बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

न डर मिटेगा, न बुद्धि खुलेगी!



 तीज-त्योहार का अर्थ बूझना, उसकी बुद्धि से फिर अपने-आपको बनाना भला हिंदू के बस में कहां है? पढ़ना-सोचना, साधना-तपस्या की सिद्धि कितने हिंदुओं के बस में है? यदि बस में होती तो हम क्या निडर-निर्भीक, बुद्धिमना, नोबल-ओलंपिक विजेता नहीं होते? दुनिया के पैंदे में भूखे, नंगे रहते हुए बेशर्मीं से यह बहस क्या कर रहे होते कि बांग्लादेश, पाकिस्तान नहीं, बल्कि हम आगे बढ़ रहे हैं!


एक पहलू हिप्पोक्रेट जीवन का है तो दूसरा पहलू आदत का है जो हजार-बारह सौ साल से हुकूमत की गुलामी से निर्मित है। इसी से भगवानजी के आगे हिंदू का याचक बना रहना नियति व निवृत्ति है। और अपना मानना है कि याचक, रामभरोसे अनुयायी के लिए विवेकी, निडर, सत्यवादी, बुद्धिमना, शक्तिमान हो सकना असंभव सी बात है।


तभी हम कितनी ही पूजा करें हमारा भय, भयाकुलता, गुलामी का न दुष्चक्र कभी खत्म होगा और न बुद्धि पर से झूठ, अंधविश्वास का ताला कभी खुलेगा। संख्या सौ करोड़ हो या सवा सौ करोड़, देशी हो या विदेशी एनआरआई, हर औसत हिंदू धर्मानुयायी ईश्वर से अपनी रक्षा, अपना काम निकालना चाहता है। वह  यह प्रार्थना लिए हुए नहीं होता है कि उसे अभय, बहादुर, निडर-निर्भीक, सत्यवादी बनने का आशीर्वाद मिले ताकि स्वंय निडरता से इहलोक के जीवन में अजेय हो।


सोचें, साल के 365 दिनों में हिंदू सर्वाधिक पूजा किसकी करता है? मेरा मानना है नवरात्रि-दशहरा-दीपावली के क्रम में शक्ति स्वरूपा देवियों और रावण पर राम, झूठ पर सत्य के पूजा-पाठ में सर्वाधिक रहता है। शायद मैं गलत हो सकता हूं। आखिर हम हिंदुओं के बीच में न ऐसे सर्वेक्षण होते हैं और न यह अध्ययन होता है कि हम हिंदू अपने देवी-देवताओं में किसे ज्यादा पूजते हैं और उनसे चाहते क्या हैं? मोटे तौर पर लगता है कि दुनिया के सौ-सवा सौ करोड़ हिंदुओं में सर्वाधिक दुर्गा सप्तशती व हनुमान चालीसा का पाठ होता होगा। तब तात्पर्य निकलेगा कि मनोकामना रक्षा कवच की है। मतलब शेरा वाली मां रक्षा करें। हनुमानजी संकट से बचाइए, रक्षा कीजिए। शक्ति पीठ और शक्ति का पूजापाठ, उसके कर्मकांड में लक्ष्य, साधना अपने और अपने परिवार के सुरक्षा कवच की है। शेरा वाली मां, शेर की सवारी करती देवी स्कंदमाता की मूर्ति, चित्र को देख आम हिंदू प्रार्थना करते हुए कृपा, रक्षा, सुरक्षा व संकटमोचन की बुदबुदाहट लिए होता है। दुर्गा के विभिन्न शक्ति रूपों से भी रक्षा-सुऱक्षा चाहिए तो हनुमानजी से भी चाहिए।


इस चाहना का हिंदू मनोविज्ञान कब-कैसे बना? इसका जवाब हिंदू इतिहास क्रम में ढूंढ सकना असंभव है। लेकिन धर्मग्रंथों की कथाओं का यह सार बनता है कि त्रेता-द्वापर युग में रावण भी शिव की तपस्या में शक्तिमान बनने, लड़ाई की ताकत पाने, अस्त्र-शस्त्र के आयुध पाने का आशीर्वाद मांगता था। महाभारत, रामायण, पुराण के तमाम पात्र अष्ट सिद्धियों और नव निधियों की प्राप्ति के आशीर्वाद लेते थे। हनुमानजी ने भक्त बन सिद्धियां प्राप्त कीं और ज्ञान-बाहुबल की शक्ति का उपयोग कर असुरों-राक्षसों का नाश किया। रावण हो या हनुमान सभी की साधना, तपस्या, प्रार्थना में ज्ञान, बुद्धि और विद्या के बल में शक्ति-हथियार पा कर निर्भयता-निडरता से लड़ने का आशीर्वाद मांगना था। हनुमान घोर साधना व तपस्या से प्राप्त होने वाली अलौकिक शक्तियों की सिद्धि से अजेय हुए तो अजेय होना दरअसल शक्ति प्राप्त कर उसके उपयोग से था। तपस्या में संकट से बचाइए, रक्षा कीजिए का अनुनय-विनय नहीं था। उसके लिए चढ़ावा, पूजा-पाठ नहीं था। सबका अभिष्ट तपस्या से ज्ञान, बुद्धि, सत्य से अष्ट सिद्धियों और नव निधियों में शक्तिमान हो कर पुरुषार्थ से अपने आपको बनाना था।


जबकि पिछले हजार सालों की गुलामी में हम हिंदुओं की पूजा-पाठ का अभिष्ट क्या रहा है? भगवानजी बचाइए। महा देवी दुर्गा बचाएं। हनुमानजी रक्षा करें, संकटों से मुक्ति दिलाएं!


बहुत बारीक बात है लेकिन मोटे तौर पर सोचें इस्लाम और ईसाईयत, मस्जिद और गिरिजाघर में अनुयायी अपने भगवानजी से कैसे साक्षात्कार करता है? कैसे प्रार्थना करता है जबकि हम हिंदूओं की प्रार्थना में क्या होता है? स्थान, रूप और स्वरूप सबको एक तरफ रखें और सिर्फ अनुयायियों के अलग-अलग मनोभावों पर गौर करें। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी, ताओ-कंफ्यूशियस-बौद्ध आदि के तमाम धर्मावलंबियों में सर्वाधिक संकटमोचन की प्रार्थना यदि कहीं मिलेगी तो वह आम हिंदू की है। नमाज अदा करते हुए, कुरान पढ़ते हुए या बाइबिल पढ़ते हुए, चर्च में प्रार्थना करते हुए धर्मावलंबी अपने पैगंबर का धन्यवाद अधिक करता है, उसकी आज्ञा अनुसार व्यवहार की कसम खाता है। धर्म प्रचार, जिहाद-क्रुसेड पर विचार करता है। या तो भगवानजी के कहे अनुसार व्यवहार में कठमुल्लाई आचरण है या बुदद्धि बल में प्रोटेस्ट, सुधार, संशोधन व आचरण है। इन विविधताओं की हकीकत में हिंदू के मौजूदा व्यवहार के धार्मिक आचरण की निराली खूबी है जो ईश्वर के आगे वह सतत यह मांगते हुए होता है कि रक्षा करें। संकटमोचन, रक्षा, सुरक्षा कवच और धन-पद देने की विनती और अपने आपको ईश्वर, रामभरोसे, नियति भरोसे छोड़ देना।


ऐसा सनातनी हिंदू के पुराण-वेद काल में नहीं था। तब सृष्टि, पृथ्वी, पंचतत्वों की अद्भुत माया पर रचे वेदों का वेद पाठ था। धर्मग्रंथों और ऋषि-आश्रम परंपरा में शिक्षा, बुद्धि (हथियार, शक्ति प्राप्ति की साधना सहित) की साधना में यज्ञ, कर्मकांड, पूजा-पाठ सब रचे हुए थे। असुरों से लड़ने का बुद्धि बल, शस्त्र बल, मनोसंकल्प बनाने की शिक्षा-दीक्षा हुआ करती थी। महाभारत में भगवान कहते हुए मिलते थे कि निर्भीक बनो, लड़ो। मैं तुम्हें नहीं बचाऊंगा, तुम्हें लड़ना होगा। निडरता से लड़ो, पुरुषार्थ करो और फल की चिंता नही करो। ध्यान रहे पांडव भी याचक नहीं थे, बल्कि भगवानजी से उनकी बहस सत्य जानने की प्रवृत्ति और चिंतन-मनन से थी। तब सब कुछ मनुष्य के मनुष्यगत व्यवहार से संचालित था। धर्म और कौम की जिंदादिली से सब था।


तब और अब का इस तरह मेरे द्वारा अंतर निकालना कितना व कैसे तर्कसंगत है यह पाठकों के लिए सोचने की बात है लेकिन मैं बतौर हिंदू आज की दशा के साथ पिछले हजार-बारह सौ साल के जाग्रत इतिहास के विहंगम अनुभव में यह सोचने को मजबूर हूं कि भगवानजी के आगे हम हिंदू जिस अनुपात में अब जैसे याचक हैं, भयाकुल हैं, उन पर निर्भर भक्त और अंधविश्वासी हैं वह क्या हजार साल के इतिहास के चलते है या आजाद भारत के अनुभव से है? या दोनों के अनुभव की निरंतरता से है? सचमुच समाजशास्त्र, प्राणीशास्त्र, मनोविज्ञान आदि पूरे मानवविज्ञान से जांचा जाना चाहिए कि 15 अगस्त 1947 के बाद हम हिंदू क्या अधिक रामभरोसे नहीं हुए हैं? कोई कह सकता है कि यह तो अच्छी बात। हमारा सूर्योदय हो रहा है और बाकी सभ्यताएं सूर्यास्त की ओर हैं। हम जगद्गुरू बन गए हैं और बाकी सब बीमार, भूखे, बरबाद!


बहरहाल गुलामी के वक्त में, विदेशियों के शासन में महा दुर्गा, शेरा वाली देवी से रक्षा कवच की प्रार्थना, हनुमानजी से संकटमोचन का अनुनय समझ में आता है लेकिन स्वशासन में भी यथावत गुलामी-हाकिम-हुकूमत से भयाकुल सिकुड़ते हुए संकटमोचन का अनवरत अनुनय-विनय क्या यह सवाल नहीं बनाता है कि हिंदू अनुयायी कभी अपने आपमें समर्थ, बुद्धिमान, ज्ञानवान, सत्यमान, शक्तिमान बनेगा भी? क्या वह मुसलमान-पाकिस्तान की चिंता से कभी मुक्त हो सकेगा? चीन के आगे बेखौफ हो सकेगा? कब नोबल-ओलंपिक मेडल जीतता हुआ होगा और कब खुद वैक्सीन बनाता हुआ व दुनिया के पैमाने मे कुबेर का खजाना बनाए हुआ होगा?


सवाल यह भी है कि इस सबके लिए क्या हम नवरात्रि में मां दुर्गा से अष्ट सिद्धियों और नव निधियों की प्राप्ति की पूजा करते हैं? क्या दुर्गा सप्तशती पढ़ते हुए, हनुमान चालीसा पढ़ते हुए हम हिंदू ज्ञान, बुद्धि और विद्या के बल की वह साधना, वह तपस्या करते हैं, जिससे शक्ति की वे सभी अष्ट सिद्धियां-नौ निधियां प्राप्त करें, जिनके बूते फिर हम वैश्विक पैमाने में कंपीटिटर बनें, नोबल-ओलंपिक मेडल लें, सिरमौर सभ्यता बनें।


गुलामी के डीएनए और हाकिमशाही के अनवरत औसत अनुभव ने हिंदू को चौबीसों घंटे इस चिंता में डाला हुआ है कि देवी मां बचाओ। हनुमानजी रक्षा करो। यों संकट के समय इष्ट का ध्यान करना, उससे प्रार्थना करना सहज मानवीय मनोविज्ञान है। लेकिन धर्म-आध्यात्म, त्योहार-उत्सव, पूजा-पाठ, सत्संग सबमें अनवरत संकट निदान की चाहना के साथ देवी कृपा, भगवान भरोसे, रामभरोसे जीवन जीने का यदि स्वभाव बना लिया है तो मां दुर्गा के आगे हम कैसे यह हठ कर सकते हैं कि मां, हमें भी आप वैसा ही निर्भय, खडगधारी बनाएं, बुद्धि-विवेक का वैसा ही सत्यवादी बनाएं जैसी आप हैं। हममें भी वह सब हो, जिससे भय, गुलामी, मूर्खता, बेबसी, लाचारी और असुर ताकतों को पांव तले कुचल सकें। हमें बुद्धि चाहिए, हमें हिम्मत चाहिए फिर तो हम दुनिया जीत लेंगे।


सोचिए मौजूदा वक्त के संदर्भ में यह प्रार्थना कितनी बेतुकी समझ आएगी। कितने हिंदुओं को जरूरत है आज बुद्धि व हिम्मत को खोलने वाले वरदान की?

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