प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बातें बहुत अच्छी करते हैं। उनकी बातों में रस होता है, आनंद होता है, भाषा का सौंदर्य होता है, लयात्मकता होती है, जिसे सुन कर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं, तालियां बजाते हैं और बहुत बाद में यह सोचते हैं कि आखिर इससे हासिल क्या हुआ! प्रधानमंत्री का 12 मई की रात का राष्ट्र के नाम संबोधन भी इसी किस्म का था। उन्होंने 35 मिनट में दुनिया भर की अच्छी अच्छी बातें कहीं। पर उससे क्या हासिल होगा, यह किसी को समझ में नहीं आया है। उनके जीवन पर इन बातों का क्या असर होगा, यह समझना भी जरा मुश्किल है। जो असली मुद्दे थे, जिन पर उनके बोलने की उम्मीद थी, उनको उन्होंने छुआ तक नहीं। वैसे भी जरूरी बातों पर देर से प्रतिक्रिया देने को उन्होंने अपना ट्रेडमार्क बना लिया है। वे देश के ज्वलंत मुद्दों पर तब प्रतिक्रिया देते हैं, जब उनकी ज्वलनशीलता खत्म हो जाती है। जैसे मजदूरों के संकट पर वे तभी बोलेंगे, जब सड़क पर पैदल, साइकिल से, साइकिल रिक्शा से, भेड़-बकरियों की तरह ट्रकों में ठुंस कर जा रहे सारे मजदूर मर जाएंगे या घर पहुंच जाएंगे।
बहरहाल, प्रधानमंत्री ने अपने 35 मिनट के भाषण में लोगों के मन को सकारात्मक भाव से भर दिया। जैसे यह लाइन देखें, जो उन्होंने कही- अब एक नई प्राणशक्ति, नई संकल्पशक्ति के साथ हमें आगे बढ़ना है। जब आचार-विचार कर्तव्य भाव से सराबोर हो, कर्मठता की पराकाष्ठा हो, कौशल्य की पूंजी हो, तो आत्मनिर्भर भारत बनने से कौन रोक सकता है? हम भारत को आत्मनिर्भर भारत बना सकते हैं। हम भारत को आत्मनिर्भर बनाकर रहेंगे। इस संकल्प के साथ, इस विश्वास के साथ, मैं आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं देता हूं।
सोचें, भारत का कौन नेता इस तरह से भाषण दे सकता है या ऐसे शब्दों का उच्चारण कर सकता है? प्राणशक्ति, संकल्पशक्ति, कौशल्य, कर्मठता, पराकाष्ठा, कर्तव्य भाव आदि ऐसे शब्द हैं, जो आमतौर पर राजनीति में सुनने को नहीं मिलते हैं। राजनीति में आकर जो शब्द घिस-पिट गए हैं ये उनसे अलग हैं और आज भी इनका अर्थ और पवित्रता बची हुई है। तभी प्रधानमंत्री अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे लोगों के दिमाग से ज्यादा दिल पर असर हो। इसमें वे हर बार कामयाब होते हैं। इसी तरह 12 मई के भाषण में भी वे कामयाब रहे और अगर भाषण को अंक देना हो तो सौ में सौ अंक मिलेंगे। उनके भाषण को ही अगर उनका शासन माना जाए तो शासन को भी सौ अंक मिल जाएंगे। असल में वे ‘वचनम किम दरिद्रम’ के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। इसलिए सीधे 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा की। भारत के जीडीपी के दस फीसदी के बराबर है। उन्होंने वहीं खड़े पांव ‘फोर एल’ यानी लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लॉ का सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया। वह सुनने वालों के लिए यूरेका मोमेंट था। हालांकि जब बाद में इस पर सोचा गया तो पता चला कि इसमें नया कुछ भी नहीं है।
जहां तक लॉ का सवाल है तो प्रधानमंत्री खुद बरसों से कह रहे हैं कि उनकी सरकार पुराने और अंग्रेजों के जमाने के बेकार हो चुके कानून को बदल रही है और लोगों के हित के नए कानून बना रही है। लिक्विडिटी सुनिश्चित करने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कई घोषणाएं की हैं, जिनके बारे में उन्होंने कोरोना संकट के दौर में दो बार प्रेस कांफ्रेंस करके बताया। लेबर यानी मजदूर के बारे में तो कुछ कहने की बात ही नहीं है। जिस तरह से प्रधानमंत्री देश के लोगों के मन की बात समझते हैं उसी तरह मजदूर उनके मन की बात समझते हैं तभी संकट आते ही वे अपने पैरों पर खड़े हुए और पैदल ही घर की ओर निकल गए। उनको पता था कि प्रधानमंत्री ‘आत्मनिर्भरता’ की बात कहेंगे तो उससे पहले ‘आत्मनिर्भर’ बन कर दिखाना है। सो, लाखों ‘आत्मनिर्भर’ मजदूर सरकार के भरोसे रहने की बजाय पैदल ही चल पड़े। क्या हुआ जो इस क्रम में दो-चार सौ लोग मर गए या लाखों लोगों को तकलीफ उठानी पड़ी। देश को आत्मनिर्भर और विश्व गुरू बनाने के लिए क्या वे इतना त्याग भी नहीं कर सकते?
और हां, जब मजदूर पैदल चल कर अपनी आत्मनिर्भरता दिखा रहे थे उसी समय सरकार को लगा यह तो बड़ा अवसर है कि मजदूरों को लेकर बने कानूनों को बदल दिया जाए या स्थगित कर दिया जाए। सो, इस अवसर का लाभ उठाते हुए सरकार ने मजदूर कानूनों को स्थगित करना और उसे बदलना शुरू कर दिया। इस तरह लेबर और लॉ दोनों आपस में जुड़ गए। अब रही बात लैंड की तो उसके कानूनों में भी बदलाव शुरू हो गया है। कर्नाटक की सरकार ने भूमि अधिग्रहण के कानूनों में बदलाव करते हुए उद्यमियों से कहा है कि वे सीधे किसान से जमीन खरीदें। यानी यूपीए सरकार के बनाए भूमि अधिग्रहण के जिस कानून को बदलने में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार विफल रही थी, उसका बदला अब लिया जाएगा। अब क्योंकि अवसर है इसलिए भूमि अधिग्रहण के कानून को भी बदल दिया जाना चाहिए।
कुल मिला कर प्रधानमंत्री ने शब्दों का ऐसा मायाजाल बुना कि लोग वाह, वाह करने लगे। उनको लगा कि कोरोना कोई संकट नहीं है और अब भारत को आत्मनिर्भर बनने से कोई रोक नहीं सकता है। साथ ही यह भी समझ में आया कि गर्व करना है! कोरोना वायरस से लड़ने की मेडिकल तैयारियां, जरूरी चिकित्सा उपकरणों की कमी, टेस्टिंग कम होना, मजदूरों का संकट आदि ये सारे मुद्दे हाशिए में चले गए और सबको यहीं समझ में आया कि आत्मनिर्भर होना और लोकल के लिए वोकल होना यानी स्वदेशी वस्तुओं की खरीद पर जोर देना ही असली देशभक्ति का काम है। बाकी कोरोना तो विदेशी वायरस है, उसका क्या है?

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