिद्दत से संभाला कि न शादी की और न ही पत्रकारिता करते हुए कोई समझौते किए। वे अंधविश्वासों के खिलाफ लिखती रहीं। पिता की तरह वे भी धर्म-कर्म को नहीं मानती थीं। मतलब वामपंथी, सेकुलर थीं। हिंदुत्व, हिंदू कट्टरपंथियों और भाजपा के खिलाफ थीं। मंगलवार की शाम जब उनके विरोधियों ने उन्हे तीन गोलियां मारी तब वे 55 वर्ष की थीं। अपने घर अकेले रहती थीं और इसे मैं तो उनकी उपलब्धि मानूंगा कि उन्होंने अपनी कलम से, विचारों से उन्हें दुश्मन बनाया, जिनमें उनसे लड़ने की हिम्मत नहीं थी। जिन्होंने मारा वे सौ टका कायर व मूर्ख थे।
सोचें एक महिला पत्रकार-संपादक की कलम में भला ऐसा क्या था कि धर्म ध्वजा लिए अंधविश्वासियों ने उससे अपनी सत्ता, अपना दबदबा खतरे में पाया और गौरी लंकेश की हत्या की साजिश रची!
मैं इसे गौरी लंकेश का अहोभाग्य मानूंगा कि वे अपनी कलम लिए शहीद हुईं! सचमुच सोचें कि कलम, बुद्धि, सत्य की तपस्या में किसी का अमरत्व पाना कितनी बड़ी बात है। कुछ भी हो इंसान का मूल सनातनी द्वंद तो सत्य – असत्य पर ही है। उसमें जो अपने को कुर्बान करें तो वह बड़ी मौत या किसी नेता का मरना या सीमा पर सिपाही के मरने जैसी शहीदी बड़ी बात?
यह सोचने का एक पहलू है तो दूसरा विचारणीय मसला है कि कर्नाटक- महाराष्ट्र में यह क्या मामला है जो रेशनलिस्ट, तर्कवादी धर्म के आस्थावानों को इतना सुलगा देते हैं कि वे अपना विवेक भी खो बैठते है? हिसाब से हिंदू महासभा, आरएसएस, श्रीराम सेना जैसे संगठनों के जन्म क्षेत्र महाराष्ट्र-कर्नाटक में यह हिंदू चेतना होनी चाहिए कि हम बिना आधुनिक हुए सभ्यताओं के संर्घष में टिक नहीं सकते। अपना मानना था और है कि सावरकर, गोलवलकर न कर्मकांडी थे और न अंधविश्वासी। हिंदू की चिंता में दुबले हुए तमाम विचारक, संगठक अंधविश्वासों, कर्मकांड से ऊपर रहे। तब भला महाराष्ट्र और कर्नाटक में यह क्या बात है कि अंधविश्वास के खिलाफ जो विचारवान आव्हान करें उसे धर्म विरोधी माना जाए और गोलियों व गालियों से उन्हे मारने की सोची जाए? 2015 में कन्नड़ साहित्यकार एमएम कुलबर्गी, फरवरी 2015 में कोल्हापुर के गोविंद पानसरे, सन् 2013 में नरेंद्र दाभोलकर और अब गौरी लंकेश की हत्या का मामला यह सोचने को मजबूर करता है कि कर्नाटक में ऐसा कट्टरवाद भला कैसे?
बगल में तमिलनाडु है। वहां अंधविश्वास, धर्म के खिलाफ नायकर ने आंदोलन किया। हिंदुओं में नई चेतना फूंकी। ब्राह्मण विरोधी-धर्म विरोधी आंदोलन हुआ। बावजूद इसके वहां हिंसा की, प्रतिवाद की ऐसी कभी बात नहीं सुनी जैसी कर्नाटक में सुनते हैं। नायकर, अन्नादुरई, करुणानिधि, एमजीआर ने लोगों को धर्म विमुख किया और लोगों ने इन्हें सिर बैठा सत्ता दी बावजूद वहां न तो कभी उग्रता झलकी और न धर्म खत्म हुआ। यह धारणा रही है कि दक्षिण में कन्नड़ भाषी सहजवादी-सरल होते हैं। मगर कन्नड़ भाषा, कावेरी विवाद, आस्था- अनास्था और कट्टरवाद की कर्नाटक में जो उग्रता झलकी है उससे समाजशास्त्र का यह सवाल बनता है कि कन्नड़-मराठीभाषी समाज में कुछ ऐसी बारीक पेचीदगियां है जो अबूझ हैं।
यह सब उत्तर भारत के हम हिंदुओं के परिपेक्ष्य में भी अजूबा है। उत्तर भारत में बाबाओं ने, शंकाराचार्यों और प्रगतिशीलों ने हिंदुओं की आस्था, अंधविश्वासों पर दस तरह के हमले किए। कईयों ने नए अंधविश्वास बनाए। साईबाबा का या बाबा रामरहीम जैसों की जो महिमा बनी उस सबने कईयों को आहत किया। शंकराचार्य बोले या पढ़े-लिखों में जुगुप्सा पैदा हुई। मगर ऐसे शास्त्रार्थ में कभी यह घटना नहीं हुई कि गोली मार कर किसी आस्थावादी या अनास्थावादी को मारें।
वैसे यह फैसला करना मुश्किल है कि उत्तर भारत या दक्षिण भारत के हिंदुओं में कौन अधिक कर्मकांडी, टोटकों वाले हैं? मुझे उत्तर भारत के हिंदू अधिक कर्मकांडी, अंधविश्वासी समझ में आते हैं। उत्तर भारत की बनिस्पत विन्ध्यपार सद्गृहस्थ हिंदू की सनातनी धारा अधिक सहज और अच्छी है। बावजूद इसके वहां कट्टरता, मूर्खता की यह झलक भी है कि कोई आधुनिक बनने के लिए कहे तो उसे हिंदू विरोधी करार दिया जाए।
और जो ये पाप कर रहे हैं वे क्या बनाना चाह रहे हैं? ये मुसलमान का आधुनिकीकरण चाहते हैं, भारत को पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब जैसा न होने देने का आइडिया लिए हुए हैं मगर व्यवहार में गाली, गोली का उसी तरह उपयोग कर रहे है जैसे बगदादी ने किया, खुमैनी ने किया। सोचें सलमान रशदी, तस्लीमा के खिलाफ मुस्लिम कट्टरपंथी फतवा दे कर उनके सर कलम करने का आव्हान करें और हिंदू कट्टरपंथी गौरी लंकेश को गोली मार हत्या करें तो हिंदू अच्छे या मुसलमान?
सवाल है क्या हम हिंदू मौजूदा माहौल में भटके हुए हैं? माहौल ने क्या गाली देने और गोली मारने वाले भक्त पैदा किए हुए हैं? संभव है ऐसा हो। इसलिए कि हिंदू बनाम मुसलमान में क्रिया-प्रतिक्रिया का सिलसिला ऐसा बना हुआ है कि न सोचने-समझने का माहौल है और न विचार-विमर्श की स्थितियां हैं। सोशल मीडिया के हिंदू लंगूरों ने गालियों से ऐसा गजब ढहाया हुआ है कि विवेकशील हिंदू भी सोच बैठता है कि जो हो रहा है अच्छा हो रहा है। सत्तर साल से चले आ रहे ढर्रे को ऐसे ही बदला जा सकता है। मतलब इनकी राय में यह हिंदू पुनर्जागरण है जबकि हकीकत में अंधेरे में लौटना है और कलम, बुद्धि की जगह गाली, गोली को अपनाना है। सो, यह जरूर नोट करके रखें कि इससे कोई देश, कोई धर्म, कोई कौम बना नहीं करती।
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