बुधवार, 30 जनवरी 2019

प्रियंका के कंधों पर उम्मीदों का भार या आर पार की लड़ाई

अगर प्रियंका का प्रदर्शन अच्छा रहा, तो वे लंबी पारी खेलने के लिए राजनीति में रह सकती हैं। अगर नतीजे इसके उलट रहें, तो उनकी नियति ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ वाली हो सकती है। अगर प्रियंका कांग्रेस के पुराने जादू को फिर से जगाने में कामयाब हो जाती हैं, तो यह भाजपा के लिए मुसीबत का पैगाम लेकर आएगाी।

प्रियंका गांधी वाड्रा को किसी जमाने में भारतीय राजनीति के भविष्य के चमकते हुए सितारे के तौर पर देखा जाता था। वे निश्चय ही 90 के दशक में परिदृश्य में मौजूद सभी भारतीय राजनीतिज्ञों- चाहे जवान या बूढ़े- के बीच सबसे करिश्माई चुनाव प्रचारक थीं।

उस समय वे उम्र के तीसरे दशक में ही थीं, लेकिन उनकी चुनावी क्षमताओं ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। गांवों और शहरों में लोग उनके बारे में बातें करते थे।

प्रियंका- जो मिलनसार और सहज थीं। वे हाज़िरजवाबी में सक्षम थीं, लेकिन भाषणबाजी और अभद्र टिप्पणियां नहीं करती थीं। वे बहुत हद तक अपनी दादी इंदिरा जैसी दिखतीं थीं और ज्यादातर लोगों के लिए यही काफी था।

एक बात और थी। नेहरू से बाज उनके खानदान के बाकी लोगों के विपरीत प्रियंका अपने पैतृक शहर इलाहाबाद की सुमधुर हिंदी बोलती हैं, मानो वे यहीं जन्मीं और कभी इस शहर से गई ही नहीं।

कुछ साल पहले, जब एक टीवी साक्षात्कारकर्ता ने चकित होकर प्रियंका गांधी से उनके हिंदी के खूबसूरत उच्चारण और शब्दावली का स्रोत पूछा, तो उन्होंने सहजता के साथ कहा थाः मैंने इसे श्रीमती तेजी बच्चन से सीखा.’

वे सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की दिवंगत मां का जिक्र कर रहीं थीं और यह तथ्य कि किसी जमाने में अच्छे मित्र रहे गांधी और बच्चन परिवारों के बीच संबंध खट्टे हो चुके थे, प्रियंका के लिए मायने नहीं रखता था।


उनकी गैरहाजिरी

जब सबकुछ सही लग रहा था, प्रियंका अचानक 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए संक्षिप्त चुनाव प्रचार करने के बाद सार्वजनिक परिदृश्य से गायब हो गईं।

पिछले पांच सालों में वे काफी कम मौकों पर लोगों के बीच दिखी हैं। उनकी गैरहाजिरी के कारणों को लेकर अटकलों की कमी नहीं रही। यह कहना कि वे अपने बच्चों की परवरिश में व्यस्त रहीं, निस्संदेह एक मूर्खतापूर्ण स्पष्टीकरण है। चर्चा में रहे दो और कयास ज्यादा स्याह थे।



इनमें से ज्यादा चर्चित भाई-बहन के बीच प्रतिद्वंद्विता थी। अगर राहुल गांधी, जिनमें नैसर्गिक करिश्मे की कमी थी, को अपनी मां की जगह लेनी थी, तो सबसे अच्छा यही होता कि प्रियंका खुद को अलग कर लें। यहां यह विचार छिपा हुआ था कि दोनों के बीच तुलना होने से राहुल को नुकसान पहुंचेगा। यह देखते हुए कि समय के साथ राहुल ने खुद को साबित कर दिया है, यह तर्क कमजोर पड़ चुका है।

दूसरा राजनीतिक ‘कारण’ व्यक्तिगत तौर पर प्रियंका को नुकसान पहुंचानेवाला था। यह कहा गया कि अपने कारोबारी लेन-देनों के चलते अधिकारियों के साथ हर तरह की मुश्किलों में घिरे नजर आनेवाले अपने कारोबारी पति रॉबर्ट वाड्रा के कारण वे खुद दागी हो चुकी हैं।

वाड्रा ने इन सबको भाजपा द्वारा बदले की राजनीति से की गई कार्रवाई बताया है। लेकिन कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर बैठे कई लोगों ने भी इन कहानियों को स्वीकार कर लिया और यह मान लिया कि चूंकि उनके पति की प्रतिष्ठा उनका पीछा कर रही है, इसलिए प्रियंका सियासत में वापस नहीं आएंगीं।


उनकी वापसी

बीते दिनों को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा अपनी बहन को लोकसभा चुनाव की लड़ाई के मोर्चे पर आगे खड़ा करने के फैसले ने हर किसी को हैरान कर दिया।

सबसे ज्यादा हैरान कांग्रेस में गांधी परिवार के वफादार थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया जाना, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र वाराणसी भी शामिल है, एक तरह से शेर की मांद में दाखिल होने के समान है।

इसका अर्थ यह है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस के गुरिल्ला दस्ते का नेतृत्व करने जा रही हैं। इस बात की संभावना काफी कम है कि ऐसा वे अपनी मर्जी के खिलाफ कर रहीं हैं।

अचानक, राजनीति से उनके पांच साल के वनवास को लेकर गढ़े गए कयास- जिनमें भाई-बहनों के बीच प्रतिस्पर्धा से लेकर वाड्रा के कारोबारी लेन-देन तक शामिल हैं- दरक गए हैं। इस समय तक उनके भाई ने अपनी जगह बना ली है और अब प्रियंका के पास अपनी जगह बनाने का मौका है।


जाहिर है अगर विपरीत मनोविज्ञान कोई चीज है, तो यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर उनके पति के कारोबारी लेन-देन में गड़बड़ी होती, तो प्रियंका यह कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर सकतीं थीं।

वे उत्तर प्रदेश के जमीनी हालातों से वाकिफ हैं और वे अहम मोड़ों पर कांग्रेस में नीति-निर्माण प्रक्रियाओं का हिस्सा रहीं हैं।

2017 की शुरुआत में प्रियंका ने ही व्यक्तिगत तौर पर अखिलेश को 100 सीटें देने के लिए मनाकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी के गठबंधन को मूर्त रूप दिया था।

जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया और सोनिया गांधी इलाज कराने के लिए देश से बाहर अमेरिका में थीं, तब प्रियंका अपने भाई की सलाहकार और सियासी राजदार बन गईं, जो उनके साथ संभवतः उनके ही आग्रह पर रणनीतिक बैठकों में भाग लेती थीं और राज्य के नेताओं, खासकर उत्तर प्रदेश के नेताओं से निबटा करती थीं।

अब चूंकि प्रियंका लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के ज्यादा पेचीदा हिस्से के लिए कांग्रेस की महासचिव होंगीं, इसलिए उन्हें अब पिछले विधानसभा चुनावों में (कांग्रेस और सपा को) भाजपा के हाथों मिली करारी शिकस्त को देखते हुए अपनी चुनावी रणनीति को नया रूप देना होगा।

इसलिए जिस चुनौती को उन्होंने स्वीकार किया है, वह काफी जोखिम भरा, एक तरह से लगभग आत्मघाती किस्म का मिशन है।

अगर प्रियंका का प्रदर्शन अच्छा रहा, तो वे लंबी पारी खेलने के लिए राजनीति में रह सकती हैं। अगर नतीजे इसके उलट रहें, तो उनकी नियति ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ वाली हो सकती है।

वंशानुगत उत्तराधिकारियों के पास गलती करने की ज्यादा छूट नहीं होती है। प्रियंका के साथ पहले ही सहृदयता दिखाई गई है और उन्हें पिछले विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद वर्तमान पद की जिम्मेदारी सौंपी गई है।

राहुल गांधी अपनी बहन और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कांग्रेस का महासचिव बनाए गए ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए एक उल्लेखनीय भूमिका देख रहे हैं। यह लोकसभा चुनाव में राज्य की देख-रेख से भी आगे जाती है।


प्रियंका और ज्योतिरादित्य को एक महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी दी गई है। प्रियंका के कंधों पर उम्मीदों का भार है।

अगर वे इसमें कामयाब होती हैं, तो अपने भाई के साथ वे फैसले लेनेवाली शीर्ष टीम में पहुंच जाएंगी। यह कांग्रेस संगठन में बदलावों को जन्म दे सकता है। सफलता ज्योतिरादित्य को भी शीर्ष पर पहुंचा सकती है।

अतीत में प्रियंका ने जनता पर अपनी पकड़ का प्रदर्शन किया है। कुछ लोगों को यह याद होगा कि 1999 में प्रियंका के दिवंगत पिता राजीव गांधी के रिश्ते के भाई अरुण नेहरू कांग्रेस से रिश्ता तोड़ कर भाजपा के टिकट पर रायबरेली से चुनाव लड़ रहे थे।

प्रियंका ने वहां सिर्फ एक सभा को संबोधित किया। उन्होंने वहां मौजूद जनसमूह से कहा, ‘क्या आपको यह पता नहीं है कि इस आदमी ने मेरे पिता की पीठ में छुरा भोंका? मुझे इस बात की हैरानी हो रही है कि आप यहां उनको तवज्जो भी दे रहे हैं!’

और इसने अरुण नेहरू के संसदीय जीवन का अंत कर दिया। शुरु में वे आसान जीत की ओर बढ़ते दिख रहे थे, लेकिन प्रियंका के संक्षिप्त हस्तक्षेप ने उनकी उड़ान को जमीन पर ला पटका। अगर प्रियंका कांग्रेस के पुराने जादू को फिर से जगाने में कामयाब हो जाती हैं, तो यह भाजपा के लिए मुसीबत का पैगाम लेकर आएगा।

योगी-मोदी की जोड़ी ने मिलकर यूपी का दम निकाल दिया है और कहा जा रहा है कि वहां असंतोष काफी ज्यादा है। इससे प्रियंका को पांव टिकाने की जमीन मिलेगी।  इस असंतोष का फायदा उठा पाने में नाकामी का नतीजा कांग्रेस के लिए वनवास होगा।

 लोकतंत्र में वंशवादी नेता के लिए दुआ करना बेमतलब-सी बात है। लेकिन जब कोई वंशवादी उत्तराधिकारी अपनी इच्छा से धर्म आधारित बहुसंख्यकवाद को थोपने की कोशिशों के खिलाफ मोर्चा संभालता है, तो उनका काम उनकी राजनीति को बदल देता है। अंत में सिर्फ उनके मूल्य मायने रखते हैं।

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