गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

किसान आंदोलन कहां तक पहुंचेगा?

 


केंद्र सरकार तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ देश के कई हिस्सों में चल रहे किसान आंदोलनों को लेकर चिंता में है। तभी प्रधानमंत्री लगभग रोज इस बारे में बोल रहे हैं। किसानों को भरोसा दिलाने का प्रयास कर रहे हैं और किसान आंदोलन को कांग्रेस का आंदोलन बता कर उसकी साख बिगाड़ने का प्रयास भी सरकार की ओर बहुत व्यवस्थित तरीके से किया जा रहा है। सरकार को लग रहा है कि यह आंदोलन थोड़े समय के बाद सिर्फ दो राज्यों- पंजाब और हरियाणा तक सिमट जाएगा और फिर इसका असर धीरे धीरे समाप्त हो जाएगा। तभी मीडिया के जरिए किसान आंदोलन से ध्यान भटकाने का प्रयास भी हो रहा है।


परंतु क्या सचमुच ऐसा है? क्या सचमुच यह आंदोलन सिर्फ दो राज्यों तक सीमित रह जाएगा और धीरे-धीरे इसका असर खत्म हो जाएगा? इसका जवाब आसान नहीं है। इस आंदोलन का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस पार्टी कैसे इसे संभालती है और वह इस मसले पर विपक्षी पार्टियों की साझेदारी बना पाती है या नहीं। विपक्षी पार्टियों के साथ साथ कांग्रेस पार्टी को इस मसले पर सरकार की कुछ सहयोगी पार्टियों से भी बात करनी चाहिए और पिछले छह साल की राजनीति में लगभग तटस्थ रही पार्टियों को भी आंदोलन में शामिल करने का प्रयास करना चाहिए।


भाजपा को निश्चित रूप से संसद में कई विपक्षी और तटस्थ पार्टियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन मिला। पर यह भी हकीकत है कि ज्यादातर विपक्षी सांसद किसानों के खिलाफ नहीं दिखना चाह रहे हैं। पार्टियों ने भी कांग्रेस के प्रति अछूत का भाव छोड़ कर इस मसले पर सरकार का विरोध किया। बहुजन समाज पार्टी ने भी कृषि कानूनों का विरोध किया है। तेलंगाना राष्ट्र समिति और बीजू जनता दल के सांसद भी चाहते थे कि सरकार इन विधेयकों को संसद की सेलेक्ट कमेटी के पास भेजे। अगर कांग्रेस इन सभी पार्टियों को एकजुट करने का प्रयास करती है तो वह किसान आंदोलन का दायरा बढ़ा सकती है। अगर इस आंदोलन का राजनीतिक और भौगोलिक दायरा बढ़ता है तो फिर यह आसानी से खत्म नहीं होगा। ध्यान रहे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी किसान आबादी बहुत बड़ी है और तीन में से किसी न किसी बिल से वे भी प्रभावित हो रहे हैं।


राजनीतिक समर्थन हासिल करने के साथ साथ आंदोलन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस पार्टी को कृषि कानूनों के बारे में बनाई जा रही धारणा को बदलना होगा। लोगों को इसके बारे में जागरूक और शिक्षित बनाना होगा। सरकार और सत्तारूढ़ दल की ओर से ऐसा बताया जा रहा है तीनों कृषि कानून सिर्फ अनाज मंडियों से जुड़े हैं। ऐसा नहीं है। अनाज मंडियों के मुकाबले निजी मंडी खड़ी करने का अधिकार देने वाला कानून सिर्फ एक है। इसके दायरे में पूरा देश नहीं आता है। इसका असर सिर्फ छह फीसदी किसानों पर पड़ेगा और मोटे तौर पर पंजाब और हरियाणा के किसान इससे प्रभावित होंगे। तभी जान बूझकर सारा फोकस इस कानून पर बनाया गया है।


विपक्ष को बाकी दो कानूनों के बारे में भी बताना चाहिए। इसमें से एक कानून कांट्रैक्ट फार्मिंग का है, जिसके जरिए किसानों की अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाया जाएगा और तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का है। इसके जरिए बड़ी कंपनियों, निर्यातकों, खाद्यान्न कंपनियों को मनमानी मात्रा में अनाज, फल और सब्जियां खरीद कर स्टोर करने का अधिकार दिया गया है। इससे बहुत नुकसान हो सकता है। इन तीनों कानूनों को साझा तौर पर सामने रखना होगा ताकि लोगों को पता चले कि इनके लागू होने के बाद किसान के हाथ में कुछ नहीं रह जाने वाला है। जो कंपनी उनकी जमीन पर खेती करेगी, वहीं अनाज खरीदेगी और वहीं स्टोर करेगी। सब कुछ बड़े कारपोरेट के हाथों में चला जाएगा।


कांग्रेस पार्टी इस मामले में अदालती लड़ाई के लिए आगे बढ़ी है। केरल से कांग्रेस के सांसद ने कृषि कानूनों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी है। संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर कांग्रेस शासित राज्य अपने यहां ऐसे कानून बनाएंगे, जो केंद्र के कानून को निरस्त करने वाले होंगे पर उसके लिए राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी होगी, जो कि संभव नहीं दिख रही है। कांग्रेस की राज्य सरकारें भी सुप्रीम कोर्ट में जाएंगी पर वहां से कितनी राहत हासिल होगी यह नहीं कहा जा सकता है। इसलिए संवैधानिक और कानूनी उपायों के साथ साथ कांग्रेस को राजनीतिक उपाय भी करने होंगे।


राजनीतिक उपाय के तौर पर विपक्षी पार्टियों का साझा बनवाने के साथ साथ कांग्रेस को सड़क पर उतरना होगा। कांग्रेस पार्टी अभी तक किसानों की लड़ाई ट्विटर पर लड़ रही है। विदेश से  लौटे राहुल गांधी क्वरैंटाइन में हैं और वहां से बैठ कर वीडियो जारी कर रहे हैं या ट्विट कर रहे हैं। अच्छा है सोशल मीडिया पर माहौल बनना चाहिए पर उससे ज्यादा जरूरी है कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां किसानों और किसान संगठनों को एकजुट करें और शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सरकार पर दबाव बनाए।


कांग्रेस को इंडिया गेट पर ट्रैक्टर जलाने जैसी नौटंकी से भी बचना होगा। इस तरह के नाटकों से किसान आंदोलनों की गंभीरता कम होगी। भारत बंद  के दौरान जिस तरह से योगेंद्र यादव, राकेश टिकैत आदि ने प्रदर्शन किया, उससे सबक लेना चाहिए और कांग्रेस नेताओं को पहल करके इनके जैसे नेताओं से संपर्क करना चाहिए।देश के जाने-माने कृषि विशेषज्ञों को भी आंदोलन से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए। तभी इसे व्यापक स्वीकार्यता मिलेगी। यह ध्यान रखना होगा कारपोरेट के समर्थक कृषि व आर्थिक विशेषज्ञ अंग्रेजी में लेख लिख कर कृषि कानूनों को न्यायसंगत ठहराने में लगे हैं। आम लोगों की धारणा को प्रभावित करने के लिए बौद्धिक स्तर पर कारपोरेट की ओर से जो काम किया जा रहा है उसके बरक्स किसानों के हितों की बात करने वाले जानकारों को प्रोत्साहित करना होगा।     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें