किसी भी महामारी, आपदा या संकट के समय नेतृत्व की परीक्षा होती है। यह बात हर स्तर के नेतृत्व पर लागू है। नेतृत्व का सिर्फ यह मतलब नहीं है कि जो सत्ता में बैठा है, बल्कि जो भी व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में है उसकी परीक्षा संकट के समय में होती है। भुज में आए भूकंप के समय हुए संकट प्रबंधन ने तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को स्थापित किया। कोशी में आई भीषण बाढ़ के समय हुए राहत व बचाव के काम ने नीतीश कुमार की छवि को एक बड़ी ऊंचाई दी थी। आजादी से पहले 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और जेबी कृपलानी के किए काम को इतिहास में दर्ज किया गया है। कोरोना वायरस के संकट में भी कुछ नेता अपने शानदार काम से तारीफ हासिल कर रहे हैं और उन्हें इतिहास में भी बहुत सम्मान के साथ याद किया जाएगा। पर देश का ज्यादातर नेतृत्व खामोश है या घर बैठा हुआ है।
प्राकृतिक या मानवीय आपदा का समय नेता के लिए सबसे अधिक सक्रियता का होना चाहिए। उसे आम लोगों से जुड़ना चाहिए। आम लोगों के दुख-तकलीफ का भागीदार बनना चाहिए और जहां तक संभव हो उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। पर अफसोस की बात है कि पिछले करीब तीन महीने से चल रहे कोरोना वायरस के संकट के समय लगभग सारे नेता घरों में बैठ गए। चाहे सत्ता पक्ष के नेता हों या विपक्ष के नेता सबने चुप्पी साधे रखी। जो केंद्र या राज्यों में सत्ता में हैं वे मजबूरी में जरूर काम करते रहे पर थोड़े से अपवादों को छोड़ कर उनका काम भी बला टालने वाला था। ऐसा नहीं लगा कि नेता आम जनता के दुख, उसकी समस्या और परेशानियों में भागीदार बन रहे हैं।
कोरोना वायरस का संकट शुरू होने के बाद से ही पहली जरूरत इस बात की थी कि नेता आम जनता की समस्याओं को समझें। यह जानने का प्रयास करें कि लोगों को किस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है और वह जरूरत पूरी करने का प्रयास करें। संकट के समय में नेतृत्व को जनता की जरूरत के हिसाब से काम करना होता न कि सरकार, आर्थिकी और राजनीति की जरूरत के हिसाब से। संकट के समय में राजनीतिक जरूरतें हो सकती हैं या आर्थिकी की जरूरतें भी हो सकती हैं पर वह प्राथमिकता नहीं है। प्राथमिकता जनता और उसकी जरूरतें होती हैं। पर पहले दिन से इसे नहीं समझा गया है।
हर नेता दूसरे को सलाह दे रहा है कि इस पर राजनीति न हो। असल में ‘इस पर राजनीति न हो’ से ज्यादा राजनीतिक बयान कुछ नहीं हो सकता है। जब भारत में संसदीय प्रणाली राजनीति के हिसाब से चलती है तो राजनीति क्यों नहीं होनी चाहिए! नेताओं ने राजनीति को क्या समझा हुआ है, जो कहते हैं कि इस पर राजनीति न हो? क्या वे मान रहे हैं कि राजनीति बहुत खराब चीज है और संकट के समय यह खराब काम नहीं किया जाना चाहिए? अगर राजनीति अच्छी चीज है और इसी से देश व इसके करोड़ों नागरिकों का जीवन तय होता है तो संकट के समय राजनीति क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या राजनीति सिर्फ चुनाव के समय होनी चाहिए?
कोरोना वायरस के संकट का यह दौर राजनीति के लिए बेहतरीन समय है। जो सचमुच नेता है या राजनीति को एक अच्छा काम और लोकतंत्र की जरूरत मानता है वह इस समय राजनीति करेगा। वह इस समय जनता के साथ खड़ा होगा। उनकी समस्या सुनेगा और उसे दूर करने का प्रयास करेगा। पर अफसोस की बात है कि देश का कोई भी नेता इस समय यह काम नहीं कर रहा है। राहुल गांधी एक दिन मजदूरों के साथ बैठे तो एक केंद्रीय मंत्री ने कहा कि राहुल मजदूरों का समय बरबाद कर रहे थे। इस एक अपवाद और बेहद असंवेदनशील बयान के अलावा कहीं पर कोई नेता नेतृत्व करता नहीं दिख रहा है। माफ करें, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री जो अभी काम कर रहे हैं, वह उनका प्रशासनिक दायित्व है और उसे नेतृत्व करना नहीं कहा जा सकता है।
कोरोना वायरस के इस संकट के समय में फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने जिस तरह से काम किया क्या आपने किसी नेता को वैसे काम करते देखा है? क्या नेता वह काम नहीं कर सकते हैं? जिन पार्टियों के पास सैकड़ों, हजारों करोड़ रुपए का जनता के पैसे का ही फंड इकट्ठा है क्या वे अपने उस खजाने का मुंह खोल कर सड़क पर नहीं खड़े हो सकते थे? सरकारें विफल हैं तो पार्टियां या नेता अपने फंड से लोगों के लिए बसें या दूसरे साधन मुहैया नहीं करा सकते थे? पिछले तीन हफ्ते से लाखों लोगों ने भयावह यातना झेल कर ट्रेनों में यात्रा की है, क्या कहीं कोई नेता इन ट्रेन यात्रियों की मदद के लिए खड़ा दिखा? ट्विटर पर आंसू बहाने के अलावा नेताओं ने कुछ नहीं किया। बिहार की एक किशोर उम्र की बेटी अपने बीमार पिता को लेकर 12 सौ किलोमीटर तक साइकिल चला कर दरभंगा चली गई। वह भाजपा के शासन वाले तीन राज्यों से होकर गुजरी पर किसी की नजर उस पर नहीं पड़ी। अगर कोई रास्ते में उसे साइकिल से उतार कर उसे घर पहुंचाने की व्यवस्था करता तो वह राजनीति अच्छी होती। लेकिन वह तो किसी ने नहीं किया और जब वह घर पहुंच गई तो भाजपा के स्थानीय नेता साइकिल खरीद कर उसे देने पहुंच गए। यह घटिया राजनीति है, जो नहीं होनी चाहिए।
संकट के इस समय में राजनीति लोगों की मदद करने की होनी चाहिए। पर पहले पार्टियां और उसके नेता कोरोना की छुट्टी के मोड में चले गए। और जब सरकारें छूट देने लगीं तो वे राजनीति करने लौटे और एक दूसरे के खिलाफ धरना, प्रदर्शन शुरू कर दिया और एक-दूसरे की कमियां निकालने लगे। इस किस्म की राजनीति का समय अभी नहीं है पर नेतृत्व दिखाने का, मिसाल बनने का तो बेहतरीन समय है यह।

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