भारतीय जनता पार्टी उत्तर व मध्य भारत के चार पांच राज्यों और गुजरात, कर्नाटक से निकल कर अखिल भारतीय पार्टी हो गई है। इस समय उसके सबसे ज्यादा सांसद और सबसे ज्यादा विधायक भी हैं। उसके पास ऐसा नेता है, जिसके बारे में नीतीश कुमार का मानना है कि उसके मुकाबले का कोई नेता देश में नहीं है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह की चौतरफा वाह हो रही है। भाजपा का अश्वमेध का घोड़ा जिधर से निकल रहा है, विरोधी पक्ष की सेना बिना लड़े समर्पण कर रही है। एकाध छोटे मोटे प्रतिरोध हुए तो उन्हें किसी न किसी तरह दबा दिया गया। साम, दाम, दंड और भेद में से चाहे जो भी उपाय आजमाया गया हो, लेकिन भाजपा का अश्वमेध का घोड़ा रोकने वाले नीतीश कुमार आज उसके साथ हैं और अरविंद केजरीवाल का प्रतिरोध भी मद्धिम पड़ गया है।
सो, कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी का चक्रवर्ती राज स्थापित हो गया है। भाजपा सारे चुनाव जीत रही है और जिन राज्यों में उसके कभी कदम भी नहीं पड़े थे, वहां उसकी सरकार बन रही है। अरुणाचल प्रदेश में तो भाजपा ने बिना चुनाव लड़े ही सरकार बना ली और गोवा व मणिपुर में हार कर भी सरकार बना ली। पर बड़ा सवाल यह है कि ये चक्रवर्ती राज कितना स्थायी है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि देश भर में मिल रही जीत नरेंद्र मोदी नाम की सुनामी के कारण हो और सुनामी का असर खत्म होने के बाद बरबादी भी वैसे ही दिखे, जैसी सुनामी के बाद दिखती है?
असल में भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि उसके नेता अपना परचम लहराने में इतने मगन हैं कि वे वास्तविकता से आंख मूंद रहे हैं। भारत में इतिहास रहा है कि जीत जितनी बड़ी होती है, वह उतनी जल्दी खत्म होती है। राजीव गांधी से लेकर वीपी सिंह और मनमोहन सिंह तक सब इसका शिकार हुए। अगर भाजपा बहुत पहले के इतिहास में न जाए और निकट अतीत का इतिहास देखे तो वहीं से उसके लिए बड़ा सबक मिल सकता है। उसे महज आठ साल पहले के इतिहास में जाना है। 2009 और उसके तीन साल बाद तक के घटनाक्रम को ध्यान से देखना होगा। उससे सबक लेना होगा और अपने चक्रवर्ती राज को टिकाऊ बनाने के लिए कुछ उपाय करने होंगे। सिर्फ प्रचार से काम नहीं होगा। ठोस काम के साथ साथ सैद्धांतिक-वैचारिक आधार मजबूत करना होगा, लोगों का भरोसा जीतना होगा। हिंदुत्व और राम राज की बात काफी नहीं होगी। यह याद रखना होगा कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने वाले वीपी सिंह अगला चुनाव हार गए थे जबकि इसी मंडलवादी राजनीति पर अनेक नेता फल फूल गए।
बहरहाल, जब 2009 के लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो भाजपा ने लौह पुरूष और हिंदुत्व के आईकॉन लालकृष्ण आडवाणी भाजपा और आरएसएस की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे। दूसरी ओर मनमोहन सिंह का चेहरा था, जिनके सारथी राहुल गांधी थे। वहीं मनमोहन सिंह, जिनको भाजपा नेता 10, जनपथ से चलने वाला रोबोट कहते थे और राहुल गांधी, जिनको आज भाजपा ने सोशल मीडिया में अपने प्रचार के दम पर पप्पू बना रखा है। लेकिन मनमोहन सिंह और राहुल गांधी ने फिर आडवाणी का रथ रोक दिया। उनकी कमान में भाजपा 138 सीट से घट कर 114 पर आ गई और कांग्रेस 145 से बढ़ कर 206 पहुंच गई। 2009 का वह चुनाव कांग्रेस के लिए वहीं क्षण था, जो 2014 नरेंद्र मोदी के लिए था।
जिस तरह 2014 के बाद मोदी की कमान में भाजपा का अश्वमेध का घोड़ा चौतरफा जीत का परचम लहरा रहा है, उसी तरह 2009 के बाद कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया था। लोकसभा के साथ ही कांग्रेस ने आंध्र प्रदेश में जबरदस्त जीत हासिल की थी। एकीकृत आंध्र प्रदेश में उसे 156 सीटें मिली थीं। इसके तुरंत बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने लगातार दूसरी बार महाराष्ट्र में जीत हासिल की। उसकी सीटें 69 से बढ़ कर 82 हो गईं और उसने एनसीपी के साथ सरकार बनाई। हरियाणा में भी कांग्रेस लगातार दूसरी बार जीती और झारखंड में भी कांग्रेस ने अपनी सीटों की संख्या लगभग दोगुनी कर ली, जबकि भाजपा 32 से घट कर 18 पर आ गई।
इससे एक साल पहले 2008 में कांग्रेस ने राजस्थान में जीत दर्ज की थी और लोकसभा के बाद जिन राज्यों में चुनाव हुए उनमें से कई राज्यों कांग्रेस जीती। 2011 में कांग्रेस ने असम में लगातार तीसरी बार जीत कर सरकार बनाई और केरल में लेफ्ट मोर्चे को हटा कर शानदार जीत दर्ज की। 2012 में कांग्रेस उत्तराखंड और 2013 में कर्नाटक में चुनाव जीती। आंकड़ों के हिसाब से 2013 में कांग्रेस जिस मुकाम पर खड़ी थी 2017 में भाजपा लगभग उसी मुकाम पर खड़ी है। उस समय करीब डेढ़ दर्जन राज्यों में कांग्रेस या उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकार थी। उसके तीन सौ सांसद और 12 सौ से ज्यादा विधायक थे। आज वहीं स्थिति भाजपा की है।
इसलिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह का चमत्कार इस देश के लिए नया नहीं है। सोनिया, राहुल और मनमोहन की तिकड़ी महज चार साल पहले ऐसे चमत्कार पर खड़ी थी। लेकिन उसके बाद जो पतन शुरू हुआ, उसे कांग्रेस जैसी पुरानी और मंजे हुए नेताओं की पार्टी संभाल नहीं सकी। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यूपीए दो का कामकाज पहले के मुकाबले ज्यादा बेहतर था। नक्सलवाद को खत्म करने के लिए ऑपरेशन ग्रीन हंट चला था और कश्मीर में मोटे तौर पर शांति बहाल हो गई थी। आर्थिकी जरूर डांवाडोल हुई थी, पर इसका एक कारण अगर प्रणब मुखर्जी थे तो दूसरा कारण दुनिया के आर्थिक हालात थे। तभी अचानक यूपीए एक की सरकार के घोटाले खुलने लगे और भ्रष्टाचार के विरोध में अन्ना हजारे का उदय हुआ। अन्ना के आंदोलन ने पूरे देश की राजनीतिक दिशा बदल दी। कांग्रेस का चक्रवर्ती राज ताश के पत्तों की तरह ढह गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें