गुरुवार, 31 जनवरी 2019

कांग्रेस अब भी विधानसभा में बहुमत में नहीं अब भी वैशाखी पर

 कांग्रेस अब 99 के फेर से निकलकर 100 पर पहुंच गई है। लेकिन, बात अगर विधानसभा में बहुमत की हो तो कांग्रेस को एक सीट की कसक बनी हुई है।  सुई की नोंक पर और आरएलडी के सहयोग से टिका हुआ है। कांग्रेस अब भी विधानसभा में बहुमत में नहीं कांग्रेस अब भी वैशाखी पर
जयपुर । अलवर जिले की रामगढ़ विधानसभा सीट पर कांग्रेस की साफिया खान ने जीत दर्ज की है। इस सीट पर मिली जीत के साथ ही कांग्रेस अब 99 के फेर से निकलकर 100 पर पहुंच गई है। रामगढ़ में मिली जीत के बाद से पार्टी के भीतर खुशी की लहर दौड़ गई है। लेकिन, बात अगर विधानसभा में बहुमत की हो तो कांग्रेस को इस जीत के बाद भी एक सीट की कसक बनी हुई है। विधानसभा में कांग्रेस का बहुमत इस सीट के बाद भी सुई की नोंक पर और आरएलडी के सहयोग से टिका हुआ है।


 विधानसभा चुनाव के दौरान सामने आए परिणाम के दौरान कांग्रेस ने 99 सीटें हासिल की थी। इस दौरान 199 सीटों पर चुनाव हुए थे। जिसमें से बहुमत के लिए जरूरी 100 के आंकड़े को कांग्रेस ने सहयोगी दल आरएलडी की एक सीट को शामिल करते हुए हासिल किया था। 99 के इस फेर के चलते पार्टी का बहुमत सदन के भीतर सुई की नोंक पर टिका हुआ है। ऐसे में रामगढ़ विधानसभा सीट पर जीत हासिल करने के बाद कांग्रेस के पास अकेले के दम पर अब 100 सीटें हो गई है।  लेकिन, अब भी सदन में कांग्रेस के पास अकेले के दम पर बहुमत नहीं है। सदन में बहुमत के लिए पार्टी को आरएलडी के सहारे की जरूरत बनी रहेगी। क्योंकि 200 सीटों की इस विधानसभा में बहुमत के लिए 101 सीटें चाहिए। इस आकड़े को कांग्रेस आरएलडी के सहारे से ही छू रही है। रामगढ़ सीट पर कांग्रेस की साफिया खान ने 12 हजार 228 वोटों से जीत दर्ज की है।


 विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस नेताओं के आशा के विपरीत सीटें पार्टी को हासिल हुई थी। पिछली  भाजपा सरकार के खिलाफ बने एंटी इंकंबेसी के बीच पार्टी के नेताओं को उम्मीद थी कि कांग्रेस करीब 115 से 120 सीटें हासिल कर लेगी। लेकिन, ऐसा हो नहीं सका। पार्टी की गाड़ी 99 के फेर में जाकर अटक गई थी। इसके पीछे प्रमुख रूप से कांग्रेस के भीतर टिकट बंटवारे से लेकर संगठनात्मक रूप से कमजोर होने को कारण माना गया।टिकट बंटवारे के दौरान पार्टी नेताओं के बीच छिड़ी जंग के चलते कई सीटों पर पार्टी को भीतरघात का सामना करना पड़ा था।

3 फरवरी को गांधीनगर क्लब में महकेंगे गुलाब

जयपुर । द रोज सोसायटी ऑफ राजस्थान की तरफ से 46वीं अखिल राजस्थान गुलाब प्रदर्शनी रविवार 3 फरवरी 2019 को गांधी नगर क्लब लॉन में आयोजित की जा रही है। 
सोसायटी के कार्यकारी अध्यक्ष राममोहन ने बताया कि गुलाब प्रदर्शनी में कई किस्मों के रंगबिरंगे आकर्षक गुलाब प्रदर्शित किये जायेंगे । प्रदर्शनी में गार्डन हाउस, सरकारी एवं अर्द्ध सरकारी, निजी गार्डन्स एवं नसर्सियां भाग लेंगी। प्रदर्शनी में गुलाब के अति‍रिक्त गुलदाउदी भी आकर्षण का केन्द्र होगी । 
सोसायटी के महासचिव अनिल भार्गव ने बताया कि प्रदर्शनी जयपुर विकास प्राधिकरण एवं राजस्थान स्टेट माइन्स एवं मिनरल्स के सहयोग से आयोजित होगी । जयपुर नगर निगम प्रदर्शनी के सह-प्रायोजक होंगे । उन्होंने बताया कि गुलाब के फूलों के लिए अपनी ऐंट्री सेवायतन अस्पताल अजमेर रोड पर एक फरवरी से प्रात: 10 बजे से 6 बजे तक दी जा सकती है ।

प्रदर्शनी स्थल पर स्पॉट फोटोग्राफी प्रतियोगिता, स्कूली बच्चोंं के लिए विभिन्न श्रेणी में रोज पेंटिंग प्रतियोगिता भी आयोजित होगी। प्रतियोगिता में जयपुर शहर के विभिन्न स्कूलों के 400 से अधिक बच्चें भाग लेंगे । प्रदर्शनी स्थल पर बच्चों के मनोरंजन के लिए झूले, मिक्की माउस, जम्पिंग झूला, कच्ची घोडी एवं नृत्य व विशेष रूप से नाइट्रोजन शो एवं सांस्कृभतिक झलकियां आकर्षण का केन्द्र होंगी । 
उन्होंने बताया कि 3 फरवरी को सांय 4 बजे आयोजित समारोह में 40 ट्राफियॉं व लगभग 250 पुरस्कारों को प्रतियोगिताओं के विजेताओं को प्रदान किए जायेंगे ।

बुधवार, 30 जनवरी 2019

मीडिया बड़े काॅर्पोरेट हाथों में जा चुकी

तमाम राजनीतिक बदलावों, फैसलों और सरकार के आगे अधिकतर मीडिया समूहों की सामूहिक मत्थाटिकाई ने आज पत्रकारिता के क्षेत्र को परिधिविहीन बना डाला है। खुद की अदालत में मीडिया
हमारे साहित्य या मीडिया में खुद अपने भीतरी जीवन की सच्चाई जिक्री तौर से ज्यादा, फिक्री तौर से कम आती है। मसलन दर्शक-पाठक भली तरह जान चुके हैं कि मीडिया के भीतर कैसी मानवीय व्यवस्थाएं हैं, खबरें कैसे जमा या ब्रेक होती हैं।

पत्रकारों के बीच एक्सक्लूसिव खबर देने के लिए कैसी तगड़ी स्पर्धा होती है. लेकिन, पिछले दो दशकों में उपन्यासों, कहानियों या मीडिया पर लिखे जानेवाले काॅलमों में भाषा और कथ्य के बदलाव की आहटें कम ही दिखती हैं। पिछले साल भी टीवी चैनलों-अखबारों में लोकप्रिय मीडियाकरों द्वारा दल विशेष के नेता विशेष के रासो शैली के कसीदे पढ़ने और साहित्य क्षेत्र में मीडिया कर्मियों के जीवन की आश्चर्यजनक रूप से कस्बाती, लेकिन भावुक किस्म की प्रेम-गाथाएं खूब छायी रहीं। 

राजनीति और प्रेम, छोटे शहर से बड़े शहर तक आने के सफर जैसे विषयों पर अनेक मीडियाकरों की किताबें काफी धूम-धड़ाके से विमोचित की गयीं। काफी बिकीं, ऑनलाइन पढ़ी गयीं और साहित्योत्सवों में बहसियायी भी गयीं. फिर भी मीडिया को गंभीरता से लेनेवालों के लिए बड़े महत्व की कई बातें अनकही ही रह गयीं। 

मीडिया की मालिकी अब गिने-चुने चार-पांच औद्योगिक घरानों के हाथों में सिमट कर रह गयी है। लोकल चैनल, लोकल अखबार या क्षेत्रीय भाषाएं-बोलियां मुख्यधारा मीडिया से बाहर हो रही हैं। उनकी जगह एक सपाट किस्म की भाषा ने ले ली है, जो खबरें भड़काऊ तरह से बेचती है।

उपभोक्ता को वह तटस्थ ईमानदार सूचना और खबरों के सबूत या स्रोत नहीं देती. खबर की तह तक जाने का दर्शक-पाठकों का धीरज डिजिटल मीडिया ने खत्म कर दिया है। आज औसत शहरी खबर उपभोक्ता एक चलंत भीड़ का हिस्सा है. यह भीड़ तकिये की टेक लेकर मनोयोग से अखबार या किताबें नहीं पढ़ती। अमूमन मोबाइल पर खबरों के अंश देख कर और किताबों के रिव्यू पढ़ कर ही जानकार बन जाता है। 

यह अब कहना ही होगा कि अपने करोड़ों पाठकों-दर्शकों की पीठ पीछे मीडिया मालिकान और राजनीतिक नेतृत्व के हित स्वार्थों के बीच पिछले पांच सालों में एक अजीब गठजोड़ बन गया है। इस गठजोड़ की मूल चिंताएं मुनाफाकमाई और राजनीतिक प्रचार से जुडी हुई हैं।

इन दोनों जरूरतों ने अभिव्यक्ति की दुनिया से कथ्य और नैतिकता के तकाजों ही नहीं, अभिव्यक्ति की आजादी, आलोचना और जनसंवाद की परिभाषा को भी डिजिटल तकनीकों की मार्फत सिरे से बदल दिया है। मीडिया और साहित्य का ज्ञानात्मक संवेदना और नैतिक अनुभूति देने का काम अब दीगर हो गया है।

इससे मीडिया का सामाजिक तौर से एक बहुत महत्वपूर्ण काम छूट गया है। नया मीडिया और साहित्यिक उत्पाद अब अधिक स्मार्ट तरीके से जनता को सामाजिकता से काट कर उसे अपने ही हित-स्वार्थों के संदर्भ में सोचने को बाध्य करने लगे हैं। 

यह सच है कि संपादकों, रिपोर्टरों या लेखकों (जिनमें नयी फिल्मों के पटकथा लेखक भी शुमार हैं) का हमेशा एक वर्ग रहा है, जिसने पुराने कथ्य या फॉर्म को नाकाफी माना और उनमें तमाम तरह के नये प्रयोग किये हैं। 

ऐसा भी नहीं कि इन लोगों द्वारा पुरअसर साहित्य या रपटें नहीं रची गयीं, लेकिन कहीं-न-कहीं अधिकतर मीडिया और साहित्यकारों द्वारा हमको सोचने पर मजबूर करने की बजाय राहत महसूस कराना और यथास्थिति से समझौता कराने को प्रेरित करना खतरनाक है. ईमानदारी से सोचें, तो हाल के दिनों में राजनीति या इतिहास पर जो फिल्में बनी भी हैं, उनमें से पद्मावत या मणिकर्णिका या उरी या एन एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर, ने अंतत: हमें समकालीन भारतीय स्थिति पर क्या कुछ भी नया विचार या दिशा-निर्देश दिया?

मीडिया आज जागरूक जनता के बीच खुद कई सवालों के कठघरे में खड़ा है। देश की तीन शीर्ष संस्थाओं- एडिटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया, वीमेंस प्रेस कोर तथा प्रेस क्लब ने अपने हमपेशा लोगों के साथ राजनीति या मीडिया की चंद बड़े काॅर्पोरेट हाथों में जा चुकी मिल्कियत और उसके काॅर्पोरेट हितों से उसको विचारधारा विशेष को झुकानेवाला राजनीति का पिछलग्गू इंजन बनते जाने, के सामयिक सवाल पर समवेत चर्चा की क्या इधर कोई प्रशंसनीय पहल की? 

यह सही है कि गहरी स्पर्धा के युग में ताबड़तोड़ जटिल स्टोरी का पीछा करते हुए एक पत्रकार को हर तरह के लोगों से मिलना होता है। पर दलील दी जाये कि पत्रकार अगर दोस्ती का चरका देकर किसी ऐसे महत्वपूर्ण स्रोत से संपर्क साधेगा ही, जो काॅर्पोरेट घरानों का ज्ञात और भरोसेमंद प्रवक्ता तथा राजनीतिक दलों से उनके हित साधन का जरिया भी हो, तो क्या यह पत्रकार के प्रोफेशनल होने का प्रमाण माना जाए? 

चुनाव पास हों, तो भीतरी उठा-पटक और भी गहराने लगती है। बजट से लेकर सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन तक से जुड़ी अहम सरकारी फैसलों की धारा मीडिया के जजमानों के हित में मुड़वाने के लिए कौन नेता, अफसर या पत्रकारिता दिग्गज उनको मदद देगा और बदले में क्या पायेगा, इसकी सबको खूब परख होती है। रिपोर्टिंग के लिए बार-बार सम्मानित पत्रकार इन सच्चाइयों व धंधई लक्ष्मण रेखाओं से अनजान हैं, यह मानना असंभव है। बेहतर हो कि विनम्रता से मान लें कि उनसे गलती हुई है और उससे वे सबक लेंगे। 

अभी उत्तर प्रदेश के खदान आवंटन मामले में एक बड़े पत्रकार का नाम उछला है, जिनकी धूमकेतु सफलता का रहस्य उनके द्वारा हर सत्तावान राजनीतिक दल को विस्मयकारी रूप से खुश रखने की दक्षता माना जाता है। 

हमारे संविधान का अनुच्छेद-19 मीडिया ही नहीं, सभी देशवासियों को अभिव्यक्ति की आजादी का हक देता है, वह यह नहीं कहता कि आप अमुक चैनल या अखबार के समूह संपादक और कई लाभकारी सूत्रों से संपर्क रखनेवाले हैं, तो आपको अपनी इच्छानुसार सरकारी पक्षधरता या कंपनी हितों की रक्षा का दूसरों से बड़ा हक प्राप्त हो जाता है। ताबड़तोड़ हुए तमाम राजनीतिक बदलावों, फैसलों और सरकार के आगे अधिकतर मीडिया समूहों की सामूहिक मत्थाटिकाई ने आज पत्रकारिता के क्षेत्र को परिधिविहीन बना डाला है।

सभी हिंदी पत्रकार धंधई उसूलों को तोड़ने के दोषी भले न हों, पर उनके लिए भी चुनाव की पूर्वसंध्या सरकारी विज्ञापनों से मालामाल होकर अपनी पीठ थपथपाने की बजाय तटस्थ आत्मपरीक्षण की घड़ी होनी चाहिए।

अशोक गहलोत घबराहट में : डाॅ. अलका गुर्जर


क्या अशोक गहलोत को मात्र एक महिने में ही सत्ता का नशा इस तरह छा गया है कि वह सत्ता के मद में चूर होकर सभी को जेल में डाल देंगे, उनने राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के हस्तक्षेप व सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने युवा साथी से छीनकर क्या अब वह अपने आपको तानाशाह समझने लगे हैं। अशोक गहलोत को समझना चाहिये कि यह जनता है जो राजे महाराजे को भी सडक दिखा देती है तो कहीं ऐसा न हो राजस्थान की जनता कांग्रेस को राजस्थान का मुख्यमंत्री बदलने पर मजबूर कर दे। 


जयपुर। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा कल जोधपुर में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को धमकाने वाला बयान देने की निंदा करते हुए भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश उपाध्यक्ष एवं प्रदेश प्रवक्ता डाॅ. अलका गुर्जर ने कहा कि कांग्रेस में इस समय परिवार हित का संघर्ष है।  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अब परिवार विशेष की भक्ति छोड़ कर जनहित के बारे में भी सोचना चाहिए।

 मैं अशोक गहलोत को याद दिलाना चाहूँगी कि आपातकाल का वह समय भी याद कर लें  जब कांग्रेस का एकछत्र राज था तब भी आम जनता 24 महीनों तक जेल में रहकर भी झुकी नहीं थी और उसी पतित पारिवारिक वैचारिकता को आगे बढ़ाते हुए कल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी इस तरह की धमकी दी है जो यह स्पष्ट कर रही है कि कांग्रेस का इंदिरा गांधी के समय की गई निरंकुशता में ही प्रबल विश्वास है। 

डाॅ. अलका गुर्जर ने कहा कि राहुल गाँधी ने 10 दिन में अन्नदाता किसान की सम्पूर्ण कर्जमाफी का वादा किया था, आज दस दिन कब के बीत गये, वादे का क्या हुआ तथा बेरोजगारों को 3500 रूपये महीना बेरोजगारी भत्ता देने की भी बात कही, कब से दे रहे है वह बेरोजगारों को 3500 रूपये महीना बेरोजगारी भत्ता ।  अन्नदाता किसान के सम्पूर्ण कर्जमाफी की प्रक्रिया को तुरन्त प्रभाव से कब पूरा कर रहे है अशोक गहलोत।

 क्या अशोक गहलोत की सरकार थोथी बयानबाजी की सरकार है। क्या अशोक गहलोत को मात्र एक महिने में ही सत्ता का नशा इस तरह छा गया है कि वह सत्ता के मद में चूर होकर सभी को जेल में डाल देंगे, उनने राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी के हस्तक्षेप व सहयोग से मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने युवा साथी से छीनकर क्या अब वह अपने आपको तानाशाह समझने लगे हैं। अशोक गहलोत को समझना चाहिये कि यह जनता है जो राजे महाराजे को भी सडक दिखा देती है तो कहीं ऐसा न हो राजस्थान की जनता कांग्रेस को राजस्थान का मुख्यमंत्री बदलने पर मजबूर कर दे। अशोक गहलोत का यह जेल में डाल देने वाला बयान निहायत ही गैर जिम्मेदाराना है और उन्हें जनता से माफी मांगनी चाहिये।

 मुख्यमंत्री के बयान से ऐसा लगता है कि सरकार घबराहट में है और जनता को धमकी देकर डराने का काम कर रही है।जनता इस तरह की थोथी धमकी से नहीं डरने वाली। जनहित के मुद्दे पर हम जेल जाने को ही नहीं, बल्कि लाठी-गोली खाने को भी तैयार हैं। अभी भी समय है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत परिवार विशेष की परिक्रमा से ऊपर उठकर जनहित और राजस्थान के बारे में सोचना शुरू करें अन्यथा जनता स्वयं समझा देगी।

प्रियंका के कंधों पर उम्मीदों का भार या आर पार की लड़ाई

अगर प्रियंका का प्रदर्शन अच्छा रहा, तो वे लंबी पारी खेलने के लिए राजनीति में रह सकती हैं। अगर नतीजे इसके उलट रहें, तो उनकी नियति ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ वाली हो सकती है। अगर प्रियंका कांग्रेस के पुराने जादू को फिर से जगाने में कामयाब हो जाती हैं, तो यह भाजपा के लिए मुसीबत का पैगाम लेकर आएगाी।

प्रियंका गांधी वाड्रा को किसी जमाने में भारतीय राजनीति के भविष्य के चमकते हुए सितारे के तौर पर देखा जाता था। वे निश्चय ही 90 के दशक में परिदृश्य में मौजूद सभी भारतीय राजनीतिज्ञों- चाहे जवान या बूढ़े- के बीच सबसे करिश्माई चुनाव प्रचारक थीं।

उस समय वे उम्र के तीसरे दशक में ही थीं, लेकिन उनकी चुनावी क्षमताओं ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था। गांवों और शहरों में लोग उनके बारे में बातें करते थे।

प्रियंका- जो मिलनसार और सहज थीं। वे हाज़िरजवाबी में सक्षम थीं, लेकिन भाषणबाजी और अभद्र टिप्पणियां नहीं करती थीं। वे बहुत हद तक अपनी दादी इंदिरा जैसी दिखतीं थीं और ज्यादातर लोगों के लिए यही काफी था।

एक बात और थी। नेहरू से बाज उनके खानदान के बाकी लोगों के विपरीत प्रियंका अपने पैतृक शहर इलाहाबाद की सुमधुर हिंदी बोलती हैं, मानो वे यहीं जन्मीं और कभी इस शहर से गई ही नहीं।

कुछ साल पहले, जब एक टीवी साक्षात्कारकर्ता ने चकित होकर प्रियंका गांधी से उनके हिंदी के खूबसूरत उच्चारण और शब्दावली का स्रोत पूछा, तो उन्होंने सहजता के साथ कहा थाः मैंने इसे श्रीमती तेजी बच्चन से सीखा.’

वे सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की दिवंगत मां का जिक्र कर रहीं थीं और यह तथ्य कि किसी जमाने में अच्छे मित्र रहे गांधी और बच्चन परिवारों के बीच संबंध खट्टे हो चुके थे, प्रियंका के लिए मायने नहीं रखता था।


उनकी गैरहाजिरी

जब सबकुछ सही लग रहा था, प्रियंका अचानक 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए संक्षिप्त चुनाव प्रचार करने के बाद सार्वजनिक परिदृश्य से गायब हो गईं।

पिछले पांच सालों में वे काफी कम मौकों पर लोगों के बीच दिखी हैं। उनकी गैरहाजिरी के कारणों को लेकर अटकलों की कमी नहीं रही। यह कहना कि वे अपने बच्चों की परवरिश में व्यस्त रहीं, निस्संदेह एक मूर्खतापूर्ण स्पष्टीकरण है। चर्चा में रहे दो और कयास ज्यादा स्याह थे।



इनमें से ज्यादा चर्चित भाई-बहन के बीच प्रतिद्वंद्विता थी। अगर राहुल गांधी, जिनमें नैसर्गिक करिश्मे की कमी थी, को अपनी मां की जगह लेनी थी, तो सबसे अच्छा यही होता कि प्रियंका खुद को अलग कर लें। यहां यह विचार छिपा हुआ था कि दोनों के बीच तुलना होने से राहुल को नुकसान पहुंचेगा। यह देखते हुए कि समय के साथ राहुल ने खुद को साबित कर दिया है, यह तर्क कमजोर पड़ चुका है।

दूसरा राजनीतिक ‘कारण’ व्यक्तिगत तौर पर प्रियंका को नुकसान पहुंचानेवाला था। यह कहा गया कि अपने कारोबारी लेन-देनों के चलते अधिकारियों के साथ हर तरह की मुश्किलों में घिरे नजर आनेवाले अपने कारोबारी पति रॉबर्ट वाड्रा के कारण वे खुद दागी हो चुकी हैं।

वाड्रा ने इन सबको भाजपा द्वारा बदले की राजनीति से की गई कार्रवाई बताया है। लेकिन कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर बैठे कई लोगों ने भी इन कहानियों को स्वीकार कर लिया और यह मान लिया कि चूंकि उनके पति की प्रतिष्ठा उनका पीछा कर रही है, इसलिए प्रियंका सियासत में वापस नहीं आएंगीं।


उनकी वापसी

बीते दिनों को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा अपनी बहन को लोकसभा चुनाव की लड़ाई के मोर्चे पर आगे खड़ा करने के फैसले ने हर किसी को हैरान कर दिया।

सबसे ज्यादा हैरान कांग्रेस में गांधी परिवार के वफादार थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाया जाना, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र वाराणसी भी शामिल है, एक तरह से शेर की मांद में दाखिल होने के समान है।

इसका अर्थ यह है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस के गुरिल्ला दस्ते का नेतृत्व करने जा रही हैं। इस बात की संभावना काफी कम है कि ऐसा वे अपनी मर्जी के खिलाफ कर रहीं हैं।

अचानक, राजनीति से उनके पांच साल के वनवास को लेकर गढ़े गए कयास- जिनमें भाई-बहनों के बीच प्रतिस्पर्धा से लेकर वाड्रा के कारोबारी लेन-देन तक शामिल हैं- दरक गए हैं। इस समय तक उनके भाई ने अपनी जगह बना ली है और अब प्रियंका के पास अपनी जगह बनाने का मौका है।


जाहिर है अगर विपरीत मनोविज्ञान कोई चीज है, तो यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर उनके पति के कारोबारी लेन-देन में गड़बड़ी होती, तो प्रियंका यह कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर सकतीं थीं।

वे उत्तर प्रदेश के जमीनी हालातों से वाकिफ हैं और वे अहम मोड़ों पर कांग्रेस में नीति-निर्माण प्रक्रियाओं का हिस्सा रहीं हैं।

2017 की शुरुआत में प्रियंका ने ही व्यक्तिगत तौर पर अखिलेश को 100 सीटें देने के लिए मनाकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी के गठबंधन को मूर्त रूप दिया था।

जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया और सोनिया गांधी इलाज कराने के लिए देश से बाहर अमेरिका में थीं, तब प्रियंका अपने भाई की सलाहकार और सियासी राजदार बन गईं, जो उनके साथ संभवतः उनके ही आग्रह पर रणनीतिक बैठकों में भाग लेती थीं और राज्य के नेताओं, खासकर उत्तर प्रदेश के नेताओं से निबटा करती थीं।

अब चूंकि प्रियंका लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के ज्यादा पेचीदा हिस्से के लिए कांग्रेस की महासचिव होंगीं, इसलिए उन्हें अब पिछले विधानसभा चुनावों में (कांग्रेस और सपा को) भाजपा के हाथों मिली करारी शिकस्त को देखते हुए अपनी चुनावी रणनीति को नया रूप देना होगा।

इसलिए जिस चुनौती को उन्होंने स्वीकार किया है, वह काफी जोखिम भरा, एक तरह से लगभग आत्मघाती किस्म का मिशन है।

अगर प्रियंका का प्रदर्शन अच्छा रहा, तो वे लंबी पारी खेलने के लिए राजनीति में रह सकती हैं। अगर नतीजे इसके उलट रहें, तो उनकी नियति ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ वाली हो सकती है।

वंशानुगत उत्तराधिकारियों के पास गलती करने की ज्यादा छूट नहीं होती है। प्रियंका के साथ पहले ही सहृदयता दिखाई गई है और उन्हें पिछले विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद वर्तमान पद की जिम्मेदारी सौंपी गई है।

राहुल गांधी अपनी बहन और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कांग्रेस का महासचिव बनाए गए ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए एक उल्लेखनीय भूमिका देख रहे हैं। यह लोकसभा चुनाव में राज्य की देख-रेख से भी आगे जाती है।


प्रियंका और ज्योतिरादित्य को एक महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी दी गई है। प्रियंका के कंधों पर उम्मीदों का भार है।

अगर वे इसमें कामयाब होती हैं, तो अपने भाई के साथ वे फैसले लेनेवाली शीर्ष टीम में पहुंच जाएंगी। यह कांग्रेस संगठन में बदलावों को जन्म दे सकता है। सफलता ज्योतिरादित्य को भी शीर्ष पर पहुंचा सकती है।

अतीत में प्रियंका ने जनता पर अपनी पकड़ का प्रदर्शन किया है। कुछ लोगों को यह याद होगा कि 1999 में प्रियंका के दिवंगत पिता राजीव गांधी के रिश्ते के भाई अरुण नेहरू कांग्रेस से रिश्ता तोड़ कर भाजपा के टिकट पर रायबरेली से चुनाव लड़ रहे थे।

प्रियंका ने वहां सिर्फ एक सभा को संबोधित किया। उन्होंने वहां मौजूद जनसमूह से कहा, ‘क्या आपको यह पता नहीं है कि इस आदमी ने मेरे पिता की पीठ में छुरा भोंका? मुझे इस बात की हैरानी हो रही है कि आप यहां उनको तवज्जो भी दे रहे हैं!’

और इसने अरुण नेहरू के संसदीय जीवन का अंत कर दिया। शुरु में वे आसान जीत की ओर बढ़ते दिख रहे थे, लेकिन प्रियंका के संक्षिप्त हस्तक्षेप ने उनकी उड़ान को जमीन पर ला पटका। अगर प्रियंका कांग्रेस के पुराने जादू को फिर से जगाने में कामयाब हो जाती हैं, तो यह भाजपा के लिए मुसीबत का पैगाम लेकर आएगा।

योगी-मोदी की जोड़ी ने मिलकर यूपी का दम निकाल दिया है और कहा जा रहा है कि वहां असंतोष काफी ज्यादा है। इससे प्रियंका को पांव टिकाने की जमीन मिलेगी।  इस असंतोष का फायदा उठा पाने में नाकामी का नतीजा कांग्रेस के लिए वनवास होगा।

 लोकतंत्र में वंशवादी नेता के लिए दुआ करना बेमतलब-सी बात है। लेकिन जब कोई वंशवादी उत्तराधिकारी अपनी इच्छा से धर्म आधारित बहुसंख्यकवाद को थोपने की कोशिशों के खिलाफ मोर्चा संभालता है, तो उनका काम उनकी राजनीति को बदल देता है। अंत में सिर्फ उनके मूल्य मायने रखते हैं।

साइकिल चलाना प्रारम्भ कर दें -परिवहन मंत्री

साइकिल चलाएं तो जानलेवा बीमारियों से बचाव संभव
जयपुर । प्रदेश के परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास ने कहा है कि अगर साइकिल चलाना प्रारम्भ कर दें तो कॉलेस्ट्रॉल के कारण विशेषकर युवाओं में होने वाले साइलेंट अटेक जैसे मामलों में कमी आ सकती है। 

खाचरियावास मंगलवार को सवाईमानसिंह स्टेडियम के बाहर साइक्लिंग जागरूकता रैली के अवसर पर सम्बोधित कर रहे थे। रैली का आयोजन बुधवार से स्टेडियम के वेलोड्रम पर राजस्थान साइक्लिंग एसोसिएशन की ओर से प्रारम्भ हो रही चार दिवसीय ‘नेशनल टे्रक साइक्लिंग चैम्पियनशिप 2018-19’ के अन्तर्गत किया गया था। 



परिवहन मंत्री ने कहा कि आज भागमभाग का जमाना है, होड़ सी लगी हुई है। उन्हाेंंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि अगर ज्यादा दूर तक संभव नहीं हो तो जितनी दूर तक संभव हो, साइकिल का उपयोग करना शुरू करें। उन्होंने कहा कि अब नई शुरूआत नजर आने लगी है और बहुत से लोग साइकिल खरीद रहे हैं। प्रदेश में दिखावे और केवल बात करने का व्यवहार खत्म हो और धरातल पर काम हो, यही उनका प्रयास रहेगा। 

खाचरियावास स्वयं साइकिल चलाकर पूरी रैली में चले। रैली सवाई मानसिंह स्टेडियम के पूर्वी द्वार से प्रारम्भ होकर रिजर्व बैंक भवन, तख्तेशाही रोड होते हुए जेएलएन मार्ग होते हुए गांधी सर्किल पहुंची एवं यहां से पुनः स्टेडियम के पूर्वी द्वार पर पहुंचकर विसर्जित हुई। 

31 जनवरी से 3 फरवरी तक आयोजित होगा

‘इंडिया स्टोन मार्ट 2019‘ का 10 वां संस्करण 
जयपुर। ‘इंडिया स्टोन मार्ट 2019‘ का 10 वां संस्करण 31 जनवरी से 3 फरवरी तक सीतापुरा स्थित जयपुर एग्जीबिशन एंड कन्वेंशन सेंटर (जेईसीसी) में आयोजित किया जाएगा। यह भारत में स्टोन इंडस्ट्री की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी है, जहां विभिन्न प्रकार के नैचुरल डायमेंशनल स्टोन्स, इनके एंसीलरी प्रोडक्ट्स और सेवाओं को प्रदर्शित किया जाता है।

चार दिवसीय यह मेगा इवेंट सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ स्टोन्स (सीडोस) द्वारा आयोजित किया जा रहा है, जबकि फैडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) इसका सह-आयोजक है। राजस्थान स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (रीको) इस आयोजन का प्रमुख प्रायोजक है। यह आयोजन राजस्थान सरकार तथा अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा भी समर्थित है।

यह आयोजन स्टोन इंडस्ट्री के कई स्टेकहोल्डर्स को एक मंच पर ला रहा है, जिनमें स्थानीय व विदेशी उत्पादक, निर्यातक व आयातक, उपभोक्ताओं व खरीदार, विशेषज्ञ, तकनीकी प्रदाता, आर्किटेक्ट, बिल्डर, डेवलपर, कॉर्पोरेट्स शामिल हैं। 

यह 50,000 वर्गमीटर से अधिक क्षेत्र में आयोजित किया जाएगा, जिसमें 20,000 वर्गमीटर से अधिक क्षेत्र एग्जीबिशन एरिया होगा। इस वर्ष के मेगा मार्ट में दुनिया भर के 484 से अधिक एग्जीबिटर्स की ओर से स्टॉल्स लगाए जा रहे हैं, जिनमें 350 भारतीय एवं 134 विदेशी एग्जीबिटर हैं। इस मार्ट में 25,000 से अधिक ट्रेड विजिटर्स के आने की सम्भावना है।

इसमें सात देश (तुर्की, चीन, इटली, ब्राजील, ईरान, स्पेन एवं ताइवान) और भारत से 17 राज्य भाग लेंगे, जिसमें गुजरात, ओड़िशा व झारखंड के स्टेट पैवेलियन लगाए जाएंगे। 

स्टोन मार्ट के पूर्व के संस्करणों की भांति इस बार भी 1-2 फरवरी को आयोजित किया जाने वाला ‘जयपुर आर्किटेक्चर फेस्टिवल’ इसका मुख्य आकर्षण होगा। मार्ट के साथ समवर्ती रूप से आयोजित किया जाने वाला यह फेस्टिवल नवीन विचारों, चर्चाओं व अन्वेषण करने का मंच साबित होगा। इस फेस्टिवल में उपस्थित होने वाले लोगों को कई प्रसिद्ध आर्किटेक्ट्स के अनुभवों व जानकारी का लाभ प्राप्त होगा।

‘शिल्पग्राम‘ इस मार्ट की एक अन्य प्रमुख विशेषता होगी, जो पत्थर के कारीगरों को अपनी कला दिखाने व प्रदर्शित करने का एक स्थान है। यह सीडोएस की ओर से तथा रूरल नॉन फार्म डेवलपमेंट एजेंसी (रूडा) के सहयोग से लगाया जाएगा। यह स्थान कारीगरों को निशुल्क उपलब्ध कराया जाएगा। इस बार के शिल्पग्राम में सम्पूर्ण भारत के 31 कारीगर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्टोन कम्यूनिटी के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से अपने कौशल व उत्पादों का प्रदर्शन करेंगे।

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

जॉर्ज फर्नांडिस का 88 साल की उम्र में निधन

जॉर्ज फर्नांडिस अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री रहने के अलावा मोरारजी देसाई सरकार में उद्योग मंत्री थे   गरीबों के मसीहा थे जॉर्ज फर्नांडिस
भारतीय राजनीति के महारथियों में से एक वरिष्ठ समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस जहां ताकतवर से ताकतवर नेताओं को झुकाने की क्षमता रखते थे वहीं वह गरीबों एवं वंचितों मसीहा भी थे। भारतीय राजनीति में एक अलग मुकाम रखने वाले जॉर्ज फर्नांडिस का जन्म तीन जून 1930 को एक ईसाई परिवार में हुआ था।

वह अंग्रेजी सहित नौ अन्य भारतीय भाषाओं के जानकार थे। वह हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में धारा प्रवाह बोलते एवं लिखते तो थे ही, साथ में तमिल, मराठी, कन्नड़, उर्दू, मलयाली, तेलुगू, कोंकणी और लैटिन भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान रखते थे। वर्ष 2002 में गोधरा दंगों के बाद  फर्नांडिस गुजरात की सरकार का बचाव करने वाले प्रमुख लोगों में शामिल थे।



 नरेंद्र मोदी को जब गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग जोर-शोर से चल रही थी, तब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के शीर्ष नेताओं के एक समूह से कहा था कि यह व्यक्ति ( मोदी) हिंदुत्व की राजनीति को रोशनी दिखायेगा। कर्नाटक में मेंगलोर के रहने वाले जॉर्ज फर्नांडिस जब 16 वर्ष के हुए तो उन्हें एक क्रिश्चियन मिशनरी में पादरी बनने की शिक्षा लेने भेज दिया गया हालांकि चर्च में होने वाले तमाम तरह के रीति रिवाजों को देखकर जल्द ही उनका उससे मोहभंग हो गया।

आखिरकार 1949 में 18 साल की उम्र में उन्होंने चर्च छोड़ दिया और रोजगार की तलाश में मुंबई (तत्कालीन बंबई) चले गये। मुंबई में वह सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे जिसके कारण उनकी शुरुआती छवि विद्रोही नेता की बनी।  फर्नांडिस उस समय के सबसे मुखर वक्ता राम मनोहर लोहिया को अपना प्रेरणास्रोत मानते थे।

अपने विद्राही तेवर और नेतृत्व के गुण के चलते 1950 तक वह टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गये थे।  फर्नांडिस बताया करते थे कि जब वह समाजवादी ब्रिगेड में शामिल हुए, उनके पिता ने कहा, “मैं चाहता था कि मेरा बेटा ईश्वर की सेवा करे लेकिन उसने इसकी बजाय शैतानों का साथ देना चुना।”



 फर्नांडिस 1967 के लोकसभा चुनाव में बंबई दक्षिण से कद्दावर कांग्रेसी नेता एस. के. पाटिल के खिलाफ उतरे और उन्हें हरा दिया। वर्ष 1973 में वह ‘ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन के चेयरमैन चुने गए। भारतीय रेलवे में उस वक्त करीब 14 लाख लोग काम करते थे और सरकार रेलवे कामगारों की कई जरूरी मांगों को कई सालों से दरकिनार कर रही थी।

ऐसे में  फर्नांडिस ने आठ मई 1974 को देशव्यापी रेल हड़ताल का आह्वान किया और रेल का चक्का जाम हो गया। कई दिनों तक रेल का संचालन ठप रहा। इसके बाद हरकत में आई सरकार ने पूरी कड़ाई के साथ आंदोलन को कुचलते हुए 30 हजार लोगों को गिरफ्तार कर लिया और हजारों को नौकरी और रेलवे की सरकारी कॉलोनियों से बेदखल कर दिया गया।

राजस्थान बोर्ड की परीक्षाओं के सभी परीक्षा केन्द्रों के लिए सीसीटीवी कैमरे की व्यवस्था

 जयपुर। शिक्षा राज्य मंत्री गोविन्द सिंह डोटासरा ने कहा है कि राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में पारदर्शिता लाने के लिए जरूरी है कि निकट भविष्य में सभी परीक्षा केन्द्रो को सीसीटीवी कैमरे और वीडियोग्राफी की जद में रखा जाएं। निजी विद्यालयों के परीक्षा केन्द्रों को विद्यालय स्तर पर सीसीटीवी कैमरे के संसाधन जुटाकर परीक्षा के दौरान सीधा बोर्ड के परीक्षा नियन्त्रण कक्ष से जोड़ा जाएं। उन्होंने बोर्ड को निर्देश दिया कि बोर्ड शनैः-शनैः सरकारी विद्यालय वाले परीक्षा केन्द्रो पर स्थायी रूप से सीसीटीवी कैमरे लगाने की कार्ययोजना को रूप प्रदान करे।

डोटासरा ने कहा कि प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में निजी शिक्षण संस्थानों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। निजी शिक्षण संस्थाओं की सरकार से यह मांग रही है कि उन्हें भी बोर्ड परीक्षाओं में प्रतिनिधित्व दिया जाये। इसलिए आगामी वर्ष से बोर्ड की प्रायोगिक परीक्षा में निजी शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों को भी बतौर परीक्षक नियुक्त किया जाए, इसके लिए शिक्षा विभाग और माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के स्तर पर शीघ्र दिशा निर्देश तैयार किया जाए। जिन विद्यालयों में प्रायोगिक परीक्षा के लिए परीक्षार्थियों की संख्या बहुत अधिक हैं वहां अगले वर्ष से राजकीय विद्यालय के साथ निजी विद्यालय के शिक्षकों को भी बतौर परीक्षक नियुक्त किया जाए। 

उन्होंने बोर्ड अधिकारियों को निर्देशित किया कि परीक्षा के दौरान सभी परीक्षा केन्द्रों पर सुरक्षा की चाक चौबंद व्यवस्था की जाए। पुलिसकर्मियों के साथ-साथ पर्याप्त संख्या में होमगार्ड नियुक्त किये जाए। उन्होंने कहा कि राजस्थान बोर्ड की साख देश के अन्य षिक्षा शिक्षा बोर्डों की तुलना में बेहतर हो इस दिशा में ठोस प्रयास किया जाए। 


बैठक में प्रमुख शासन सचिव भास्कर ए. सावंत ने निर्देशित किया कि बोर्ड परीक्षाओं के लिए बोर्ड के स्तर पर राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी केन्द्र से समन्वय कर शाला दर्पण पर एक मॉड्यूल निर्मित किया जाए, जिस पर सभी परीक्षा केन्द्र उनके केन्द्रों पर आयोजित परीक्षा की सभी गतिविधियों का विवरण यथा परीक्षार्थियों की संख्या, उपस्थित वीक्षक, परीक्षा केन्द्र पर लगाया गया सुरक्षा बल और अन्य सूचनाओं का विवरण होगा जो बोर्ड के लिए भविष्य में डाटाबेस का काम करेगा। उन्होंने कहा कि बोर्ड एक कार्ययोजना भी तैयार करे जिसमें परीक्षा से जुड़े सभी भुगतानों के लिए एक समय सीमा सुनिश्चित हो।

बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष और निदेशक माध्यमिक शिक्षा नथमल डिडेल ने बताया कि बोर्ड की सीनियर सैकण्डरी परीक्षाएं 7 मार्च को प्रारम्भ होकर 2 अप्रैल को समाप्त होगी और सैकण्डरी परीक्षाएं 14 मार्च को प्रारम्भ होकर 28 मार्च को समाप्त होगी। बोर्ड की परीक्षाओं में इस वर्ष 20 लाख 14 हजार 886 परीक्षार्थी परीक्षा के लिए पंजीकृत किए गये है। इनमें सीनियर सैकण्डरी परीक्षा में 8 लाख 80 हजार 432, सैकण्डरी परीक्षा में 11 लाख 24 हजार 185, वरिष्ठ उपाध्याय परीक्षा में 3 हजार 345 तथा प्रवेशिका परीक्षा में 6 हजार 924 परीक्षार्थी परीक्षा में सम्मिलित होंगे।

बोर्ड सचिव मेघना चौधरी ने बताया कि इन परीक्षाओं के लिए पूरे प्रदेश में 5 हजार 584 परीक्षा केन्द्र बनाएं गये हैं जो गत वर्ष की तुलना में 107 अधिक है। 59 परीक्षा केन्द्रो को संवेदनशील और 31 परीक्षा केन्द्रों को अतिसंवेदनशील परीक्षा केन्द्र के रूप में चिन्हित किया गया है। इन सभी परीक्षा केन्द्रों पर सीसीटीवी कैमरा, वीडियोग्राफी और सुरक्षा बलों की पर्याप्त व्यवस्था की गई है। परीक्षा की दृष्टि से संवेदनशील सीकर, नागौर, झुन्झुनू, दौसा, करौली, सवाईमाधोपुर, जोधपुर तथा बाड़मेर जिलों के शत-प्रतिशत परीक्षा केन्द्रों पर वीडियोग्राफी करायी जायेगी। बोर्ड ने इस वर्ष प्रश्न-पत्रों की सुरक्षा को सर्वोच्च महत्व दिया है। 

4 हजार 712 परीक्षा केन्द्रो के प्रश्न-पत्रों पर पुलिस थानों में, 328 परीक्षा केन्द्रों के प्रश्न-पत्र पुलिस चौकी पर और शेष परीक्षा केन्द्रों के प्रश्न-पत्र जिला कोषागार में रखे जाएंगे। बैठक में निदेशक प्रारम्भिक शिक्षा ओमप्रकाश कसेरा, सचिव पंचायती राज विभाग एस.एस.सोहता, कॉलेज और स्कूल आयुक्त प्रदीप कुमार बोरड़, पुलिस महानिदेशक(लॉ एंड ऑर्डर) हवासिंह घुमरिया और संयुक्त सचिव हरजीलाल अटल आदि अन्य अधिकारी उपस्थित थे।

10 फीसदी आरक्षण सवर्णों के कंधे पर बंदूक

सवर्ण आरक्षण विधेयक सवर्णों के कंधे पर रखी गई ऐसी बंदूक है, जिसका निशाना तो चुनाव है मगर बड़ा झटका उन्हें ही लग सकता है।

124वें संविधान संशोधन विधेयक से यह बात साफ हो गई है कि इस सरकार को ऐसे क़दम उठाने में महारत हासिल हो गई है, जो उन्हीं लोगों को ले डूबते हैं, जिनके पक्ष में इनकी घोषणा होती है।

नोटबंदी के शुरू में आम लोगों का बड़ा हिस्सा इस आनंद में डूब-उतरा रहा था कि काले धन वालों की फजीहत हो गई। मगर बाद में पता चला कि फजीहत तो उनकी हुई थी जो काले धन वालों की परेशानियों की कल्पना कर आनंद उठा रहे थे।

नौकरियां गईं, अर्थव्यवस्था मंद हुई, नकदी के लिए मारे-मारे घूमे, मगर काला धन जस का तस रहा। फिर भी लोग फेर में पड़े क्योंकि नोटबंदी ने एक आनंद की सृष्टि की थी कि देखो पैसेवालों के अब कैसे लेने के देने पड़ेंगे।

इसी तरह जिन लोगों को अभी लग रहा है कि सवर्ण समाज का स्वर्ण युग शुरू हो गया है, वे दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पा रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि इस कदम ने भी सवर्णों के बड़े हिस्से में आनंद पैदा किया है।

इस आनंद की जड़ें नौकरियों व शैक्षिक अवसरों में अपनी संख्या के अनुपात से काफी ज़्यादा जगह घेरने के बावजूद पीड़ित होने के विशिष्ट बोध में है।

यह बोध मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से गहरा हुआ है. भले ही सत्ताइस फीसदी आरक्षण के बावजूद ओबीसी केंद्र की सरकारी नौकरियों में 12 फीसदी ही हैं। मगर राजनीति दावों और भविष्य की कल्पना के आधार पर चलती है। सवर्णों को लग रहा है कि उनके दिन आ रहे हैं।

मगर दिलचस्प है कि सवर्णों का ही समझदार संगठन यूथ फॉर इक्वालिटी ओबीसी राजनीति करने वाली डीएमके के भी पहले इस संविधान संशोधन विधेयक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया।

जो संगठन मंडल सिफारिशों के खिलाफ सबसे मुखर था, क्या वह ही इस विधेयक में छिपी हुई भस्मासुरी संभावनाएं देख पाया है? अल्पकालिक रूप से सवर्णों के खाते में जो फायदा दिख रहा है, उनका दीर्घकालीन रूप में बट्टे में बदल जाना लाज़मी है। इसलिए 2019 का चुनाव इस नज़रिये से मज़ेदार होगा कि क्या सवर्ण अपने दूरगामी राजनीतिक नुकसान का सबब बनने वालों को पुरस्कृत करेंगे।

भौतिक रूप से यह 50 फीसदी अनारक्षित जगह को 40 और 10 के जोड़ में बदलना है, वह भी आरक्षित होने का टैग लगवाकर। यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट से पास नहीं हो पाए, तब भी इतिहास में यह दर्ज होगा कि इस आरक्षण के बाद वैसी हाय-तौबा नहीं मची और न बंद, हड़ताल और हिंसा हुई, जैसा कि मंडल के समय हुआ था।

अनारक्षित पूल में से सवर्णों को पहले जितने प्रतिशत सरकारी नौकरी मिल रही थी, अब भी उतनी ही मिलेगी।मगर आरक्षण के विरोध के सवर्ण तर्कों का खोखलापन ज़्यादा जगजाहिर होगा। मेरिट का हनन, भीख, बैसाखी जैसे बेसिरपैर के तमाम तर्क उड़-उड़कर अब उसी चेहरे पर आएंगे।

कुल मिलाकर यह एक कदम आगे और दो कदम पीछे की एक शानदार मिसाल है. सवर्ण राजनीति का एक कदम आगे निश्चित ही हुआ है, क्योंकि संविधान में अब तक आरक्षण को सामाजिक न्याय से ही जोड़ा गया था।

संविधान की किसी धारा में महज आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, क्योंकि आरक्षण सामाजिक भेदभाव को खत्म करने और सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व दुरूस्त करने के लिए है।

मगर यही विधेयक एक दूसरी संभावना को खोल देता है, जिसे यूथ फॉर इक्वालिटी ने समझा है। यह संभावना है आरक्षण के पचास फीसदी की सीमा के पार जाने की, जिसका देश की ओबीसी राजनीति अपने संख्या बल के आधार पर देर से इंतज़ार कर रही है। जो जातियां ओबीसी से अलग अपने सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर कोटा पाना चाहती थी, उन्हें भी पचास प्रतिशत की वैधानिक बंदिश के खुलने से नया जोश मिलेगा। गुर्जरों ने आंदोलन की घोषणा भी कर दी है। जाट, पाटीदार, मराठा जैसी किसान पेशे की और जातियां मैदान में कूद सकती हैं।

यह विधेयक सवर्ण बबुए के कांधे पर रखी गई ऐसी बंदूक है, जिसका निशाना तो चुनाव है मगर बड़ा झटका बबुए को ही लग सकता है।

लोकतांत्रिक राजनीति रस्साकशी के सिद्धांत पर चलती है। जिसमें एक पक्ष को ज़्यादा लाभ मिलता देख दूसरे पक्ष गोलबंद होने लगते हैं। जब तक देश में लोकतंत्र है तब तक संख्या बल का महत्व है।

अब तक सवर्णों का सांस्कृतिक व सामाजिक वर्चस्व बना हुआ है। यह इस बात से भी ज़ाहिर होता है कि आरक्षण लागू होने के इतने साल बाद भी आरक्षित सीटों की तादाद करीब पंद्रह से बीस फीसद से ज़्यादा नहीं हो पाई है, भले ही तकनीकी रूप से पचास फीसद हो।

सवर्णों की मुसीबत यह है कि उदारवादी जनतंत्र का एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत दलितों व अन्य पिछड़े वर्गों को संख्यात्मक रूप से प्रभावी होने की इजाजत देता है, जिसका मुकाबला सवर्ण राजनीति तब तक ही कर पाती है, जब तक कि राजनीतिक विमर्श जाति केंद्रित न हो या फिर आरक्षित जातियों के बीच ही टकराव बना रहे। इसलिए यह संविधान संशोधन पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण को तेज़ करेगा।

वैसे भी इस संविधान संशोधन से जातियों के बीच गोलबंदियां और कलह और बढ़ेगी, क्योंकि यह सरकार आर्थिक मोर्चे, खास तौर पर नौकरियों के मामले में नाकाम रही है। सरकारी नौकरियां भी कम होती जा रही हैं। आर्थिक असुरक्षा से बाहर निकलने का जब कोई आर्थिक मौका नहीं मिलता है तो सामाजिक पहचानें दुख-दर्द मिटाने के लिए काम में लाई जाती हैं। कम होते रोज़गार व मंद होती अर्थव्यवस्था के दौरान जातियों के बीच प्रतियोगिता तेज़ हो सकती है।

वहीं यह भी हो सकता है कि जैसे पिछड़े में अति पिछड़ा व दलित में महादलित तलाशा गया था, अब अति सामान्य और कम सामान्य की श्रेणियां व जातियां सामने आएं। क्या यह सवर्ण के लिए अच्छे दिन हैं?

उसे छला तो जा रहा है, मगर उसकी ही सहमति से, जो उसके जातिगत पूर्वाग्रहों से निकली है। इतना बड़ा प्रहसन देश में इसलिए भी चल पा रहा है कि अर्थव्यवस्था व राजनीति को ऊपर उठाने व समता की राह पर जाने की जगह सवर्ण जातिगत प्रतियोगिता के लालच में फंस गए हैं और तथाकथित जनरल या अनारक्षित मुखौटा उतार कर सवर्ण बनने को राज़ी-खुशी तैयार हैं।

सोमवार, 28 जनवरी 2019

‘मदर टेरेसा ईसाई थीं, इसलिए उन्हें भारत रत्न दिया गया’

रामदेव ने भारत रत्न सम्मान में किसी भी हिंदू संत को शामिल नहीं किए जाने पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि एक भगवाधारी संन्यासी को भी शीर्ष सम्मान से नवाज़ा जाना चाहिए।

 भारत रत्न के ऐलान के बाद रामदेव ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी किसी संन्यासी को भारत रत्न नहीं दिया गया। उन्होंने कहा, ‘कई संतों ने समाज के लिए बहुत काम किया है।मदर टेरेसा को भारत रत्न दिया, क्योंकि वह ईसाई थीं. मगर उन्होंने अन्य संन्यासियों को नहीं दिया, क्योंकि वे हिंदू थे।’

 कुंभ मेले में पहुंचे रामदेव ने कहा कि जिन भी लोगों को भारत रत्न मिला है उनका सम्मान है, लेकिन किसी एक भगवाधारी संन्यासी को भी शीर्ष सम्मान से नवाज़ा जाना चाहिए।

मदर टेरेसा को ईसाई होने के नाते भारत रत्न दिए जाने का दावा करते हुए रामदेव कहते हैं कि महर्षि दयानंद और स्वामी विवेकानंद का क्या देश के लिए योगदान किसी नेता या खिलाड़ियों से कम है। कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के संत शिवकुमार स्वामी के योगदान का भी रामदेव ने जिक्र किया, जिनका हाल में निधन हुआ है।

रामदेव ने सवाल उठाते हुए कहा, ‘क्या इस देश में हिंदू होना गुनाह है ? मदर टेरेसा को को 1980 में भारत रत्न से नवाजा गया था।’ हालांकि रामदेव ने यह भी कहा कि वह धर्म के आधार पर भेदभाव करने का समर्थन नहीं करते हैं।

उन्होंने कहा कि उन सभी संतों को भारत रत्न मिलना चाहिए, जो देश और समाज के भले के लिए काम कर रहे हैं।

 गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने तीन हस्तियों को ‘भारत रत्न’ सम्मान से नवाज़े जाने की घोषणा की। इन तीन शख्सियतों में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अलावा संघ विचारक नानाजी देशमुख और मशहूर संगीतकार भूपेन हजारिका शामिल हैं।

नरेंद्र मोदी बनाम प्रियंका गांधी वाड्रा

आम मतदाता किसी न किसी उम्मीद में मतदान केंद्र पर लगी कतारों में जाकर खड़ा होता है।  जब मतदाता कतार में खड़े होंगे तो पांच साल पहले जगाई गई उम्मीदों और पांच साल की वास्तविकताओं की तुलना जरूर करेंगे और तब अगर उनके जेहन में नरेंद्र मोदी बनाम प्रियंका गांधी वाड्रा का चेहरा कौंधता है तो उसका असर बहुत बड़ा हो सकता है। प्रियंका के आने का असर तो होगा
राजनीति में प्रवेश का इतना इंतजार सोनिया गांधी के लिए भी नहीं हुआ था। राजीव गांधी के निधन के सात साल बाद वे राजनीति में आईं और कांग्रेस अध्यक्ष बन गईं। राहुल गांधी बिना किसी इंतजार के 2004 में राजनीति में आए और सांसद बन गए। 1998 में जब सोनिया ने कांग्रेस की कमान संभाली तब से प्रियंका गांधी के राजनीति में आने का इंतजार हो रहा था। वह इंतजार 20 साल बाद 2019 में पूरा हुआ है। कांग्रेस के लाखों कार्यकर्ताओं की उम्मीदें पूरी हो गई हैं और करोड़ों भारतीयों का अंदाजा भी सही साबित हो गया है कि देर सबेर प्रियंका को राजनीति में आना ही था। सो, वे राजनीति में आ गई हैं। पर आकर करेंगी क्या? उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से की लोकसभा सीटों पर कांग्रेस को चुनाव लड़ाएंगी!

पहली नजर में यहीं लग रहा है कि वे पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं, जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं। पर असल में उनके राजनीति में उतरने की टाइमिंग और मकसद दोनों बड़ा अर्थ लिए हुए हैं। राहुल गांधी ने तो कह दिया कि वे बच्चों की परवरिश में व्यस्त थीं इसलिए राजनीति में आने में देरी हुई। पर असल में परिवार ने उनके राजनीति में आने का फैसला इसलिए भी रोका था क्योंकि यह अंदेशा था कि रॉबर्ट वाड्रा के बहाने उनको निशाना बनाया जाएगा। इसलिए टाइमिंग ऐसी चुनी गई, जब रॉबर्ट वाड्रा पर कार्रवाई का नुकसान होने की बजाय फायदा हो जाए। चुनाव तीन महीने रह गए हैं और केंद्र या हरियाणा की सरकार अब अगर वाड्रा के खिलाफ कुछ भी करेगी तो उसे चुनावी स्टंट समझा जाएगा और यह मैसेज होगा कि प्रियंका गांधी वाड्रा के राजनीति में प्रवेश से घबरा कर सरकार उनके पति पर कार्रवाई कर रही है। सो, यह मानना चाहिए कि बहुत सुनियोजित और सुविचारित तरीके से उनके राजनीति में उतरने की टाइमिंग तय की गई। पांच साल पहले जब देश में नरेंद्र मोदी की लहर थी, तब प्रियंका की एंट्री से कोई हलचल नहीं होती। अभी उनके आने से पूरे देश में हलचल मची है, भले वैसी नहीं है, जैसी मोदी की थी। 

प्रियंका की राजनीति में एंट्री की टाइमिंग एक और लिहाज से भी बहुत खास है। कांग्रेस को अंदाजा हो गया था कि समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों उसे अपने गठबंधन में नहीं शामिल करने वाले हैं। उस समय कांग्रेस प्रियंका का कार्ड चल कर सपा-बसपा को गठबंधन के लिए मजबूर कर सकती थी। पर उसने सपा-बसपा के तालमेल की घोषणा होने का इंतजार किया और तब प्रियंका की एंट्री का ऐलान किया। इस लिहाज से ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को सिर्फ भाजपा को मैसेज नहीं देना था, बल्कि विपक्षी पार्टियों को भी मैसेज देना था कि 2019 का चुनाव कांग्रेस उनके रहमोकरम पर नहीं लड़ रही है। कांग्रेस ने यह भी बताया कि मास्टरस्ट्रोक चलने का अधिकार सिर्फ नरेंद्र मोदी-अमित शाह या अखिलेश यादव-मायावती को ही नहीं है। यह मास्टरस्ट्रोक कितना कारगर होगा, इस बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए पर यह जरूर है कि कांग्रेस ने शांत पड़े तालाब में प्रियंका नाम का पत्थर फेंक कर लहर पैदा की है। कांग्रेस ने यह बता दिया है कि विपक्षी पार्टियों को उसे गंभीरता से लेना होगा। इससे अगले एक महीने में होने वाली गठबंधन की राजनीतिक गुणात्मक रूप से प्रभावित होगी।



एक सवाल यह भी है कि अगर तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस नहीं जीती होती तब भी क्या प्रियंका गांधी को अभी राजनीति में उतारा जाता? शायद नहीं! तीन राज्यों की जीत से कांग्रेस ने यह मिथक टूटता महसूस किया है कि कांग्रेस किसी हाल में नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा को नहीं हरा सकती है। पिछले 17 साल की राजनीति से यह मिथक बना था। खुद मोदी ने कहा था कि वे 17 साल से कांग्रेस को हरा रहे हैं। सो, तीन राज्यों में जब कांग्रेस ने भाजपा को हराया तो यह मिथक टूटा और कांग्रेस को लगा कि यह मौका है निर्णायक लड़ाई का। भाजपा के विकल्प के तौर पर कांग्रेस को स्वीकार किए जाने का भी संदेश तीन राज्यों के चुनाव नतीजों में छिपा है। तभी राहुल की मदद के लिए प्रियंका को लाने का फैसला हुआ। अगर कांग्रेस नहीं जीतती तो उनकी एंट्री के लिए अभी और इंतजार करना होता। 

अब उनके असर की बात! प्रियंका गांधी वाड्रा की राजनीति में आने का सबसे बड़ा असर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मनोबल पर हुआ है। कांग्रेस के ऐसे कार्यकर्ताओं की तादाद लाखों में है, जो भाजपा और मोदी-शाह की टीम के इस सोशल मीडिया प्रचार को मानते हैं कि राहुल से नहीं हो पाएगा। अब उनको उम्मीद जगी है कि राहुल से नहीं हो पाएगा तो प्रियंका करेंगी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं की यह उम्मीद उन्हें चुनावी भागदौड़ में झोंकेगी। वे जी जान से चुनाव में लगेंगे। दूसरा असर देश के आम मतदाता के मानस पर होता है। आम मतदाता किसी न किसी उम्मीद में मतदान केंद्र पर लगी कतारों में जाकर खड़ा होता है। इस बार अप्रैल-मई की चिलचिलाती धूप में जब मतदाता कतार में खड़े होंगे तो पांच साल पहले जगाई गई उम्मीदों और पांच साल की वास्तविकताओं की तुलना जरूर करेंगे और तब अगर उनके जेहन में नरेंद्र मोदी बनाम प्रियंका गांधी वाड्रा का चेहरा कौंधता है तो उसका असर बहुत बड़ा हो सकता है। 




रविवार, 27 जनवरी 2019

‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक'फिल्म को भाजपा ने बनाया लोकसभा चुनाव में जनता से वोट लेने का जरिया

‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक' की फिल्म को  पार्टी की ओर से निशुल्क दिखाया जा रहा है
 जयपुर। देश के 70वें गणतंत्र दिवस समारोह पर राजस्थान भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ता  सभी 33 जिलों में आम कार्यकर्ताओं और लोगों को ‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक'आदित्य धर के निर्देशन में बनी फिल्म भारतीय सेना द्वारा 2016 में पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। फिल्म में विक्की कौशल मुख्य भूमिका में हैं ।

बताया जा रहा है कि इस फिल्म के जरिए भाजपा केंद्र में अपनी मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान हुई सर्जिकल स्ट्राइक की घटना को आमजन तक पहुंचाना चाहती है। जिससे आमजन में इस बात की जानकारी हो सके कि मोदी सरकार ने देश की सेना का मनोबल बढ़ाया और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान को उसकी हर आतंकी गतिविधियों का उन्हीं की सरजमी पर उतर कर माकूल जवाब दिया। जयपुर में भी 22 गोदाम स्थित सिनेमा हॉल में इस फिल्म को पार्टी की ओर से निशुल्क दिखाया जा रहा है ताकि आम जन में देशभक्ति का जज्बा पैदा हो सके।



ये फिल्म आम लोगों में देश प्रेम का जज्बा पैदा करने वाली है लेकिन, इसके साथ ही भाजपा को राजनीतिक फायदा देने वाली भी है। क्योंकि सर्जिकल स्ट्राइक केंद्र की मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान ही हुई थी।

शनिवार, 26 जनवरी 2019

मतदाता समझें एक-एक वोट की कीमत - आयुक्त, राज्य निर्वाचन आयोग

जयपुर । राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त  प्रेम सिंह मेहरा ने कहा कि एक-एक वोट लोकतंत्र प्रणाली को मजबूत करता है। ऎसे में केवल अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज करवाना पर्याप्त नहीं है। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद से अब तक आयोग और निर्वाचन विभाग द्वारा जो भी नवाचार किए गए हैं, उन सबका मकसद ‘कोई भी मतदाता छूटे नहीं‘ रहा है। मतदाता को भी अपने मत की कीमत समझकर ज्यादा से ज्यादा संख्या में मतदान प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहिए।   

 मेहरा  जयपुर के हरिशचंद्र माथुर राजस्थान राज्य लोक प्रशासन संस्थान (एचसीएम, रीपा) में आयोजित 9वें राष्ट्रीय मतदाता दिवस के राज्य स्तरीय समारोह को संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम में भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त  सुनील अरोड़ा का राष्ट्रीय मतदाता दिवस के अवसर पर देश की जनता के नाम संदेश का वीडियो द्वारा प्रसारण किया गया। 

राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त ने कहा कि युवा और नए मतदाताओं का अधिकाधिक पंजीयन हो और पंजीयन मतदान में भी बदले तो आने वाले समय में प्रदेश की तस्वीर कुछ और होगी। उन्होंने कहा कि 1952 से लेकर 2014 तक हुए सभी चुनावों में निर्वाचन विभाग, जिला स्तर के अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों ने मतदान प्रतिशत बढ़ाने में अपनी-अपनी भूमिका बखूबी निभाई है। उन्होंने कहा कि इन प्रयासों का निर्वहन आने वाले चुनाव में और भी बेहतर तरीके से किया जाना चाहिए। 

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए मुख्य सचिव  डीबी गुप्ता ने कहा कि देश में युवाओं की तादात सबसे ज्यादा है और हम सभी को मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए युवा शक्ति को और अधिक प्रोत्साहित और जागरूक करना होगा। उन्होंने कहा कि युवा मतदाताओं को चुनावी प्रक्रिया के बारे में समझाना होगा ताकि वे मेरिट के आधार पर मताधिकार का प्रयोग कर सकें। उन्होंने कहा कि विधानसभा चुनाव में 74 प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ है। यह नंबर जब 80-90 प्रतिशत तक पहुंचेगा तो प्रजातंत्र और अधिक मजबूत होगा। 

 गुप्ता ने कहा कि मतदाताओं को विधानसभा चुनाव में सभी तरह की आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं। यही वजह रही कि बुजुर्ग और दिव्यांग मतदाताओं ने अच्छी संख्या में अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। उन्होंने चुनाव आयोग द्वारा हाल ही शुरू किए गए वीएएफ (वोटर अवेयरनेस फोरम) की तारीफ करते हुए कहा कि इसके जरिए सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेट क्षेत्र के मतदाता चुनावी प्रक्रिया से जुड़ सकेंगे। यह प्रक्रिया स्थाई रहेगी। उन्होंने वीएएफ को मजबूत बनाते हुए अपने विवेक के साथ निष्पक्ष और भय रहित मतदान करने का आव्हान भी किया। 

इस अवसर पर एचसीएम, रीपा की महानिदेशक सुश्री गुरजोत कौर ने सभी मतदाताओं को मतदाता दिवस की बधाई देते हुए कहा कि लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए सभी मतदाताओं की भागीदारी जरूरी है। मताधिकार के उपयोग से ही देश के प्रति गर्व की भावना पनपती है। उन्होंने कहा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन के लिए ‘सुगम मतदान‘ की थीम पर जो प्रयोग किए गए वे काफी हद तक सफल रहे। उन्होंने कहा कि आज हम गर्व से कह सकते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं। 

मुख्य निर्वाचन अधिकारी  आनंद कुमार ने बताया कि देश भर में 8 लाख से ज्यादा और प्रदेश में 51 हजार से अधिक मतदान केंद्रों पर राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाया गया। उन्होंने निर्वाचन विभाग के माध्यम से स्वतंत्र-निष्पक्ष और शांतिपूर्ण मतदान करवाने के लिए किए गए प्रयासों की जानकारी देते हुए बताया कि मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण, मतदान के प्रति आम मतदाता का रूझान और अधिक बढ़ाने के लिए स्वीप कार्यक्रम के जरिए व्यापक स्तर पर जन-जागृति फैलाने का कार्य किया गया। आम मतदाता को ईवीएम-वीवीपैट के जरिए सुगम मतदान की प्रक्रिया समझाई गई, जिससे विधानसभा चुनाव के दौरान करीब 75 प्रतिशत मतदान सुनिश्चित हुआ। उन्होंने सभी जिला अधिकारियों की प्रशंसा करते हुए कहा कि सुगम मतदान की थीम पर जिलों में अच्छा कार्य किया गया। 

 कुमार ने कहा कि दिव्यांगजन अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सकें इसके लिए पहली बार उन्हें घर से लाने ले जाने के लिए सरकारी वाहनों की व्यवस्था की गई। यही नहीं 12 हजार से ज्यादा व्हील चेयर मतदान केंद्रों पर उपलब्ध गइर्ं और प्रत्येक मतदान केंद्र पर उनके सहयोग के लिए दो-दो कैडेट्स भी नियोजित किए गए। आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर ‘सी-विजिल‘ एप के माध्यम से 100 मिनट में शिकायतों का निस्तारण किया गया। राजस्थान जैसे विशाल राज्य में मतदान प्रक्रिया की सफलता में राज्य सरकार के साथ ही समस्त जिला निर्वाचन अधिकारी, उप जिला निर्वाचन अधिकारी सहित जिला स्तर की टीम ने पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ कार्य किया। 

कार्यक्रम में विभाग के ब्रांड एंबेसेडर पैरा ओलंपिक विजेता और पदमश्री  देवेंद्र झांझडिया और निशानेबाज सुश्री अपूर्वी चंदेला ने भी मतदाताओं से अधिकाधिक संख्या में मतदान करने की अपील की। इस दौरान नव मतदाताओं को मतदाता पहचान पत्र देकर भी सम्मानित किया गया और आईसीजी की छात्राओं ने मतदान के प्रति जागरूकता लाने के लिए लघु नाटिका प्रस्तुत की। इस अवसर पर अतिथियों ने स्वीप प्रदर्शनी का अवलोकन किया तथा मतदाता जारूकता संबंधी पोस्टर का लोकार्पण भी किया।   

कार्यक्रम में जयपुर के संभागीय आयुक्त  केसी वर्मा, अतिरिक्त मुख्य निर्वाचन अधिकारी डॉ. जोगाराम सहित बड़ी संख्या में स्कूली छात्र-छात्राएं और अधिकारीगण उपस्थित रहे। कार्यक्रम के अंत में जयपुर जिला कलक्टर  जगरूप यादव ने अतिथियों का आभार व्यक्त किया। 

इन अधिकारी-कर्मचारियों को मिला सम्मान  
इस अवसर पर तत्कालीन जिला निर्वाचन अधिकारी, चित्तौड़गढ़  इंद्रजीत सिंह, राजसमंद जिला निर्वाचन अधिकारी  श्याम लाल गुर्जर, जिला निर्वाचन अधिकारी, कोटा  गौरव गोयल और जिला निर्वाचन अधिकारी, हनुमानगढ़  दिनेश जैन शामिल हैं। इसी तरह विशेष पुरस्कार की श्रेणी में तत्कालीन जिला कार्यकारी अधिकारी चित्तौड़गढ़  अंकित कुमार सिंह, जिला कार्यकारी अधिकारी, जयपुर  आलोक रंजन, जिला कार्यकारी अधिकारी, हनुमानगढ़  नवनीत कुमार साथ ही जिला सूचना अधिकारी  हनुमान सिंह गहलोत, अतिरिक्त नोडल ऑफिसर (ईवीएम) पाली श्री सुरेन्द्र जैन और राजस्थान स्काउट गाइड, जयपुर को पुरस्कृत किया गया। इस अवसर पर सीकर के उप जिला निर्वाचन अधिकारी  जयप्रकाश और नागौर के उप जिला निर्वाचन अधिकारी  ब्रजेश कुमार चंदेलिया को भी पुरस्कृत किया गया।  

इसी तरह चुरू (राजगढ़) के रिटर्निंग ऑफिसर  सुभाष कुमार, पाली (बाली) के रिटर्निंग ऑफिसर डॉ. भास्कर विश्नोई, सीकर (खंडेला) के रिटर्निंग ऑफिसर  भागीरथ, झालावाड़ (मनोहरथाना) के रिटर्निंग ऑफिसर  दिनेश चंद्र धाकड़, उदयपुर ग्रामीण के रिटर्निंग ऑफिसर  लोकबंधु, जयपुर (हवामहल) के रिटर्निंग ऑफिसर  प्रियव्रत सिंह चारण और सहायक रिटर्निंग ऑफिसर पाली (जैतारण)  रमेश चंद्र बहेडिया और उदयपुर (झाडौल) के  मनसुख डामोर को पुरस्कृत किया गया। 

बूथ लेवल ऑफिसर्स की कड़ी में प्रतापगढ़ (182) श्री राकेश शर्मा, चुरू (123)  पवन कुमार गौड़, उदयपुर (खैरवाड़ा-238)  विक्टर भील, श्रीगंगानगर के  सुरेन्द्र कुमार टोकसिया, नागौर (नावां)  मनसुख लाल, बूंदी (हिंडौली) के  मुकेश कुमार सैनी, झालावाड़ (मनोहरथाना) के  आफताब अहमद, जैसलमेर (पोकरण) के  अमानुल्ला, जोधपुर (लूणी) के  नरेन्द्र सिंह और सीकर (दांता) के  बसंत कुमार शर्मा को पुरस्कृत किया गया। 

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

शिक्षा राज्य मंत्री ने लगातार 9 घंटे तक ली विभाग की समीक्षा बैठक

जयपुर। शिक्षा राज्य मंत्री  गोविंद सिंह डोटासरा ने जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों (डाईट्स) को सुदृढ़ किये जाने के निर्देश दिए हैं। उन्हाेंने कहा कि डाईट्स का पृथक काडर बनाये जाने पर भी विचार किया जाएगा। उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण को व्यावहारिक किये जाने और शिक्षकों को उनके जिलों में ही प्रशिक्षण दिए जाने की भी हिदायत दी है। उन्होंने कहा कि प्रशिक्षण सजा नहीं है। इसके नाम पर शिक्षकों को परेशान नही किया जाना चाहिए। उन्होंने विद्यार्थियों की आवश्यकता और शैक्षिक गुणवत्ता वृद्धि को केंद्र में रखकर शिक्षकों का प्रशिक्षण करवाये जाने पर जोर दिया है।

 डोटासरा ने  शिक्षा संकुल में  शिक्षा विभाग की 9 घंटे तक सूक्ष्म समीक्षा बैठक ली। शिक्षा मंत्री ने इस दौरान समग्र शिक्षा की विभिन्न योजनाओं की बिन्दुवार जानकारी ली तथा कहा कि शैक्षिक परियोजनाओं में प्रतिनियुक्ति पर ऎसे शिक्षकाें को लिया जाए जो विभिन्न विषयों के साथ ही परियोजना के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए प्रतिबद्ध हों। उन्हाेंने ज्ञान संकल्प पोर्टल के तहत विद्यालयों केा मिलने वाले सहयोग की भी समीक्षा की तथा कहा कि विद्यालयों में भौतिक ही नहीं व्यावहारिक रूप में भी सहयोग लिए जाने के लिए पोर्टल में प्रावधान किये जाएं। 

 डोटासरा ने आदर्श एवं उत्कृष्ट विद्यालयों की भी समीक्षा की तथा कहा कि विद्यालयों की संख्या बढ़ाने के साथ ही वास्तव में उन्हें आदर्श और उत्कृष्ट बनाए जाने पर शिक्षा अधिकारी ध्यान दे। उन्होंने ऎसे विद्यालयों में विषय अध्यापकों के रिक्त पदों को शीघ्रातीशीघ्र भरे जाने, विद्यालयों में कम्प्यूटर शिक्षा के समुचित प्रबंध किए जाने पर भी जोर दिया।

शिक्षा राज्य मंत्री ने मॉडल स्कूलों में सूचना सहायकों की आवश्यकता के बारे में भी जानकारी ली तथा कहा कि इस संबंध में नवीन भर्तियां के लिए वित्त विभाग से बात कर कार्यवाही की जाएगी। उन्होंने कहा कि  विद्यालयो के विकास में सहयोग उपयोगिता आधारित हो-इसी अनुरूप नियम बने। उन्होंने विद्यालयों से जन जुड़ाव के लिए प्रवासियों से सहयोग लिए जाने के लिए भी अधिकारियों को व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए जाने पर जोर दिया।

 डोटासरा ने कहा कि यह भी सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी विद्यालय में गणित, विज्ञान और अंग्रेजी के शिक्षकों के पद रिक्त नहीं रहे। उन्होने राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसंधान परिषद् को व्यावहारिक बनाए जाने और प्रशिक्षण में विद्यार्थियो के कौशल विकास, व्यक्तित्व विकास की गतिविधियॉं पर अधिकाधिक ध्यान दिए जाने पर जोर दिया। बैठक में बताया गया कि राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षणण संस्थान द्वारा नियमों के तहत विद्यालयी पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तनों की समीक्षा का कार्य चल रहा है। शिक्षा मंत्री ने इस पर कहा कि पाठ्यपुस्तकों में विद्यार्थियों के ज्ञान वर्द्धन, उनकी बौद्धिक क्षमता से जुड़ी सामग्री का अधिकाधिक समावेश हो। उन्होंने कहा कि शिक्षा में राजनीति नहीं होनी चाहिए। शिक्षा में ऎसा पढ़ाया जाए जिससे विद्यार्थी भविष्य में आगे बढ सके। उन्होंने लनिर्ंग आउटकम के आधार पर पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा की कार्यवाही जारी रखे जाने और इसके तहत विषय विशेषज्ञों, शिक्षाविदें की राय के आधार पर कार्यवाही किए जाने पर जोर दिया। 

उन्होनें कहा कि राज्य सरकार की मंशा है कि विद्यालय ज्ञान संपन्न समाज का निर्माण करने वाले हों। उन्होंने कहा कि विद्यार्थी समाज का भविष्य हैं, उन्हें बेहतर शिक्षा के साथ ही पढ़ने की बौद्धिक सामग्री मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि विद्यालयों पुस्तकालयों को भी विद्यार्थी ज्ञान केन्द्र के रूप में विकसित किए जाने पर जोर दिया। उन्होंने विद्यालयों में पुस्तको की खरीद भी गुणवत्ता आधार के साथ ही विद्यार्थियों की उपयोगिता और उनके ज्ञानवर्द्धन में उपयोगी पुस्तकों के आधार पर किए जाने पर जोर दिया। 

उन्हेांने कहा कि विद्यालयों के पुस्तकालयों में विचारधाराओं को थोपा नहीं जाना चाहिए। पुस्तकें वहां ऎसी हो जो उनके मन को स्वस्थ करने वाली, बौद्धिक क्षमता में वृद्धि करने वाली और भविष्य का ज्ञान संपन्न समाज बनाने वाली हों। र्बैठक में साक्षरता एवं सतत शिक्षा के कायोर्ं को भी जनोपयोगी बनाए जाने पर जोर देते हुए शिक्षा मंत्री ने कहा कि प्रयास हो कि राजस्थान देशभर में शिक्षा क्षेत्र में अग्रणी बने। बैठक में प्रमुख शासन सचिव श्री भाष्कर ए सावंत, सर्व शिक्षा अभियान के आयुक्त श्री प्रदीप कुमार बोरड़, प्रारंभिक शिक्षा विभाग के निदेशक श्री ओ.पी. कसेरा, एवं माध्यमिक शिक्षा विभाग के निदेशक श्री नथमल डीडेल सहित बड़ी संख्या में अधिकारियों ने भाग लिया।

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

हम बैलट पेपर के दौर में नहीं लौटने वाले: मुख्य चुनाव आयुक्त

मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने स्पष्ट किया कि विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा ईवीएम की आलोचना से हम परेशान होने वाले नहीं. चुनाव आयोग ईवीएम और वीवीपीएटी का इस्तेमाल जारी रखेगा।


 इस साल होने वाले लोकसभा चुनावों में ईवीएम की जगह बैलट पेपर का इस्तेमाल करने की मांग के संबंध में चुनाव आयोग ने स्पष्टीकरण देते हुए इसे ख़ारिज कर दिया है।

मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने गुरुवार को स्पष्ट कर दिया कि चुनाव आयोग वापस बैलट पेपर से चुनाव कराने के पक्ष में नहीं है।

दिल्ली में गुरुवार को एक कार्यक्रम के दौरान अरोड़ा ने कहा, ‘मैं आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि हम वापस बैलट पेपर्स के दौर में नहीं लौट रहे हैं।


सुनील अरोड़ा ने आगे कहा, ‘हम ईवीएम और वीवीपीएटी का इस्तेमाल जारी रखेंगे। हम किसी भी पक्ष जिसमें राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं, की आलोचना और फीडबैक का स्वागत करते हैं, लेकिन हम इन सबसे डरने या परेशान होने वाले नहीं हैं। ऐसे में बैलट पेपर्स का दौर फिर से नहीं लौटेगा।’

बीती 21 जनवरी को लंदन में हुए एक कार्यक्रम के दौरान सैयद शुजा नाम के एक कथित साइबर हैकर ने दावा किया था कि वह भारत में बनने वाले ईवीएम डिज़ाइन टीम का सदस्य था और ईवीएम को हैक कर सकते हैं।

शुजा ने दावा किया था कि ईवीएम हैक की जा सकती है और 2014 लोकसभा चुनावों में धांधली हुई थी।

शुजा ने यह भी दावा किया था कि भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान उसने ईवीएम हैक की थी। हैकर ने यह भी दावा किया कि ट्रांसमीटर के ज़रिये ईवीएम में हैकिंग की गई थी और हैकिंग के लिए विभिन्न दलों ने उससे संपर्क किया था।

शुजा के दावे के बाद बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे कुछ दलों ने मांग की है कि 2019 का लोकसभा चुनाव ईवीएम की जगह बैलट पेपर से होना चाहिए।

चुनाव आयोग ने सैयद शुजा के इन दावों को ख़ारिज करते हुए दिल्ली पुलिस को इस संबंध में केस दर्ज करने के लिए एक पत्र लिखा था।

चुनाव आयोग से मिली शिकायत के आधार पर दिल्ली पुलिस ने संसद मार्ग थाने में बीती 23 जनवरी को भारतीय दंड संहिता की धारा 505 (लोगों के मन में डर पैदा करने वाली अफवाह फैलाना) के तहत प्राथमिकी दर्ज कर ली है।

हैकर के दावों के बाद कांग्रेस ने भी निर्वाचन आयोग से स्पष्टीकरण मांगा। भाजपा और जनता दल यूनाइटेड ने ईवीएम के इस्तेमाल को जारी रखने की बात कही। हालांकि भाजपा ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि सैयद द्वारा प्रेस कांफ्रेंस के पीछे कांग्रेस का हाथ है।

जेएलएफ 2019 के उदघाटन में परिसर में पेड़ गिरा, चार लोग घायल

जयपुर । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में उदघाटन के दिन हादसा हो गया। यहां दोपहर में करीब एक बजे डेलीगेट्स लंच परिसर में एक सालों पुराना पीपल का पेड़ गिर गया। इस हादसे में वरिष्ठ फोटोजर्नलिस्ट सुरेन्द जैन पारस समेत तीन लोग घायल हो गए। घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
वहीं हादसे में दौरान कांग्रेस नेता शशि थरूर समेत कई नामी हस्तियां लंच ले रही थी। लेकिन गनीमत यह रही कि यह सभी लोग पेड़ से दूर थे। इस हादसे में एकबारगी अफरा-तफरी का माहौल हो गया। लेकिन बाद में पुलिस प्रशासन और आयोजक मौके पर पहुंचे और घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया।

बुधवार, 23 जनवरी 2019

अगला प्रधानमंत्री कौन होगा ?

मोदी का शासन इस बात का सबूत है कि 
गठबंधन सरकार भारत के लिए अच्छी होगी
मोदी सरकार का पिछले साढ़े चार साल का अनुभव यह बताने के लिए काफ़ी है कि एक नेता या एक वर्चस्वशाली पार्टी के इर्द-गिर्द बनी सरकारें घमंडी और अक्खड़ जैसा व्यवहार करने लगती हैं और आलोचनाओं को लेकर कठोर हो जाती हैं।

‘अगर नरेंद्र मोदी, नहीं तो कौन? राहुल गांधी? यह किसी हादसे की तरह होगा।’ यह तर्क हम अनगिनत बार सुन चुके हैं। चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, बहस के केंद्र में यह नहीं है कि कौन सा दल या गठबंधन अगली सरकार बनाएगा, बल्कि बहस इस बात को लेकर हो रही है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा।

मोदी ने इसे सफलतापूर्वक उनके जैसे एक ‘सेल्फ-मेड’ व्यक्ति और एक विशेषाधिकार प्राप्त वंशवादी उत्तराधिकारी राहुल गांधी के बीच के राष्ट्रपति शैली के चुनाव में तब्दील कर दिया है।

यहां विडंबना है क्योंकि जो भाजपा जो हमेशा से एक विचारधारा से संचालित होनेवाली पार्टी होने का दावा करती थी, जहां व्यक्ति गौण होता है, वह अब नरेंद्र मोदी के सामने तुच्छ हो गयी है।

थोड़ी गहराई से देखें, तो यह बहस और दिलचस्प हो जाती है। यहां तक कि वे लोग भी जो या तो दृढ़ आस्था की वजह या फिर कोई और विकल्प न देख पाने के कारण मोदी की तरफ झुके हुए हैं, परोक्ष तरीके से इस बात पर सहमत हैं कि उनका शासन उम्मीदों पर खरा उतर पाने में नाकाम रहा है।

थोड़ा और स्पष्ट आकलन यह है कि पिछले चार बरस कई मायनों में किसी आपदा की तरह रहे हैं। जहां, सड़क पर उतरने और विरोध प्रदर्शन करने का काम किसानों ने किया है और उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष ब्रिगेड ने सतत तरीके से तेजी से बिगड़ रहे सामाजिक ताने-बाने को केंद्र में रखा है, वहीं कॉरपोरेट जगत के मुखिया और छोटे कारोबारी अपने गुस्से का इजहार निजी तौर पर करना चाहते हैं।

लेकिन गुस्सा साफ दिखाई देनेवाला है- नोटबंदी और जीएसटी और साथ ही साथ सुस्त अर्थव्यवस्था और निवेश की कमी ने कंपनियों और छोटे कारोबारों पर समान रूप से असर डाला है।

लेकिन इन लोगों के बीच ही व्यक्तिगत तौर पर प्रधानमंत्री के लिए समर्थन सबसे कट्टर किस्म का है। यह सही है कि भले मोदी सरकार और इसकी आर्थिक नीतियां विकास को गति देने में नाकाम रहीं हों और सामाजिक क्षेत्र पर खर्च से उन्हें नाराजगी हो, लेकिन हिंदुत्व समेत बाकी मसलों पर उन्हें कोई दिक्कत नहीं है।

इसमें अगर गांधी परिवार के प्रति गहरी चिढ़ जोड़ दें, तो यह बात समझ में आ जाती है कि आखिर वे अगली बार भाजपा को वोट देने का मन क्यों बना रहे हैं।

गठबंधन सरकार के मामले में भी राहुल गांधी पीछे हैं। जब भाजपा कम सीटें जीतती है और उसे सरकार बनाने के लिए एक बड़ी संख्या में सहयोगियों की दरकार होती है- ऐसी सूरत में भी मोदी को ऐसे गठबंधन के निर्विवाद नेता के तौर पर देखा जाता है।

अन्यों को भानुमति के कुनबे की तरह देखा जाता है, जिसका एकमात्र एजेंडा मोदी को कुर्सी से हटाना और किसी न किसी तरह सत्ता हथियाना है। और प्रधानमंत्री कौन बनेगा? मायावती? भगवान बचाए। ममता बनर्जी? वे और खराब होंगीं। ‘गठबंधन एक नकारा चीज है- ऐसी खिचड़ी सरकारों का पिछला सारा प्रयोग बुरी तरह नाकाम रहा है।’ यही बार-बार दोहराए जाने वाली बातें हैं।

यह सीमित समझ न सिर्फ भारतीय राजनीति बल्कि भारत की भी जानकारी न होने को दिखाती है। एक गठबंधन सबसे अच्छी तरह से भारत की विविधता और विशाल देश के सभी वर्गो की अलग-अलग जरूरतों का प्रतिनिधित्व करता है।

कांग्रेस लंबे समय तक भारत की राजनीति पर छाई रही और 1977 में पहली बार सत्ता में बाहर होने से पहले तीन दशकों तक लगातार केंद्र की सत्ता पर काबिज रही। लेकिन इसके पीछे मुख्य तौर ऐतिहासिक कारणों का हाथ था।

इसके अलावा, खुद कांग्रेस विभिन्न, यहां तक कि प्रतिस्पर्धी सामाजिक और आर्थिक विचारधारा वाली शक्तियों का गठबंधन थी- और आज भी कुछ मायनों में वह ऐसी बनी हुई है- जो अपने भीतर हर तरह की जातीयता, क्षेत्र और जाति को जगह देती थी।


पिछले गठबंधन


यह विचार कि गठबंधन सरकारें भारत के लिए दुर्घटना की तरह रहीं हैं, भी जांच की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।

नरसिम्हा राव सरकार इसकी अच्छी मिसाल है- यह अल्पमत सरकार थी, जिसने न सिर्फ पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि जिसने लंबे समय तक काम आने वाले आर्थिक सुधारों की भी शुरुआत की- यह एक ऐसी चीज है जिसे कारोबारी समुदाय को याद रखना चाहिए और यहां तक कि इसकी तुलना वर्तमान भाजपा सरकार से करनी चाहिए, जिसे पिछले 30 सालों का सबसे बड़ा जनादेश मिला था।



अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक गठबंधन सरकार चलाई और दोनों यूपीए सरकारें भी गठबंधन थीं। इन नेताओं को अपने सहयोगियों की खींचतान और दबावों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने रवैये में सौहार्दपूर्ण और मिलजुल कर चलनेवाले थे और जो अपने बुनियादी उसूलों और एजेंडा का त्याग किए बगैर अपने सहयोगियों को साथ-साथ लेकर चल सके।

वाजपेयी को अस्थिर स्वभाव वाली नेताओं- जयललिता और बनर्जी से कदमताल मिलाना पड़ा, तो मनमोहन सिंह को शक्तिशाली माकपा से जूझना पड़ा। जब पानी सिर से ऊपर चला गया, तब इन लोगों ने सहयोगी को जाने दिया।

यह बात दोहराए जाने लायक है कि जब वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा को 2004 में हार का मुंह देखना पड़ा और ‘इंडिया शाइनिंग’ का खोखलापन उजागर हुआ, तब भाजपा के शहरी समर्थकों को झटका लगा था।

जब यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है, मगर उसे जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए कई दूसरी पार्टियों के साथ हाथ मिलाना होगा, तब शेयर बाजार बिल्कुल निचले स्तर पर चला गया।

पांच साल बाद, जब यूपीए की दोबारा सत्ता में वापसी हुई और कांग्रेस ने अपनी सीट संख्या में बढ़ोतरी की, तब बाजार को खुलने के चंद मिनटों के भीतर ही बंद करना पड़ा, क्योंकि बाजार के सूचकांक ने अपनी तय सीमा से ज्यादा ऊंची छलांग लगा दी थी।

शेयर बाजार का उदाहरण इस ओर इशारा करने के लिए दिया गया है कि जहां तक आर्थिक नीतियों को लेकर उम्मीदों का सवाल है, तो निवेशक समुदाय- और इससे आगे महानगरों और मझोले और छोटे शहरों के मतदाता भी- हर कोई मनमोहन सिंह का स्वागत कर रहा था।

ऐसा इस तथ्य के बावजूद था कि उनके साथ उनके सहयोगियों की टीम थी और इसके बावजूद भी कि यूपीए-1 ने मनरेगा जैसे उन्हें नाराज करनेवाले सामाजिक कार्यक्रमों में निवेश किया था।



सिंह ने न केवल परमाणु करार को अंजाम पर पहुंचाया, बल्कि उन्होंने एक आर्थिक उछाल का भी नेतृत्व किया साथ ही 2008 के बाद के संकट की घड़ी में उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को सुरक्षित पार लगाने का भी काम किया।

साथ ही यह भी उतना ही सच है कि उनके दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और वे प्रभावशाली ढंग से अपने सहयोगियों की जवाबदेही तय नहीं कर पाए. लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप- और इसका साथी क्रोनी कैपिटलिज़्म- भारतीय सरकारों की एक साझी विशेषता रही है, फिर चारे वह एक पार्टी की सरकार हो या गठबंधन की सरकार हो।

राजीव गांधी के समय में बोफोर्स का मामला सामने आया और अभी रफाल का मामला सामने आया है। वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए-2 के समय में ‘ताबूत घोटाला’ सामने आया था तो यूपीए-2 के समय में 2जी घोटाला सामने आया।

इस तरह से इस बात का कोई सबूत नहीं है कि गठबंधन सरकारें किसी नियम की तरह देश के लिए खराब होती हैं और एक पार्टी का वर्चस्व उससे कहीं बेहतर है।

देवगौड़ा के समय- समझौते के तहत उभरे जिनके नाम ने सबको चकित कर दिया था- पी चिदंबरम ने -‘ड्रीम बजट’ पेश किया था, भले ही जल्द ही इसका स्वाद खट्टा हो गया।

मोदी के शासन में पेश किए गए बजट कारोबारियों को उत्साहित कर पाने में नाकाम रहे हैं और बीतते समय के साथ सरकार ने ज्यादा से ज्यादा कल्याणकारी लबादा ओढ़ लिया है। कम से कम कहा जाए, तो यह विकास को गति देनेवाली कल्पनाशील आर्थिक नीतियों के साथ सामने नहीं आ पाई है; इसकी जगह हमें नोटबंदी की सौगात मिली, जिसका नतीजा लाखों लोगों की बर्बादी के तौर पर निकला।

निश्चित तौर पर यह इस बात का उदाहरण था कि कैसे एक मजबूत व्यक्ति अपनी पार्टी के लोगों से विचार-विमर्श और कैबिनेट सहयोगियों को विश्वास में लिए बगैर अपनी मनमर्जी चला सकता है। स्वाभाविक तौर पर इसकी तुलना इमरजेंसी से की जाएगी, जिसका फैसला भी कुछ लोगों ने लिया था।



पिछले साढ़े चार साल का अनुभव हमें यह बताने के लिए काफी होना चाहिए कि एक नेता या एक वर्चस्वशाली पार्टी के इर्द-गिर्द बनी सरकारें घमंडी और अक्खड़ जैसा व्यवहार करने लगती हैं और आलोचनाओं को लेकर कठोर होती हैं।

वे ज्यादा से ज्यादा जमीनी हकीकत से कटती जाती हैं और क्योंकि उस पर कोई अंकुश नहीं होता है, उसकी बेलगाम गति को रोकनेवाली कोई प्रतिरोधी शक्ति नहीं होती है, यहां तक कि दूसरे दृष्टिकोण को सामने रखने वाला भी कोई नहीं होता है।

छोटी पार्टियां ब्लैकमेल में शामिल हो सकती हैं या कर सकती हैं, लेकिन वे किसी खास क्षेत्र या तबके का प्रतिनिधित्व करती हैं और इस तरह से वे बिना सोचे-समझे जल्दबाजी भरे फैसले लेने पर लगाम लगा सकती हैं।


नरेंद्र मोदी ने अपनी ही पार्टी वालों की परवाह नहीं की है, गठबंधन के छोटे सहयोगियों की तो बात ही जाने दिजिए, बीते एक साल में जिन्होंने धीरे-धीरे सरकार से खुद को अलग कर लिया है।

मई, 2019 के बाद एक सही मायने में गठबंधन की सरकार की संभावना काफी अच्छी है, जिसमें कई सहयोगियों की आवाज सुनी जायेगी.

इसका नेतृत्व कौन करेगा, यह अभी भी तय नहीं है। लेकिन नेतृत्व चाहे जो भी करे- और इसमें मोदी शामिल हैं, जिनके पास सामूहिक निर्णय का कोई अनुभव नहीं है- उसे यह समझना होगा कि उसकी सरकार वैसी है, जो सबसे अच्छी तरह से भारत और भारत के लोगों को प्रतिबिंबित करती है और इसलिए इसका सम्मान जरूर किया जाना चाहिए।

लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का दांव,प्रियंका गांधी की हुई राजनीति में इंट्री

लोकसभा चुनाव 2019 : कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक

लगातार लगते कयासों के बीच प्रियंका गांधी औपचारिक रूप से राजनीति में आ गयी हैं। लोकसभा चुनाव पहले कांग्रेस ने अपना मास्टर स्ट्रोक चला है।  पार्टी ने प्रियंका गांधी को पार्टी महासचिव बनाने के साथ ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया है। प्रियंका गांधी को अध्यक्ष के बाद सबसे ताकतवर पद महासचिव से पार्टी ने नवाजा है। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रियंका की राजनीति में औपचारिक एंट्री हो चुकी है।

कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है, वह अशोक गहलोत की जगह लेंगी। उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गयी है, जबकि पश्चिमी यूपी की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया को दी गयी है।  इससे पहले राजनीति से दूरी रहने  वालीं प्रियंका केवल अपने भाई राहुल गांधी और मां सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र में प्रचार करतीं नजर आतीं थीं।

तीन राज्यों में जीत के बाद ही जानकार इस बात के कयास लगा रहे थे कि प्रियंका गांधी राजनीति में इंट्रीं कर सकतीं हैं क्योंकि इन तीनों राज्यों के मुख्‍यमंत्री के चयन में उनकी भूमिका रही है और पर्दे के पीछे रहकर प्रियंका ने राहुल की मदद की थी।  कांग्रेस कार्यकर्ता कई वर्षों से इस बात की मांग कर रहे थे कि प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाया जाना चाहिए।  समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश में गंठबंधन करने के बाद कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि यूपी में कुछ ऐसा होगा जिससे लोग चौंक जायेंगे।



प्रियंका गांधी के राजनीति में इंट्री की खबर से कांग्रेस कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर है। कांग्रेस कार्यकर्ता लखनऊ पार्टी दफ्तर के बाहर नारे लगा रहे हैं- प्रियंका गांधी आई हैं, कांग्रेस के लिये आंधी लाई हैं? 

12 जनवरी 1972 को जन्म लेने वालीं प्रियंका गांधी 47 साल की हैं। साल 2018 में कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने प्रियंका गांधी को गेम चेंजर बताया था और कहा था कि 2019 के चुनाव में प्रियंका एक बड़ा रोल निभाती नजर आने वालीं हैं। वहीं  कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि प्रियंका गांधी खुद अपना काम चुनती हैं और उसे बखूबी निभाती हैं।

कांग्रेस में ये हुए बदलाव

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बुधवार को संगठन में बड़ा बदलाव करते हुए अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी महासचिव नियुक्त करते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश-पूर्व का प्रभार सौंपा। पार्टी की ओर से जारी बयान के मुताबिक, ज्योतिरादित्य सिंधिया को इसके साथ ही महासचिव-प्रभारी (उत्तर प्रदेश-पश्चिम) बनाया गया है। प्रियंका फरवरी के पहले सप्ताह में कार्यभार संभालेंगी। पार्टी के वरिष्ठ नेता केसी वेणुगोपाल को संगठन महासचिव की जिम्मेदारी सौंपी गयी है जो पहले की तरह कर्नाटक के प्रभारी की भूमिका निभाते रहेंगे। संगठन महासचिव की जिम्मेदारी संभाल रहे अशोक गहलोत के राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने के बाद वेणुगोपाल की नियुक्ति की गई है। उत्तर प्रदेश के लिए प्रभारी-महासचिव की भूमिका निभा रहे गुलाम नबी आजाद को अब हरियाणा की जिम्मेदारी दी गयी है।

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

अवॉर्ड्स नाइट से सजी जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की शाम

फिल्म प्रेमियों को इंतज़ार था। सिनेमा प्रेमियों से खचाखच भरा गोलछा हॉल, दर्शकों के चेहरों पर उत्साह और चारों ओर रोमांच से भरी एक ख़ुशगवार शाम।  हनु रोज  के बिना यह समारोह इतनी ऊँचाइयों तक नहीं पहुँच सकता था। दर्शकों में रही एक ही चर्चा कि जिफ की सरकार को करनी चाहिये आर्थिक मदद ।

 जयपुर । पाँच तक दिन लगातार फ़िल्मों के प्रदर्शन के बाद आख़िर वह शाम आ ही गई, जिसका शहर भर के फिल्म प्रेमियों को इंतज़ार था। सिनेमा प्रेमियों से खचाखच भरा गोलछा हॉल, दर्शकों के चेहरों पर उत्साह और चारों ओर रोमांच से भरी एक ख़ुशगवार शाम। यह दृश्य है, जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 2019 के पाँचवे दिन का, जहाँ देशी – विदेशी फ़िल्मों को अवॉर्ड्स दिए गए। फ़िल्मों के नाम रहे इस पाँच दिवसीय अऩ्तर्राष्ट्रीय समारोह में शहर के आम और ख़ास ने बढ़–चढ कर हिस्सा लिया। जिफ संस्थापक हनु रोज ने फिल्म उत्सव को कामयाब बनाने के लिए, मौजूद रहे फ़िल्मकारों और ज्यूरी सदस्य सहित तमाम लोगों का धन्यवाद दिया। साथ ही हनु रोज ने जयपुर शहर वासियों का भी शुक्रिया अदा किया, जिनकी मौजूदगी के बिना यह समारोह इतनी ऊँचाइयों तक नहीं पहुँच सकता था।

क्लोजिंग फ़िल्में रहीं – सन्स एण्ड फादर्स और मूविंग पार्ट्स

जिफ की क्लोजिंग सेरेमनी में श्रीलंका की फिल्म निर्देशक सुमथी सिवामोहन की फिल्म सन्स एण्ड फादर्स दिखाई गई। साथ ही एमिले उपजैक की फिल्म मूविंग पार्ट्स प्रदर्शित हुई, जो त्रिनिदाद एण्ड टोबेगो से आई फ़ीचर फ़िक्शन फिल्म है।

11 देशों के फ़िल्मकारों ने किया संवाद 

दोपहर के सत्र में 11 देशों के फ़िल्मकारों के लिए एक खुला संवाद रखा गया, जिसमें फ़िल्मों से जुड़े विविध विषयों पर चर्चा हुई। शॉर्ट फिल्म बनाने से लेकर इसे बाज़ार तक पहुँचाने के सफ़र पर बातचीत हुई। जाने – माने अभिनेता और कई फ़िल्मों में सह–निर्देशन तथा स्क्रिप्टिंग कर चुके मानव कौशिक ने कहा कि अब शॉर्ट फिल्म बनाना आसान हो गया है, और मोबाइल पर भी फिल्म बनाई जा सकती है। वहीं, फिल्म निर्देशक सत्यप्रकाश ने कहा कि फिल्म में यदि इमोशनल और रिएलिटी दिखाई गई हो, तो फिल्म दर्शकों को ज़रूर पसंद आएगी। वहीं, दर्शकों की ओर से भी यह सुझाव रखा गया कि फ़िल्मकारों को महज़ मनोरंजन परोसने के बजाय देश के असल मुद्दों जैसे भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और इस तरह की समस्याओं पर फ़िल्में बनाने के बारे में सोचना चाहिए।

जारी रही फ़िल्मों की स्क्रीनिंग 

आर्यन जिफ 2019 के पाँचवे दिन कई फ़िल्में प्रदर्शित हुईं। अभिषेक साहा की बंगाली में बनी फिल्म रनअवे प्रदर्शित हुई, वहीं बांग्लादेश से नूर इमरान की फिल्म कोमोला रॉकेट [एन ऑरेंज शिप] दिखाई गई। गोलछा सिनेमा के टिवोली में सुलिल कुमार एस. की तमिल फिल्म द ब्रोकन टाइड, पाकिस्तान के हरून हबीब की फिल्म रीवर इन द डेज़र्ट, सोहिल वैद्य की डिफिकल्ट पीपल और कई दूसरी फ़िल्मों की स्क्रीनिंग हुई। गोलछा सिनेमा के नाइल में पाकिस्तान के हमज़ा बंगाश की फिल्म दिया, मॉरीशस के हरीकृष्णा अनेन्देन की फिल्म सारी का प्रदर्शन हुआ। वहीं, राजस्थान एडल्ट असोसिएशन जयपुर में आशीष चनाना की आफ़रीन, अऩुराग कवातरा की कुछ देर और, तथा महाराष्ट्र की लोक कला पर आधारित फिल्म फड़ – अ महाराष्ट्रीयन फोक आर्ट दिखाई गई, जिसे धनंजय खैरनार ने निर्देशित किया है।

फ़िल्मों को मिले अवॉर्ड्स

अवॉर्ड्स नाइट में कई देशी–विदेशी फ़िल्मों को विविध पुरस्कारों से नवाज़ा गया। वर्डवुड इंटरनेशनल पैनोरमा फ़ॉर इंटरनेशनल कॉम्पिटिशन में शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री फिल्म श्रेणी के अन्तर्गत बेस्ट शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री फिल्म का अवॉर्ड अफ़ग़ानिस्तान की फिल्म माय अफ़ग़ान डायरी को दिया गया, जिसे आरज़ू क़ादरी ने निर्देशित किया है। शॉर्ट फ़िक्शन फिल्म श्रेणी में बेस्ट शॉर्ट फिल्म का अवॉर्ड स्वीडन की फिल्म सैकण्ड क्लास को दिया गया, जिसके निर्देशक हैं ज़ख़्मी ऑल्सन। इसी श्रेणी में बेस्ट स्क्रिप्ट का अवॉर्ड डेट नाइट फिल्म को दिया गया, जिसे रोमानिया के स्टेला पेलिन ने निर्देशित किया है। बेस्ट सिनेमेटोग्राफ़र का अवॉर्ड जोएकिम जुटी की फिल्म गुडबाय को दिया गया।

कमिंग स्टार्स पैनोरमा [ओनली फ़ॉर स्टूडेंट्स] श्रेणी के अन्तर्गत बेस्ट अपकमिंग फिल्म का अवॉर्ड लेबनान की फिल्म दा डाँस ऑफ़ अमल को दिया गया, जिसके निर्देशक हैं रामि अल राबिह। राजस्थान को समर्पित फ़िल्मों में, यू – टर्न राजस्थान पैनोरमा श्रेणी के अन्तर्गत बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड अंकित शर्मा और नेहा शर्मा की फिल्म न्यू गर्ल को दिया गया। वहीं, स्पेशल ज्यूरी मेंशन फ़ॉर राजस्थान का अवॉर्ड रिचा मीना और माइकल कुमेर की फिल्म घुमन्तू को दिया गया।

एनिमेशन फ़िल्मों की श्रेणी में, बेस्ट एनिमेशन फिल्म का अवॉर्ड रोमानिया के सेर्गिउ नेगुलिसि की दा ब्लिसफुल एक्सीडेंटल डैथ को दिया गया।

बिफोर आइ फॉर्गेट फिल्म को मिले सबसे ज़्यादा अवॉर्ड्स 

फ़ीचर फिल्म के लिए गोल्डन कैमल श्रेणी में बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड, ब्राज़ील की फिल्म बिफोर आइ फॉर्गेट के निर्देशक टिआगो आराकिलियन को दिया गया। ग़ौरतलब है कि बिफोर आइ फॉर्गेट सबसे ज़्यादा अवॉर्ड हासिल करने वाली फिल्म है। इसे यैलो रोज़ कैटेगरी में, अपकमिंग फिल्म विद वर्ड प्रीमियर का अवॉर्ड मिला। इसी फिल्म की अभिनेत्री को बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड भी मिला। वहीं, बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड भी इसी फिल्म के अभिनेता के नाम रहा। बेस्ट फिल्म फ़्रॉम अमेरिकन कॉन्टिनेंट का अवॉर्ड बिफोर आइ फॉर्गेट फिल्म के नाम रहा।
बेस्ट सिनेमेटोग्राफ़ी अवॉर्ड शाद अली की फिल्म सूरमा को दिया गया। बेस्ट प्रोडक्शन डिजाइन का अवॉर्ड भी इसी फिल्म को मिला।
10 डेज़ बिफोर दा वैडिंग फिल्म को कई अवॉर्ड्स मिले। बेस्ट मेक अप एण्ड हेयरस्टाइलिंग और बेस्ट कॉस्ट्यूम्स डिज़ाइन का अवॉर्ड इसी फिल्म के नाम रहा।
स्पेशल ज्यूरी मेंशन अवॉर्ड, ईरान के हुसैन नूरी की फिल्म माय आम्स फ्लू को मिला, वहीं राजस्थान की फ़िल्मों में, स्पेशल ज्यूरी मेंशन अवॉर्ड गजेन्द्र क्षोत्रिय की चर्चित फिल्म कसाई और लोम हर्ष की फिल्म ये है इण्डिया को मिला।

बेस्ट जयपुर क्रिटिक्स फिल्म, उए श्वर्जवाल्डर की फिल्म दा रैडिकलाइजेशन ऑफ़ जैफ़ बोइड रही। वहीं, वैलकम रिगार्ड – फ़ीचर फिल्म का अवॉर्ड कजाकिस्तान के ओल्गा कोरोट्को की फिल्म बैड बैड विनर को दिया गया। बेस्ट फिल्म फ़्रॉम एशियन कॉन्टिनेंट का अवॉर्ड सुडानी फ़्रॉम नाइजीरिया के नाम रहा। वहीं, बेस्ट फिल्म फ़्रॉम यूरोपियन कॉन्टिनेंट का अवॉर्ड, फिल्म दा रैडिकलाइजेशन ऑफ़ जैफ़ बोइड के नाम रहा।

डॉक्यूमेंट्री फ़ीचर फिल्म के लिए, गोल्डन कैमल कैटेगरी में बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड जर्मनी की फिल्म क्लाइमेट वॉरियर्स के नाम रहा। ग्रीन रोज कैटेगरी में ग्लोबल मैसेज देने वाली फिल्म का अवॉर्ड यू.एस.ए. की फिल्म पॉइन्ट ऑफ़ नो रिटर्न को मिला। यैलो रोज़ कैटेगरी में अपकमिंग फिल्म विद वर्ड प्रीमियर का अवॉर्ड अभिमन्यु कुकरेजा की फिल्म रॉक्यूमेंट्री – इवोल्यूशन ऑफ़ इंडियन रॉक को मिला।

इंटरनेशनल स्क्रीनप्ले कॉम्पिटिशन में, फस्ट टॉप स्क्रीनप्ले अवॉर्ड फिल्म ट्रॉमा को मिला। इसे शीला संधि और पूजा बलुटिया ने निर्देशित किया है। सैकण्ड टॉप स्क्रीनप्ले अवॉर्ड यू.एस. की फिल्म स्टोन कोल्ड क्रेज़ी मदर टकर को मिला, जिसे कैटरीना पावर्स ने लिखा है। थर्ड टॉप स्क्रीनप्ले अवॉर्ड मैक्सिको की फिल्म वूल्फ एण्ड दा मून को मिला, जिसे रिकार्डो गोमेज़ ने लिखा है।

बेस्ट वेब सीरीज़ का अवॉर्ड, अमित खन्ना की फिल्म ऑल अबाउट सैक ३७७ पायलट को मिला। बेस्ट मोबाइल फिल्म का अवॉर्ड ज्ञानेन्द्रिय शमाह की फिल्म थैय्यम-डाँस ऑफ़ गॉड्स के नाम रहा। बेस्ट सॉन्ग का अवॉर्ड साउथ अफ़्रीका की शशिका मूरूथ की फिल्म राफ्ता राफ्ता के नाम रहा। वहीं, बेस्ट म्यूज़िक वीडियो का अवॉर्ड यधु कृष्णन की फिल्म चॉइस को मिला। राजस्थान पत्रिका को बेस्ट मीडिया कवरेज अवॉर्ड के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।