गुरुवार, 28 मई 2020

धारणा की लड़ाई हारती सरकार!

कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर तेजी से धारणाएं बदल रही हैं। ऐसा लग रहा है कि राजनीति में अपने मनमाफिक धारणा बनवाने की हर लड़ाई जीतने वाली मोदी सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी कोरोना के मामले में अपने माफिक धारणा के स्तर पर लड़ाई हार रही है। हर सच के बरक्स एक वैकल्पिक सचाई तैयार कर देने और असुविधाजनक तथ्यों को छिपा कर गढ़े हुए तथ्यों को फैलाना फेल हो रहा है। वैकल्पिक सचाई के जरिए झूठा नैरेटिव खड़ा करने में माहिर भाजपा की आईटी सेल भी धारणा की इस लड़ाई में असरदार नहीं है। केंद्र सरकार के तमाम दावों और खुद प्रधानमंत्री के भरोसा दिलाने के बावजूद आम लोगों के मन में धीरे धीरे यह धारणा बैठ रही है कि सरकार कोरोना वायरस से नहीं लड़ पा रही है या वह जो बात कह रही है वह पूरी तरह से सही नहीं है। हकीकत अलग है।

इसके कई कारण हैं, जिनमें से एक कारण तो यह है कि हर दिन होने वाली केंद्रीय मंत्रालयों की साझा प्रेस कांफ्रेंस बंद कर दी गई। पिछले करीब दो हफ्ते से रोजाना की ब्रीफिंग बंद है। सोचें, अमेरिका में लगभग हर दिन राष्ट्रपति की प्रेस कांफ्रेंस होती है और कोरोना से लड़ने के लिए बने टास्क फोर्स के प्रभारी उनके साथ होते हैं। ब्रिटेन में भी प्रधानमंत्री या स्वास्थ्य मंत्री नियमित रूप से कोरोना वायरस का अपडेट लोगों को देते हैं। भारत में यह काम स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों को दिया गया था पर वे भी अब हर दिन अपडेट नहीं दे रहे हैं।

यह बात अपने आप में संदेह पैदा करने वाली है। अगर सब कुछ ठीक है तो लोग चाहते हैं कि यह बात सरकार के शीर्ष स्तर से बताई जाए या अगर चीजें नियंत्रण में नहीं हैं, संक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, कोरोना टेस्टिंग की रफ्तार नहीं बढ़ पा रही है या सरकार के पास आईसीयू बेड्स व वेंटिलेटर की संख्या कम पड़ रही है तो यह सच भी शीर्ष स्तर से लोगों को बता कर उन्हें आश्वस्त करना चाहिए। पर अफसोस की बात है कि यह काम भी नहीं हो रहा है। धारणा के स्तर पर केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के हारने का एक कारण यह भी है कि लोग समझने लगे हैं कि सरकार ने उनको भगवान के भरोसे छोड़ दिया है। यह सवाल आम लोगों के मन में उठ रहा है कि आखिर जब देश में पांच सौ मामले थे तब पूरा देश बंद कर दिया गया और अब जब डेढ़ लाख से ज्यादा केसेज हो गए तो पूरा देश क्यों खोला जा रहा है? इससे अपने आप यह मैसेज गया है कि सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं।

सरकार का यह दावा लोगों को आश्वस्त नहीं कर पा रहा है कि 25 मार्च को लॉकडाउन करके 14 से 29 लाख लोगों को संक्रमित होने से बचाया गया और 38 से 78 हजार लोगों को मरने से बचाया गया। जिन लोगों को इस आंकड़े पर भरोसा है वे भी पूछ रहे हैं तो अब आगे क्या होगा? जब देश में पांच सौ मामले थे तब अगर लॉकडाउन नहीं किया गया होता तो दो महीने में अधिकतम 29 लाख लोग संक्रमित हुए होते और अधिकतम 78 हजार लोगों की जान गई होती। तो उनका सवाल है कि अब जबकि डेढ़ लाख संक्रमित हो गए हैं और लॉकडाउन में छूट दे दी गई है तो अगले दो महीने में कितने लोग संक्रमित हो सकते हैं? बिना लॉकडाउन के पांच सौ का आंकड़ा 29 लाख पहुंचता तो डेढ़ लाख का आंकड़ा दो महीने में कितने तक पहुंचेगा? क्या सरकार के पास इसका जवाब है? सरकार भले जवाब न दे पर लोग अंदाजा लगा रहे हैं। वे लोग भी जो अपने कामधंधे की चिंता में बाहर निकल रहे हैं वे भी अंदाजा लगा रहे हैं कि आने वाले दिनों में भारत में संक्रमण कितना बढ़ने वाला है।  

धारणा के स्तर पर सरकार इसलिए भी हारी क्योंकि अब तक जितने दावे किए गए सब गलत साबित हो गए हैं। प्रधानमंत्री से लेकर कोरोना वायरस से लड़ने के लिए बने अधिकार प्राप्त समूह के अध्यक्ष तक ने जो दावे किए वे गलत साबित हो गए। इससे लोगों का भरोसा टूटा। प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा करने के एक दिन बाद अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के लोगों से संवाद करते हुए कहा कि जिस तरह महाभारत की लड़ाई 18 दिन में जीती गई थी उसी तरह कोरोना के खिलाफ लड़ाई 21 दिन में जीत ली जाएगी। प्रधानमंत्री ने बड़े संकल्प और प्रतिबद्धता के साथ यह बात कही थी और उनकी हर बात को ब्रह्म वाक्य मानने वाले इस देश के भोले-भाले लोगों ने इसे स्वीकार करके अपने को घरों में बंद कर लिया था।

लेकिन 21 दिन के बाद क्या हुआ? प्रधानमंत्री ने इसे 19 दिन और बढ़ाया। तब लोगों का विश्वास थोड़ा हिला था। पर अगली बार लॉकडाउन बढ़ाने की घोषणा करने जब प्रधानमंत्री आए ही नहीं, तब लोगों का भरोसा पूरी तरह से खत्म हो गया। रही सही कसर सरकार की इस बात से पूरी हो गई कि लोगों को अब कोरोना के साथ रहना सीखना होगा। सो, लोग समझ गए कि लड़ाई जीती नहीं जा सकती। सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री यह दावा करते समय खुद नहीं जानते थे कि कोरोना से लड़ाई 21 दिन में नहीं जीती जा सकती है? ध्यान रहे जिस दिन उन्होंने 21 दिन में लड़ाई जीतने का दावा किया उस दिन यानी 25 मार्च को चीन के वुहान में लागू लॉकडाउन के 60 दिन पूरे हुए थे। ऐसा नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री या उनकी टीम इस तथ्य को नहीं जानती हो।

इसी तरह देश के दूसरे नंबर के कानूनी अधिकारी यानी सॉलिसीटर जनरल ने मार्च के आखिर में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि अब सड़कों पर एक भी प्रवासी मजदूर नहीं है। उसके दो महीने बाद तक देश के सारे राजमार्ग थके, हारे मजदूरों से भरा रहा। लाखों मजदूर पैदल चले, साइकिल और तिपहिया से, सीमेंट मिक्सर में या ट्रकों में भेड़-बकरियों की तरह अपने घरों की ओर जाते दिखे। सॉलिसीटर जनरल के दावे और उसकी हकीकत के इतने बड़े फर्क ने धारणा के स्तर पर सरकार को कमजोर किया।

इसके बाद आया कोरोना से लड़ने के लिए बने अधिकार प्राप्त समूह के प्रमुख डॉक्टर वीके पॉल का ऐतिहासिक ऐलान कि मई के शुरू में मामले कम होने लगेंगे और 16 मई को कोरोना का जीरो केस हो जाएगा। असलियत में इसका उलटा हुआ। मई शुरू होने के साथ ही मामले बढ़ने लगे और 16 मई को संक्रमितों की संख्या का रोजाना औसत पांच हजार तक पहुंच गया। इस किस्म की तमाम सरकारी घोषणाएं, दावे और आश्वासन जैसे जैसे गलत साबित हो रहे हैं वैसे वैसे धारणा की लड़ाई में सरकार पिछड़ती जा रही है। सरकार के धारणा की लड़ाई हारने का सबसे पहला असर सब कुछ मुमकिन कर देने वाले नेता के रूप में प्रधानमंत्री की छवि पर होगा।

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