मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020

ऐसे लोकपाल का क्या लाभ?

 


लोकपाल और लोकायुक्त की स्थापना को लेकर तकरीबन दस साल पहले हुआ आंदोलन अब तक भूला नहीं है। लेकिन उस आंदोलन से आखिर क्या हासिल हुआ, ये सवाल लगातार संगीन होता गया है। ये सवाल फिर चर्चा में पिछले दिनों आया, जब गोवा के लोकायुक्त पद से विदा होते वक्त जस्टिस प्रफुल्ल कुमार मिश्रा ने सरकार के रवैये पर गंभीर आरोप लगाए। कहा कि लोकायुक्त संस्था के प्रति सरकार संवेदनहीन है। जस्टिस मिश्रा ने कहा कि अगर उनसे एक वाक्य में पूछा जाए कि गोवा के लोकायुक्त के रूप मे भ्रष्टाचार की शिकायतों को लेकर उनका अनुभव कैसा रहा, तो वे यही कहेंगे कि लोकायुक्त की संस्था को खत्म कर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि आखिर जनता का पैसा इस पर क्यों बर्बाद किया जाए? जस्टिस मिश्रा ने बताया कि अपने कार्यकाल में उन्होंने भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की छानबीन के बाद कार्रवाई के लिए 21 सिफारिशें सरकार के पास भेजी थीं, लेकिन उनमें से एक पर भी सरकार ने कोई ऐक्शन नहीं लिया। यही हाल सारे देश में है। केंद्र में लोकपाल की नियुक्ति अवश्य हुई है। 20 से अधिक राज्यों में सरकारों ने अपने यहां लोकायुक्त की व्यवस्था तो कर दी है।


लेकिन हाल वही है, जो जस्टिस मिश्रा ने बताया। जानकारों की साफ राय है कि लोकपाल या लोकायुक्तों की नियुक्त कर देने भर से मूल समस्या का निदान नहीं हो रहा है। बल्कि आरोप तो ये है कि जानबूझकर लोकपाल से जुड़े न्यायक्षेत्र और अन्य जरूरतों और कानूनी विसंगतियों को उलझा कर रखा गया है। सबसे बड़ा विवाद तो लोकपाल और सदस्यों के चयन से ही जुड़ा है। चयन समिति में सरकारी प्रतिनिधियों का बहुमत है, जो नहीं होना चाहिए था। सवाल यही है कि क्या लोकपाल उस सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की छानबीन कर पाएगा जिसने नियुक्तियां की हैं? इसलिए ये धारणा बेजा नहीं बनी है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की लड़ाई में भारत और पीछे छूटता जा रहा है। भ्रष्टाचार और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता से जुड़े सूचकांकों और सर्वे रिपोर्टों में भारत का प्रदर्शन खराब हो रहा है। ट्रांसपेरंसी इंटरनेशनल की जनवरी में जारी करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में भारत 180 देशों की सूची में 80वें नंबर पर आया था। अगर पिछले पांच साल में इस सूचकांक के लिहाज से भारत का प्रदर्शन देखें, तो उसमें गिरावट ही आई है।

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