शनिवार, 19 जनवरी 2019

इंटेलीजेंस ब्यूरो का काम ही भारत के सत्ताधीशों की भारतीयों से हिफ़ाज़त करना रहा है

1887 में ब्रिटिश राज द्वारा बनाए गए इंटेलीजेंस ब्यूरो को भारतीय क़ानून के तहत कोई अधिकार प्राप्त नहीं है. इसे आधिकारिक रूप से ‘एक नागरिक संगठन बताया जाता है, जिसके पास पुलिस जैसी शक्तियां नहीं हैं।’


 

1887 का इंटेलीजेंस ब्यूरो की स्थापना से जुड़ा पत्र 


भारत सरकार द्वारा अपनी 10 सुरक्षा एजेंसियों को अपने ही नागरिकों की जासूसी करने का आधिकार देना, न सिर्फ गैरकानूनी और कानून के लिहाज से खराब है, सभी इंद्रियों के भी खिलाफ है।

यह एक दुर्भावनापूर्ण अधिसूचना है, जिसे विचार के स्तर पर ही खत्म कर देना चाहिए था। इस सरकार द्वारा और पिछली सरकार द्वारा भी।

सबसे ज्यादा चिंताजनक यह है कि भारत का इंटेलीजेंस ब्यूरो, जो नागरिकों की निजी बातचीत में तांक-झांक करने के लिए अधिकृत की गईं एजेंसियों में शीर्ष पर है, के पास आजादी के बाद से भारतीय कानून के तहत कोई अधिकारपत्र/शासनादेश नहीं है।

यह एक तथ्य है। महज दावा नहीं है।

आईबी का जन्म ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 में हुए पहले महान विद्रोह के लगभग ठीक बाद हुआ। इसको सौंपी गई जिम्मेदारी थी: ‘साम्राज्यवादी सरकार को ‘सार्वजनिक शांति और कानून-व्यवस्था को प्रभावित करनेवाली वैसी हर चीज से अवगत कराना, जिसे निगरानी में रखा जा सकता है।’

उनके लिए जो याद रखने में यकीन नहीं करते हैं, यह याद दिलाना अच्छा होगा कि 1857 में भारी रक्तपात हुआ था- 1,00,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे; यह एक बड़े क्षेत्र में फैला था; इसकी शुरुआत अंधविश्वास में हुई थी, लेकिन आखिरकार हर जाति, वर्ग, धर्म को इसने अपने अंदर ले लिया; और यह एक साल से ज्यादा वक्त तक चला।

इसे भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर जाना जाता है, जिसमें एक हिंदू सिपाही ने चिंगारी सुलगाई और एक मुगल सम्राट वह ध्रुव बना जिसके पीछे हर कोई एकजुट होने के लिए तैयार था।

आखिरी तथ्य और कानपुर घेराबंदी की बर्बरता ने ब्रिटिश साम्राज्य को ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग करने और 1858 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के द्वारा अपने उपनिवेश का नियंत्रण सीधे अपने हाथों में लेने के लिए प्रेरित किया।

भारत इस तरह से आधिकारिक तौर पर ब्रिटिश ताज के अधीन आ गया और महारानी ने भारत के पहले सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (भारत सचिव) को नियुक्त किया।

वे जल्दी ही भारत की ‘साम्राज्ञी’ भी बन गईं और उनके आज्ञाकारी कर्मचारी, रिचर्ड एशटन क्रॉस, प्रथम विस्काउंट क्रॉस, 3 अगस्त, 1886 को 8वें भारत सचिव बने।

अपने ज्यादातर पूर्ववर्तियों के उलट, जो कुछ महीने से ज्यादा यह जिम्मेदारी नहीं संभाल पाए थे, क्रॉस इस भूमिका में काफी तरक्की करनेवाले थे। छह सालों तक (1874-1880) प्रधानमंत्री बेंजामिन डिसरेली के गृह सचिव रह चुकने के बाद उन्हें खासतौर पर इस दायित्व के लिए चुना गया था।

भारत को साम्राज्य के लिए सुरक्षित बनाना

पद ग्रहण करने के छह महीने के भीतर क्रॉस ने भारत में वायसराय के कैंप को 25 मार्च, 1887 की तारीख से एक चिट्ठी- सीक्रेट डिस्पैच संख्या 11, लिखी।

इसमें उन्होंने, ‘भारत में गोपनीय और राजनीतिक खुफिया सूचना’ इकट्ठा करने के लिए एक तंत्र का निर्माण करने के लिए कहा, खासतौर पर कोई भी पर्यवेक्षण ‘जिसका ताल्लुक साम्राज्य के पंजाब और हैदराबाद जैसे राजनीतिक साजिशों और खतरों को लेकर असाधारण ढंग से संवेदनशील हिस्सों में रहनेवाले योग्य स्थानीय लोगों को तैनात करने से होने वाले लाभ से हो।’

उस समय भारत के वायसराय काफी यात्रा कर चुके फ्रेडरिक हेमिल्टन-टेंपल-ब्लैकवुड थे, जिन्हें फर्स्ट मार्क्वेस ऑफ डफरिन के तौर पर भी जाना जाता है।

वे इजिप्ट (मिस्र) और लेबनन से आए थे और भारत से कनाडा गए। उनका अंत तिरस्कार और बदनामी भरा रहा जब उनकी कंपनी को एक धोखाधड़ी कांड में भंग कर दिया गया, हालांकि वे हमेशा साम्राज्य के दुलारे बने रहे। ब्रिटिश कोलंबिया का एक द्वीप का नाम बाद में उनके नाम पर रखा गया।



15 नवंबर 1887  को डफरिन ने क्रॉस को जवाब देते हुए लिखा कि उन्होंने स्थानीय निवासियों की खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए एक योजना तैयार की है।

डफरिन ने दो अफसरों- कर्नल हैंडर्सन और डी.ई. मैकक्रकेन- की रिपोर्ट की प्रति भी साथ भेजी। यह योजना उस समय की भारतीय सीमाओं को देखते हुए द्विस्तरीय थी।

a) डफरिन की योजना के अनुसार ब्रिटिश द्वारा नियंत्रित प्रदेशों में पुलिस की मदद ली जाएगी।

b) स्थानीयों द्वारा शासित प्रदेशों में, उनकी योजना के मुताबिक ‘राजनीतिक दफ्तरों पर पहले से मौजूद माध्यम इस्तेमाल किए जाएंगे, जिससे राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों की जानकारी मिलती रहे, जिसके बारे में विस्तृत रूप में संलग्न कागजों में बताया गया है।’

डफरिन का मानना था कि भारतीयों को एक बड़ी ब्रिटिश जासूसी सेना के गठन पर आपत्ति होगी, जो देश भर में मंडराती हो. इसके अलावा यह ख़ुफ़िया रहने के उद्देश्य के उलट भी होता. उसकी योजना थी कि स्थानीय सरकारों से उनके अपने उद्देश्यों के लिए जानकारियां इकठ्ठा करने को कहा जाए और उसमें से ज़रूरी जानकारी भारत सरकार को दी जाये.

डफरिन ने इस जानकारी को प्राप्त करने और उसका विश्लेषण करने में स्थानीय या केंद्रीय स्तर पर अपने कम से कम आदमियों को रखने की बात सोची थी. जहां जरूरी हो, वहां वे पूछताछ या उचित कार्रवाई करें.

उल्लेखनीय है कि तबसे इंटेलीजेंस ब्यूरो की संरचना और काम का तरीका यही रहा है.



वर्तमान आईबी 

साफ शब्दों में कहें तो, आईबी का काम है:

– सरकार की ओर से देश में चल रहे राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों की खुफिया जानकारी इकठ्ठा करना. मतलब: सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के लिए. इनकी नज़र में सभी राजनीतिक दलों के सभी राजनेता, असंतुष्ट राजनीतिक और गैर-राजनीतिक समूह (हिंसक या अहिंसक) और धार्मिक समूह रहते हैं, जिन पर सरकार नजर रखना चाहती है.

आज की अंग्रेज़ी में समझें तो आईबी का औपचारिक और कानूनी काम ‘ऑपोज़िशन रिसर्च‘ (विपक्ष पर रिसर्च), असंतुष्टों की जासूसी और प्रोफाइलिंग करना है.

यह ऐसे कैसे करता है? सूचना संग्रह, जांच और कार्रवाई की यह जटिल व्यवस्था पिछली एक शताब्दी से अस्तित्व में है.

ब्यूरो की संरचना

ब्यूरो के काम को संक्षेप में इस तरह से समझा जा सकता हैः

केंद्रीय आईबी की विभिन्न राज्यों में अपनी इकाइयां हैं, जिन्हें सहायक आईबी कहा जाता है. अंग्रेजी राज के समय में इन्हें प्रोविंशियल स्पेशल ब्रांच (प्रांतीय विशेष शाखा) कहा जाता था. इसमें कर्मचारियों की संख्या कम होती है.

यह मुख्यतः स्थानीय पुलिस और राज्य खुफिया शाखाओं (जो सहायक आईबी से अलग हैं) के जरिए काम करता है. सहायक आईबी और राज्यों की आईबी के बीच अंतर किया जाना जरूरी है.

सहायक आईबी केंद्र सरकार को जबकि राज्य की आईबी राज्य सरकार को रिपोर्ट करता है. अगर दोनों जगहों पर अलग-अलग सियासी दलों का शासन हो, तो समस्याएं खड़ी हो सकती हैं.  खासतौर पर पिछले दो दशकों के विकट राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह बात कही जा सकती है.

चूंकि इंटेलीजेंस ब्यूरो के लिए कोई कानूनी आदेशपत्र या निगरानी व्यवस्था नहीं है- इसलिए खुफिया जानकारी को साझा करना या सूचना को रोककर रखना पूरी तरह से बैक चैनलों के एक तंत्र पर निर्भर करता है. 2011 में सिक्योरिटी सर्विसेज बिल (सुरक्षा सेवा विधेयक) पारित करने की कोशिश के जरिये वास्तव में बैक-चैनलों को ‘सुरक्षा उपायों’ के तौर पर औपचारिक रूप देने की कोशिश की गई थी.

राज्य का आईबी, जो पार्टी बी को रिपोर्ट करता है, हो सकता है कि अधीनस्थ आईबी के साथ या आपस में सूचना साझा न कर पाए, अगर वे गठबंधन में सहयोगी नहीं हैं या फिर उनके बीच रिश्ते बिगड़े हुए हैं.

आंध्र प्रदेश और केंद्र के बीच खराब रिश्ते को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. चीजों को और उलझाने के लिए आंध्र प्रदेश तेलंगाना की या तेलंगाना आंध्र प्रदेश की जासूसी करने की इच्छा रख सकता है. या बिहार ओडिशा पर जासूसी बैठाना चाह सकता है.



आखिर, खुफियागिरी का मुख्य एजेंडा उसे मिले आदेश के मुताबिक राजनीतिक ही तो है. तो फिर वे करते क्या हैं? वे हर जगह एक दूसरे के अधिकार क्षेत्रों में दाखिल होते रहते हैं और एक दूसरे के रास्ते में आते रहते हैं.

लेकिन अगर यह सब इतना प्रकट रूप से धुंधला और मूर्खतापूर्ण और असल में एक सनकी विचार है, तो यह होता कैसे है और होता ही क्यों है?

क्या आजादी के 70 सालों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसने इस पूरे घोटाले को समझा, सत्ता में आया और कहा कि यह सब रुकना चाहिए. आखिर हर कोई कभी भी सभी राज्यों में हमेशा सत्ता में तो रहता नहीं है!

इंटेलीजेंस ब्यूरो का इस्तेमाल करने वाली पार्टी को यह मालूम होता है कि कुछ वर्षों बाद वह चीजें पलट कर उसकी तरफ भी आ सकती हैं. सवाल है फिर ऐसा होता क्यों है?

कई सिर वाला दानव

1888 में जब मैक्क्रैकेन भारत के इंटेलीजेंस ब्यूरो के पहले डायरेक्टर बने, उस समय वे आधिकारिक तौर पर ठगी व डकैती विभाग में सहायक महानिरीक्षक (असिस्टेंट जनरल सुपरिंटेंडेंट) थे.

अपनी इस विशिष्ट स्थिति के कारण, वे उतनी ही आसानी से राजाओं, वायसरायों, निज़ामों और महाराजाओं के भव्य कमरों में आ जा सकते थे, जितनी आसानी से वे गंदगी भरे पुलिस स्टेशनों के भीतरी कमरों में आवाजाही कर सकते थे.

अमरिंदर सिंह की अधिकृत जीवनी पीपुल्स महाराजा  में खुशवंत सिन्ह ने मैक्क्रैकेन का जिक्र बेहिसाब किस्से सुनानेवाले और झूठी कहानियां फैलानेवाले के तौर पर किया है, जिसने आयरलैंड की मिस फ्लॉरी ब्रायन के साथ पटियाला के महाराजा की प्राइवेट शादी के बारे में उपसचिव को लिखा.

आज़ादी के बाद भी आईबी के कामकाज का तरीका बदला नहीं है.



चूंकि वास्तव में इसमें कोई प्रत्यक्ष भर्ती नहीं होती है, यह भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय पोस्टल सेवा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों से अपना काम चलाता है और इनमें ही प्रतिनियुक्ति करता है- यानी बुनियादी तौर पर जहां भी इसे ‘टैलेंट’ दिखाई देता है वहां से वह अधिकारी लेता है और जहां उसे जरूरत दिखाई देती है, वहां देता है.

ब्रिटिश काल के ठगी और डकैती विभाग की जगह नक्सल विरोधी विभागों, आतंकवाद विरोधी इकाइयों और तस्करी विरोधी विभागों, काउंटर इंटेलीजेंस विभाग, एफआईसीएन (भारतीय जाली नोट) विरोधी विभाग ने ले ली है- यानी कोई भी ऐसा विभाग जिसके पास संविधान की तीसरी अनुसूची को निष्प्रभावी बनानेवाली असाधारण शक्तियां हों.

भारतीय सामाजिक व्यवस्था, न्यायपालिका भी जिसका एक हिस्सा ही है, संभावित शारीरिक जोखिम के हल्के से जिक्र मात्र से ही अपने मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता को गटर में फेंकने में कोई देरी नहीं लगाता है. यहां डर केंद्र में है. और अगर डर का कोई वास्तविक कारण मौजूद नहीं है, तो भी डर को खड़ा करना आसान है.

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती

लेकिन कहानी यहीं समाप्त नहीं होती. अगर मैक्क्रेकेन अपने ब्रिटिश आकाओं के प्रति जवाबदेह थे, तो यह सवाल पूछना दुरुस्त होगा कि आज आईबी किसके प्रति जवाबदेह है?

तकनीकी तौर पर इसे गृह-मंत्रालय के प्रति जवाबदेह बताया गया है. लेकिन (और यह सच है) आईबी के कामकाज को लेकर भारत की संसद का कोई अधिनियम नहीं है, न ही इस संबंध में किसी कार्यपालिका आदेश का ही वजूद है. ऐसा कहीं कुछ नहीं है.

1500 करोड़ के बजट के बावजूद यह संगठन भारतीय कानून के तहत एक कानूनी निकाय नहीं है. सबसे खराब बात यह है कि यह तथ्य भारत की न्यायपालिका से छिपा नहीं है.

2012 में एक भूतपूर्व आईबी अधिकारी ने एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें संगठन से अपने संवैधानिक या विधिक अधिकारों को स्पष्ट करने के लिए कहा गया.

वरिष्ठ आईबी अधिकारी आरएन कुलकर्णी ने कोर्ट को कहा, ‘आईबी के पास पिछले 125 वर्षों में अपने जन्म और विकास को लेकर कहने के लिए 1887 में जारी किए गए एक शासनादेश के अलावा और कुछ नहीं है. न ही भारत की स्वतंत्रता, न ही एक संविधान के अंगीकरण, न ही सीआरपीएफ और सीआईएसएफ जैसे केंद्रीय पुलिस संगठनों के लिए विनियामक कानूनों ने कभी आईबी को कोई कानूनी दर्जा प्रदान किया. यह संवैधानिक निर्वात में स्थित है.’

जब कोर्ट ने केंद्र से अपना पक्ष साफ करने के लिए कहा, तो इसने जवाब में कहा:

‘आईबी एक नागरिक संगठन है, जिसके पास पुलिस शक्तियां नहीं हैं.’

सेवानिवृत्त आईबी अधिकारी आरएन कुलकर्णी ने सिन्स ऑफ नेशनल कॉन्शेंस नाम की एक किताब भी लिखी जो अब बाजार में उपलब्ध नहीं है.

2015 में प्रिया पिल्लई लुकआउट नोटिस मामले में ग्रीनपीस कार्यकर्ता की वकील इंदिरा जयसिंह ने सफलतापूर्वक यह दलील सामने रखी कि आईबी के पास लुकआउट सर्कुलर जारी करने का कोई अधिकार नहीं था.

जस्टिस राजीव शकधर को जयसिंह की यह दलील सही लगी कि गृह मंत्रालय का 2010 का ऑफिस मेमो एक वैध कानूनी आदेश नहीं था और उन्होंने इसे ‘स्वीकार करने के योग्य नहीं’ बताया ‘क्योंकि इसे कानून की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.’

2017-18 में गृह मंत्रालय ने आईबी के लिए कानूनी आदेश के न होने को स्वीकार किया जब 8 पीपीएमडीएस (प्रेसिडेंट पुलिस मेडल्स फॉर डिस्टिंग्विश्ड सर्विस) और 26 पीएमएमएस (पुलिस मेडल्स फॉर मेरिटोरियस सर्विस) को एक कानून सम्मत इंटेलीजेंस निकाय की जगह केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत वर्गीकृत करना पड़ा।

लेकिन इसने भी इंटेलीजेंस अधिकारियों को अपना आदेश चलाने से नहीं रोका है। 2012 में, जब भारत ने अपनी आजादी की 65वीं वर्षगांठ मनाई, इंटेलीजेंस ब्यूरो ने अपनी स्थापना की 125वीं वर्षगांठ मनाई। इसने इस मौके के स्मारक के तौर पर एक विशेष अंक भी निकाला।

आईबी अपने वजूद को आजाद भारत से भी ज्यादा पुरानी पंरपरा से जोड़ता है। इसकी आस्था ऐसे विचारों के प्रति है, जो स्वतंत्रता के विचार से मेल नहीं खाता। अपनी स्थापना, इतिहास और परंपरा से यह स्वतंत्रता विरोधी है। यह इससे अलग हो भी कैसे सकता था, इसकी स्थापना ही साम्राज्य के खिलाफ उठनेवाली आवाजों को दबाने के लिए की गई थी।

साम्राज्य की 125 सालों की परंपराएं ऐसे संगठनों को आधुनिक बना सकती हैं। लेकिन चाहे कितना भी समय क्यों न बीत जाए, वह ऐसी मजबूत संस्कृति वाले संगठन के अनिवार्य रूप से यथास्थितिवादी स्वभाव को नहीं बदल सकती हैं।

बिना पुलिस शक्ति के किसी निजी संगठनों को भारत के नागरिकों की जासूसी करने और उन पर निगरानी रखने की प्रत्यक्ष और विस्तृत शक्ति देना एक बड़े कैदखाने में दाखिल होने के समान है।

हां, हमें यह बात हमेशा से मालूम थी कि कुछ लोग हमेशा निगरानी में रहते हैं। ठीक है, छिपाने के लिए कुछ भी नहीं होना अच्छी बात है. लेकिन यह कोई उतना छोटा मसला नहीं है, जितना हर कोई इसे मानना चाहता है।

एक ऐसे युग में जब आलोचना करने के कारण आप राजद्रोह के आरोप में या राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल की सलाखों के पीछे डाले जा सकते हैं; ऐसे समय में जब परस्पर अंकुश की व्यवस्था नाकाम हो गई है, जब सामाजिक करार का अस्तित्व नहीं रह गया है, तब हर स्वतंत्र विचार में अनाधिकार प्रवेश संभव है। क्योंकि स्वतंत्रता अपने आप में ही यथास्थिति को तोड़नेवाली है।

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