जहां तक गरीबी का सवाल है यह तो बहुत पुराना राजनीतिक नारा है, कई साल पहले देश से गरीबी खत्म करने के नाम पर एक पार्टी ने अपना खोटा सिक्का चलाया था, सिक्का चल गया और देश की गरीबी वहीं खड़ी रह गई या यौं कहे कि गरीबी तो नही गई, बेचारा गरीब जरूर चला गया।
और अब यह गरीबी घर-घर की कहानी बनकर रह गई है।हाल ही में एक अर्न्तराष्ट्रीय संस्था की सर्वेक्षण रिपोर्ट सामने आई है जिसमे कहा गया है कि इस साल के अंत तक करीब पचास करोड गरीब लोग और गरीब हो सकते है, दुनिया की आठ प्रतिशत आबादी अर्थात दो सौ करोड़ पर गरीबी का खतरा मंडरा रहा है।
फिर बताया जा रहा है कोरोना महामारी ने पूरे विश्व स्तर पर इस गरीबी के आंकड़े को और बढ़ा दिया है। और जहां तक भारत का सवाल है अब तो यह खुले आम सडको पर भूखे नंगे प्रवासी मजदूरों के रूप में दिखाई देने लगी है। ….और फिर अब तो देश का आवाम तो क्या सरकार खुद गरीबी व लाचारी के दौर से गुजर रही है।
कोरोना महामारी के इस संक्रमण काल में जहॉ इस साल भारत की जीडीपी शून्य प्रतिशत तक आने की संभावना व्यक्त की जा रही है, वही भारत में राजकोषीय घाटा साढ़े पांच फीसदी रहने का अनुमान बताया जा रहा है, सरकार को अपने विभिन्न महकमों के बजट में कटौती कर जरूरी सरकारी व राजनीतिक कार्य निपटाने पड़ रहे है, जिसका ताजा उदाहरण बीस लाख करोड के पैकेज की मंजूरी है, जिससे देश के हर वर्ग के लोगो की सहायता का दावा किया जा रहा है। इसकी घोषणा के लिए वित्त मंत्री को लगातार पांच दिन तक विभिन्न घोषणाएं करनी पड़ी, अब इनमे से जमीन पर कितनी आ पाती है, यह भविष्य के गर्भ में है।
इस तरह आज एक और जहां देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जो अपने घर जाने को लालायित है और इसी जुगाड मे देश की सड़कों पर भूखे-नंगे सरकार की लाठियॉ खाकर अपने गंतव्य की आकर बढ़ने को मजबूर है, कहीं सरकार इसी भूखे-नंगे को भोजन-कपड़े मुहैया कराने के लिए आर्थिक सहायता की घोषणा कर रही है, अगर प्रदेश जैसी निष्ठुर सरकार ने अपनी सीमाएं इन हताश-निराश मजदूरों के लिए बंद कर दी है, वहीं देश की विभिन्न सरकारो द्वारा इन्हीं हताश-निराश मजदूरों के लिए बसों व ट्रेनों की व्यवस्था करने का दिखावा किया जा रहा है, अब ऐसे में भारत के अजीब माहौल की वैसे ही कल्पना की जा सकती है।
देश के इसी अजीब माहौल के बीच प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता का नारा उछाला है। वैसे इस नारे को यदि हताश निराश व असहाय सड़क पर चल रहे मजदूर के संदर्भ में देखा जाए तो वह उस असहाय पर बिल्कुल फिट बैठता है, क्योंकि वह फिलहाल ‘आत्मनिर्भर’ ही है, उसे कोई सहायता नहीं पहुंच रही है, और यदि कोरोना महामारी के संदर्भ में इस राजनीतिक नारे को देखा जाए तो हम व हमारा देश इस मामले में बिल्कुल भी आत्मनिर्भर नहीं है, हां… देश का आम आदमी इस माहौल में आत्मनिर्भर अवश्य है। इसलिए आज इस माहौल में यदि यह कहा जाए कि सड़कों पर वास्तविकता और सरकारी महलों में महज दिखावा मात्र है और हर आम व खास बिना किसी की मदद के असहाय होकर आत्मनिर्भर है तो कतई गलत नहीं होगा।

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