वर्ष 2020-21 दुनिया का संकट काल है। तभी दुनिया के हर कोने में, हर देश में नेतृत्व पर लोगों की निगाह है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, पुतिन, बोल्सोनारो, शी जिनफिंग, इमैनुअल मैक्रों, चांसलर एंजेला मर्केल, प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन, नरेंद्र मोदी, इमरान खान आदि तमाम नेताओं पर सोचा जा रहा है कि संकट की इस घड़ी में सत्तावान नेता कैसा नेतृत्व दे रहे हैं? नेतृत्व पर इस समय जितना फोकस है, शीत युद्ध बाद शायद ही कभी रहा हो। देश छोटा हो या बड़ा, सभी के नेताओं की परीक्षा वैश्विक पैमाने में है। न्यूजीलैंड, स्वीडन, ताईवान, श्रीलंका, मॉरीशस, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, कोलंबिया, आयरलैंड जैसे छोटे देश हों या चीन, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, अर्जेंटीना, भारत, ब्राजील, अमेरिका जैसे बड़े-विशाल देश सबका नेतृत्व उस वैश्विक विश्लेषण का हिस्सा है, जिसमें महामारी और मंदी के दोहरे संकट में जाना-समझा जा रहा है कि किसका नेतृत्व कैसा है? वक्त की कसौटी पर खरा, सफल है या फेल? अपना मानना है कि मौजूदा संकट में नेतृत्व की परीक्षा से दुनिया में पृथ्वी के पौने आठ अरब लोग 21वीं सदी की तराजू में कौम, नस्ल व सभ्यतागत राष्ट्र-राज्यों का भविष्य बूझेंगे, तौलेंगे।
निःसंदेह पश्चिमी सभ्यता याकि अमेरिका और यूरोप पर सर्वाधिक फोकस है। डोनाल्ड ट्रंप की कमान ने दुनिया में सवाल बनाया है कि अमेरिका और उसका नेतृत्व भविष्य में क्या वैश्विक नेतृत्व लायक रहेगा? अमेरिका जिस हाल में है और पश्चिमी सभ्यता के बाकी देश उससे जैसे कटे हुए हैं व यूरोप की मर्केल और मैक्रों अपने बूते अपनी यूरोपीय जिम्मवारी बना रहे हैं तो अमेरिका और ब्रिटेन अप्रांसगिकता की तरफ बढ़ते हुए हैं। अमेरिका और ब्रिटेन दोनों अंदरूनी दशा-दिशा से ऐसे बेहाल हैं कि जहां खुद भटके हुए हैं वहीं दुनिया की चिंता करते हुए भी नहीं हैं। जबकि ठीक विपरीत अमेरिका-पश्चिम के आगे चीन और शी जिनफिंग दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देशों के बीच अपना वर्चस्व बना रहे हैं। ऐसे में यह वैश्विक चिंता भी है कि चीन कहीं दुनिया का नंबर एक चौधरी न हो जाए? महामारी और मंदी के वैश्विक संकट के बीच चीन ने अपने को जैसे बचाया है और उसकी आर्थिकी के चक्के दौड़ते हुए हैं तो जाहिर है मौजूदा संकट उसका मौका है। एशिया-अफ्रीका-लातिनी अमेरिका में चीन के आर्थिक साम्राज्यवाद को फैलने से न अमेरिका रोक सकेगा और न यूरोप।
क्या यह सिनेरियो शी जिनफिंग बनाम डोनाल्ड ट्रंप, चीन बनाम पश्चिमी सभ्यता के नेतृत्व का फर्क नहीं बना रहा है? तभी दुनिया में सर्वत्र कौतुक है कि नेतृत्व याकि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कमान में देश विशेष संकट से कैसे जूझ रहा है। देश कैसे बदल रहे हैं? 21वीं सदी की शुरुआत याकि 9/11 की घटना के बाद इस्लाम के जिहाद ने दुनिया को जो बदला था और जॉर्ज डब्लु बुश और ओसामा बिन लादेन से दुनिया के सरोकार जैसे बदले उस अध्याय में मौजूदा संकट निश्चित ही एक मोड़ है। महामारी और मंदी पर यदि साल-दो साल में काबू नहीं पाया गया तो विश्व में बहुत कुछ बदला हुआ होगा। उस नाते डोनाल्ड ट्रंप बनाम शी जिनफिंग याकि अमेरिका और चीन की धुरी और रोल में ही आगे का सिनेरियो बना होना है।
डोनाल्ड ट्रंप की शख्सियत, नेतृत्व से अमेरिका पर सर्वाधिक फोकस है। ट्रंप आए थे इस्लाम की चिंता से लेकिन उन्होंने सांड जैसा जो व्यवहार किया तो उससे वे खुद भटके और अमेरिका को भी भटकाया। आज वे भी मन ही मन सोच रहे होंगे कि चार साल पहले उन्होंने किन बातों, किन मुद्दों पर चुनाव लड़ा और अब उन्हें क्या कहना पड़ रहा है! तब अमेरिका क्या था और आज क्या है? तब ओबामा (अश्वेत होते हुए, गोरों की पश्चिमी दुनिया, वाशिंगटन के परंपरागत सेटअप में बेगाने होते हुए भी) न केवल अमेरिका को एकजुट बनाए हुए थे, बल्कि वैश्विक कमान भी संभाले हुए थे। यूरोपीय राजधानियों में उनका उतना ही मान-सम्मान, रूतबा था, जितना उनके पूर्ववर्ती क्लिंटन या बुश का था।
महामारी ने सभी देशों को अंतर्मुखी बनाया है। अमेरिका भी स्वंय केंद्रित है तभी अमेरिका के वैश्विक रोल की अनिश्चितता है। वजह क्या है? जवाब में फिर डोनाल्ड ट्रंप का नेतृत्व है। जाहिर है राष्ट्र जीवन में नेतृत्व, राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का रोल निर्णायक है। अमेरिका में सरकार न्यूनतम है। मतलब भारत की तरह नौकरशाही की फौज, इंस्पेक्टर राज, कानूनों का जंजाल और सत्ता की मनमानी नहीं है। वहां नागरिक को बंदूक रखने की भी स्वतंत्रता इस सोच से है कि यदि किसी के साथ ज्यादती हो, वह अपने को असुरक्षित, डरा हुआ पाए तो हथियार की हिम्मत से वह भयमुक्त, नीडर, निर्भीक जी सके। वहां पावर का बंटवारा और चेक-बैलेंस है। लोकतंत्र का हर अंग फड़कता हुआ, बेबाक व स्वतंत्र है। बावजूद इसके डोनाल्ड ट्रंप से अमेरिका और अमेरिकी जीवन इस कदर इतना प्रभावित हुआ कि हर कोई चार साल में अमेरिका की शक्ल बदली हुई बूझ रहा है। वह सर्वाधिक संकटग्रस्त है। वायरस संक्रमित नंबर एक देश है और मंदी, बेरोजगारी में महामंदी के वक्त से भी अधिक भयावह आंकड़े लिए हुए है। क्यों? वजह फिर डोनाल्ड ट्रंप की लीडरशीप है!
मतलब अमेरिका संकट में आज है तो वजह डोनाल्ड ट्रंप हैं। चीन आज जो है वह शी जिनफिंग से है। ऐसे ही पुतिन से रूस, बोल्सोनारो से ब्राजील और नरेंद्र मोदी से भारत है। न्यूजीलैंड, स्वीडन, ताईवान, जर्मनी, इटली, स्पेन, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का आप नाम नहीं जानते होंगे लेकिन ये देश वायरस पर नियंत्रण व महामारी-मंदी पर अंकुश में बेहतर स्थिति में हैं तो वजह फिर इन देशों के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री हैं।
उस नाते फिलहाल दुनिया में दो तरह के देश हैं। एक तरफ नेताओं से बरबाद देश और दूसरी तरफ नेतृत्व की कमान में अपेक्षाकृत संभले, बचे देश।मेरा यह अंदाज मसले का सरलीकरण है। व्यवस्था, विचारधारा, कौम के डीएनए आदि के कारण राष्ट्र-राज्य के जीवन में कम महत्वपूर्ण नहीं होते है। बावजूद इसके महामारी और मंदी के संकट ने दुनिया के सभी देशों के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री को जिस लाइव परीक्षा में डाला है तो वह खुद जहां परीक्षा देते हुए हैं तो वह हर नेता अपने राष्ट्र विशेष के सत्व-तत्व, गुण-अवगुण का प्रतिनिधि, उसकी अभिव्यक्ति भी है।
भारत जैसा है तो वजह नरेंद्र मोदी है और वे हिंदू के डीएनए और राष्ट्र-राज्य-व्यवस्था की बुनावट के बतौर प्रतिनिधि संकट की घड़ी में परीक्षा दे रहे हैं। सचमुच वर्ष 2020-21 का महासंकट वैश्विक पैमाने पर यह जांचने-समझने का, परीक्षा का है कि अलग-अलग नेताओं से विभिन्न देश जिस अवस्था में है उसमें नेतृत्व क्वालिटी में अच्छाई-बुराई क्या जाहिर है? इससे फिर अपने आप यह समझने का मौका होगा कि राष्ट्र-राज्य का नेतृत्व कैसा होना चाहिए? देश कैसे नेतृत्व से बदले हैं, बने हैं और कैसे नेतृत्व से बरबाद हैं या बरबाद होते हैं।

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