मीडिया को तो बख्श दों
मीडिया पर एकतरफा टीका-टिप्पणी करने का चलन इधर बढ़ता जा रहा है। कोई भी और कभी भी पूरे मीडिया जगत के विषय में बयान दे देता है और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर देता है।
मीडिया ही ऐसा माध्यम है, जो आप तक सूचनाएं पहुंचाता है, आपके मुद्दे और समस्याएं उठाता है और किसी भी विषय पर आपको अपनी राय कायम करने में मदद करता है। हम सब के लिए यह जानना भी जरूरी है कि मीडियाकर्मी कितनी कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने काम को अंजाम देते हैं।
कभी कभार यह चुनौतीपूर्ण माहौल उनकी जान तक ले लेता है। वह यह चुनौती इसलिए स्वीकार करते हैं, ताकि आप तक निष्पक्ष और सटीक खबरें पहुंच सकें।
हाल में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने समाचार एजेंसी एएनआइ की संपादक स्मिता प्रकाश पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू को लेकर निशाना साधा। राहुल गांधी ने स्मिता प्रकाश को अंग्रेजी में प्लाइअबॅल यानी लचीला अथवा नमनशील पत्रकार बताते हुए कहा था कि इंटरव्यू में वह सवाल भी खुद ही पूछ रही थीं और जवाब भी खुद दे रही थीं। इस पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, इंडियन वीमेंस प्रेस कॉर्प्स और प्रेस एसोसिएशन और अन्य अनेक पत्रकार संगठनों ने आपत्ति जतायी और राहुल गांधी के बयान की निंदा की है।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने बयान जारी कर कहा कि पत्रकारों को डराना और बदनाम करना एक पसंदीदा रणनीति बन गयी है। राजनीतिज्ञों को इसका इस्तेमाल करते देखा गया है। इस मामले में केवल कांग्रेस ही दोषी नहीं है। पिछले कुछ समय में भाजपा और आप के शीर्ष नेताओं ने भी पत्रकारों के लिए प्रेस्टीट्यूट, न्यूज ट्रेडर्स, बाजारू या दलाल जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया है।
एडिटर्स गिल्ड ने कहा कि इस पर तत्काल विराम लगना चाहिए। दिल्ली जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने मांग की है कि कांग्रेस पार्टी इस पर माफी मांगे और अफसोस जताए। एसोसिएशन का कहना था कि एक पत्रकार के बारे में केवल इसलिए बुरा-भला कहना, क्योंकि उन्होंने प्रतिद्वंद्वी राजनेता का इंटरव्यू लिया, अनुचित है।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राफेल मुद्दे पर आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में न्यूज एजेंसी एएनआइ को दिये गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू को नियोजित बताया था। राहुल गांधी के इस बयान पर स्मिता प्रकाश ने जवाब में ट्वीट किया था कि राहुल गांधी पीएम पर हमला करना चाहते हैं, तो करें, लेकिन उनका अपमान न करें। िस्मता प्रकाश ने लिखा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष से ऐसी उम्मीद नहीं थी।
इसके बाद कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के इसके पक्ष और विपक्ष में बयान आने लगे। राहुल गांधी की टिप्पणी के बाद अरुण जेटली ने निशाना साधा, तो कांग्रेस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर प्लेएबल शब्द का इस्तेमाल करते हुए एक वीडियो जारी किया गया, जिसमें पीएम मोदी के पूर्व के कुछ इंटरव्यू को डाला गया था।
ऐसी कुछ घटनाएं सामने हैं, जिनमें पत्रकारों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी। कुछ समय पहले श्रीनगर में राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की आतंकवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। त्रिपुरा में पिछले साल दो पत्रकारों की हत्या कर दी गयी थी। बेंगलुरू में गोरी लंकेश की हत्या तो चर्चित रही ही है। छोटी जगहों पर पत्रकारिता करना और चुनौतीपूर्ण होता है। वहां माफिया से टकराना आसान नहीं होता।
कुछ समय पहले बिहार के सीवान में पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या कर दी गयी थी। इसके अलावा मध्य प्रदेश के भिंड जिले में पत्रकार संदीप शर्मा की हत्या इसलिए कर दी गयी थी, क्योंकि वह रेत माफिया के खिलाफ अभियान छेड़े हुए थे। कुछ ही दिनों पहले दूरदर्शन के मीडियाकर्मी अच्युतानंद नक्सली हमले में मारे गये।
यह कोई दबा-छुपा तथ्य नहीं है कि मीडियाकर्मियों को कई तरह के दबावों का सामना करना पड़ता है। इसमें राजनीतिक और सामाजिक, दोनों दबाव शामिल हैं।
कश्मीर में रिपोर्टिंग करना तो और दुष्कर कार्य है। आतंकवादियों के निशाना बनने का हमेशा खतरा बना रहता है। इतने दबावों के बीच आप अंदाज लगा सकते हैं कि खबरों में संतुलन बनाये रखना कितना कठिन कार्य होता है। यह सच है कि मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है, लेकिन आज भी अखबार खबरों के सबसे प्रामाणिक स्रोत हैं। हालांकि यह भी सही है कि पत्रकारों को राजनीतिक खेमेबंदी से बचना चाहिए।
हाल में मणिपुर के एक पत्रकार को भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री की कटु आलोचना करना महंगा पड़ गया। उसे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत एक साल तक हिरासत में रखने की सजा सुनायी गयी है। सबरीमला मंदिर में दो महिलाओं के प्रवेश के विरोध में आयोजित हड़ताल के दौरान विभिन्न जिलों में मीडिया पर हुए हमले हुए। तिरुवनंतपुरम में हड़ताल के दौरान हिंसा की कवरेज कर रहे तीन मीडियाकर्मी घायल हो गये।
हाल में अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने इस साल दुनिया में मीडियाकर्मियों पर हुए हमलों और हत्याओं के आंकड़े जारी किये हैं। इसमें भारत भी है।
दुनिया में इस साल 80 मीडियाकर्मियों की हत्या हुई। सबसे ज्यादा 15 मीडियाकर्मी अफगानिस्तान में मारे गये हैं। मध्य पूर्व में कई स्थानों पर संघर्ष चल रहा है। इस संघर्ष का निशाना मीडियाकर्मियों भी बने हैं। दो अक्तूबर को तुर्की के इस्तांबुल शहर में वॉशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या कर दी गयी थी। खगोशी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के आलोचक माने जाते थे।
अमेरिका की प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम मैगजीन ने इस साल पर्सन ऑफ द ईयर का सम्मान चार पत्रकारों और एक अखबार को संयुक्त रूप से दिया है। उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी के संघर्ष के लिए सम्मानित किया गया है।
इसमें सऊदी अरब के दिवंगत पत्रकार जमाल खशोगी के अलावा म्यांमार सरकार द्वारा जेल में बंद किये गये न्यूज एजेंसी रॉयटर्स के दो पत्रकार वा लोन और क्यो सू ओउ शामिल हैं। उनके ऊपर ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट की धारा लगाकर म्यांमार सरकार ने करीब एक साल से जेल में बंद रखा हुआ है। ये दोनों पत्रकार रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में रिपोर्टिंग कर रहे थे, जिससे वहां की सरकार उनसे नाराज थी।
इनके अलावा मैरीलैंड के अखबार कैपिटल गजेट को भी चुना गया है। इस अखबार के दफ्तर पर हुए हमले में पांच लोग मारे गये थे। फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा को भी इस श्रेणी में रखा गया है, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। टाइम मैगजीन का मानना है कि ये लोग दुनियाभर में लड़ी जा रही अभिव्यक्ति की लड़ाई का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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