भारत और दुनिया के सफल देशों में क्या फर्क है? हिंदू और बाकी नस्ल, धर्म, कौम में क्या फर्क है? हिंदू बनाम इस्लाम, हिंदू बनाम ईसाईयत की दास्तां में फर्क की वजह क्या है? यों कई वजह है लेकिन अपने को बड़ी निर्णायक वजह यह समझ आती है कि हमने भगवान बनाए नेता नहीं! राजा भी भगवान अवतार बन गए वह राजा नहीं रहा। हर राजा, हर प्रधानमंत्री हिंदुओं के तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में जुड़ती संख्या है। इसलिए जन, जन क्रांति और जन नेता की वह तासीर नहीं बनी, जैसी बाकी सभ्यताओं में विकसित हुई। जनता की आंकाक्षाओं, इच्छाओं, कौम- धर्म के संकल्प में न नेतृत्व बनाया गया और न वैसा नेतृत्व उभरा। हिंदू के भगवान, देवी-देवता सतयुग, त्रेता, द्वापर युग के है धर्मग्रंथों-पुराण से हैं तो बाद के कलियुग में याकि पिछले तीन-चार (मतलब जाग्रत-प्रामाणिक इतिहास) हजार साल में भी हिंदुओं ने राजा को जस का तस भगवान विष्णु के अवतार में सतत बूझे रखा। जब-जब संकट तक-तब अवतार या फिर यह विचार कि कोई राजा हो हमें क्या फर्क पड़ता है। जैसे रामजी रखेंगे वैसे जी लेंगे।
ऐसा दूसरी सभ्यताओं में नहीं हुआ। बाकी कौमों ने अपने दिमाग, अपनी बुद्धि से अपने जीने, अपने समाज, अपनी सीमाओं के बंदोबस्तों, व्यवस्था के लिए नेतृत्व पर विचार किया। दार्शनिक पैदा किए। दार्शनिकों ने चिंतन-मनन किया। जहर पीया, निर्वासन भोगा। विचार हुआ, असंतोष, विद्रोह-बगावत और जन क्रांति हुई। नेतृत्व की कसौटियां बनीं। और अपने सांचों में नेतृत्व तलाशा-उभारा-बनाया।
यह प्रवृत्ति-प्रकृति तीन हजार साल के जाग्रत इतिहास का सत्य है। इसी से प्रभु यीशु और पैगंबर मोहम्मद का नेतृत्व नया धर्म बनवाने वाला हुआ। इस बहस का अर्थ नहीं है कि ईसा और मोहम्मद साहेब अवतार थे या इंसानों से निकले दिव्य मनुष्य। मोटा तथ्य है कि समय विशेष में संकट-परिस्थितिजन्य हालातों में जनता की दशा-दिशा, बगावत, जनक्रांति से मनुष्यों के बीच से दो नेतृत्व पैदा हुए, जिनकी कमान, शिक्षा-दिशा-उपदेशों ने लोगों को बदला। उनके अनुयायी हुए और अनुयायियों ने जीवन जीने के अंदाज का वह संकल्प बनाया जो दो धर्म के रूप में इतिहास और वर्तमान का निचोड़ है।
तो बुनियादी बात संकट काल में, अपने संघर्ष, अपने सकंल्प में इंसान द्वारा, मनुष्यकृत सांचे के लीडर का पैदा होना है। भारत में, हिंदुओं में इस धारा का एक, सिर्फ एक अनुभव इतिहास में है। उस अनुभव का नाम है चाणक्य और चंद्रगुप्त। नंद राजा के वक्त चाणक्य का फैसला भी संकट, संघर्ष से था। वह परिस्थितियों में जनता और कौम का एक प्रतिनिधि संकल्प था। उसमें चाणक्य ने सोचा, विचारा कि राजा फलां मानकों वाला होना चाहिए। उसमें मनुष्य के फलां-फलां मानक गुण होंगे। लीडरशीप की फलां-फलां काबलियत होगी। मतलब इंसान के बीच कौन इंसान राजा, नेता, लीडरशीप लायक है, किसी व्यक्ति विशेष को कैसे ट्रेनिंग देकर, उसमें संस्कार-गुण-अवगुण डाल कर कैसे राजा बनाएं, यह चाणक्य का प्रयोग था। राजा की मनुष्य कसौटियों की ट्रेनिंग देकर चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को जैसा लायक, काबिल, यशस्वी राजा बनाया, वह जाग्रत हिंदू इतिहास का बेजोड़ अनुभव था। पर उसे अगली पीढ़ियों ने आत्मसात नहीं किया। कई कारणों, पुराण-धर्म कथाओं की व्यवस्थाओं से हिंदू फिर अवतारी व्यवस्था में लौट गया।
चाणक्य-चंद्रगुप्त मौर्य के गौरवपूर्ण मानवीय अनुभव को हिंदुओं ने जल्द भूला दिया और वापिस अधर्म के संहारक में हर युग में जनम लेने की ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ का सत्य मान नियतिबंध हो गए। फिर खैबर पार से विधर्मी आक्रामकों का रैला शुरू हुआ, गुलामी का काल आया तो संकट में नेतृत्व पैदा करने के बजाय नियति व कोउ नृप होय हमें का हानि में सांस लेते रहे।
चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य ने धर्म, कौम, देश पर विचार, चिंता में लीडर-राजा बनाने, नेतृत्व देने का संकल्प साधा। वह इंसान का इंसान के रूप में विचारना था। चाणक्य ने न नंद राजा को भगवान का अवतार बनाया और न चंद्रगुप्त ने अपने को भगवान कहलवाया। वह मनुष्य योनि के पुरुषार्थ के सहज विचार, संकल्प और उसे हकीकत में बदलने का मानवीय कर्म था। जनता की जरूरत, जनता के विद्रोह, असंतोष में चाणक्य की वह जनक्रांति और उसकी परिणति थी।
वह हिंदू इतिहास की अपवाद घटना है, जबकि बाकी कौमों, सभ्यताओं, धर्मों में वैसा होना रूटिन था, है और रहेगा। अपना मानना है कि प्रभु यीशु और पैगंबर दोनों ने अपने नेतृत्व से अनुयायियों को जो आह्वान किया, उनके लिए जो व्यवस्थाएं बनाईं वह अनुयायियों के संकल्प से, बाद में उससे रूपांतरित धर्म था। मानवीय नेतृत्व से मानवीय धर्म के संकल्प स्वभाविक तौर पर मानवीय इच्छाओं में ढले हुए थे तो इन दोनों धर्मों की पताका वैसे ही फैली या मनुष्यों ने फैलाई जैसे हर सफल राजा, देश, हर मनुष्य अपना प्रताप-प्रभाव-साम्राज्य फैलाता है। वह मिशन, संकल्प लिए सतत लड़ता रहता है। हम यदि ईसाईयत और इस्लाम को मिशन लिए हुए मानते हैं तो ऐसा होना मानव व्यवहार की सहज वृति से है। जबकि हम हिंदू अलग ही मनोविश्व लिए हुए हैं। हम अपने धर्मानुगत-पुराणगत मनोदशा से परलोक पर अधिक सोचते हैं व इहलोक पर कम। हमारे लिए इहलोक भगवानजी के अवतार भरोसे है और उसकी पूजा-भक्ति हमारी प्रवृत्ति-निवृति है। उसी में जीते हुए परलोक साधना है।
जाहिर है राजा कैसा हो, यह हम हिंदुओं को सोचना नहीं है क्योंकि वह ईश्वरजन्य, नियतिजन्य है। तभी इहलोक की भारत भूमि में वह संभव नहीं हुआ जो बाकी सभ्यताओं, कौम, धर्म में जनता की इच्छा, संघर्ष, चाहना की जनक्रांतियों से हुआ। अलग-अलग विचारधारा, व्यवस्था, संविधान, राजा, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पैदा करने के सांचे बने ही नहीं। बाकी सभ्यताओं में मनुष्यकृत मौलिक सांचे हैं और सांचे में ढले मौलिक लीडर हैं। जबकि हम हिंदू या तो भगवानजी-उनके अवतार पर आश्रित हैं या विदेशी लाठी, विदेशी शिक्षा-दीक्षा-व्यवस्था, विदेशी सांचों, उन सांचों में ढली नकली लीडरशीप में इस भाव में जीवन जीते रहे है कि रामजी जैसे चाह रहे हैं वैसे रह रहे हैं। ध्यान रहे हमने ऐसा जीवन सदियों-सहस्त्राब्दियों जीया है। बुनियादी बात हिंदू का राजनीतिक दर्शन नियतिवादी फुलस्टॉप है जबकि बाकी सभ्यताओं में मनुष्य के संकल्पों के पुरुषार्थ की अनंत और आजाद उड़ान है।
मनुष्य-मनुष्य का फर्क दरअसल मनोविज्ञान-मनोविश्व का वह बारीक तानाबाना, वह मकड़जाल है, जो हमसे ही बनता है लेकिन बोध, अहसास नहीं होता कि उसमें हम हाइबरनेशन, कुंभकर्णी नीद में सोते हुए जी रहे हैं या जिंदादिल कौम जैसे जी रहे हैं। निश्चित ही राजा, प्रधानमंत्री, लीडरशीप को हम पूजते हैं, मानते हैं, उनका होना हमें ज्ञात है लेकिन उससे हमें प्राप्त क्या है इस पर न विचारना होता है और न मालूम होता है। आखिर हम उसे पूजते हुए होते हैं। तब सवाल पूछना, उसका जवाबदेह होना संभव ही नहीं है। वह कृपा, वरदान, आशीर्वाद, प्रसाद, राशन, सत्ता बांटता हुआ होता है तो हमारे लिए उसका होना ही बहुत है। वह तैंतीस करोड़ देवी-देवाओं की हमारी सृष्टि में जब एक अवतार है तो उसकी मूर्ति में कमीबेशी, खोट कैसे तलाश सकते हैं। मूर्ति कैसी ही हो वह शृंगार की हकदार है, वह पूजनीय है।
तभी यथा प्रजा तथा राजा पहला कोर बिंदु है। जनता जैसी है वैसा नेता होगा। इसी में कौम, देश, सभ्यता का वह मकड़जाल है, जिसमें जीते हुए भी जीना मुर्दा कौम की तरह का है। इस बात को यदि सन् 2020-21 के वैश्विक महामारी संकट में जांचे तो दो टूक निष्कर्ष निकलेगा कि कुछ देश हैं, जो प्रजा और राजा दोनों की चैतन्यता से वायरस से लड़ते हुए हैं तो ठीक विपरीत कुछ देश ऐसे हैं, जहां प्रजा और राजा दोनों महामारी पर बेसुधी से भगवान भरोसे हैं। जनता और राजा दोनों अचेत हैं। दोनों के बस में कुछ नहीं।
विश्लेषण में स्पष्टता नहीं बन रही है। तो क्यों न विचार करें कि चीनियों ने अपने नेतृत्व से क्या पाया हुआ है? पश्चिमी सभ्यता के अमेरिकी, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी ने अपने नेताओं से क्या पाया हुआ है? तुर्की व सऊदी अरब के नेताओं से मुसलमानों ने या इजराइल की लीडरशीप से यहूदियों ने क्या पाया है? सवालों के इस खांचे में फिर आजाद भारत के पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हमने क्या पाया के बिंदु से सोचेंगे तो प्रजा-राजा व नेतृत्व का रोल और खुलेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें