हर बात प्रमाण कि नरेंद्र मोदी चुनाव हारना अफोर्ड नहीं कर सकते! चुनाव में भी न्यूनतम 200-225 सीट जीतने का टारगेट। तभी इसके लिए नरेंद्र मोदी, अमित शाह, अरुण जेटली कुछ भी करेंगे। सबकुछ दांव पर लगा देंगे। भारत के सवा सौ करोड़ लोगों को देशभक्त बनाम देशद्रोही में बांट कर चुनाव को युद्ध में कनवर्ट करेंगे। लोकतंत्र की निर्वाचन प्रक्रिया मतलब चुनाव को पानीपत युद्ध का नाम देंगे। आरक्षण के झुनझुने से लोगों को मूर्ख बनाएंगे। साढ़े चार साल के विनाश के बाद ऐन चुनाव से पहले यह समझ दिखलाएंगे कि देखों जीएसटी में अब ये सुधार।
सभी पार्टियों, धड़ों ने फारवर्ड, ब्राह्यण-बनियों के वोटों के महत्व में आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण पर ठप्पा लगाया तो इस आरक्षण में संघ परिवार ने मुसलमानों के आरक्षण की जरूरत मान ली। यह बात मामूली नहीं है। किसी भी बहाने मुस्लिम याकि अल्पसंख्यक आधार पर आरक्षण भविष्य में वह पिटारा बनेगा जिसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता।
सो आरक्षण मोदी-शाह की घबराहट का नंबर एक प्रमाण है। नरेंद्र मोदी पांच साल की उपलब्धियों, सबका साथ-सबका विकास, उद्याटनों, योजनाओं, भाषण-बातों पर चुनाव जीतने के विश्वास में नहीं है। उस नाते अप्रैल-मई 2019 का लोकसभा चुनाव एकदम अलग तरह का, बिरला चुनाव होगा। पिछले प्रधानमंत्रियों ने चुनाव इस चिंता में नहीं लड़ा था कि हार गए तो क्या होगा? जबकि इस चुनाव में नरेंद्र मोदी-अमित शाह का हर दिन इस चिंता में गुजर रहा है कि हार गए तो क्या होगा?
इसलिए हर दिन वह करना है जिससे जीतते हुए लगे। अटल बिहारी वाजपेयी के 2004 वाले लोकसभा चुनाव को याद करें। वाजपेयी और उनके सलाहकार और भाजपा इस विश्वास में थे कि शाईनिंग इंडिया उन्होने जीता देगा। जीत का विश्वास था। वैसा विश्वास आज मोदी-शाह को नहीं है। इन्हें पता है कि हार रहे हैं इसलिए वे तमाम अकल्पनीय काम करेंगे जिससे उनके वोट पटे और विपक्ष हैरान हो।
अपने को गुजरात विधानसभा चुनाव का पैटर्न ध्यान में है। उस नाते लगता है कि जैसे गुजरात में चुनाव जीतने से पहले नरेंद्र मोदी जितनी मेहनत करते थे वैसा ही अभी है। लेकिन बुनियादी फर्क है। तब वैसी घबराहट जाहिर नहीं होती थी जैसी अभी जाहिर हो रही है। तब जीत का, विपक्ष से निपट लेने का सहज विश्वास मोदी की भाव-भंगिमा से झलकता था। तब आरक्षण की कौड़ी खेलने या सीबीआई की चिंता में उसके डायरेक्टर को हटाने जैसी हड़बड़ी का कोई प्रशासकीय काम गुजरात में नहीं होता था। विपक्ष की कमजोरियों, अपनी ताकत, भाजपा का उपयोग, सभाएं- भाषण-नैरेटिव के एक निश्चित पैटर्न में मेहनत करते हुए मोदी चुनाव जीत लेते थे। उनकी भाव-भंगिमा सहज विश्वास झलकाती थी। इसलिए क्योंकि जीतने का आत्मविश्वास रहता था। गुजरात के सदर्भ में तब व अब का यह फर्क भी है कि 2007 या 2012 या 2017 के विधानसभा चुनावों में कभी यह नहीं सुनाई दिया कि आर्थिक बदहाली से गुजराती परेशान है, वहां किसान आंदोलन कर रहे हैं या नौजवानों में बेरोजगारी के चलते गुस्सा है। ऐसा कोई मुद्दा था ही नहीं जैसा इन दिनों केंद्र में मोदी के राज में बना है। सबकुछ मैनेज होते हुए भी लोगों की दस तरह की तकलीफों का आज जैसा अनुभव व नैरेटिव है वैसा गुजरात के विधानसभा चुनावों के वक्त नहीं हुआ करता था। तभी तब के नरेंद्र मोदी और अब के नरेंद्र मोदी की भाव-भंगिमा के और चुनाव को देश को पानीपत बनाने की एप्रोच के कई अर्थ है।
तभी आज नरेंद्र मोदी, अमित शाह का विश्वास दिखावी है। ये मन ही मन घबराए हुए हैं। मगर हां, चुनाव जीतने के इरादे को ले कर जिद्द, आर-पार की जंग की तैयारी है। इसके लिए प्रबंधन सभी है। रामबाण प्रबंध येन-केन-प्रकारेण प्रदेशों में विरोधी दलों में तालमेल नहीं बनने देने का है। विरोधी नेताओं को दस तरह से पटाया, फुसलाया, बहकाया, ललचाया जा रहा है ताकि मजबूत विपक्षी एलायंस न बने! विपक्ष बिखरा रहे और मोदी को वोट देने वाला सामाजिक समीकरण 2014 जैसा बने, यह कोशिश इस सप्ताह आरक्षण के पैंतरे से जाहिर हुई है तो एनआरसी से भी जाहिर हुई। इसी में नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु की पार्टियों के आगे एलायंस की गाजर लटकाई। लेकिन वक्त क्योंकि खराब है इसलिए हर पैंतरा विनाश काले विपरित साबित हो रहा है। तभी इस सप्ताह का अपना एक आंकलन यह भी है भाजपा की सीटे और बिगड़ी है!

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